विनय बिहारी सिंह
नए साल में भगवान करें आप सबको नित नई खुशियां मिलें। आपकी मनोकामनाएं पूरी हों और ईश्वर का आशीर्वाद आप सबके ऊपर सदा बरसता रहे। पिछले साल के कष्टों और दुखों को सदा के लिए भूल जाइए क्योंकि आने वाले दिन नई उम्मीद लेकर आ रहे हैं। नए साल के पहले दिन हम सब अलग अलग तरह से बिताना पसंद करते हैं। कुछ लोग किसी मंदिर में विधिवत पूजा करते हैं। कुछ लोग भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं। तो कुछ पूरे दिन ध्यान और भजन में बिताते हैं। संसार में पूरी तरह आसक्त लोग तो नाच- गाना और विशेष तरह का खाना पीना करते हैं। विशेष तरह का भोजन तो सभी लोग करते हैं। मान्यता है कि इस दिन आनंद से बिताने पर पूरा साल आनंद में बीतता है। सच्चाई क्या है- आप सभी जानते हैं। हम भगवान के जितने करीब रहेंगे, हमारा समय उतना ही आनंदमय बीतेगा। संसार के जितने करीब रहेंगे, हमारा समय उतना ही कष्टकर होगा। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम संसार के लोगों के साथ अच्छा आचरण न करें। संसार में हमें प्रेम, सद्भाव को पकड़े रहना है। लेकिन यह भी समझना है कि यह संसार हमारा नहीं है। भगवान का है। यहां हम कुछ दिनों के लिए आए हैं। नया साल हम चाहें या न चाहें- आएगा ही। नया साल जब आता है तो हमें चौकस कर जाता है। नया साल यह संदेश देता है कि- हम अपने भीतर झांकें। देखें कि पूरे साल में हमने क्या किया। क्या करना बाकी है। नए साल में क्या नए काम करने हैं। पिछले एक साल में मेरा कोई विकास हुआ या नहीं। वगैरह वगैरह। क्योंकि पहली जनवरी बीत जाने के बाद फिर वही रुटीन हो जाती है। दिन भी वैसे ही बीतने लगते हैं जैसे पिछले साल के थे। थोड़े बहुत फेरबदल होते हैं। लेकिन बाकी तो वही वही रहता है। इसलिए विधिवत योजना बने तो जीवन में विविधता आए। मेरी कामना है कि आप सब पिछले साल की तुलना में नए साल में अनेक बेहतर आयाम खोजें। जीवन और अधिक ईश्वरमय हो। आपकी और ज्यादा आध्यात्मिक उन्नति हो और आप सब सदा आनंद में रहें, सुखी रहें।
Saturday, December 31, 2011
Friday, December 30, 2011
प्रेम
विनय बिहारी सिंह
हम सभी गहरा प्रेम पाने को इच्छुक हैं। लेकिन वह मिल नहीं रहा है। परमहंस योगानंद जी ने कहा है कि इस दुनिया में प्रेम तो मिलेगा ही नहीं। क्योंकि असली प्रेम के स्रोत तो भगवान हैं। उन्हीं के यहां असली प्रेम का भंडार है। जब भंडार वहां है तो इस दुनिया में प्रेम कहां से मिलेगा? यह कितने आश्चर्य की बात है कि जहां प्रेम है वहां हम ढूंढ़ते नहीं हैं। और जहां नहीं है, वहां ढूंढते हैं। इस पर एक बहुत रोचक कथा है। एक आदमी की थाली खो गई थी। थाली कमरे में थी। बहुत खोजा नहीं मिली। तब वह सड़क पर आ गया और किनारे रखे घड़े में खोजने लगा। उसका परिचित एक आदमी वहां से गुजर रहा था। उसने कहा- क्या खोज रहे हो? जवाब मिला- मेरी थाली खो गई है। वही खोज रहा हूं। उस आदमी ने पूछा- थाली कहां रखी थी। उसने कहा- कमरे में। रास्ते से गुजर रहे आदमी ने हंसते हुए कहा- तो कमरे में ही जाकर खोजो। वहीं मिल जाएगी। और घड़े में थाली कहां से जाएगी? उस आदमी ने दुबारा कमरे में अपनी थाली खोजी। वह मिल गई। दरअसल उस आदमी ने थाली मांज कर अखबार से उसे ढंक दिया था। वह अपने भुलने की आदत पर हंसने लगा। थाली मिल गई थी। वह आनंद में था। इसी तरह हमारा आनंद भगवान के पास छुपा है। लेकिन हम उसे संसार में खोज रहे हैं। कभी प्रेमी या प्रेमिका में, तो कभी मां या पिता में, कभी पत्नी या पति में, कभी दोस्त- मित्रों में, कभी बेटे- बेटी या रिश्तेदारों में या कभी अनजान लोगों में। लेकिन प्रेम वहां हो तो मिलेगा। प्रेम का भंडार तो भगवान के पास है।
कल एक मित्र ने कहा- मुझे असली प्रेम भगवान शिव में मिलता है। वे सदा मुस्कराते रहते हैं। गहरे ध्यान में डूब कर उन्हें जो आनंद मिलता है शायद उसी से मुस्कराते होंगे। शिव जी का हाथ सदा आशीर्वाद की मुद्रा में रहता है।
मुझे उनकी बात सुन कर अच्छा लगा।
हम सभी गहरा प्रेम पाने को इच्छुक हैं। लेकिन वह मिल नहीं रहा है। परमहंस योगानंद जी ने कहा है कि इस दुनिया में प्रेम तो मिलेगा ही नहीं। क्योंकि असली प्रेम के स्रोत तो भगवान हैं। उन्हीं के यहां असली प्रेम का भंडार है। जब भंडार वहां है तो इस दुनिया में प्रेम कहां से मिलेगा? यह कितने आश्चर्य की बात है कि जहां प्रेम है वहां हम ढूंढ़ते नहीं हैं। और जहां नहीं है, वहां ढूंढते हैं। इस पर एक बहुत रोचक कथा है। एक आदमी की थाली खो गई थी। थाली कमरे में थी। बहुत खोजा नहीं मिली। तब वह सड़क पर आ गया और किनारे रखे घड़े में खोजने लगा। उसका परिचित एक आदमी वहां से गुजर रहा था। उसने कहा- क्या खोज रहे हो? जवाब मिला- मेरी थाली खो गई है। वही खोज रहा हूं। उस आदमी ने पूछा- थाली कहां रखी थी। उसने कहा- कमरे में। रास्ते से गुजर रहे आदमी ने हंसते हुए कहा- तो कमरे में ही जाकर खोजो। वहीं मिल जाएगी। और घड़े में थाली कहां से जाएगी? उस आदमी ने दुबारा कमरे में अपनी थाली खोजी। वह मिल गई। दरअसल उस आदमी ने थाली मांज कर अखबार से उसे ढंक दिया था। वह अपने भुलने की आदत पर हंसने लगा। थाली मिल गई थी। वह आनंद में था। इसी तरह हमारा आनंद भगवान के पास छुपा है। लेकिन हम उसे संसार में खोज रहे हैं। कभी प्रेमी या प्रेमिका में, तो कभी मां या पिता में, कभी पत्नी या पति में, कभी दोस्त- मित्रों में, कभी बेटे- बेटी या रिश्तेदारों में या कभी अनजान लोगों में। लेकिन प्रेम वहां हो तो मिलेगा। प्रेम का भंडार तो भगवान के पास है।
कल एक मित्र ने कहा- मुझे असली प्रेम भगवान शिव में मिलता है। वे सदा मुस्कराते रहते हैं। गहरे ध्यान में डूब कर उन्हें जो आनंद मिलता है शायद उसी से मुस्कराते होंगे। शिव जी का हाथ सदा आशीर्वाद की मुद्रा में रहता है।
मुझे उनकी बात सुन कर अच्छा लगा।
Thursday, December 29, 2011
किसी के बारे में तुरंत फैसला उचित नहीं
विनय बिहारी सिंह
ट्रेन के एक डिब्बे में पिता और युवा पुत्र आ कर बैठे। पुत्र बहुत खुश था। वह खिड़की वाली सीट पर बैठ गया। उसके सामने वाली सीट परबुजुर्ग दंपति बैठा था। ट्रेन चल पड़ी। युवा पुत्र खुश हो कर चिल्लाया- पापा, सारे पेड़- पौधे और दृश्य पीछे की ओर जा रहे हैं। सामने बैठे दंपति को अजीब लगा। यह लड़का जवान है और बच्चों जैसी बातें कर रहा है? लेकिन वे कुछ नहीं बोले। तभी बारिश होने लगी। युवा लड़का चिल्लाया- पापा, बारिश हो रही है। देखिए एक बूंद मेरे हाथ पर भी पड़ी। अब बुजुर्ग दंपति से रहा नहीं गया। सामने बैठा पुरुष बोला- आप इस लड़के का इलाज क्यों नहीं कराते। यह तो ऐसा व्यवहार कर रहा है जैसे ट्रेन में पहली बार चढ़ा हो या बारिश पहली बार देख रहा हो। युवा पुत्र के पिता ने कहा- हम अस्पताल से ही आ रहे हैं। दरअसल मेरे बेटा आज जीवन में पहली बार संसार को देख रहा है। आज से ही इसकी आंखें ठीक हुई हैं। इसके पहले यह नेत्रहीन था। इसे दान में दी गई आंख लगाई गई है। इसीलिए यह दुनिया को देख कर खुश है। बुजुर्ग दंपति ने उनसे कहा- माफ कीजिएगा। हमें यह नहीं मालूम था।
संदेश- किसी के बारे में जल्दी से कोई फैसला नहीं लेना चाहिए। खासतौर से अनजान व्यक्ति के बारे में।
ट्रेन के एक डिब्बे में पिता और युवा पुत्र आ कर बैठे। पुत्र बहुत खुश था। वह खिड़की वाली सीट पर बैठ गया। उसके सामने वाली सीट परबुजुर्ग दंपति बैठा था। ट्रेन चल पड़ी। युवा पुत्र खुश हो कर चिल्लाया- पापा, सारे पेड़- पौधे और दृश्य पीछे की ओर जा रहे हैं। सामने बैठे दंपति को अजीब लगा। यह लड़का जवान है और बच्चों जैसी बातें कर रहा है? लेकिन वे कुछ नहीं बोले। तभी बारिश होने लगी। युवा लड़का चिल्लाया- पापा, बारिश हो रही है। देखिए एक बूंद मेरे हाथ पर भी पड़ी। अब बुजुर्ग दंपति से रहा नहीं गया। सामने बैठा पुरुष बोला- आप इस लड़के का इलाज क्यों नहीं कराते। यह तो ऐसा व्यवहार कर रहा है जैसे ट्रेन में पहली बार चढ़ा हो या बारिश पहली बार देख रहा हो। युवा पुत्र के पिता ने कहा- हम अस्पताल से ही आ रहे हैं। दरअसल मेरे बेटा आज जीवन में पहली बार संसार को देख रहा है। आज से ही इसकी आंखें ठीक हुई हैं। इसके पहले यह नेत्रहीन था। इसे दान में दी गई आंख लगाई गई है। इसीलिए यह दुनिया को देख कर खुश है। बुजुर्ग दंपति ने उनसे कहा- माफ कीजिएगा। हमें यह नहीं मालूम था।
संदेश- किसी के बारे में जल्दी से कोई फैसला नहीं लेना चाहिए। खासतौर से अनजान व्यक्ति के बारे में।
Wednesday, December 28, 2011
श्वासों में हैं आप
विनय बिहारी सिंह
एक भक्त ने कहा है- प्रभु, मेरे श्वासों में तो आप ही हैं। आप ही मेरी श्वास हैं। आप जिस क्षण चाहें इसे बंद कर सकते हैं। एक दिन एक अन्य भक्त ने पूछा- श्वांस है तो जीवन है। मरने के बाद श्वांस की जरूरत है क्या? तो फेफड़ा कहां होता है सूक्ष्म शरीर में? इस पर एक संत ने उत्तर दिया- मरने के बाद आपका शरीर प्रकाश और चेतना का हो जाता है। इसे ही सूक्ष्म शरीर कहते हैं। इसमें श्वांस का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। आपकी चेतना श्वांस नहीं लेती। आपका शरीर श्वांस लेता है। अनेक यौगिक क्रियाएं हैं जिनमें सिद्ध हो जाने पर श्वांस की जरूरत नहीं पड़ती। जीवित अवस्था में ही मनुष्य उन क्रियाओं से कुछ देर के लिए या कुछ घंटों के लिए श्वांस रहित हो जाता है। उस समय प्रभु आपकी चेतना में रहेंगे तो फिर आपके आनंद की सीमा नहीं रहेगी। इसीलिए भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है- मरते समय मनुष्य जो कुछ भी सोचता है, अगले जन्म में वही बनता है। इसीलिए हे अर्जुन मनुष्य को चाहिए कि वह सदा ईश्वर की शरण में रहे। इस तरह वह मरते समय ईश्वर को स्मरण करता रहेगा। ईश्वर उसकी चेतना में मजबूती के साथ हमेशा के लिए बैठे रहेंगे। मरने के बाद वह ईश्वर के धाम चला जाएगा और उनके साथ आनंद मनाएगा। यदि उसे फिर से जन्म लेना पड़ेगा तो वह उच्च कोटि के योगियों के परिवार में जन्म लेगा। और पहले जन्म में अर्जित साधना से आगे बढ़ने लगेगा। गीता का यह संदेश हमें बहुत ताकत देता है। मनोबल देता है। ईश्वर भक्त इसीलिए प्रसन्न रहते हैं।
एक भक्त ने कहा है- प्रभु, मेरे श्वासों में तो आप ही हैं। आप ही मेरी श्वास हैं। आप जिस क्षण चाहें इसे बंद कर सकते हैं। एक दिन एक अन्य भक्त ने पूछा- श्वांस है तो जीवन है। मरने के बाद श्वांस की जरूरत है क्या? तो फेफड़ा कहां होता है सूक्ष्म शरीर में? इस पर एक संत ने उत्तर दिया- मरने के बाद आपका शरीर प्रकाश और चेतना का हो जाता है। इसे ही सूक्ष्म शरीर कहते हैं। इसमें श्वांस का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। आपकी चेतना श्वांस नहीं लेती। आपका शरीर श्वांस लेता है। अनेक यौगिक क्रियाएं हैं जिनमें सिद्ध हो जाने पर श्वांस की जरूरत नहीं पड़ती। जीवित अवस्था में ही मनुष्य उन क्रियाओं से कुछ देर के लिए या कुछ घंटों के लिए श्वांस रहित हो जाता है। उस समय प्रभु आपकी चेतना में रहेंगे तो फिर आपके आनंद की सीमा नहीं रहेगी। इसीलिए भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है- मरते समय मनुष्य जो कुछ भी सोचता है, अगले जन्म में वही बनता है। इसीलिए हे अर्जुन मनुष्य को चाहिए कि वह सदा ईश्वर की शरण में रहे। इस तरह वह मरते समय ईश्वर को स्मरण करता रहेगा। ईश्वर उसकी चेतना में मजबूती के साथ हमेशा के लिए बैठे रहेंगे। मरने के बाद वह ईश्वर के धाम चला जाएगा और उनके साथ आनंद मनाएगा। यदि उसे फिर से जन्म लेना पड़ेगा तो वह उच्च कोटि के योगियों के परिवार में जन्म लेगा। और पहले जन्म में अर्जित साधना से आगे बढ़ने लगेगा। गीता का यह संदेश हमें बहुत ताकत देता है। मनोबल देता है। ईश्वर भक्त इसीलिए प्रसन्न रहते हैं।
Tuesday, December 27, 2011
घड़ी मिलने का राज
विनय बिहारी सिंह
मेरे एक मित्र ने बहुत अच्छा ई मेल भेजा है। सोचा आपको भी बता दूं। उन्होंने एक मोरल स्टोरी भेजी है। एक आदमी की घड़ी खो गई। वह आलमारी में थी। उसने बहुत खोजा- नहीं मिली। उस घड़ी से उसका भावनात्मक लगाव था। उसे अचानक एक उपाय सूझा। उसने सामने मैदान में खेल रहे बच्चों को बुलाया और आलमारी से अपनी घड़ी खोने की बात बताई। उसने कहा- तुममें से जो कोई मेरी घड़ी खोज देगा, मैं उसे ईनाम दूंगा। बच्चों के लिए यह एक खेल की तरह था। वे आलमारी में घड़ी खोजने में जुट गए। बच्चों ने खूब खोजा। लेकिन घड़ी नहीं मिली। तभी एक बच्चा बोला- मैं आपकी घड़ी एक बार औऱ खोजना चाहता हूं। मुझे मौका दीजिए। वह आदमी खुश हुआ। बोला- जरूर। तुम मेरी तरह बहुत आशावादी हो, जरूर खोजो। थोड़ी देर बाद बच्चा घड़ी लेकर आया। वह आदमी घड़ी पाकर बहुत खुश हुआ। एक बहुत अच्छा ईनाम देने से पहले उसने बच्चे से पूछा- तुमने घड़ी खोजी कैसे? बच्चा बोला- मैंने आपकी आलमारी खोली और चुपचाप फर्श पर बैठ गया। मैंने दिमाग को बहुत शांत किया और घड़ी की टिक टिक की आवाज सुनने की कोशिश की। थोड़ी ही देर बाद यह टिक टिक मुझे सुनाई पड़ने लगी। मैंने टिक टिक की आवाज की तरफ देखा। यह घड़ी दरअसल आलमारी में बिछे पेपर के नीचे थी। मैं इसकी टिक टिक के कारण इसे पा गया। ई मेल भेजने वाले मेरे मित्र ने लिखा है- इस घटना से यह सीख मिलती है कि दिमाग शांत हो तो बड़ी से बड़ी समस्या हल कर सकता है।
मेरे एक मित्र ने बहुत अच्छा ई मेल भेजा है। सोचा आपको भी बता दूं। उन्होंने एक मोरल स्टोरी भेजी है। एक आदमी की घड़ी खो गई। वह आलमारी में थी। उसने बहुत खोजा- नहीं मिली। उस घड़ी से उसका भावनात्मक लगाव था। उसे अचानक एक उपाय सूझा। उसने सामने मैदान में खेल रहे बच्चों को बुलाया और आलमारी से अपनी घड़ी खोने की बात बताई। उसने कहा- तुममें से जो कोई मेरी घड़ी खोज देगा, मैं उसे ईनाम दूंगा। बच्चों के लिए यह एक खेल की तरह था। वे आलमारी में घड़ी खोजने में जुट गए। बच्चों ने खूब खोजा। लेकिन घड़ी नहीं मिली। तभी एक बच्चा बोला- मैं आपकी घड़ी एक बार औऱ खोजना चाहता हूं। मुझे मौका दीजिए। वह आदमी खुश हुआ। बोला- जरूर। तुम मेरी तरह बहुत आशावादी हो, जरूर खोजो। थोड़ी देर बाद बच्चा घड़ी लेकर आया। वह आदमी घड़ी पाकर बहुत खुश हुआ। एक बहुत अच्छा ईनाम देने से पहले उसने बच्चे से पूछा- तुमने घड़ी खोजी कैसे? बच्चा बोला- मैंने आपकी आलमारी खोली और चुपचाप फर्श पर बैठ गया। मैंने दिमाग को बहुत शांत किया और घड़ी की टिक टिक की आवाज सुनने की कोशिश की। थोड़ी ही देर बाद यह टिक टिक मुझे सुनाई पड़ने लगी। मैंने टिक टिक की आवाज की तरफ देखा। यह घड़ी दरअसल आलमारी में बिछे पेपर के नीचे थी। मैं इसकी टिक टिक के कारण इसे पा गया। ई मेल भेजने वाले मेरे मित्र ने लिखा है- इस घटना से यह सीख मिलती है कि दिमाग शांत हो तो बड़ी से बड़ी समस्या हल कर सकता है।
Monday, December 26, 2011
जीसस क्राइस्ट पर केंद्रित अद्भुत फिल्म
विनय बिहारी सिंह
कल क्रिसमस के मौके पर मैंने उनके जीवन पर केंद्रित एक अद्भुत फिल्म देखी। कल खूब मजे से क्रिसमस मनाने वालों के साथ रहा और इंज्वाय किया। मैं हिंदू हूं लेकिन मुझे जीसस क्राइस्ट भारतीय संत की तरह ही लगते हैं। इसलिए उनके बारे में पढ़ना और जानना अच्छा लगता है। वैसे भी भारतीय परंपरा है- सर्व धर्म समभाव। इस फिल्म के निर्देशक या निर्माता का नाम मुझे याद नहीं रह पाया। नाम मुझे बड़े कठिन लगे। फिल्म का नाम था- द लाइफ आफ जीसस क्राइस्ट। इसमें मदर मेरी के रूप में जो लड़की थी उसने अद्भुत काम किया है। उसके चेहरे की पवित्रता , ईश्वर के साथ उसका वार्तालाप उसके मूवमेंट मुग्धकारी थे। एक दृश्य में वह रात को सोई है। अचानक उसके चेहरे पर एक तेज प्रकाश पड़ता है। वह धीरे- धीरे जागती है और उठ कर देखती है कि यह प्रकाश उसके घर की खिड़की से आ रहा है। रात तो घनघोर अंधेरी है। उस प्रकाश से मदर मेरी पूछती है- हू आर यू? फिर धीरे- धीरे वह समझ जाती है- ये तो ईश्वर हैं। वह दृश्य अद्भुत है। वह संक्षेप में ही बोल कर उनसे बातें करती है। उस घर की बुजुर्ग महिला यह दृश्य देख रही है। मदर मेरी बताती है कि उसके पेट में एक दिव्य बच्चा आने वाला है। जबकि पति से उसका कोई संपर्क नहीं हुआ है। यह ईश्वरीय बच्चा है। बुजुर्ग महिला कहती है- आई बिलीव यू माई चाइल्ड, आई बिलीव यू।
फिर फिल्म आगे बढ़ती जाती है। एक दृश्य में जान द बैपटिस्ट आते हैं। उनकी अद्भुत बातें। वे ईश्वर का संदेश सुनाते हैं। शांति और प्रेम का महत्व बताते हैं। पता नहीं यह फिल्म बाजार में उपलब्ध है या नहीं। इसे मैंने व्यक्तिगत रूप से एक भक्त के यहां देखा।
कल क्रिसमस के मौके पर मैंने उनके जीवन पर केंद्रित एक अद्भुत फिल्म देखी। कल खूब मजे से क्रिसमस मनाने वालों के साथ रहा और इंज्वाय किया। मैं हिंदू हूं लेकिन मुझे जीसस क्राइस्ट भारतीय संत की तरह ही लगते हैं। इसलिए उनके बारे में पढ़ना और जानना अच्छा लगता है। वैसे भी भारतीय परंपरा है- सर्व धर्म समभाव। इस फिल्म के निर्देशक या निर्माता का नाम मुझे याद नहीं रह पाया। नाम मुझे बड़े कठिन लगे। फिल्म का नाम था- द लाइफ आफ जीसस क्राइस्ट। इसमें मदर मेरी के रूप में जो लड़की थी उसने अद्भुत काम किया है। उसके चेहरे की पवित्रता , ईश्वर के साथ उसका वार्तालाप उसके मूवमेंट मुग्धकारी थे। एक दृश्य में वह रात को सोई है। अचानक उसके चेहरे पर एक तेज प्रकाश पड़ता है। वह धीरे- धीरे जागती है और उठ कर देखती है कि यह प्रकाश उसके घर की खिड़की से आ रहा है। रात तो घनघोर अंधेरी है। उस प्रकाश से मदर मेरी पूछती है- हू आर यू? फिर धीरे- धीरे वह समझ जाती है- ये तो ईश्वर हैं। वह दृश्य अद्भुत है। वह संक्षेप में ही बोल कर उनसे बातें करती है। उस घर की बुजुर्ग महिला यह दृश्य देख रही है। मदर मेरी बताती है कि उसके पेट में एक दिव्य बच्चा आने वाला है। जबकि पति से उसका कोई संपर्क नहीं हुआ है। यह ईश्वरीय बच्चा है। बुजुर्ग महिला कहती है- आई बिलीव यू माई चाइल्ड, आई बिलीव यू।
फिर फिल्म आगे बढ़ती जाती है। एक दृश्य में जान द बैपटिस्ट आते हैं। उनकी अद्भुत बातें। वे ईश्वर का संदेश सुनाते हैं। शांति और प्रेम का महत्व बताते हैं। पता नहीं यह फिल्म बाजार में उपलब्ध है या नहीं। इसे मैंने व्यक्तिगत रूप से एक भक्त के यहां देखा।
Friday, December 23, 2011
जो भगवान के बारे में न सुनना चाहें
विनय बिहारी सिंह
भगवत् गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- जो मेरे बारे में या गीता में कहे गए मेरे वचनों को न सुनना चाहे, उससे इसके बारे में बिल्कुल मत कहना। सिर्फ उसी से कहना जो मेरे प्रति श्रद्धा और गहरी भक्ति से युक्त हो। इसीलिए जो ईश्वर की चर्चा को बोर करने वाला मानते हैं, या जो भगवत् चर्चा को समय की बरबादी कहते हैं, उनसे इसकी भूल कर भी चर्चा नहीं करनी चाहिए। जिसने यह संसार बनाया है, जो हमारा सर्वस्व है- उसकी चर्चा न करें तो किसकी करें? हम एक एक सांस भगवान की कृपा से ही ले रहे हैं। आपको पीड़ित लोगों को देखना है तो किसी अस्पताल में चले जाइए। देखिए वहां कैसे लोग तड़प रहे हैं। तब पता चलेगा कि मनुष्य शरीर सिर्फ खाने, पीने और मौज उड़ाने के लिए ही नहीं मिला है। इसका मुख्य उद्देश्य है कि मनुष्य भगवान से प्रेम करना सीखे। उनसे करीबी बनाए। त्वमेव माता, च पिता त्वमेव.....। ..... त्वमेव सर्वं मम देव देव। हे प्रभु, तुम्हीं सब कुछ हो। मेरा मन, मेरा शरीर और मेरी आत्मा सब कुछ तुम्हारी है। इसे ले लो। इस भाव से जो रहता है वह बीमार भी हो जाए तो मस्ती में ही रहता है, आनंद में ही रहता है। लेकिन जिसके लिए शरीर ही सब कुछ है, वह शरीर कष्ट भोगता रहता है।
भगवत् गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- जो मेरे बारे में या गीता में कहे गए मेरे वचनों को न सुनना चाहे, उससे इसके बारे में बिल्कुल मत कहना। सिर्फ उसी से कहना जो मेरे प्रति श्रद्धा और गहरी भक्ति से युक्त हो। इसीलिए जो ईश्वर की चर्चा को बोर करने वाला मानते हैं, या जो भगवत् चर्चा को समय की बरबादी कहते हैं, उनसे इसकी भूल कर भी चर्चा नहीं करनी चाहिए। जिसने यह संसार बनाया है, जो हमारा सर्वस्व है- उसकी चर्चा न करें तो किसकी करें? हम एक एक सांस भगवान की कृपा से ही ले रहे हैं। आपको पीड़ित लोगों को देखना है तो किसी अस्पताल में चले जाइए। देखिए वहां कैसे लोग तड़प रहे हैं। तब पता चलेगा कि मनुष्य शरीर सिर्फ खाने, पीने और मौज उड़ाने के लिए ही नहीं मिला है। इसका मुख्य उद्देश्य है कि मनुष्य भगवान से प्रेम करना सीखे। उनसे करीबी बनाए। त्वमेव माता, च पिता त्वमेव.....। ..... त्वमेव सर्वं मम देव देव। हे प्रभु, तुम्हीं सब कुछ हो। मेरा मन, मेरा शरीर और मेरी आत्मा सब कुछ तुम्हारी है। इसे ले लो। इस भाव से जो रहता है वह बीमार भी हो जाए तो मस्ती में ही रहता है, आनंद में ही रहता है। लेकिन जिसके लिए शरीर ही सब कुछ है, वह शरीर कष्ट भोगता रहता है।
Wednesday, December 21, 2011
समुद्र की तरह की स्थिरता
विनय बिहारी सिंह
भगवत गीता के अध्याय दो में भगवान ने कहा है- जैसे समुद्र में बहुत सी नदियां मिलती हैं तो भी समुद्र अचल रहता है, ठीक उसी तरह धीर पुरुष भी सांसारिक परिस्थितियों में अचल रहता है। चाहे हिला देने वाली स्थिति ही क्यों नहीं आए। चाहे कितनी भी बड़ी समस्या ही क्यों न आ जाए वह व्यक्ति तनाव में नहीं आता। यह संसार भगवान का है। इस दुनिया में हमारे आने से पहले भी यह दुनिया थी और मरने के बाद भी रहेगी। सांसारिक नाटक चलते रहेंगे। धीर पुरुष, समझदार पुरुष, जानते हैं कि ईश्वर ही सत्य हैं। बाकी सब अनित्य है। जो अनित्य है उसका साथ क्यों दिया जाए? परमहंस योगानंद जी ने कहा है कि न जाने कितने लोगों ने एक दूसरे को कहा होगा- मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं। उन्होंने एक दूसरे के लिए बड़े- बड़े वादे किए। लेकिन आज वे कहां हैं? वे वादे कहां गए। वह प्यार कहां है? एक ही प्यार स्थाई है। वह है भगवान का प्यार। वह इस जीवन में तो साथ रहेगा ही, मरने के बाद भी रहेगा। क्योंकि भगवान तो शास्वत हैं। वे सदा थे, हैं और रहेंगे। हमारी आत्मा उनका अंश है, इसलिए हम भी उनके अंश हैं- ईश्वर अंश जीव अविनाशी।। इसलिए ईश्वर की तरफ हमारा आकर्षण स्वाभाविक है। हम अपने उत्स की तरफ आकर्षित होते हैं। भगवान की तरफ आकर्षित होते हैं तो इसीलिए आनंद मिलता है। यह सोच कर कितना अच्छा लगता है कि ईश्वर ही हमारे स्रोत हैं।
भगवत गीता के अध्याय दो में भगवान ने कहा है- जैसे समुद्र में बहुत सी नदियां मिलती हैं तो भी समुद्र अचल रहता है, ठीक उसी तरह धीर पुरुष भी सांसारिक परिस्थितियों में अचल रहता है। चाहे हिला देने वाली स्थिति ही क्यों नहीं आए। चाहे कितनी भी बड़ी समस्या ही क्यों न आ जाए वह व्यक्ति तनाव में नहीं आता। यह संसार भगवान का है। इस दुनिया में हमारे आने से पहले भी यह दुनिया थी और मरने के बाद भी रहेगी। सांसारिक नाटक चलते रहेंगे। धीर पुरुष, समझदार पुरुष, जानते हैं कि ईश्वर ही सत्य हैं। बाकी सब अनित्य है। जो अनित्य है उसका साथ क्यों दिया जाए? परमहंस योगानंद जी ने कहा है कि न जाने कितने लोगों ने एक दूसरे को कहा होगा- मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं। उन्होंने एक दूसरे के लिए बड़े- बड़े वादे किए। लेकिन आज वे कहां हैं? वे वादे कहां गए। वह प्यार कहां है? एक ही प्यार स्थाई है। वह है भगवान का प्यार। वह इस जीवन में तो साथ रहेगा ही, मरने के बाद भी रहेगा। क्योंकि भगवान तो शास्वत हैं। वे सदा थे, हैं और रहेंगे। हमारी आत्मा उनका अंश है, इसलिए हम भी उनके अंश हैं- ईश्वर अंश जीव अविनाशी।। इसलिए ईश्वर की तरफ हमारा आकर्षण स्वाभाविक है। हम अपने उत्स की तरफ आकर्षित होते हैं। भगवान की तरफ आकर्षित होते हैं तो इसीलिए आनंद मिलता है। यह सोच कर कितना अच्छा लगता है कि ईश्वर ही हमारे स्रोत हैं।
Tuesday, December 20, 2011
न जन्म न मृत्यु न जाति
विनय बिहारी सिंह
आदि शंकराचार्य ने एक भजन लिखा है, जिसे परमहंस योगानंद जी ने अपनी पुस्तक- कास्मिक चैंट्स में शामिल किया है। भजन है- न जन्म, न मृत्यु, न जाति कोई मेरी। पिता न कोई माता मेरी। शिवो अहम्, शिवो अहम्.......। आप जितनी बार यह भजन पढ़ेंगे, मुग्ध हो जाएंगे। ऐसे लोग कम नहीं हैं जो स्वयं को शरीर के अलावा कुछ नहीं मानते। उनके लिए शरीर की आवश्यकताएं ही अनंत होती हैं। शरीर के लिए यह चाहिए, वह चाहिए.....यानी हजार- हजार जरूरतें। इनके पूरा होने पर भी शरीर और मांगता है। इंद्रियां और मांगती हैं। इंद्रियां ऐसी अग्रि हैं जहां सब कुछ भस्म होता जाता है और आप उसमें जितना डालते जाते हैं, उससे ज्यादा की मांग होती रहती है। इसीलिए आदि शंकराचार्य ने कहा है- मन न बुद्धि, अहं न चित्त, नभ न भू न धातु हूं मैं। शिवो अहम, शिवो अहम...। भगवत् गीता में भी भगवान ने कहा है- यह आत्मा अछेद्य है, अदाह्य है....। इसे न तो शस्त्र से काटा जा सकता है और न आग से जलाया जा सकता है। इसे न जल से गीला किया जा सकता है और न वायु से शुष्क किया जा सकता है। यह तो अचिंत्य है। यानी जिसके बारे में आप सोच भी नहीं सकते। यानी यह मनुष्य के दिमाग के बाहर की बात है। लेकिन वह व्यक्ति इस आत्मा को जान सकता है जिसने पूर्ण हृदय से खुद को सरेंडर कर दिया है, जिसने खुद को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर दिया है। भगवान ने प्रतिग्या की है कि वे अपने भक्तों का उद्धार करेंगे। यह उनकी प्रतिग्या है। इसमें अब शक की कोई गुंजाइश ही नहीं है। स्वयं भगवान की प्रतिग्या है यह। आप गीता पढ़ें। आपको भगवान की प्रतिग्या मिल जाएगी। तब भी अगर कोई शक करता है, संदेह करता है तो उसे क्या कहेंगे?
आदि शंकराचार्य ने एक भजन लिखा है, जिसे परमहंस योगानंद जी ने अपनी पुस्तक- कास्मिक चैंट्स में शामिल किया है। भजन है- न जन्म, न मृत्यु, न जाति कोई मेरी। पिता न कोई माता मेरी। शिवो अहम्, शिवो अहम्.......। आप जितनी बार यह भजन पढ़ेंगे, मुग्ध हो जाएंगे। ऐसे लोग कम नहीं हैं जो स्वयं को शरीर के अलावा कुछ नहीं मानते। उनके लिए शरीर की आवश्यकताएं ही अनंत होती हैं। शरीर के लिए यह चाहिए, वह चाहिए.....यानी हजार- हजार जरूरतें। इनके पूरा होने पर भी शरीर और मांगता है। इंद्रियां और मांगती हैं। इंद्रियां ऐसी अग्रि हैं जहां सब कुछ भस्म होता जाता है और आप उसमें जितना डालते जाते हैं, उससे ज्यादा की मांग होती रहती है। इसीलिए आदि शंकराचार्य ने कहा है- मन न बुद्धि, अहं न चित्त, नभ न भू न धातु हूं मैं। शिवो अहम, शिवो अहम...। भगवत् गीता में भी भगवान ने कहा है- यह आत्मा अछेद्य है, अदाह्य है....। इसे न तो शस्त्र से काटा जा सकता है और न आग से जलाया जा सकता है। इसे न जल से गीला किया जा सकता है और न वायु से शुष्क किया जा सकता है। यह तो अचिंत्य है। यानी जिसके बारे में आप सोच भी नहीं सकते। यानी यह मनुष्य के दिमाग के बाहर की बात है। लेकिन वह व्यक्ति इस आत्मा को जान सकता है जिसने पूर्ण हृदय से खुद को सरेंडर कर दिया है, जिसने खुद को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर दिया है। भगवान ने प्रतिग्या की है कि वे अपने भक्तों का उद्धार करेंगे। यह उनकी प्रतिग्या है। इसमें अब शक की कोई गुंजाइश ही नहीं है। स्वयं भगवान की प्रतिग्या है यह। आप गीता पढ़ें। आपको भगवान की प्रतिग्या मिल जाएगी। तब भी अगर कोई शक करता है, संदेह करता है तो उसे क्या कहेंगे?
Monday, December 19, 2011
ज्योतिषी की डिग्री मिली
विनय बिहारी सिंह
बार- बार मन कह रहा है कि मैं ज्योतिष को पेशा न बनाऊं। यह सोच कर मैं खुश हूं कि मैं इस पेशे में नहीं हूं। पता नहीं क्यों। ज्योतिष का खूब- खूब अध्ययन करनेऔर बाकायदा डिग्री मिलने के बाद यह फैसला मन को राहत देने वाला है। इसलिए नहीं कि मैं ज्योतिष को कम करके आंकता हूं। अगर कम करके आंकता तो इसका गहरा अध्ययन नहीं करता। मेरी इस पेशे में पूरी श्रद्धा है। यह वैग्यानिक है। लेकिन अपने मन को मैं समझा नहीं पा रहा हूं। इसलिए ज्योतिष को पेशा न बनाने का फैसला किया।
कल रविवार को मुझे ज्योतिष की डिग्री मिली। कृष्णमूर्ति पद्धति की नक्षत्र ज्योतिष का मैं उत्सुक छात्र रहा हूं। इसे संक्षेप में केपी एस्ट्रोलॉजी कहते हैं। प्रोफेसर केएस कृष्णमूर्ति (जन्म १९०२, निधन- १९७८) इसके अविष्कारक थे। मेरी डिग्री उन्हीं के द्वारा स्थापित संस्थान से मिली है। डिग्री पर श्रद्धेय कृष्णमूर्ति के पुत्र के हरिहरन के हस्ताक्षर हैं। डिग्री पा कर अच्छा लगा। उसे खूब जतन से रखा है। डिग्री देने के बाद मेरे प्रोफेसर ने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और कहा- बेस्ट आफ लक। अब आप प्रेक्टिस शुरू करें। मेरी शुभकामनाएं आप सबके साथ हैं। उनकी बातें सुन कर मैं क्षण भर के लिए भावुक हो गया। अचानक जैसे अंदर कुछ कौंधा। मैं सावधान हो गया। इस तरह की अनावश्यक भावुकता मनुष्य के लिए घातक है। जो शुरू होता है, वह खत्म होता ही है। इसमें भावुकता कैसी? मुझे यह अच्छा नहीं लगा कि मैं भावुक हो गया। यदि भावनाओं पर नियंत्रण नहीं है तो आप संतुलित व्यक्ति नहीं हैं। कल से मैं अब ज्यादा ही सावधान हो गया हूं। अपनी भावनाओं के प्रति। संतुलित भावना हो तो ठीक है। इस उम्र में आ कर भावुकता को न छोड़ना अच्छा नहीं है। मेरे प्रोफेसर का फोन नंबर मेरे पास है। मैं उनसे बातचीत कर ही सकता हूं। सिर्फ उनके यह कहने पर कि- अच्छा, नमस्कार। अब हम इस तरह क्लास में नहीं मिलेंगे। पर हम एक दूसरे को याद रखेंगे। गुड बाय। मेरी भावनाएं क्यों प्रभावित हो गईं? अब नियंत्रण का दौर शुरू हो गया है। जो है उसे जस का तस स्वीकार करना चाहिए। यही सृष्टि का नियम है। जहां तहां भावनात्मक लगाव हमारे लिए बाधा की तरह है। भावनात्मक परिस्थितियों का विवेक के साथ सामना करना होता है। मैंने फैसला किया है कि मैं ऐसा ही करूंगा।
बार- बार मन कह रहा है कि मैं ज्योतिष को पेशा न बनाऊं। यह सोच कर मैं खुश हूं कि मैं इस पेशे में नहीं हूं। पता नहीं क्यों। ज्योतिष का खूब- खूब अध्ययन करनेऔर बाकायदा डिग्री मिलने के बाद यह फैसला मन को राहत देने वाला है। इसलिए नहीं कि मैं ज्योतिष को कम करके आंकता हूं। अगर कम करके आंकता तो इसका गहरा अध्ययन नहीं करता। मेरी इस पेशे में पूरी श्रद्धा है। यह वैग्यानिक है। लेकिन अपने मन को मैं समझा नहीं पा रहा हूं। इसलिए ज्योतिष को पेशा न बनाने का फैसला किया।
कल रविवार को मुझे ज्योतिष की डिग्री मिली। कृष्णमूर्ति पद्धति की नक्षत्र ज्योतिष का मैं उत्सुक छात्र रहा हूं। इसे संक्षेप में केपी एस्ट्रोलॉजी कहते हैं। प्रोफेसर केएस कृष्णमूर्ति (जन्म १९०२, निधन- १९७८) इसके अविष्कारक थे। मेरी डिग्री उन्हीं के द्वारा स्थापित संस्थान से मिली है। डिग्री पर श्रद्धेय कृष्णमूर्ति के पुत्र के हरिहरन के हस्ताक्षर हैं। डिग्री पा कर अच्छा लगा। उसे खूब जतन से रखा है। डिग्री देने के बाद मेरे प्रोफेसर ने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और कहा- बेस्ट आफ लक। अब आप प्रेक्टिस शुरू करें। मेरी शुभकामनाएं आप सबके साथ हैं। उनकी बातें सुन कर मैं क्षण भर के लिए भावुक हो गया। अचानक जैसे अंदर कुछ कौंधा। मैं सावधान हो गया। इस तरह की अनावश्यक भावुकता मनुष्य के लिए घातक है। जो शुरू होता है, वह खत्म होता ही है। इसमें भावुकता कैसी? मुझे यह अच्छा नहीं लगा कि मैं भावुक हो गया। यदि भावनाओं पर नियंत्रण नहीं है तो आप संतुलित व्यक्ति नहीं हैं। कल से मैं अब ज्यादा ही सावधान हो गया हूं। अपनी भावनाओं के प्रति। संतुलित भावना हो तो ठीक है। इस उम्र में आ कर भावुकता को न छोड़ना अच्छा नहीं है। मेरे प्रोफेसर का फोन नंबर मेरे पास है। मैं उनसे बातचीत कर ही सकता हूं। सिर्फ उनके यह कहने पर कि- अच्छा, नमस्कार। अब हम इस तरह क्लास में नहीं मिलेंगे। पर हम एक दूसरे को याद रखेंगे। गुड बाय। मेरी भावनाएं क्यों प्रभावित हो गईं? अब नियंत्रण का दौर शुरू हो गया है। जो है उसे जस का तस स्वीकार करना चाहिए। यही सृष्टि का नियम है। जहां तहां भावनात्मक लगाव हमारे लिए बाधा की तरह है। भावनात्मक परिस्थितियों का विवेक के साथ सामना करना होता है। मैंने फैसला किया है कि मैं ऐसा ही करूंगा।
Saturday, December 17, 2011
तीन बार शांति पाठ
विनय बिहारी सिंह
किसी भी धार्मिक- आध्यात्मिक अनुष्ठान को शुरू करने से पहले हम सब ऊं शांतिः, शांतिः, शांतिः का पाठ करते हैं। यह सिद्ध तथ्य है कि भगवान मन शांत हुए बिना नहीं महसूस हो सकते। शांति ही आनंद को बुलाने का रास्ता साफ करती है। इसीलिए शांति पाठ होता है। एक संत का कहना है- मन शांत करना भी एक कला है। जिनका मन अशांत रहता है, उनकी सांस तेज- तेज चलती है। रमण महर्षि कहते थे- यह सांस ही आपको सांसारिक बनाती है और यही आपको ईश्वर से जोड़ती है। मन चंचल होगा तो सांस भी अपेक्षाकृत तेज चलेगी। मन शांत होगा तो सांस भी बिल्कुल शांति से चलेगी। शांत रहने का दूसरा उपाय इस संत ने बताया- गहरी आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़िए। ऐसी पुस्तकें पढ़ने से मन एकाग्रचित्त होता है और ईश्वर की तरफ अपने आप खिंच जाता है। उनसे पूछा गया- और कोई उपाय? उन्होंने कहा- हां, एक और उपाय है। खूब एकाग्र हो कर ईश्वर के किसी नाम का जाप कीजिए। जैसे- राम, राम, राम। या राधे, राधे, राधे। या ऊं नमः शिवाय। इससे मन एकाग्र होता जाता है। लेकिन शर्त यह है कि जाप करते वक्त मन में भक्तिभाव हो। तोते की तरह भगवान का नाम दुहराने से मन शांत हो ही नहीं सकता। जाप हृदय से होना चाहिए। उन्होंने अंतिम उपाय बताया तभी एक व्यक्ति पूछ बैठा- और कोई उपाय नहीं है? यह प्रश्न सुन कर सभी हंस पड़े। उस संत ने फिर कहा- भाई, ईश्वर ही सारी चीजों से मुख्य स्रोत हैं। उनसे चाहे जैसे जुड़ेंगे, शांति मिलेगी। यही है उपाय। इस बात को आप चाहे जितनी तरह कहें। बात तो वही रहेगी।
किसी भी धार्मिक- आध्यात्मिक अनुष्ठान को शुरू करने से पहले हम सब ऊं शांतिः, शांतिः, शांतिः का पाठ करते हैं। यह सिद्ध तथ्य है कि भगवान मन शांत हुए बिना नहीं महसूस हो सकते। शांति ही आनंद को बुलाने का रास्ता साफ करती है। इसीलिए शांति पाठ होता है। एक संत का कहना है- मन शांत करना भी एक कला है। जिनका मन अशांत रहता है, उनकी सांस तेज- तेज चलती है। रमण महर्षि कहते थे- यह सांस ही आपको सांसारिक बनाती है और यही आपको ईश्वर से जोड़ती है। मन चंचल होगा तो सांस भी अपेक्षाकृत तेज चलेगी। मन शांत होगा तो सांस भी बिल्कुल शांति से चलेगी। शांत रहने का दूसरा उपाय इस संत ने बताया- गहरी आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़िए। ऐसी पुस्तकें पढ़ने से मन एकाग्रचित्त होता है और ईश्वर की तरफ अपने आप खिंच जाता है। उनसे पूछा गया- और कोई उपाय? उन्होंने कहा- हां, एक और उपाय है। खूब एकाग्र हो कर ईश्वर के किसी नाम का जाप कीजिए। जैसे- राम, राम, राम। या राधे, राधे, राधे। या ऊं नमः शिवाय। इससे मन एकाग्र होता जाता है। लेकिन शर्त यह है कि जाप करते वक्त मन में भक्तिभाव हो। तोते की तरह भगवान का नाम दुहराने से मन शांत हो ही नहीं सकता। जाप हृदय से होना चाहिए। उन्होंने अंतिम उपाय बताया तभी एक व्यक्ति पूछ बैठा- और कोई उपाय नहीं है? यह प्रश्न सुन कर सभी हंस पड़े। उस संत ने फिर कहा- भाई, ईश्वर ही सारी चीजों से मुख्य स्रोत हैं। उनसे चाहे जैसे जुड़ेंगे, शांति मिलेगी। यही है उपाय। इस बात को आप चाहे जितनी तरह कहें। बात तो वही रहेगी।
Friday, December 16, 2011
सत्संग या ईश्वर के साथ संग
विनय बिहारी सिंह
रमण महर्षि ने कहा है- सत्संग करना चाहिए। सत्संग यानी सत के साथ संग। सत क्या है? ईश्वर ही सत हैं। उनके साथ संग एकांत में शांति से होता है। मन शांत और एकाग्र हो। बिखरे हुए मन से ईश्वर के साथ संपर्क नहीं किया जा सकता। कुछ लोग पूजा- पाठ के समय भी प्रपंच सोचते रहते हैं। जिस समय भगवान से संपर्क करने के लिए हम बैठते हैं, उस समय यह संसार खत्म हो जाना चाहिए। वैसे भी भगवत् गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- हे अर्जुन, दुखों के इस संसार से बाहर निकलो। यानी इस संसार से सुख की आशा करना व्यर्थ है। भगवान से ही सुख की आशा की जानी चाहिए। भगवान यानी सुख। कैसा सुख? ईश्वरीय सुख। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- इस दुनिया की कोई भी भौतिक वस्तु आपको सुख नहीं दे सकती। किसी व्यक्ति से आपको सुख नहीं मिल सकता। यह संसार ही माया है। सिर्फ और सिर्फ भगवान से ही सुख मिल सकता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हमें जो सुख नहीं दे सकता उससे प्रेम नहीं करना चाहिए। अवश्य करना चाहिए क्योंकि हर व्यक्ति में भगवान हैं। लेकिन सुख तो केवल भगवान से ही मिल सकता है।
रमण महर्षि का कहना है कि ईश्वर ही सबकुछ हैं। उनसे संपर्क कीजिए। सदा उनसे जुड़े रहिए। आपका कल्याण होगा। एक बार किसी व्यक्ति ने रमण महर्षि से कहा कि आप लोगों के बीच प्रवचन क्यों नहीं देते। मौन रह कर आप कैसे लोगों तक संदेश पहुंचाएंगे। रमण महर्षि ने कहा- मौन, वक्तव्य से ज्यादा शक्तिशाली है। आप मौन रह कर लोगों तक संदेश पहुंचाइए। वह ज्यादा कारगर होगा। सभी बोलने को आतुर हैं। जबकि मौन रह कर ईश्वर से संपर्क अनंत सुखदायी है।
Wednesday, December 14, 2011
घृणा करने के नुकसान
विनय बिहारी सिंह
दुनिया की सभी धार्मिक पुस्तकों में उल्लेख है- किसी से घृणा न करें। क्यों? घृणा करने से हमारे भीतर जो रसायन बनते हैं, उसका हमारे शरीर, मन पर बहुत खराब असर पड़ता है। हमारा तंत्रिका तंत्र या नर्वस सिस्टम दूषित हो जाता है। हम जिससे घृणा करते हैं उसका नुकसान नहीं होता, सबसे पहले हमारा ही नुकसान होता है। दूसरा नुकसान यह है कि घृणा से घृणा का जन्म होता है और प्रेम से प्रेम का। घृणा नकारात्मक भाव है। ठीक जैसे क्रोध, ईर्ष्या और द्वेष से हमारा नुकसान होता है। हमारा मन दूषित होता है, शरीर दूषित होता है। ऋषियों ने कहा है- यदि आप घृणा को बढावा देंगे तो आप भी घृणा के शिकार होंगे। आपके भीतर उठने वाली घृणा की तरंगें या वाइब्रेशंस लौट कर आपके पास आती हैं और लोग भी आपसे घृणा करने लगते हैं। भले वे मुंह पर न कहें लेकिन उनके मन में घृणा भाव रहता है। यह भगवान का नियम है, प्रकृति का नियम है। आप गौर से देखिए जिस व्यक्ति ने जीवन भर लोगों से किसी न किसी कारण से नफरत की है, अंत में लोग भी उससे नफरत करने लगते हैं। कोई उससे बात करना नहीं चाहता। महापुरुषों ने कहा है- जैसे ही घृणा भाव आपके अंदर आए, उसे निकाल बाहर फेंकिए। शुरू में यह मुश्किल लग सकता है, लेकिन अभ्यास पक्का होते ही यह आसान हो जाता है।
Tuesday, December 13, 2011
रामचरितमानस का संदेश
विनय बिहारी सिंह
रामचरितमानस पढ़ते वक्त बार- बार यह बात सामने आती है कि मनुष्य के बड़े शत्रुओं में एक अहंकार भी है। रावण के भीतर अहंकार कूट- कूट कर भरा था। वह भगवान राम तक को कुछ नहीं समझता था। यही उसकी मृत्यु का कारण बना। दूसरी तरफ हनुमान जी भगवान राम के अद्वितीय भक्त थे। यही उनकी ताकत थी। इसीलिए जब तक सृष्टि रहेगी, उनकी पूजा होती रहेगी। हनुमान जी के पास धन नहीं था। वे राजा नहीं थे। लेकिन पूरे ब्रह्मांड के मालिक के प्रिय होने के कारण वे ब्रह्मांड के राजा जैसे थे। दूसरी तरफ रावण सोने की लंका का राजा था। वह भौतिक रूप से संपूर्ण समृद्धि का स्वामी था। लेकिन वह अहंकार के भरा हुआ था। इस अहंकार ने ही उसे मृत्यु दिया। यदि वह अपने भाई विभीषण की बात मान लेता और मां सीता को राम के पास लौटा देता तो उसका संहार नहीं होता। लेकिन वह अपने अहंकार में इतना डूबा हुआ था कि उसे लगता था कि वह जो भी सोचता है, सही है, उचित है। दूसरे जो कुछ भी कहते हैं, वह बेकार की बात है। उसे हमेशा अपनी प्रशंसा अच्छी लगती थी। निंदा से वह नाराज हो जाता था। दूसरी तरफ भगवान राम सबके हित में सोचते थे। सबकी राय ध्यान से सुनते थे। हालांकि वे सृष्टि के रचयिता हैं। लेकिन उनमें अहंकार छू कर भी नहीं था। उन्होंने रावण का वध किया। हम भी अपने भीतर के रावण का तभी वध कर सकते हैं जब हमारा अहंकार विलुप्त हो जाएगा। खत्म हो जाएगा। इसके बाद ही शुरू होता है भगवान से प्रेम। ईश्वर से प्रेम।
Thursday, December 8, 2011
ब्रह्मांड के मालिक भगवान
विनय बिहारी सिंह
परमहंस योगानंद जी ने कहा है कि इस ब्रह्मांड को भगवान चला रहे हैं। मनुष्य नहीं। फिर तनाव क्यों। नर्वसनेस क्यों? यदि भगवान पर पूरा भरोसा है तो फिर तनाव का कोई कारण नहीं दिखता। यदि मनुष्य किसी शारीरिक या मानसिक कष्ट में है या तनाव में है तो उसे भगवान से सीधे प्रार्थना करनी चाहिए। उसके बस में बस यही है। आप समस्या सुलझाने की कोशिश भर कर सकते हैं। लेकिन समस्या सुलझाना ईश्वर के हाथ में है। क्यों न उन्हीं से प्रार्थना की जाए- प्रभु, मुझ पर कृपा कीजिए। इस समस्या को सुलझाइए। मैंने जितनी कोशिश करनी थी कर ली। अब यह समस्या आपके हवाले। ऋषियों ने कहा है कि ईमानदारी से की गई प्रार्थना सुनी जाती है। बशर्ते कि वह किसी के नुकसान के लिए न हो। प्रार्थना किसी पवित्र कार्य के लिए होनी चाहिए। सबसे बड़ी तो प्रार्थना यह है कि भगवान मुझे तो आपको पाने की ही इच्छा है। कृपया मुझे अपना बनाइए। यह ठीक है कि हम भगवान की ही संतान हैं। लेकिन फिर भी इस तरह की प्रार्थना से भगवान का ध्यान आकर्षित होता है। मां भी बच्चे की तरफ तभी विशेष ध्यान देती है जब वह रोता है। तो भगवान के सामने रोने में दिक्कत क्या है? वे अंतर्यामी हैं, सर्वशक्तिमान हैं और सर्वव्यापी हैं।
Wednesday, December 7, 2011
दरवाजा खटखटाइए, खुलेगा
विनय बिहारी सिंह
ऋषियों ने कहा है- भगवान का दरवाजा चरम भक्तिभाव से खटखटाइए। वह खुलेगा। यदि आपको लगता है कि भगवान आपके करीब नहीं हैं तो उनके लिए गहरी प्रार्थना कीजिए। उन्हें हृदय से पुकारते रहिए- प्रभु, आपको मैं महसूस नहीं कर पा रहा हूं। कृपया मेरी ग्रहणशीलता का विस्तार कीजिए। मुझे अपने होने का अनुभव कराइए। हालांकि मैं जानता हूं आप सदा मेरे साथ हैं। लेकिन यह मैं महसूस भी करना चाहता हूं। एक ईसाई संत थे- ब्रदर लारेंस। उनकी बातों को गीता प्रेस ने हिंदी में छापा है। ब्रदर लारेंस ने कहा है- मैं प्रभु से अलग हो ही नहीं सकता। इसलिए जब भी मुझे लगता था कि मैं प्रभु को महसूस नहीं कर पा रहा हूं, गहरी प्रार्थना करने लगता। यह मेरी आदत सी बन गई जिससे मुझे बहुत लाभ हुआ।
संत कबीरदास ने लिखा है- जिभ्या ते छाला परा, राम पुकारि, पुकारि।।
इस पंक्ति से लगता है कि भगवान सहज ही नहीं आते। वे चाहते हैं कि भक्त उनसे लगातार बातें करे। और अगर वे ऐसा चाहते हैं तो बुरा क्या है। वे हमारे माता हैं, पिता हैं। वे तो चाहेंगे ही कि हम उनसे बातें करें। उन्हें प्रकट होने के लिए कहें। इसीलिए तो वे छुपे रहते हैं। ऋषियों ने कहा है- जब आप इंद्रिय, मन और बुद्धि के परे जाएंगे तो भगवान को महसूस करेंगे। जब हम रात को सोते हैं तो शरीर का होश नहीं रहता। यह भी होश नहीं रहता कि हम कहां सोए हैं। बेसुध हो कर सोते हैं हम। ठीक उसी तरह जब हम अपनी आंखें बंद कर ईश्वर पर ध्यान केंद्रित करेंगे तो एक समय आएगा कि हम उन्हें महसूस करने लगेंगे।
Tuesday, December 6, 2011
केले और बिस्कुट
आखिर शाम के जलपान के लिए केले और दो बिस्कुट का ही विकल्प मिला। रोज केले न खा कर बीच-बीच में सेब, छेना (बिना चीनी वाला) वगैरह खाना ठीक है।
आध्यात्मिक भोजन के बारे में जानकारी चाही तो पता चला केला, सेब और अमरूद बेहतर विकल्प हैं। परमहंस योगानंद जी ने लिखा है कि नींबू पानी में एक चम्मच चीनी मिला कर पीने से हमारा नर्वस सिस्टम ठीक रहता है। एक और विकल्प है। केले कई तरह के होते हैं। जैसे- सिंगापुरी, कंटाली, भुसावल वाला, बर्दवान वाला। इन केलों को बदल बदल कर खाया जा सकता है।
Monday, December 5, 2011
जलपान
विनय बिहारी सिंह
हमारा नया कार्यालय नई जगह पर आ गया है। नेशनल हाईवे- छह पर। कोना एक्सप्रेस वे के पास। यह पश्चिम बंगाल के हावड़ा जिले में पड़ता है। शाम को जलपान की जरूरत महसूस हुई। बाहर निकला तो झोपड़ीनुमा दुकानें दिखीं। वहां गया तो पता चला जलपान में समोसा, कचौड़ी, बैगुन भाजा (बैंगन को लंबाई में पतला- पतला काट कर तरल बेसन में डुबा कर तला जाने वाला खाद्य) मिल रहा है। तली- भुनी चीजों के प्रति विरक्ति के कारण कुछ न खा कर लौट रहा था कि एक मिठाई की दुकान दिखी। सोचा छेने की मिठाई ही खा कर भूख पर काबू किया जाए। छेना प्योर होता है, उसमें घी- तेल नहीं होता। वहां गया तो देखा कि बंगाल की प्रसिद्ध मिठाई काचागोला (छेने से बनी) है। इसमें हल्की मिठास होती है, इसलिए उसे खा कर आजमाया। पर्याप्त मिठास थी। यह काचागोला की मिठास नहीं है। काचागोला तो हल्की मिठास वाला होता है। इसलिए सोचा कि घर से ही कोई जलपान लाया करेंगे।
कई बार सोच कर आश्चर्य होता है। क्या अपने भारत में जलपान के नाम पर अब समोसे और अन्य तली- भुनी चीजें ही मिला करेंगी? क्या बिना घी- तेल वाले हल्के- फुल्के, सुपाच्य जलपानों का अभाव ही रहेगा? दफ्तर में चाय और काफी की आटोमेटिक मशीन लगी है। हम सब वहां जाकर मनपसंद पेय ले सकते हैं। लेकिन अभी खाने का या जलपान का कोई इंतजाम नहीं हो पाया है। अब सोच रहा हूं। सुबह कार्यालय के लिए निकलते वक्त शाम के लिए कौन सा जलपान ले कर आऊं? अब तक कोई ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच पाया। स्लाइस्ड ब्रेड में तो मैदा होता है जो पेट के लिए ठीक नहीं होता। फल काट कर शाम तक रखना ठीक नहीं होगा। तो फिर क्या विकल्प है? शायद जल्दी ही कुछ समझ में आ जाएगा।
Friday, December 2, 2011
इंद्रियां धोखा देती हैं
विनय बिहारी सिंह
श्रीमद्भगवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि मन जिस इंद्रिय के साथ रहता है, वह उसका गुलाम हो जाता है। इंद्रियां जैसा नाच नचाती हैं, मन नाचता है। इंद्रियां कई बार हमारे शत्रु की तरह काम करती हैं। आम तौर पर हम शरीर का बहुत ध्यान रखते हैं। खूब अच्छी तरह नहाना- धोना, भोजन करना, आराम करना। इसमें कोई बुराई नहीं है। लेकिन शरीर का जरूरत से ज्यादा ख्याल रखना बीमारी है। स्वामी श्री युक्तेश्वर जी कहते थे- कुत्ते को रोटी दे दो और निश्चिंत हो जाओ। यानी शरीर का पोषण कर दो और फिर ईश्वर की तरफ मुड़ जाओ। हां, यह ठीक है कि हमें ठीक से खाना चाहिए, स्वच्छता का ख्याल रखना चाहिए। रोग-व्याधि न हो इसके लिए तत्पर रहना चाहिए। लेकिन हमेशा शरीर और उसकी आवश्यकताओं पर ही केंद्रित नहीं रहना चाहिए। यह शरीर अनेक लोगों को धोखा दे चुका है। इंद्रियां अपनी मनचाही चीजें चाहती हैं। अगर आप इंद्रियों की सुनते हैं तो वे और मांग करती हैं। आप इंद्रियों को जितना संतुष्ट करेंगे, वे और ज्यादा की मांग करेंगी। अगर आप इंकार कर देंगे तो वे आपको परेशान करेंगी। इस दुष्चक्र से मुक्ति का एक ही उपाय है कि आत्मसंयम बरता जाए। जितनी जरूरत है, शरीर को उतना ही दिया जाए। इंद्रियां जब जिद्दी हो जाती हैं तो हमारी शत्रु हो जाती हैं।
कई लोग घनघोर भोजन प्रेमी होते हैं। वे दिन- रात भोजन के बारे में ही सोचते रहते हैं। उनके लिए संसार में स्वादिष्ट भोजन के अलावा कुछ और आकर्षण की वस्तु है ही नहीं। उनके लिए भोजन ही ईश्वर तुल्य है। एक दिन साधारण भोजन मिला नहीं कि उनका मूड खराब हो जाता है। ऐसे व्यक्ति भोजन की बात करते समय खूब रस लेते हैं। उनसे आप भोजन के बारे में घंटों बातें कर सकते हैं। लेकिन इससे लाभ? कुछ नहीं। यदि वे भोजन के बदले ईश्वर चर्चा करते तो स्थाई सुख पाते। पर नहीं ईश्वर की तरफ उनका मन जाता ही नहीं।
Thursday, December 1, 2011
तनाव और उत्तेजना
विनय बिहारी सिंह
रास्ते में एक अनजान व्यक्ति जोर- जोर से फोन पर किसी से बातें कर रहा था- आप उत्तेजित होकर बात मत कीजिए.....इससे मेरा दिमाग खराब हो जाता है। शांत हो कर बोलिए। आप से जब भी बातें करता हूं, डिस्टर्ब हो जाता हूं...... शांति से बात कीजिए। समस्या उत्तेजना से नहीं सुलझेगी....... वगैरह, वगैरह।
जानते सभी हैं कि उत्तेजना से या क्रोध से या तनाव से कोई काम नहीं बन सकता। बिगड़ेगा ही। लेकिन फिर भी कई लोग उत्तेजित हो जाते हैं, चिड़चिड़े हो जाते हैं या क्रोध में आ कर कुछ भी बोल देते हैं। संतों ने कहा है- जब भी कोई समस्या आए या कोई डिस्टर्बेंस हो आप शांति से उसका विश्लेषण कीजिए और उपाय खोजिए। उपाय पर अमल कीजिए। तब आपका काम भी बन जाएगा और मन मस्तिष्क को कोई क्षति भी नहीं पहुंचेगी। हम जब भी तनाव में आते हैं, हमारे तंत्रिका तंत्र या नर्वस सिस्टम पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है। कई लोग तो तनाव के कारण ब्रेन हेमरेज तक के शिकार हो जाते हैं। तनाव हमें खतरनाक जगह पर ले जाता है। शांति हमें ईश्वर की ओर ले जाती है। इसलिए शांति से क्यों न सारा काम करें। हां, यह ठीक है कि हर आदमी को कभी न कभी क्रोध आता है और इस पर हमेशा काबू नहीं किया जा सकता। ऐसे समय में जहां क्रोध आ रहा हो, वहां से हट जाना चाहिए या लंबी सांस लेकर क्रोध से छुटकारा पाना चाहिए। यदि क्रोध आ ही जाए तो उसके लिए पछतावा न कर अगली बार सुधार कर लेना चाहिए। क्रोध से काम बिगड़ता है, यह सिद्ध हो चुका है। क्रोध या तनाव से हमारा दिल- दिमाग तो प्रभावित होता ही है, हमारा सामाजिक या पारिवारिक संबंध भी बिगड़ जाता है।
तनाव और उत्तेजना
विनय बिहारी सिंह
रास्ते में एक अनजान व्यक्ति जोर- जोर से फोन पर किसी से बातें कर रहा था- आप उत्तेजित होकर बात मत कीजिए.....इससे मेरा दिमाग खराब हो जाता है। शांत हो कर बोलिए। आप से जब भी बातें करता हूं, डिस्टर्ब हो जाता हूं...... शांति से बात कीजिए। समस्या उत्तेजना से नहीं सुलझेगी....... वगैरह, वगैरह।
जानते सभी हैं कि उत्तेजना से या क्रोध से या तनाव से कोई काम नहीं बन सकता। बिगड़ेगा ही। लेकिन फिर भी कई लोग उत्तेजित हो जाते हैं, चिड़चिड़े हो जाते हैं या क्रोध में आ कर कुछ भी बोल देते हैं। संतों ने कहा है- जब भी कोई समस्या आए या कोई डिस्टर्बेंस हो आप शांति से उसका विश्लेषण कीजिए और उपाय खोजिए। उपाय पर अमल कीजिए। तब आपका काम भी बन जाएगा और मन मस्तिष्क को कोई क्षति भी नहीं पहुंचेगी। हम जब भी तनाव में आते हैं, हमारे तंत्रिका तंत्र या नर्वस सिस्टम पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है। कई लोग तो तनाव के कारण ब्रेन हेमरेज तक के शिकार हो जाते हैं। तनाव हमें खतरनाक जगह पर ले जाता है। शांति हमें ईश्वर की ओर ले जाती है। इसलिए शांति से क्यों न सारा काम करें। हां, यह ठीक है कि हर आदमी को कभी न कभी क्रोध आता है और इस पर हमेशा काबू नहीं किया जा सकता। ऐसे समय में जहां क्रोध आ रहा हो, वहां से हट जाना चाहिए या लंबी सांस लेकर क्रोध से छुटकारा पाना चाहिए। यदि क्रोध आ ही जाए तो उसके लिए पछतावा न कर अगली बार सुधार कर लेना चाहिए। क्रोध से काम बिगड़ता है, यह सिद्ध हो चुका है। क्रोध या तनाव से हमारा दिल- दिमाग तो प्रभावित होता ही है, हमारा सामाजिक या पारिवारिक संबंध भी बिगड़ जाता है।
Wednesday, November 30, 2011
माया के जाल में
विनय बिहारी सिंह
आज दक्षिणेश्वर में अपने गुरुदेव के आश्रम जा रहा था तो एक फ्लैट में बज रहा गाना सुनाई पड़ा- मुसाफिर हूं यारों, न घर है ना ठिकाना... बस चलते जाना है। सिद्ध पुरुषों ने कहा है- यह संसार हमारी धर्मशाला है। यहां हम इसलिए आए हैं कि ईश्वर को प्राप्त कर सकें। लेकिन माया के जाल में ज्यादातर मनुष्य इस तरह फंसते हैं कि वे अपना असली उद्देश्य भूल जाते हैं औऱ सांसारिक प्रपंच में उलझ जाते हैं। एक प्राचीन भजन है- हम परदेसी पंछी बाबा, अणी देस यह नाहीं।। यह संसार हमारा नहीं है। संसार हमारे जन्म लेने से पहले भी था और मरने के बाद भी रहेगा। सिर्फ हम नहीं रहेंगे। और महापुरुषों ने कहा है- जगत मिथ्या, ईश्वर सत्य। इस तरह यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इस जगत में हम शिक्षा लेने के लिए आए हैं। अंत में समझ में आता है- मेरा तो कोई नहीं है। सिर्फ और सिर्फ भगवान हैं। और कोई हो भी कैसे सकता है। यह संसार भगवान ने बनाया है। भगवान ने इस संसार को जन्म दिया है। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- यह संसार हमारा घर नहीं है। हमारा घर तो ईश्वर के पास है। संसार में तो हम शिक्षा लेने आए हैं। शिक्षा लेने और परीक्षा देने। यदि सफल हो गए तो ईश्वर हमें अपनी गोद में बिठा लेंगे।
Tuesday, November 29, 2011
एक बारात के अनुभव
विनय बिहारी सिंह
पिछले दिनों मैं जोधपुर (राजस्थान) में एक शादी में गया था। बारात दिल्ली से गई थी। जोधपुर में हम बारातियों के मनोरंजन के लिए कन्या पक्ष ने लोकनृत्य और गीत का प्रोग्राम रखा था। उसमें एक नृत्य था घूमर। एक महिला ने सिर पर सात घड़े रख कर तलवार पर नृत्य किया। हम सब बेहद उत्सुकता से इस अद्भुत नृत्य को देख रहे थे। अचानक मुझे महसूस हुआ कि सिर पर रखे सातों घड़े, हमारे मेरुदंड के चक्रों के प्रतीक हैं और तलवार संतुलित जीवन का प्रतीक। मैंने इस नृत्य का फोटो अपने मोबाइल कैमरे में उतार लिया। लेकिन मुश्किल यह है कि मोबाइल से यह कंप्यूटर में ट्रांसफर नहीं हो सकता। अगर हो सकता तो मैं आपको उसकी झलक दिखाता। अद्भुत नृत्य था यह। एक और बात समझ में आई। आमतौर पर बीन को हम सब संपेरे का ही वाद्य मानते रहे हैं। लेकिन इन लोक कलाकारों ने बीन को एक सुरीले वाद्य यंत्र के रूप में इस्तेमाल किया। बीन से इतनी भिन्नता वाली अत्यंत कर्णप्रिय धुनें निकल सकती हैं, मैंने पहली बार जाना। जो महिलाएं नृत्य कर रही थीं। वे कठिन नृत्य के बावजूद हंस रही थीं। मानों यह उनके लिए मामूली खेल हो। लेकिन जो संतुलन और धैर्य मैंने इन नर्तकियों में देखा, वह विलक्षण था। मनुष्य को जीवन में अत्यंत संतुलित रहना चाहिए, यह संदेश इस संगीत कार्यक्रम से बार- बार निकल कर आ रहा था। एक नर्तकी बोली- मैं तो बस यही ध्यान रखती हूं कि नृत्य के समय एक कदम भी गलत न पड़े। वरना नृत्य की गरिमा नष्ट हो जाएगी। ठीक इसी तरह क्या मनुष्य के गलत कदम से उसकी गरिमा नष्ट नहीं हो जाती?
Tuesday, November 15, 2011
एक संत की कथा
विनय बिहारी सिंह
एक संत रोज अपने शिष्यों को गीता पढ़ाते थे। सभी शिष्य इससे खुश थे। लेकिन एक शिष्य चिंतित दिखा। संत ने उससे इसका कारण पूछा। शिष्य ने कहा- गुरुदेव, मुझे आप जो कुछ पढ़ाते हैं, वह समझ में नहीं आता। जबकि बाकी सारे लोग समझ लेते हैं। मैं इसी वजह से चिंतित और दुखी हूं। आखिर मुझे गीता का भाष्य क्यों समझ में नहीं आता? गुरु ने कहा- तुम कोयला ढोने वाली टोकरी में जल भर कर ले आओ। शिष्य चकित हुआ। आखिर टोकरी में कैसे जल भरेगा? लेकिन चूंकि गुरु ने यह आदेश दिया था, इसलिए वह टोकरी में नदी का जल भरा और दौड़ पड़ा। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। जल टोकरी से छन कर गिर पड़ा। उसने टोकरी में जल भर कर कई बार गुरु जी तक दौड़ लगाई। लेकिन टोकरी में जल टिकता ही नहीं था। तब वह अपने गुरुदेव के पास गया और बोला- गुरुदेव, टोकरी में पानी ले आना संभव नहीं। कोई फायदा नहीं। गुरु बोले- फायदा है। तुम जरा टोकरी में देखो। शिष्य ने देखा- बार- बार पानी में कोयले की टोकरी डुबाने से स्वच्छ हो गई है। उसका कालापन धुल गया है। गुरु ने कहा- ठीक जैसे कोयले की टोकरी स्वच्छ हो गई और तुम्हें पता भी नहीं चला। उसी तरह गीता के श्लोक और उसका अर्थ बार- बार सुनने से खूब फायदा होता है। भले ही अभी तुम्हारी समझ में नहीं आ रहा है। लेकिन तुम इसका फायदा बाद में महसूस करोगे। एक वर्ष बाद वही शिष्य गुरुदेव के पास आया और बोला- हां, गुरुदेव। आप ठीक कह रहे थे। अब गीता का भाष्य मेरी समझ में आने लगा है।
Monday, November 14, 2011
वैराग्य
विनय बिहारी सिंह
चौरानबे (९४) साल के अपने पिताजी को देखा- चुपचाप लेटे हुए हैं। कुछ पूछने पर सीमित शब्दों में उत्तर देते हैं। कपड़ों और भोजन के प्रति वैराग्य सा है। धोती जैसे- तैसे पहनी है। उसे संभालने का होश नहीं है। एक जमाने में चमाचम सफेद आकर्षक धोती- कुर्ता पहने हुए उन्हें देख चुका हूं। अब कपड़ों को वे महत्व नहीं देते। जो मिला का लिया। जो मिला पहन लिया। भोजन के प्रति कोई आग्रह नहीं। हालांकि हम सब उनकी पसंद जानते हैं और उन्हें वही दिया जाता है। लेकिन उनकी अपनी रुचियां, शौक आदि खत्म हो गए हैं।
उन्हें देख कर लगता है- यही जीवन का सत्य है। वे अक्सर मृत्यु के बारे में बात करते हैं। कहते हैं- इस शरीर में कब तक प्राण रहेगा? अब प्राण छूटता क्यों नहीं? इसका हम सब जवाब नहीं देते। उनसे दूसरी बातें करने लगते हैं। या कह देते हैं कि आप बहुत दिनों जीएंगे। लेकिन सबको पता है- वे ज्यादा दिन नहीं जीएंगे। बस अपनी आयु पूरी कर रहे हैं। एक जमाने में काफी सक्रिय रहने वाले और अपने इलाके में खूब लोकप्रिय पिता जी, आज चुपचाप बिस्तर पर पड़े रहते हैं। बस काम भर ही बातचीत करते हैं। जो उन्हें पानी पिला देता है, खाना खिला देता है, नहला- धुला देता है, उसे खूब आशीर्वाद देते हैं। चाहे वह घर का ही आदमी क्यों न हो। उनके व्यक्तित्व में यह परिवर्तन देख कर मैं काफी देर तक ईश्वर की लीला के बारे में सोचता रहा।
Saturday, November 5, 2011
कार्बोहाइड्रेट पर कुछ और बातें
विनय बिहारी सिंह
आज कार्बोहाइड्रेट पर फिर कुछ पढ़ने को मिला। आप तो जानते ही हैं कि कार्बोहाइड्रेट मनुष्य के शरीर के लिए जरूरी होता है। लेकिन हद से ज्यादा कार्बोहाइड्रेट हृदय रोग या रक्त शर्करा को बढ़ाता है। कार्बोहाइड्रेट आमतौर पर अनाज, सब्जियों, फलों आदि में मिलता है। लेकिन आस्ट्रेलिया के विशेषग्यों ने कहा है कि पावरोटी, पैस्ट्री और कोल्ड ड्रिंक्स पीने से खून में रक्त शर्करा बढ़ जाती है। इसलिए इनका सेवन नहीं करना चाहिए। क्या न खाएं?? विशेषग्यों का कहना है कि प्रासेस्ड फूड मत खाएं। जैसे बेकरी की चीजें खाना अच्छा नहीं है। खासतौर से पैस्ट्री, पेटीज और क्रीम से लैस केक। इसके अलावा आलू का कम सेवन करना चाहिए। तो क्या खाएं?? सादी घर में बनी हुई रोटी, कम तेल में पकाई सब्जी और फलों का सेवन सबसे अच्छा है। डाक्टरों ने कहा है कि चीनी और मैदे की बनी चीजों से परहेज करें। अच्छा है- संतुलित भोजन, तेल, घी, चीनी और मैदे का कम से कम सेवन और भूख से थोड़ा कम भोजन।
(मित्रों, मैं एक आवश्यक काम से उत्तर प्रदेश जा रहा हूं। एक हफ्ते बाद यानी १४ नवंबर को मुलाकात होगी।)
Friday, November 4, 2011
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
विनय बिहारी सिंह
कल एक भक्त बहुत तन्मयता के साथ गा रहे थे- श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे। हे नाथ नारायण वासुदेव।
सुन कर बहुत अच्छा लगा। उनसे कहा- आपकी आवाज में जो व्याकुलता है, वही भगवान को आपके पास खींच लाएगी। वे बोले- आपके मुंह में घी शक्कर। भक्त भगवान से कभी मन ही मन बातें करता है तो कभी भजन गाता है, कभी जाप करता है तो कभी तड़प कर कहता है- हा प्रभु, हा भगवान। यह सब भगवान नोट करते जाते हैं। अचानक जब भक्त असावधान रहता है, तभी भगवान उसके हृदय में प्यार का सागर उड़ेल देते हैं। भक्त तो आनंदविभोर हो जाता है। कई भक्त गुप्त रूप से भक्ति करते हैं। कोई नहीं जानता कि वे भगवान की शरण में हैं। वे चुपचाप रहते हैं। प्रकट रूप में ईश्वर भक्ति का कोई संकेत नहीं देते। बस मन ही मन भगवान से गहरा प्रेम करते हैं और एकांत में गहरा ध्यान करते हैं। उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य भगवान को पाना है। हां, जब कोई हृदय से भगवान को जोर से पुकारता है तो वे भीतर तक हिल जाते हैं। वे जैसे पिघलने लगते हैं। जहां कोई भगवान को भाव से पुकारता है, वे वहीं पिघल से जाते हैं। वे खुद को रोक नहीं सकते। वे भगवान के प्रेमी हैं।
मैंने कहा- आप भी तो ऐसे ही भक्त जान पड़ते हैं। अचानक आपने जब यह भावपूर्ण भजन गाया तो पता चला कि आप कितने गहरे भगवान से जुड़ गए हैं।
वे बोले- मैं कहां भगवान से गहरे जुड़ा हूं। गहरे तो जु़ड़े थे रामकृष्ण परमहंस, परमहंस योगानंद, रमण महर्षि...। ये संत सोते- जागते, उठते- बैठते, काम करते हर क्षण भगवान में गहरे समाए रहते थे। हम लोग तो कुछ भी नहीं हैं। काश अगर हम वैसा बन पाते।
Wednesday, November 2, 2011
कैसेट की रील
विनय बिहारी सिंह
अब तो कैसेट का जमाना नहीं रहा। सीडी का जमाना है। हो सकता है सीडी भी खत्म हो जाए और गाने सुनने के लिए लोग किसी बेहतर टेक्नालाजी का इस्तेमाल करें। रास्ते में कैसेट की रील उलझी पड़ी थी। अचानक एक आदमी वहां रुका और वहां से जा रहे लोगों से बोला- कोई नहीं जानता कि इस रील में कौन सा गाना या डायलाग है। क्योंकि यह एक उलझी हुई काले रंग की कोई रील है। काले रंग की भी नहीं, भूरे काले रंग की। इसे जब दुबारा समेट कर कैसेट में फिट कर दिया जाएगा तो यह बजने लगेगा। वरना यह बेकार की चीज हो गया है। मुझे लगा यह आदमी ठीक ही कह रहा है। जब तक आपने इस रील के गाने नहीं सुने, यह रास्ते में पड़ा हुआ फालतू की चीज है। कैसेट बजाते वक्त उलझ गया होगा। इसलिए किसी ने इसे फेंक दिया है। ठीक इसी तरह भगवान में जब गहरी भक्ति और साधना होगी तो मनुष्य की दुनिया ही बदल जाएगी। अन्यथा- लोग बहस करते रहेंगे कि पता नहीं भगवान हैं या नहीं। हालांकि मैंने सुना है कि जो भगवान को नहीं मानते, संकट पड़ने पर उनमें से कुछ लोग- भगवान को पुकारने लगते हैं। तो जब दूध को मथा जाएगा तभी मक्खन मिलेगा। अन्यथा मक्खन छिपा हुआ है और आप कह रहे हैं कि मक्खन कहां है। यह तो दूध है या दही है। दही को भी मथने पर मक्खन निकलता है। दूध की छाली को गर्म करने पर घी निकलता है। सिर्फ कहां है, कहां है कहने से तो काम नहीं चलेगा। दूध को मथना पड़ेगा। उसके लिए धैर्य और कौशल चाहिए। तब जाकर आपको मक्खन मिलेगा। तब जाकर आप जान पाएंगे कि मक्खन का असली स्वाद क्या होता है। ईश्वर ठीक वैसे ही हैं। उनके लिए निरंतर लगे रहना पड़ेगा। प्रार्थना करते रहना पड़ेगा। लगातार। बार- बार। आखिर ईश्वर ही तो सब कुछ हैं। सर्वं खल्विदं ब्रह्म।
Tuesday, November 1, 2011
गीता के कुछ श्लोक और उनके अर्थ
मित्रों, आइए आज गीता के कुछ श्लोकों को अर्थ सहित पढ़ें। इनमें भगवान ने स्वयं अपने बारे में कुछ संकेत दिए हैं। गीता इस पृथ्वी के महानतम ग्रंथों में से एक है। इसे पढ़ना स्वयं को शुद्ध करना है।
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च ॥
भावार्थ : इस संपूर्ण जगत् का धाता अर्थात् धारण करने वाला एवं कर्मों के फल को देने वाला, पिता, माता, पितामह, जानने योग्य, पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ॥
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥
भावार्थ : प्राप्त होने योग्य परम धाम, भरण-पोषण करने वाला, सबका स्वामी, शुभाशुभ का देखने वाला, सबका वासस्थान, शरण लेने योग्य, प्रत्युपकार न चाहकर हित करने वाला, सबकी उत्पत्ति-प्रलय का हेतु, स्थिति का आधार, निधान और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ॥
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च ।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥
भावार्थ : मैं ही सूर्यरूप से तपता हूँ, वर्षा का आकर्षण करता हूँ और उसे बरसाता हूँ। हे अर्जुन! मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत्-असत् भी मैं ही हूँ॥
Monday, October 31, 2011
अमीर खुसरो की रचना
मित्रों, मेरे एक प्रिय फेसबुक साथी विश्वजीत रोहिल ने अमीर खुसरो की यह रचना प्रस्तुत की है। मैं उनका आभारी हूं। परमहंस योगानंद जी ने खुसरो की रचनाओं की आध्यात्मिक व्याख्या की है। अमीर खुसरो गहरे आध्यात्मिक व्यक्ति थे। वे ईश्वर में ही सराबोर रहते थे। आइए उनकी रचना पढ़ें---
रैनी चढ़ी रसूल की सो रंग मौला के हाथ।
जिसके कपरे रंग दिए सो धन धन वाके भाग।।
खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूँ पी के संग।
जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।।
चकवा चकवी दो जने इन मत मारो कोय।
ये मारे करतार के रैन बिछोया होय।।
खुसरो ऐसी पीत कर जैसे हिन्दू जोय।
पूत पराए कारने जल जल कोयला होय।।
खुसरवा दर इश्क बाजी कम जि हिन्दू जन माबाश।
कज़ बराए मुर्दा मा सोज़द जान-ए-खेस रा।।
उज्जवल बरन अधीन तन एक चित्त दो ध्यान।
देखत में तो साधु है पर निपट पाप की खान।।
श्याम सेत गोरी लिए जनमत भई अनीत।
एक पल में फिर जात है जोगी काके मीत।।
पंखा होकर मैं डुली, साती तेरा चाव।
मुझ जलती का जनम गयो तेरे लेखन भाव।।
नदी किनारे मैं खड़ी सो पानी झिलमिल होय।
पी गोरी मैं साँवरी अब किस विध मिलना होय।।
साजन ये मत जानियो तोहे बिछड़त मोहे को चैन।
दिया जलत है रात में और जिया जलत बिन रैन।।
रैन बिना जग दुखी और दुखी चन्द्र बिन रैन।
तुम बिन साजन मैं दुखी और दुखी दरस बिन नैंन।।
अंगना तो परबत भयो, देहरी भई विदेस।
जा बाबुल घर आपने, मैं चली पिया के देस।।
आ साजन मोरे नयनन में, सो पलक ढाप तोहे दूँ।
न मैं देखूँ और न को, न तोहे देखन दूँ।
अपनी छवि बनाई के मैं तो पी के पास गई।
जब छवि देखी पीहू की सो अपनी भूल गई।।
खुसरो पाती प्रेम की बिरला बाँचे कोय।
वेद, कुरान, पोथी पढ़े, प्रेम बिना का होय।।
संतों की निंदा करे, रखे पर नारी से हेत।
वे नर ऐसे जाऐंगे, जैसे रणरेही का खेत।।
खुसरो सरीर सराय है क्यों सोवे सुख चैन।
कूच नगारा सांस का, बाजत है दिन रैन।।
रैनी चढ़ी रसूल की सो रंग मौला के हाथ।
जिसके कपरे रंग दिए सो धन धन वाके भाग।।
खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूँ पी के संग।
जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।।
चकवा चकवी दो जने इन मत मारो कोय।
ये मारे करतार के रैन बिछोया होय।।
खुसरो ऐसी पीत कर जैसे हिन्दू जोय।
पूत पराए कारने जल जल कोयला होय।।
खुसरवा दर इश्क बाजी कम जि हिन्दू जन माबाश।
कज़ बराए मुर्दा मा सोज़द जान-ए-खेस रा।।
उज्जवल बरन अधीन तन एक चित्त दो ध्यान।
देखत में तो साधु है पर निपट पाप की खान।।
श्याम सेत गोरी लिए जनमत भई अनीत।
एक पल में फिर जात है जोगी काके मीत।।
पंखा होकर मैं डुली, साती तेरा चाव।
मुझ जलती का जनम गयो तेरे लेखन भाव।।
नदी किनारे मैं खड़ी सो पानी झिलमिल होय।
पी गोरी मैं साँवरी अब किस विध मिलना होय।।
साजन ये मत जानियो तोहे बिछड़त मोहे को चैन।
दिया जलत है रात में और जिया जलत बिन रैन।।
रैन बिना जग दुखी और दुखी चन्द्र बिन रैन।
तुम बिन साजन मैं दुखी और दुखी दरस बिन नैंन।।
अंगना तो परबत भयो, देहरी भई विदेस।
जा बाबुल घर आपने, मैं चली पिया के देस।।
आ साजन मोरे नयनन में, सो पलक ढाप तोहे दूँ।
न मैं देखूँ और न को, न तोहे देखन दूँ।
अपनी छवि बनाई के मैं तो पी के पास गई।
जब छवि देखी पीहू की सो अपनी भूल गई।।
खुसरो पाती प्रेम की बिरला बाँचे कोय।
वेद, कुरान, पोथी पढ़े, प्रेम बिना का होय।।
संतों की निंदा करे, रखे पर नारी से हेत।
वे नर ऐसे जाऐंगे, जैसे रणरेही का खेत।।
खुसरो सरीर सराय है क्यों सोवे सुख चैन।
कूच नगारा सांस का, बाजत है दिन रैन।।
Saturday, October 29, 2011
फलों के विभिन्न रंग और कब्ज
विनय बिहारी सिंह
घर से दफ्तर आते वक्त रास्ते में एक फल की दुकान पड़ती है जिसमें विदेशी फल बिकते हैं। वहां से गुजरते हुए तरह-तरह के सेब, नाशपाती, अंगूर, आलूबुखारा, ईरानी अंगूर, आस्ट्रेलिया का किवी देख कर अच्छा लगता है। कई बार सोच कर निकलता हूं कि आज कोई न कोई फल अवश्य लूंगा। लेकिन इतनी गहन व्यस्तता होती है कि कुछ भी खरीदने या किसी परिचित को फोन करने की सुधि नहीं रहती। आज एक खूबसूरत नाशपाती देखी। उस पर लाल आभा आ गई थी। यह सब लिखने का क्या अर्थ है? दरअसल आज एक जगह पढ़ा कि फल और सब्जियों का बहुतायत में सेवन से हमारा पेट स्वस्थ रहता है और मन शांत। आज पेट के रोगों पर काफी कुछ पढ़ने को मिला। सोचा आपको भी बताऊं क्या पढ़ा। लेकिन जब फलों की चर्चा चल पड़ी है तो सेब के स्वाद की भी चर्चा हो। मैंने जो अनुभव किया है, पहले उसे बताएं। सेब कई रंगों वाले होते हैं- लाल, गुलाबी, पीले, हरे, हरे-लाल मिक्स, पीले- हरे मिक्स और सफेद। इनके स्वाद में थोड़ा सा फर्क होता है लेकिन सेब का जो टिपिकल स्वाद होता है, वह तो सबमें ही रहता है। नाशपाती भी तरह तरह के होते हैं। लेकिन कुछ नाशपाती चबाने में चीमड़ होते हैं और कुछ चबाने में सुखद और स्वादिष्ट। आलूबुखारा आमतौर पर खट्टे ही होते हैं। कुछ लोग उसमें मधु मिला कर खाते हैं। क्योंकि यह कब्ज तोड़ता है। कब्ज के विशेषग्य बताते हैं कि कब्ज तोड़ने वाली सब्जी में लौकी का कोई जवाब नहीं। खासतौर से एकदम ताजा लौकी। लेकिन इसके साथ ईसबगोल की भूसी का सेवन जरूरी है। आयुर्वेद के डाक्टर कहते हैं- मुनक्का भिंगो कर दिन में रख दीजिए और रात को भोजन के पहले एक कप दूध के साथ उसका सेवन कीजिए। सुबह पेट साफ। इसके अलावा त्रिफला को पानी में मिला कर उसमें गाय का घी डाल कर पीने से भी फायदा होता है। इसके अलावा खजूर को एक चम्मच गाय के घी के साथ खाने पर भी कब्ज में काफी फायदा होता है। लेकिन खजूर का फल सूखा न हो। यदि सूखा है तो इसे भिंगो देना चाहिए। कब्ज से परेशान लोगों को सूखे फल नहीं खाने चाहिए। मिठाई और शर्बत से परहेज करना चाहिए।
Friday, October 28, 2011
काला राम का मंदिर
विनय बिहारी सिंह
नासिक के पंचवटी इलाके में घूमते हुए मुझे काला राम का मंदिर दिखा। पहले तो लगा किसी काला राम ने इसे बनवाया होगा। लेकिन मंदिर में गया तो पाया कि भगवान राम, लक्ष्मण और सीता जी की मूर्ति काले पत्थर से बनी है, इसीलिए इस मंदिर को काला राम का मंदिर कहा गया है। भगवान राम की मूर्ति का दर्शन कर नीचे उतरा तो सामने ही एक और मंदिर दिखा- हनुमान जी का। उसी कैंपस में। नजदीक गया तो पाया कि वह हनुमान जी का मंदिर है और हनुमान जी की मूर्ति भी काले पत्थर से ही बनी है। अच्छा लगा। जिस रंग में राम जी उसी रंग में हनुमान जी। मूर्ति सुंदर और जाग्रत लगी। भगवान राम के मंदिर में क्षण भर बैठ कर अच्छा लगा।
तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा किसी प्रसंग में लिखा है-
दीनदयाल विरद संभारी। हरहुं नाथ मम संकट भारी।।
अर्थात- हे राम, आप दीनदयाल हैं। दीनों की रक्षा करने वाले। मेरे ऊपर भारी संकट आया है। कृपया मुझे इस संकट से बचा लीजिए। इस संकट को हर लीजिए।
भगवान के भक्त इसीलिए तो कहते हैं- हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे। हे भगवान राम, आप सारे दुखों, पाप-ताप का हरण करने वाले हैं। अब मैं आपकी शरण में आया हूं। फिर कोई गलती नहीं करूंगा। मेरे दुखों और संतापों का हरण कर लीजिए। आप तो शरणागत की रक्षा करते हैं। मैं आपकी शरण में हूं। रक्षा कीजिए भगवान, रक्षा कीजिए।
Thursday, October 27, 2011
दीपावली
विनय बिहारी सिंह
उम्मीद है आप सबकी दीपावली अच्छी बीती होगी। आप सबके जीवन में सुख और समृद्धि लगातार बढ़ती जाए। मां लक्ष्मी आपके ऊपर सदा कृपालु बनी रहें।
आज आफिस आ रहा था तो एक व्यक्ति की बात मेरे कानों में पड़ी। उसकी पीड़ा थी कि दीपावली प्रकाश का त्यौहार न हो कर अब शोरगुल का त्यौहार बन गया है। पश्चिम बंगाल में दीपावली को कालीपूजा के रूप में मनाते हैं। सार्वजनिक रूप से भी और व्यक्तिगत रूप से भी लोग मां काली की मूर्ति अस्थाई रूप से स्थापित करते हैं और विधिवत पूजा- अर्चना करते हैं। पूजा के समय ढाक बजता है। ढाक कैसा होता है, यह पश्चिम बंगाल के बाहर रहने वाले लोग शायद न समझ पाएं। इसलिए संक्षेप में इसकी चर्चा जरूरी है। एक बहुत बड़े ड्रम (वाद्य यंत्र) जैसा होता है ढाक। बीच में ढोलक जैसा कर्व। लेकिन ढोलक में एक तरफ का हिस्सा कुछ कम गोलाई लिए होता है। ढाक में दोनों तरफ के गोल हिस्से एक जैसे होते हैं। लेकिन चूंकि यह भारी होता है इसलिए इसे एक तरफ से ही बजाया जाता है। दोनों हाथों में दो लकड़ियों को पकड़ कर- ढम ढमा ढम बजाया जाता है। ढाक बजाने वाला एक नियत फीस लेकर दो या तीन दिन तक आपके पंडाल में ढाक बजाता है।
मेरे कैंपस में भी काली पूजा हो रही है। आधी रात के बाद भी ढाक बजता रहा और असंख्य पटाखे बजते रहे। कितना पैसा खर्च हुआ होगा? सोच कर चकित होता हूं। सारा कैंपस धुआं से भर गया था। प्रदूषण की हद टूट गई थी। लेकिन काफी तेज आवाज वाले पटाखे बजाने वालों का मन नहीं भर रहा था। बम जैसी आवाज वाले पटाखे लगातार ध्वनि और वायु प्रदूषण बढ़ाते जा रहे थे। हम सब कब इसके प्रति सचेत होंगे, भगवान जाने। सभी तो पढ़े- लिखे हैं। किसे क्या कहें? ऊपर से मां काली की मूर्ति के पास लाउडस्पीकर पर फिल्मी गाने बजाए जा रहे थे। बाद में किसी का ध्यान गया तो वहां मां काली की अराधना वाले गीत बजने लगे। मुझे उस व्यक्ति की पीड़ा का अहसास हुआ जो दीपावली को प्रकाश का नहीं ध्वनि प्रदूषण का पर्व बनता देख कर दुखी था।
यदि यह मां काली की पूजा है तो इसमें शोर का स्थान तो कहीं दिखता नहीं। मां काली की पूजा रात्रि के अंधकार में शांति में होती है। मां काली का रंग प्रतीकात्मक रूप से इसलिए काला दिखाया जाता है क्योंकि वे अंधेरे में प्रकाश स्वरूप हैं। तब फिर काली क्यों हैं? क्योंकि वे भक्तों को सहज नहीं दिखतीं। गहरे ध्यान के बाद प्रकट होती हैं। वे काली हैं यानी काल की स्वामिनी। ऐसी मां काली को असंख्य बार नमन। हे मां काली- सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामया।।
Tuesday, October 25, 2011
विपश्यना केंद्र
विनय बिहारी सिंह
इगतपुरी में ही ६४ एकड़ में फैला विपासना केंद्र है। हम घूमते हुए वहां भी गए थे। वहीं एक बोर्ड पर लिखा था- सयाजी ऊ बा खिन- ने विपश्यना विद्या भारत भेजी थी। इगतपुरी का विपश्यना केंद्र बहुत ही आकर्षक और भव्य है। वहां एक पर्यटक ने बताया- इसे सत्यनारायण गोयनका जी संचालित करते हैं। यहां का पगोडा (ध्यान केंद्र) भी हम देखना चाहते थे। लेकिन हमें बताया गया कि वहां बाहरी लोगों को नहीं जाने दिया जाता। वहां लोग ध्यान कर रहे हैं। वहां के रिसेप्शन में बैठे व्यक्ति ने हमें पगोडा और विपश्यना संबंधी एक वीडियो दिखाया। इससे एक अंदाजा मिल गया कि यहां होता क्या है। अगले दिन हम गोदावरी नदी के किनारे बने नारोशंकर मंदिर में गए। वहां सुनहरे रंग का ७५० किलो का विशाल घंटा देख कर अच्छा लगा। यह साल में एक बार ही बजता है- शिवरात्रि के दिन। यह मंदिर भगवान शिव का है। इसके बाद हम श्री सीताराम गुफा में गए। कृत्रिम गुफा में किसी तरह घुसने की जगह है। अंदर भगवान राम, सीता और लक्ष्मण जी की सुंदर मूर्ति है। गर्भ स्थान में ही भगवान शिव का सुंदर सा शिवलिंग है।
देश का सबसे बड़ा शनि मंदिर है- शनिशिंगणापुर में। इसे श्री शनैश्वर देवस्थान कहते हैं। यहां लगभग सात फुट का एक काला पत्थर रखा हुआ है। यहां तेल और एक विशेष पौधे का पत्ता चढ़ाया जाता है। भक्त तेल को एक बेसिननुमा जगह पर चढ़ा देते हैं। वहां से मोटर के जरिए यह तेल शनिदेव को चढ़ा दिया जाता है। शनिदेव तक जाने की इजाजत किसी को भी नहीं है। वहां ध्यान और शनिमहिमा के पाठ के लिए अलग अलग स्थान हैं। इसके अलावा चढ़ावे के लिए पेड़ों का पैकेट भी एक काउंटर पर मिलता है। वहां शनिदेव पर केंद्रित साहित्य के लिए बुकस्टाल है। वहीं शनिदेव का फोटो और सीडी आदि मिलती है। हम सबने वहां पर्यटक के तौर पर सारी चीजें देखीं। किसी ग्रह का इतना बड़ा मंदिर मैंने अपने जीवन में पहली बार देखा। हम सब शनिदेव को प्रणाम कर आगे बढ़ गए। इसके पहले हम त्र्यंबकेश्वर और शिरडी के साईंबाबा का दर्शन कर चुके थे।
Monday, October 24, 2011
मैं देह नहीं, बुद्धि नहीं.......
विनय बिहारी सिंह
निश्चय ही मनुष्य शरीर नहीं है। वह मन, बुद्धि, अहं या चित्त भी नहीं है। सोचने की इसी प्रक्रिया को नेति- नेति कहते हैं। मैं शरीर नहीं हूं। मैं इंद्रियां नहीं हूं। मैं बुद्धि नहीं हूं। नेति- नेति। तो मैं क्या हूं? यानी मनुष्य क्या है? वह है शुद्ध आत्मा। ध्यान में इसी विचार को केंद्र में रख कर हम अपनी आत्मा को परमात्मा में मिला देते हैं। ध्यान की गहराई धीरे- धीरे आती है। एकदम से कोई चाहे कि गहरा ध्यान लग जाए तो यह संभव नहीं है। इसका पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ अभ्यास करना होता है। ईश्वर की कृपा से मैंने पिछले दिनों एक आध्यात्मिक कार्यक्रम में हिस्सा लिया और खूब आनंद मिला। इस दौरान द्वादस शिवलिंगों में से एक त्र्यंबकेश्वर का दर्शन किया। फिर संयोग जुटा तो शिरडी के साईंबाबा के दिव्य मंदिर में भी गया और सोने के सिंहासन पर सोने के मुकुट से सुशोभित साईंबाबा की सुंदर मूर्ति देखी। साईंबाबा के मंदिर से थोड़ी ही दूरी पर उनका भोजनालय है। आप फ्री में वहां से कूपन लीजिए और बैठ कर शुद्ध सात्विक भोजन कीजिए। साईंबाबा के भोजनालय के बाहर साईंबाबा की एक विशाल मूर्ति है जो एक बड़े हंडे से भोजन निकाल रही है। यानी इस भोजनालय में आप साईंबाबा का दिया भोजन कर रहे हैं। हमें सबसे पहले जलेबी दी गई। फिर पूड़ी। इसके बाद चावल, दाल और दो किस्म की सब्जी। जब हम भोजन कर रहे थे तो शाम के साढ़े पांच बज रहे थे। लेकिन चूंकि हमने दिन में भोजन नहीं किया था इसलिए शाम का यह भोजन बहुत स्वादिष्ट लग रहा था। भोजनालय में एक साथ ३००० (तीन हजार) लोग एक साथ भोजन कर सकते हैं। दोनों तरफ मेजें लगी हुई हैं और बीच में ट्राली में रखे व्यंजन लिए परोसने वाले सेवक आते हैं और आपको देते जाते हैं। शिरडी के साईंबाबा के दरबार में तृप्त होकर हमें फिर रात को भोजन करने की जरूरत नहीं महसूस हुई। रात को हम यूं ही फल फूल खा कर रह गए। त्र्यंबकेश्वर भगवान (भगवान शिव) का दर्शन अत्यंत सुखद था। मंदिर पुराना हो गया है। इसका जीर्णोद्धार अत्यंत आवश्यक है। नंदी वाला मंदिर की खिड़कियां टूट चुकी हैं। इस पर न तो पुरातत्व विभाग के लोग ध्यान दे रहे हैं और न ही मंदिर का प्रबंधन। एक अत्यंत बहुमूल्य धरोहर हमारे सामने जीर्ण- शीर्ण पड़ा हुआ है।
नासिक (महाराष्ट्र) के पास इगतपुरी नामक स्थान सुरम्य है। चारो तरफ से पहाड़ियों से घिरे योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया (संक्षेप में वाईएसएस) के इगतपुरी आश्रम में छह दिन तक आध्यात्मिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेकर सुख मिला। इस कार्यक्रम का नाम था- शरद संगम। इसमें परमहंस योगानंद जी के देश- विदेश के शिष्य एक जगह इकट्ठा होते हैं और विशेष रूप से आयोजित आध्यात्मिक कार्यक्रमों में सामूहिक रूप से हिस्सा लेते हैं। सभी एक साथ बैठ कर शांति और आनंद के साथ नाश्ता और भोजन करते हैं। कार्यक्रम यूं होता था- सुबह उठ कर शक्ति संचार व्यायाम और गहरा ध्यान। फिर आठ बजे जलपान। उसके बाद परमहंस योगानंद जी की शिक्षाओं को केंद्र में रख कर किसी आध्यात्मिक विषय पर अत्यंत ग्यानवर्द्धक प्रवचन। दिन के १२ बजे भोजन। फिर किसी विषय पर गहरी जानकारी देने वाला प्रवचन। शाम को चार बजे चाय। इसके बाद शक्ति संचार व्यायाम और गहरा ध्यान। रात के आठ बजे भोजन। फिर या तो भजन या वीडियो फिल्म जो आध्यात्मिक भूख को एक हद तक मिटाती है। इसी दौरान १७ अक्तूबर को क्रिया दीक्षा का कार्यक्रम था। स्वामी कृष्णानंद जी के माध्यम से अनेक लोगों को दीक्षा मिली।
शरद संगम में स्वामी कृष्णानंद, स्वामी ओंकारानंद और ब्रह्मचारी सदानंद जी के साथ बिताए सुखद दिन कभी नहीं भूलेंगे।
Tuesday, October 11, 2011
भगवान विष्णु के दस अवतार
विनय बिहारी सिंह
भगवान विष्णु ने दस रूपों में अवतार लिया था। इनमें से भगवान राम और कृष्ण के बारे में तो सभी जानते हैं। उनके दसों अवतारों के नाम इस प्रकार हैं- १-मत्स्य, २- कूर्म, ३- वराह, ४- वामन, ५- नृसिंह, ६- परशुराम, ७-राम,८-बुद्ध ९- कृष्ण, १०- कल्की। हर कथा अत्यंत रोचक है। आइए आज मत्स्य अवतार के बारे में चर्चा करें।
कथा है- एक बार द्रविड़ वंश के राजा सत्यव्रत जिन्हें बाद में मनु की पदवी मिली, नदी में स्नान कर रहे थे। अचानक उनकी अंजुरी में एक छोटी सी मछली आ गई। सत्यव्रत उसे फिर जल में रखने ही वाले थे कि मछली ने उनसे प्रार्थना की कि वे उसके जीवन की रक्षा करें और उसे किसी सुरक्षित स्थान पर ले चलें। सत्यव्रत या मनु ने मछली को एक कमंडलु में रख दिया और स्ना कर घर पहुंचे। घर पहुंच कर उन्होंने देखा कि मछली कमंडलु से बड़ी हो गई है। तब मछली ने आग्रह किया कि उसे किसी तालाब में रख दिया जाए। राजा ने उसे तालाब में रखवा दिया। लेकिन आश्चर्य, वह मछली तालाब से भी बड़ी हो गई। तब मछली ने आग्रह किया कि उसे नदी में रख दिया जाए। जब उसे नदी में रखा गया तो वह नदी से भी बड़ी हो गई। तब मछली ने आग्रह किया कि उसे समुद्र में रख दिया जाए। लेकिन आश्चर्य- जब उसे समुद्र में रखा गया तो वह समुद्र से भी बड़ी हो गई। तब मनु को समझ में आ गया कि यह मछली कोई सामान्य जीव नहीं है। उन्होंने आदर के साथ उसे प्रणाम किया और पूछा कि वे कौन हैं। तब भगवान विष्णु ने उन्हें अपना असली रूप दिखाया। मनु या सत्यव्रत ने पूछा कि इस अवतार का कारण क्या है भगवन। मछली रूप में भगवान ने कहा- आज से सात दिनों बाद प्रलय आएगा। तुम महत्वपूर्ण वनस्पतियों के बीज, औषधियां आदि इकट्ठा कर रखो। इस प्रलय में तुम्हारा बाल भी बांका नहीं होगा। तुम इसी समुद्र के किनारे आ जाना। तुम्हें एक नाव मिलेगी। उस पर सप्तऋषि बैठे होंगे। उन्हीं के साथ तुम भी अपने साथ लाए बीजों और औषधियों के साथ उस नाव पर बैठ जाना। तुम्हें सुरक्षित स्थान पर ले जाया जाएगा। ठीक सात दिनों बाद प्रलय आया। सत्यव्रत या मनु भगवान द्वारा निर्देशित सामान के साथ समुद्र के किनारे खड़े हो गए। जहां वे खड़े हुए वहीं एक बड़ी सी नाव प्रकट हुई। उस पर सप्तऋषि बैठे हुए थे। सत्यव्रत अपने सामान के साथ उस पर बैठ गए और भगवान के लोक को चले गए। यह है मत्स्य अवतार की संक्षिप्त कथा।
(मित्रों, मैं कल यानी १२ अक्तूबर से २३ अक्तूबर तक योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के महाराष्ट्र स्थित इगतपुरी में हो रहे शरद संगम में हिस्सा लेने जा रहा हूं। इस आनंददायी आयोजन से लौट कर आप से २४ अक्तूबर को भेंट होगी। तब तक आप पुराने पोस्ट पढ़ कर आनंद उठाएं।)
Monday, October 10, 2011
भगवान कोई वस्तु नहीं कि कोई उन्हें दिखा दे
विनय बिहारी सिंह
एक साधु से किसी तर्कवादी ने पूछा- यदि भगवान हैं तो दिखते क्यों नहीं? साधु ने कहा- भगवान कोई वस्तु नहीं हैं कि कोई दिखा दे। वे तो सर्वव्यापी, सर्वग्याता और सर्वशक्तिमान हैं। उन्हीं से सारी चीजें बनीं हैं और उन्हीं में सारी चीजों का लय हो जाता है। जन्म भी उन्हीं में और मृत्यु भी उन्हीं में। हम जीवित भी उन्हीं में हैं। हम सांस भी उन्हीं की कृपा से लेते हैं। हमारी सांस तय है। उससे ज्यादा सांस हम नहीं ले सकते। यह तय करने वाले भगवान ही हैं। और कोई नहीं। ये दिन- रात, सूर्य- चंद्रमा, चांद- तारे, प्रकृति की सुंदरता और अनंत कोटि ब्रह्मांड उन्हीं के कारण नियम से चल रहे हैं। २४ घंटे के दिन और रात को उन्होंने ही बनाया है। फिर भी आप पूछ रहे हैं कि भगवान कहां हैं? तब तर्कवादी ने पूछा- अगर भगवान हैं तो दुनिया में इतना दुख, इतनी पीड़ा क्यों है? साधु ने उत्तर दिया- हमने जो कर्म किया है उसी का फल भोग रहे हैं। भगवान ने हमें स्वतंत्र इच्छा शक्ति दी है। अगर हम उस इच्छा शक्ति का दुरुपयोग करेंगे तो फल भोगेंगे ही। इसमें भगवान का तो कोई दोष नहीं है। उन्होंने आपको हवा दी, पानी दिया, सूर्य का प्रकाश दिया, फल- फूल दिए, अनाज दिया। लेकिन फिर भी आप उनके आभारी नहीं हैं। उल्टे आप उनके अस्तित्व पर ही शक कर रहे हैं। तब तर्कवादी ने पूछा- आखिर कोई तो भगवान के संपर्क में होगा? साधु ने कहा- हां, इस दुनिया में अनेक संत हैं जो भगवान के संपर्क में हैं। उनका मन पूर्ण रूप से भगवान में स्थिर है। उनकी आंखें बंद हों या खुली निरंतर भगवान के दर्शन करती रहती हैं। यदि आप भी घंटों स्थिर बैठ कर भगवान का गहरा ध्यान करें तो उनकी दिव्य अनुभूति होगी। लेकिन किसी में इतना धैर्य नहीं है। अनेक लोग समझते हैं कि किताबें पढ़ने या तर्क करने से ही भगवान मिल जाएंगे। हर चीज का एक नियम होता है। भगवान को अनुभव करने के नियमों का पालन कीजिए। सत्य, अहिंसा, आस्तेय, ब्रह्मचर्य, शुचिता, तप, संतोष, स्वाध्याय और ईश्वर में पूर्ण समर्पण के बाद धारणा, ध्यान और समाधि की स्थिति प्राप्त होती है। सिर्फ तर्क करने से भगवान का अनुभव नहीं होगा।
Friday, October 7, 2011
कब्ज दूर करने के प्राकृतिक उपाय
विनय बिहारी सिंह
आज कब्ज के बारे में एक जानकार से ढेर सारी बातें हुईं। इसे मैं आपको भी बताना चाहता हूं। कब्ज के विशेषग्य डाक्टर ने कहा- अगर अधिक मात्रा में कब्ज तोड़ने वाली दवाएं ली जाएंगी तो भी कब्ज हो जाता है। कैसे? आपने कब्ज खत्म करने वाली दवा जरूरत से ज्यादा मात्रा में ली। आपका पेट साफ हो गया। लेकिन जैसे ही आपने दवा छोड़ी कब्ज ने अपना मजबूत आसन जमा लिया। इसलिए कभी भी दवाओं पर आश्रित नहीं रहना चाहिए। अगर आपको कब्ज है तो हफ्ते में या पंद्रह दिन पर इसबगोल की भूसी जरूर ले लेनी चाहिए। यह प्राकृतिक उपाय है। दिन भर में तीन बार एक- एक चम्मच इसबगोल की भूसी अच्छी है। लेकिन अगर आप दो चम्मच भी लेते हैं तो कोई दिक्कत नहीं है। दिन भर में तीन से चार लीटर पानी अवश्य पीना चाहिए।
आलूबुखारा कब्ज वाले रोगी को बहुत फायदा करता है। कोलकाता में आलूबुखारा खूब मिलता है। लेकिन चूंकि यह थोड़ा सा खट्टा होता है, इसलिए इसके साथ थोड़ा सा खजूर (सूखा फल) मिला कर खा सकते हैं। कई लोग आलूबुखारा पुलाव वगैरह में भी डाल कर खाते हैं। दिन में सेब का रस पीना कब्ज को मार डालने जैसा बताया गया है। पपीता कब्ज खत्म करने वाला लोकप्रिय फल है। यह पेट तो साफ करता ही है, स्वास्थ्यवर्द्धक भी है। पपीते के साथ अगर अंजीर का सेवन भी किया जाए तो यह फायदा कई गुना हो जाता है। पालक भी कब्ज तोड़ने की अचूक दवा है लेकिन पालक मुझे सूट नहीं करती। हालांकि इसमें तमाम विटामिन और मिनरल्स होते हैं। डाक्टर पालक का रस पीने की सलाह देते हैं लेकिन वह भी मुझे सूट नहीं करता। संतरे का रस निसंदेह कब्ज में बहुत फायदेमंद है और यह सबको सूट करता है। सुबह नाश्ते में एक या दो संतरे और रात को सोने से पहले एक या दो संतरे लेना बहुत फायदेमंद है। अमरूद और अमरूद का रस भी बहुत फायदा करता है। गाजर, टमाटर आदि का सेवन तो अवश्य करना चाहिए। इसके अलावा नमक मिला नींबू का पानी खूब फायदेमंद है। पानी गुनगुना होना चाहिए। अमरूद के अलावा अंगूर, भृंगराज का रस आदि अचूक प्राकृतिक दवाएं हैं। डाक्टर ने कहा- इन सारी चीजों के सेवन के अलावा हफ्ते में एक दिन सिर्फ संतरे या मोसम्मी के रस पर उपवास रखना सोने में सुगंध जैसा है। हरी सब्जियां भी फाइबर युक्त होती हैं और कब्ज खत्म करने में मदद करती हैं, बशर्ते उन्हें खूब तेल या घी में भूना न गया हो। उबली सब्जियां इसीलिए अमृत जैसी होती हैं। हल्का तेल डालना नुकसानदेह नहीं होता। अंतिम चीज जो बहुत आवश्यक है, वह है- व्यायाम। खासतौर से पेट वाले व्यायाम।
डाक्टर से जो मैंने सुना आप तक पहुंचा कर अच्छा लग रहा है।
Wednesday, October 5, 2011
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः
विनय बिहारी सिंह
मेरे आवास के पास एक शिव मंदिर और कालीमंदिर है। वहां आज सुबह से देवी पाठ का सीडी बज रहा है- या देवी सर्व भूतेषु, मातृ रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः।..... सुबह से लेकर आफिस आने तक माता का पाठ सुनना अच्छा लग रहा था। मां दुर्गा मातृ रूप में, शक्ति रूप में, ग्यान रूप में या अन्य रूपों में हमारे जीवन का केंद्र हैं। यदि आप अपने बच्चे को मेधावी बनाना चाहते हैं तो मां सरस्वती, यदि धनवान बनाना चाहते हैं तो मां लक्ष्मी, यदि प्रेम का पात्र और शक्तिवान बनना चाहते हैं तो मां दुर्गा, यदि गहन साधना में जाना चाहते हैं तो मां काली की अराधना अच्छी है। तब आप पूछ सकते हैं कि मां के ये विभिन्न रूप क्यों? दरअसल मां के ही ये अलग अलग रूप हैं। मां तो एक ही हैं। बस उनकी लीलाओं के आधार पर अलग- अलग रूप बना दिए गए हैं। मां काली को तो काल की देवी कहा जाता है। उनके भक्तों से काल दूर भागता है। इसी तरह मां दुर्गा के भक्तों से भी काल दूर भागता है। मां सरस्वती और मां लक्ष्मी भी अपने भक्तों को अनोखे ढंग से बचाती हैं। इस पर एक भक्त ने कहा- क्यों कनफ्यूजन पैदा कर रहे हैं। किसी एक देवी के पूजा करने से ही सारा काम हो जाता है। तब वहां खड़े एक साधु ने कहा- नहीं। यह कनफ्यूजन नहीं है। भगवान एक हैं उनके रूप अलग अलग हैं। जैसे चीनी तो एक ही है। लेकिन मिठाइयां अलग- अलग हैं। ऐसे भक्तों की कमी नहीं है जो भगवान के विभिन्न रूपों की पूजा करना चाहते हैं। दरअसल भक्त भगवान या जगन्माता के अलग अलग रूपों में भक्ति कर आनंदित होता है। लेकिन अगर आपको कनफ्यूजन होता है तो किसी एक देवी पर टिके रहिए और मानिए कि बाकी सारे रूप उन्हीं के हैं। इस तरह आपको कनफ्यूजन भी नहीं होगा और सारा संसार आपको अपने इष्ट से आच्छादित लगेगा। बस मन किसी एक रूप पर केंद्रित हो जाए। वही रूप बाद में आपको निराकार भगवान की ओर ले जाएगा। अंत में सारे रूप फिर एक में मिल जाते हैं। आखिर ईश्वर तो एक ही हैं।
मेरे आवास के पास एक शिव मंदिर और कालीमंदिर है। वहां आज सुबह से देवी पाठ का सीडी बज रहा है- या देवी सर्व भूतेषु, मातृ रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः।..... सुबह से लेकर आफिस आने तक माता का पाठ सुनना अच्छा लग रहा था। मां दुर्गा मातृ रूप में, शक्ति रूप में, ग्यान रूप में या अन्य रूपों में हमारे जीवन का केंद्र हैं। यदि आप अपने बच्चे को मेधावी बनाना चाहते हैं तो मां सरस्वती, यदि धनवान बनाना चाहते हैं तो मां लक्ष्मी, यदि प्रेम का पात्र और शक्तिवान बनना चाहते हैं तो मां दुर्गा, यदि गहन साधना में जाना चाहते हैं तो मां काली की अराधना अच्छी है। तब आप पूछ सकते हैं कि मां के ये विभिन्न रूप क्यों? दरअसल मां के ही ये अलग अलग रूप हैं। मां तो एक ही हैं। बस उनकी लीलाओं के आधार पर अलग- अलग रूप बना दिए गए हैं। मां काली को तो काल की देवी कहा जाता है। उनके भक्तों से काल दूर भागता है। इसी तरह मां दुर्गा के भक्तों से भी काल दूर भागता है। मां सरस्वती और मां लक्ष्मी भी अपने भक्तों को अनोखे ढंग से बचाती हैं। इस पर एक भक्त ने कहा- क्यों कनफ्यूजन पैदा कर रहे हैं। किसी एक देवी के पूजा करने से ही सारा काम हो जाता है। तब वहां खड़े एक साधु ने कहा- नहीं। यह कनफ्यूजन नहीं है। भगवान एक हैं उनके रूप अलग अलग हैं। जैसे चीनी तो एक ही है। लेकिन मिठाइयां अलग- अलग हैं। ऐसे भक्तों की कमी नहीं है जो भगवान के विभिन्न रूपों की पूजा करना चाहते हैं। दरअसल भक्त भगवान या जगन्माता के अलग अलग रूपों में भक्ति कर आनंदित होता है। लेकिन अगर आपको कनफ्यूजन होता है तो किसी एक देवी पर टिके रहिए और मानिए कि बाकी सारे रूप उन्हीं के हैं। इस तरह आपको कनफ्यूजन भी नहीं होगा और सारा संसार आपको अपने इष्ट से आच्छादित लगेगा। बस मन किसी एक रूप पर केंद्रित हो जाए। वही रूप बाद में आपको निराकार भगवान की ओर ले जाएगा। अंत में सारे रूप फिर एक में मिल जाते हैं। आखिर ईश्वर तो एक ही हैं।
Tuesday, October 4, 2011
दुर्गा यानी प्रेम और सुरक्षा का दुर्ग
विनय बिहारी सिंह
दुर्गा यानी ऐसी जगन्माता जो हमें प्रेम और सुरक्षा के दुर्ग में रखती हैं। जगन्माता के दुर्ग में जो रहता है उसका बाल बांका नहीं होता। तो कौन रहता है मां के दुर्ग में? जो उनका भक्त हो। रामकृष्ण परमहंस के एक शिष्य कहा करते थे- दुर्गा दुर्गा नाम जपूं तो डर किस बात का? वे भवभय हारिणी हैं। उनका एक नाम दुर्गतिनाशिनी है। मां दुर्गा के दस हाथ हैं। उनमें विभिन्न अस्त्र- शस्त्र हैं। लेकिन एक हाथ आशीर्वाद देता हुआ है, अपने भक्तों को अभय दान देता हुआ। वे अपने भक्तों को दुर्गति से बचाती हैं। यानी उनके भक्त पर कोई संकट आने वाला होगा तो वे संकट को ही नष्ट कर देती हैं। वे भक्तों को विपत्तियों से बचा लेती हैं। कौन मां होगी जो अपने बच्चे को कष्ट में देखना चाहेगी? यही बात मां दुर्गा के साथ है। कई महीने पहले मैं मां दुर्गा के एक भक्त से मिला था। उनकी आंखों में माता के प्रति भक्ति स्पष्ट नजर आ रही थी। उन्हें कुछ खाने को मिलता था तो वे कहते थे- मां आज तुम यह दे रही हो। ठीक है, तब यही खाने में मेरी भलाई है। खाने से पहले वे मां दुर्गा को भोजन चढ़ाते थे। आंखें बंद कर उसे मन ही मन अर्पित करते थे और तब कहते थे- मेरे भीतर जो दुर्गा मां हैं, उन्हीं को यह भोजन समर्पित है। मां दुर्गा के ऐसे भक्त दुर्लभ हैं। वे यह मानते हैं कि जीवन में जो कुछ भी हो रहा है सब मां दुर्गा की कृपा से हो रहा है और इसका कोई न कोई उद्देश्य है। वे कहते हैं- अगर मुझे किसी ने मिठाई खाने को दी तो यह बिना मां की इच्छा के संभव नहीं है। अगर किसी ने मुझे कोई सुविधा दी तो वह भी मां की कृपा से हुआ। इस तरह वे मां दुर्गा के दुर्ग में रहते हैं। वे कहते हैं- मेरी जगन्मता भवभयहारिणी हैं। फिर मैं क्यों डरूं? मेरे जीवन में सब ठीक हो जाएगा।
Monday, October 3, 2011
दुर्गोत्सव
विनय बिहारी सिंह
इन दिनों कोलकाता में दुर्गोत्सव चल रहा है। शाम को सड़कों और पंडालों में तो भारी भीड़ रहती ही है, ट्रेनों और बसों में भी खूब भीड़ होती है। युवा स्त्री- पुरुष और बच्चे अत्याधुनिक वस्त्रों में उत्साह और उत्सुकता से घूम- फिर रहे हैं। विभिन्न ढाबों में खा- पी रहे हैं। कोलकाता में दुर्गोत्सव पांच दिन चलता है। इस तरह पांच दिनों तक यही दृश्य रहेगा। पंडालों के पास सड़कों के किनारे दूर तक खाने- पीने के स्टाल लगे रहते हैं। घूमने वाले आते हैं और चाऊमिन, रोल, चाट, पैस्ट्री, पैटीज, पिजा, छोले- बठूरे, कचौरी- मीठी दाल और अन्य तरह के व्यंजन खूब चाव से खाते हैं और घूमने के लिए आगे बढ़ जाते हैं। इन घूमने वालों के घर रात का खाना नहीं बनता। वे घूमते हुए जब भूख लगती है तो कहीं किसी स्टाल पर रुकते हैं और अपनी मनपसंद की चीज खा- पी लेते हैं। पूरी रात वे घूम सकते हैं। कोई डर नहीं, कोई भय नहीं। मेट्रो ट्रेन आज के दिन यानी सप्तमी से तीन- चार दिनों के लिए दिन के दो बजे से शुरू हो कर रात भर चलती है। बाकी दिन सुबह साढ़े छह से मेट्रो ट्रेन शुरू होती है और रात के दस बजे के आसपास बंद हो जाती है। लेकिन सप्तमी को मेट्रो दिन के दो बजे शुरू होती है क्योंकि उसे रात भर चलना होता है। यहां के कुछ पंडालों को देख कर कोई भी अवाक हो सकता है। इतने खूबसूरत और कलात्मक पंडाल कि जिसका शब्दों में वर्णन मुश्किल है। इन्हीं में से एक अहिरीटोला दुर्गापूजा पंडाल है। यह पंडाल शीतला मंदिर के ठीक बगल में बनता है। पहले मेरा दफ्तर वहां हुआ करता था तो बिना कोशिश के ही वहां का अद्भुत पंडाल मैं देख लिया करता था। लेकिन अब दफ्तर वहां से दूर आ गया है।
लेकिन एक बात मुझे लगातार हांट करती है। जो लोग दुर्गोत्सव मनाते हैं क्या वे कभी एकांत में बैठ कर मां दुर्गा की हृदय से पूजा करते हैं? इनमें से कुछ लोग तो जरूरत करते होंगे। मां दुर्गा को करुणामयी कहा जाता है। वे करुणा की अनंत सागर हैं। उनके पास जो अपना दिल उड़ेल देता है, वह मां का अनंत प्यार पाता रहता है।
Saturday, October 1, 2011
what happens after death?
Vinay Bihari Singh
Great saints has said- after death, we enter in to astral world. then we freed from body problems. Paramhansa Yogananda ji (Founder of Yogoda satsanga society of India/self realization fellowship) has written in Aoutobiography of a Yogi that there are many levels in astral world just like here on earth. But those who are lover of God, are always happy in the astral world. your astral body is made of light and consciousness. so you can move where ever you want. But for bad souls (who are evil doers) there is no joy there. those who committed suicide, are worst souls. the can not get body for long years. they feel trouble every where. That's why saints say- Never commit suicide. Otherwise you will get more trouble when you will be dead.
That's why we should be more loving towards human beings, more tolerant toward those who are less previlaged. Paramhansa Yogananda has said- God is always loving you unconditionly. But He is not dictator. that's why He has given you free will. So love God mement by moment.
Great saints has said- after death, we enter in to astral world. then we freed from body problems. Paramhansa Yogananda ji (Founder of Yogoda satsanga society of India/self realization fellowship) has written in Aoutobiography of a Yogi that there are many levels in astral world just like here on earth. But those who are lover of God, are always happy in the astral world. your astral body is made of light and consciousness. so you can move where ever you want. But for bad souls (who are evil doers) there is no joy there. those who committed suicide, are worst souls. the can not get body for long years. they feel trouble every where. That's why saints say- Never commit suicide. Otherwise you will get more trouble when you will be dead.
That's why we should be more loving towards human beings, more tolerant toward those who are less previlaged. Paramhansa Yogananda has said- God is always loving you unconditionly. But He is not dictator. that's why He has given you free will. So love God mement by moment.
Friday, September 30, 2011
Yogavatar Lahiri Mahashay
Vinay Bihari Singh
Today is the birth day of Yogavatar Lahiri Mahashay (Shyama Charan Lahiri) . In the year 1861 he recieved Kriya Yoga from his eternal Guru Mahavatar Baba ji. I bow to these great saints. Lahiri Mahashay has said- I am ever with those who practise Kriya (Yoga). I will guide you to the Cosmic Home through your ever enlarging spiritual perceptions.
When ever I remember this great saint, i always feel blessed. Once a lady deciple of Lahiri Mahashay wanted to meet his god like Guru. But she was in Calcutta and her Guru was in Banaras (Varanasi, Utter Pradesh). She hurried to reach Howrah sataion. time was very short. the moment she reached the railway station, train started to leave plateform. She prayed- Gurudev, I cannot wait for your Darshan. please do something. Immediately, the train stoped. The driver tried his best. But, he was failed. In the mean time, the guard of the train told this lady devotee, please go in to the train and take a seat, i will buy ticket for you. gUARD DID SO. THE MOMENT, THIS LADY DEVOTEE GOT THE TICKET AND SAT ON HER SEAT TRAIN STARTED TO MOVE. this was miracle.
when this holy lady, reached at her Guru's home, her Guru Lahiri Mahashay said- Why so hurry? You could have catch another train. But you liked to trouble me for stopping the train. the lady touched her Guru's holy feet. The Guru blessed her.
I always remember this miracle. Lahiri Mahashya did many miracles. but he always said- BANAT BANAT BAN JAYI. It means keep trying to contact God, you will be blessed by him in due time. keep on keeping on.
I bow to the holy feet of Lahiri Mahashay. Jai Param Guru.
Thursday, September 29, 2011
नवरात्रि की एक बार फिर चर्चा
विनय बिहारी सिंह
नवरात्रि के बारे में इस ब्लाग पर पिछले साल विस्तार से चर्चा हो चुकी है। आइए इस बार इसका एक और पक्ष लें। नवरात्रि के नौ दिन- तीन भागों में विभक्त होते हैं। पहले तीन दिन देवी दुर्गा, फिर तीन दिन देवी लक्ष्मी और आखिरी तीन दिन देवी सरस्वती की पूजा होती है। सभी जानते हैं कि मां दुर्गा, महिषासुर मर्दिनी हैं। उन्होंने विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली राक्षस को खत्म किया था। वे मनुष्य के भीतर बैठे महिषासुर का भी वध करती हैं। अगले तीन दिन मां लक्ष्मी की पूजा होती है। लक्ष्मी यानी धन। मनुष्य धन का बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय में लगे। अपने हित में भी लगे तो कुछ कल्याणकारी काम में भी लगे। पहले लोग धर्मशालाएं, तालाब, अस्पताल और अन्य अनेक लोकहित के काम करते थे। अब एक तबका ऐसी सेवा बेकार मानने लगा है। वह सिर्फ अपना हित साधना ही धर्म मान बैठा है। नतीजा यह है कि वह तमाम तरह के तनावों से गुजर रहा है। लेकिन फिर भी लोकहित में एक रुपया लगाने की उसकी इच्छा नहीं है। सारा धन खा कर बैठ जाओ। यह ईश्वर की कृपा का अनादर है। यदि अपनी कमाई का सिर्फ एक रुपया भी उचित जगह पर दान किया जाए तो अच्छा है। अल्प दान देने से भी धन बढ़ता है। हमारे यहां दान को भी धर्म कहा गया है।
अंतिम तीन दिन मां सरस्वती की पूजा की जाती है। मां सरस्वती, ग्यान की देवी हैं। ग्यान के बिना सबकुछ अधूरा है। ग्यान निरंतर बढ़ता रहता है। हमारे अनुभव और जो कुछ भी हम देखते- सुनते हैं वह हमारे ग्यान में शामिल होता जाता है। इस तरह नौ दिनों की नवरात्रि को मां रूपी ईश्वर या मां दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती के रूप में मनाते हैं।
लेकिन यह पूजा सिर्फ मूर्ति पूजा नहीं है। मां दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती के प्रतीकों को गहरे समझ कर ईश्वरोन्मुखी होना ही इसका उद्देश्य है। दुर्गापूजा का त्यौहार हमें और ज्यादा ईश्वर के करीब लाता है। उत्तर भारत में रावण का पुतला जलाया जाता है। इस दिन को विजयादशमी के रूप में मना कर लोग अपने भीतर के रावण को राम की कृपा से मार डालते हैं। यहां भी अच्छाई की बुराई पर जीत को ही रेखांकित किया जाता है।
Wednesday, September 28, 2011
प्राण यानी लाइफ फोर्स क्या है?
विनय बिहारी सिंह
हम सभी जानते हैं कि प्राण है तो हमारा जीवन है। प्राण नहीं तो शरीर मृत हो जाता है। यह प्राण मनुष्य के शरीर को संचालित करता है। प्राण पांच प्रकार के बताए गए हैं- १. प्राण (श्वांस लेना), २. अपान ( उत्सर्जन) ३. उदान (मेटाबोलिज्म, निगलने की शक्ति), ४. समान (पाचन) ५. व्यान (संचार, रक्त संचार आदि)। ये प्राण शरीर में ठीक से काम नहीं करते तो आदमी बीमार हो जाता है। प्रकृति के विरुद्ध काम करने से मनुष्य का शरीर विद्रोह करने लगता है। इसीलिए ऋषियों ने कहा है- आपका शरीर मंदिर है। इसमें हानिकारक पदार्थ न डालें। सिर्फ पवित्र और स्वास्थ्य वर्द्धक वस्तुओं का ही सेवन करें। जब प्राण चले जाते हैं तो व्यक्ति अपने सूक्ष्म शरीर में चला जाता है। ऋषियों ने कहा है कि प्राण चले जाने के बाद भी मनुष्य सूक्ष्म शरीर से देख सकता है, सुन सकता है, सूंघ सकता है, स्पर्श कर सकता है। उसे अब भोजन और श्वांस की आवश्यकता नहीं होती। यह बहुत ही दिलचस्प विषय है। मनुष्य अपने शरीर को इतना महत्वपूर्ण मानता है, लेकिन एक दिन वह भी उसका साथ छोड़ देता है। जो चीज हमेशा उसके साथ रहती है, वह है ईश्वर से संपर्क। यदि शरीर में रहते रहते मनुष्य ईश्वर से नजदीकी बना लेता है तो मृत्यु के बाद उसे ईश्वर की गोद, ईश्वर का साम्राज्य मिलता है। ऐसे योगी को जीवित रहते हुए ही प्रभु यह बता देते हैं कि उसके शरीर में प्राण रहें या नहीं वह सदा के लिए उनके साम्राज्य में आ गया है। इसी आनंद में सिद्ध पुरुष सदा रहते हैं। उनके मन में और कोई इच्छा नहीं रहती। वे ईश्वर के साम्राज्य में आनंद मग्न रहते हैं। और चाहिए भी क्या? ईश्वर ही मिल गए तो बाकी चीजें क्या होंगी? जब अनंत साम्राज्य मिल गया तो अंश के लिए क्या सोचना और चिंता करना?
Tuesday, September 27, 2011
भगवान बड़े या समस्या
विनय बिहारी सिंह
आमतौर पर जो लोग ध्यान करते हैं उनकी शिकायत रहती है कि ज्योंही वे आंख बंद कर ध्यान करने लगते हैं, दिमाग में तमाम तरह की अपनी समस्याएं आने लगती हैं। यह काम बाकी है तो वह काम बाकी है। बस पूरे समय यही सब चलता रहता है। जब बहुत देर हो जाती है तो आंखें खोलते हैं। तब पता चलता है कि पूरे समय तो उन्होंने समस्या पर ध्यान किया। भगवान तो एक क्षण भी याद नहीं आए। तब वे अफसोस करते हैं कि यह तो बड़ा गड़बड़ हो रहा है। क्या करें? संतों ने इसका बहुत अच्छा उपाय बताया है। उन्होंने कहा है- इस सृष्टि के मालिक भगवान हैं। हर काम का अपना समय होता है। जब आप खाना पका रहे होते हैं तो सिर्फ उसी पर ध्यान केंद्रित कीजिए। जब आप कोई कविता लिख रहे हैं तो पूरा ध्यान उसी पर केंद्रित कीजिए। तो जब इस सृष्टि के मालिक भगवान हैं तो सबसे बड़े और शक्तिशाली वही हुए। तो जाहिर है उन्हीं के बारे में सोचना चाहिए। तब आप समस्या के बारे में कैसे सोचते हैं? आखिर जिस समस्या के बारे में आप सोच रहे हैं, उसे भगवान ही दूर कर सकते हैं। और आप बैठे हैं भगवान का ध्यान करने। तो उन्हीं के बारे में सोचिए। उन्हीं को श्रद्धा और भक्ति से याद कीजिए। उन्हीं से प्रार्थना कीजिए। समस्या पर बैठ कर जलेबी बनाने से तो कोई लाभ नहीं । हां, जब ध्यान खत्म हो जाए तब समस्या का समाधान करने के लिए कोई कदम उठाइए। लेकिन ध्यान में तो सिर्फ ध्यान ही करना चाहिए। खाना पकाते समय भोजन तैयार करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। लेकिन आप खाना पकाते हुए ध्यान विचलित करेंगे तो निश्चय ही भोजन उतना स्वादिष्ट नहीं बनेगा जितना बनना चाहिए। ध्यान का अर्थ है भगवान में पूरी तरह से लय। यह तभी होगा जब आपके दिमाग में भगवान व्याप्त हो जाएंगे। यह गहन भक्ति से ही संभव है।
Monday, September 26, 2011
क्रिया योग के पुनरुद्धार की १५०वीं वर्षगांठ
विनय बिहारी सिंह
इस वर्ष श्री श्री परमहंस योगानंद द्वारा स्थापित संस्था योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया क्रिया योग के पुनरुद्धार की १५०वीं वर्षगांठ मना रही है। परमहंस जी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक- योगी कथामृत- में लिखा है- पौराणिक कथा में जिस प्रकार गंगा ने स्वर्ग से पृथ्वी पर उतर कर अपने तृषातुर भक्त भगीरथ को अपने दिव्य जल से संतुष्ट किया, उसी प्रकार १८६१ में क्रिया योग रूपी दिव्य सरिता हिमालय की गुह्य गुफाओं से मनुष्यों की कोलाहलभरी बस्तियों की ओर बह चली।
सन १८६१ में बनारस के महान योगी, श्यामाचरण लाहिड़ी (लाहिड़ी महाशय के नाम से प्रसिद्ध) को हिमालय में उनके अमर गुरु महावतार बाबाजी ने क्रिया योग की दीक्षा दी और उन्होंने इसके अभ्यास के द्वारा ईश्वर का पूर्ण बोध प्राप्त किया। इस विग्यान के प्रसार का दिव्य उत्तरदायित्व लाहिड़ी महाशय को प्राप्त हुआ। लाहिड़ी महाशय से स्वामी श्री युक्तेश्वर और आगे परमहंस योगानंद तक क्रिया योग का प्रसार अटूट रूप से चलता रहा है। क्रिया योग सच्चे जिग्यासुओं को दैवीय सांत्वना और एकात्मता देता है। लाहिड़ी महाशय १८६१ में हिमालय की तलहटी में एक सैन्य अड्डे पर एकाउंटेंट के रूप में सेवा दे रहे थे। वहीं पर एक दिन वे घूमते हुए पहाड़ों में रास्ता भूल गए। उसी समय लाहिड़ी महाशय को एक दिव्य गुफा के बाहर उनके गुरु महावतार बाबाजी मिले। दिव्य आभा से युक्त। उन्होंने ही बताया कि उनका हिमालय में स्थानांतरण दैवी कारण से हुआ है। ताकि उन्हें वे क्रिया दीक्षा दे सकें। लाहिड़ी महाशय विवाहित थे। महावतार बाबाजी ने उन्हें इसलिए दीक्षा दी ताकि संसार में यह संदेश जाए कि पारिवारिक व्यक्ति भी योगी हो सकता है। इसके लिए उसे घर परिवार छोड़ कर जंगल में जाने की जरूरत नहीं है। लाहिड़ी महाशय अपने गुरु, महावतार बाबाजी से मिले और ध्यान के सर्वोच्च प्राचीन विग्यान में उनसे दीक्षा ली। अंधेरे युग में शताब्दियों तक लुप्त होने के बाद बाबाजी ने फिर से इसकी खोज की और इसे क्रिया योग का नाम दिया। उन्होंने श्री लाहिड़ी महाशय से कहा था कि यह वही विग्यान था जिसे सदियों पहले कृष्ण ने अर्जुन को दिया था।
एक संक्षिप्त परिचय-
महावतार बाबाजी- क्रिया योग के लुप्त विग्यान के प्रवर्तक।
लाहिड़ी महाशय- क्रिया योग के पुनर्जागरण में प्रमुख (क्रिया योग का पुनर्जागरण उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में शुरू हुआ था और आज तक जारी है।)
स्वामी श्रीयुक्तेश्वर- लाहिड़ी महाशय के अति उन्नत शिष्य तथा परमहंस योगानंदजी के गुरु, इन्होंने एक ग्यानावतार (ग्यान के अवतार) की आध्यात्मिक अवस्था प्राप्त की।
परमहंस योगानंद- योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया (वाइएसएस) व (विदेशों में) सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप (एसआरएफ) गुरुओं की परंपरा में अंतिम गुरु औऱ इन दोनों संस्थाओं के संस्थापक।
परमहंस योगानंद जी ने १९१७ में योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया की स्थापना की थी।
Thursday, September 22, 2011
देह बुद्धि, मन बुद्धि
विनय बिहारी सिंह
ऋषियों ने कहा है- मनुष्य इंद्रिय, मन और बुद्धि से ईश्वर को नहीं जान सकता। वे इंद्रियातीत तो हैं ही, मन और बुद्धि से परे हैं। लेकिन ईश्वर प्रेम के चुंबक से खिंच आते हैं। अनन्य और गहरा प्रेम। उनके सिवा और कुछ न दिखे, न सुनाई दे और न महसूस हो। वे सभी भूतों में हैं। ईश्वर सर्वव्यापी, सर्व ग्याता, सर्व शक्तिमान हैं। सदा चैतन्य हैं। इसीलिए तो हमारे मन में क्या है, वे अच्छी तरह जानते हैं। हम तो रात को सो जाते हैं, लेकिन वे सदा जाग्रत हैं। रामचरित मानस में भगवान शिव ने ईश्वर की इस तरह व्याख्या की है-
पग बिनु चलै, सुनै बिनु काना।
कर बिनु कर्म करै बिधि नाना।।
भगवान के पैर नहीं हैं लेकिन वे सर्वत्र मौजूद रहते हैं,
उनके कान नहीं हैं, लेकिन वे सबकी सुनते हैं। उनके हाथ नहीं हैं, लेकिन सारे कार्य करते हैं।
यह अद्भुत और मनोहारी व्याख्या है। भगवान ने हमें बनाया और फिर हमें स्वतंत्र इच्छा शक्ति दे दी। विवेक दे दिया।
अब हम अपनी इच्छा से जो कर्म करते हैं, उसका फल भोगते हैं। जब हम अपने विवेक को दबा देते हैं तो बुरे कर्म करते हैं। लेकिन जब हमारा विवेक शक्तिशाली होता है तो हम अच्छे कार्य करते हैं। इन्हीं कार्यों का फल मिलता है। गीता में कहा है- भगवान के लिए काम करो। अपने लिए नहीं। जब कर्ता नहीं बनोगे तो भोक्ता भी नहीं होगे। लेकिन जब यह मानोगे कि मैंने किया तो भोक्ता भी तुम्हीं बनोगे। यानी मैं या ईगो या अहंकार का त्याग।
Monday, September 19, 2011
लिखने की इच्छा नहीं हो रही
मित्रों अचानक ब्लाग लिखने की इच्छा नहीं हो रही है। सोच रहा हूं कि कुछ दिन लिखने को विराम दूं। कम से कम एक हफ्ता या डेढ़ हफ्ता। इससे शायद कुछ फर्क पड़े। यह ईश्वरीय चर्चा से ऊबना नहीं है। ईश्वर तो हृदय में हैं, प्राणों में हैं, हमारी हर सांस में हैं। लेकिन कई बार ऐसा होता है कि सिर्फ लेखन से विराम लेना पड़ता है। यह विराम सकारात्मक होता है। मेरा न लिखना भी सकारात्मक और ऊर्जा से भरा हुआ कदम है। इसे कृपया निगेटिव अर्थ में न लें। कृपया इसकी इजाजत दें। बहुत बहुत धन्यवाद।
विनय बिहारी सिंह
Saturday, September 17, 2011
दो सूरज वाला ग्रह
courtesy- BBC Hindi service
कैप्लर -16 बी पर जब दिन ख़त्म होता है तो वहाँ पर दो सूर्यास्त होते हैं.
अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने घोषणा की है कि उसने एक ऐसे ग्रह को खोज निकाला है जिसकी कक्षा में एक नही बल्कि दो सूर्य हैं.
नासा की शक्तिशाली दूरबीन कैप्लर से देखे गए अंतरिक्ष के अविश्वसनीय दृश्य और इस ग्रह की तुलना हॉलीवुड की उस काल्पनिक फ़िल्म स्टार वॉर के टैटूइन ग्रह से की जा सकती है, लेकिन इस ग्रह पर जीवन की संभावना नहीं दिखती.
इसका नाम कैप्लर -16 बी रखा गया है. माना जा रहा है कि ये ग्रह भी शनि की तरह ही ठंडी गैसों से बना है.
ये नया ग्रह पृथ्वी से लगभग 200 प्रकाश वर्ष की दूरी पर है.
हांलाकि इस तरह के संकेत इससे पहले भी मिल चुके हैं कि ग्रहों के दो सू्र्य एक ही कक्षा में हो सकते हैं, पर इस नई खोज से इसकी पुष्टि पहली बार हुई है.
इसका मतलब ये हुआ कि कैप्लर -16 बी पर जब दिन ख़त्म होता है तो वहाँ पर दो सूर्यास्त होते हैं.
कैप्लर -16 बी के दोनों सूर्य पृथ्वी के सूर्य की तुलना में काफ़ी छोटे हैं. पहले का द्रव्यमान पृथ्वी के सूर्य के द्रव्यमान का 69 फ़ीसदी और 20 फ़ीसदी है.
इनका तापमान शून्य से सौ से डेढ़ सौ फारहेनाइट कम यानि माइनस 73 से 101 डिग्री सेल्सियस के आस-पास है.
इस ग्रह की कक्षा में दोनो सूर्य हर 229 दिन के बाद 65 मील की दूरी पर होते हैं.
कैप्लर टेलिस्कोप को 2009 में लगाया गया था ताकि ये पृथ्वी जैसे ग्रहों की आकाश गंगा के दृश्यों को कैद किया जा सके.
Friday, September 16, 2011
कणाद ऋषि
विनय बिहारी सिंह
कणाद ऋषि, विश्व के पहले संत थे जिन्होंने बताया था कि प्रत्येक वस्तु या जीव अणुओं से बना है।
यानी मालीक्यूल की पहली थ्योरी कणाद ऋषि ने बताई थी। वे वैशेषिक दर्शन के जनक थे। भारत में ऋषियों ने छह दर्शन या फिलासफी को जन्म दिया। १- पूर्व मीमांसा (जैमिनी ऋषि)२- उत्तर मीमांसा (वेद व्यास) ३- सांख्य (कपिल मुनि) ४- योग (पातंजलि ऋषि) ५- न्याय (गौतम ऋषि) और ६- वैशेषिक (कणाद ऋषि)।
कणाद ऋषि ने कहा कि अणुओं को औऱ भी छोटे- परमाणुओं में विभाजित किया जा सकता है। उन्होंने बताया कि मन और आत्मा क्या है। मन जब ईश्वर पर एकाग्रचित्त होता है तो वह ईश्वरमय हो जाता है और यहीं से ईश्वरप्राप्ति का मार्ग खुलता है। उन्होंने बताया कि मनुष्य का शरीर कैसे ब्रह्मांड की तरह है। कैसे एकाग्रचित्त हो कर ब्रह्मांड के परे ईश्वर से संपर्क किया जा सकता है। मुख्य वस्तु है कन्सन्ट्रेशन- ईश्वर पर एकाग्रचित्त होना। हमारे एक परमाणु में हमारे मुख्य तत्व समाहित रहते हैं। इन्हीं परमाणुओं को ईश्वरीय स्पंदन में रखने के लिए ध्यान आवश्यक है- ईश्वर की भक्ति । गहरी एकाग्रता से ही ईश्वर मिलते हैं।
Thursday, September 15, 2011
सबके हृदय में भगवान
विनय बिहारी सिंह
भगवान कृष्ण ने भगवत गीता के १८वें अध्याय में कहा है-
ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशेअर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया।।
हे अर्जुन, ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में रहते हैं। जीव माया के भ्रमजाल में फंसा रहता है और अपने कर्मों के अनुरूप, भिन्न- भिन्न रूपों में जन्म लेता रहता है। वह कर्मों से बंधा यंत्रवत काम करता है। यानी आप नहीं चाहते कि अमुक काम करें, लेकिन अचानक अपनी आदत के वशीभूत हो कर वह काम कर देंगे। यह है संस्कार।
तो भगवान ने खुद ही अपना ठिकाना बता दिया। वे कहते हैं- मैं सबके हृदय में रहता हूं। यही है मेरा पता। यानी उन्हें कहीं दूसरी जगह खोजने की जरूरत नहीं है। बस शांत चित्त बैठ कर ईश्वर का ध्यान करना है। वे हमारे हृदय में ही बैठे हैं। भगवान ने स्वयं बता दिया है। फिर भी मनुष्य का मन शांत नहीं होता। वह ईश्वर को न याद कर न जाने कहां- कहां भटकता रहता है। ईश्वर ने कितनी अच्छी जगह चुनी है अपने रहने के लिए? ठीक हमारे हृदय में। अब अगर फिर भी हम उनसे दूर रहें और उन्हें आत्मीयता से न पुकारें, उनका आलिंगन न करें तो यह हमारी गलती है। उन्होंने तो कह ही दिया है- मेरे भक्त चाहे जैसे भी भजें, वे मेरी नजरों से ओझल नहीं होते।
Wednesday, September 14, 2011
बाबा लोकनाथ
विनय बिहारी सिंह
बाबा लोकनाथ का लोकप्रिय नाम- लोकनाथ ब्रह्मचारी है। वे सिद्ध संत थे। उनका जन्म पश्चिम बंगाल की बसीरहाट तहसील (जिला- उत्तर चौबीस परगना) में २९ अगस्त १७३० को हुआ था। उन्होंने १८९० ईस्वी में समाधि की अवस्था में अपना शरीर छोड़ दिया। वे लगभग १६० वर्षों तक अपने शरीर में रहे। पश्चिम बंगाल, बांग्लादेश और अन्य अनेक स्थानों पर बाबा लोकनाथ के मंदिर हैं। उनके भक्त उनका जन्मदिन भव्य तरीके से मनाते हैं। कोलकाता में तो यह भव्य आयोजन मैंने अपनी आंखों से देखा है। बचपन से लेकर नब्बे वर्ष तक की आयु तक बाबा लोकनाथ ने कठिन तप और ध्यान किया। वे बिना कुछ खाये- पीये कई- कई दिनों तक ध्यान करते रहते थे। जब वे नब्बे वर्ष के हुए तो उन्हें ईश्वर के साक्षात दर्शन हुए। इसके बाद उन्होंने कई देशों की यात्राएं की। उनके पास आशीर्वाद लेने जितने लोग गए, आनंदित हो कर लौटे।
उनका कहना था- मन और इंद्रियों का नियंत्रण बहुत आवश्यक है। इस नियंत्रण के बिना मनुष्य का जीवन व्यर्थ है।
अपना शरीर छोड़ने से पहले उन्होंने अपने भक्तों से कहा था- मैं सूक्ष्म रूप से हमेशा मौजूद रहूंगा। यह मत समझना कि मेरा शरीर नहीं है तो मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता। तुम जब भी पुकारोगे, मैं हाजिर हो जाऊंगा।
अपना शरीर छोड़ने से पहले उन्होंने अपने भक्तों से कहा था- मैं सूक्ष्म रूप से हमेशा मौजूद रहूंगा। यह मत समझना कि मेरा शरीर नहीं है तो मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता। तुम जब भी पुकारोगे, मैं हाजिर हो जाऊंगा।
Tuesday, September 13, 2011
उन्हें पाप पूर्ण विचार छू नहीं सकते
विनय बिहारी सिंह
रामचरितमानस में तुलसीदास ने लिखा है- राम राम कहि जे जमुहांहीं, तिनहिं न पाप पुंज समुहाहीं।।
यानी जो राम राम कहते हैं, उन्हें पाप पूर्ण विचार छू नहीं सकते। तो कैसे राम राम कहने पर ऐसा होता है? जब आपका हृदय राम राम पुकारे। भगवत गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- मेरी शरण में आओ, सारी समस्याएं हल हो जाएंगी। तुम्हें पूर्ण शांति मिलेगी। पूर्ण सुख मिलेगा। रामचरितमानस में तुलसीदास का तात्पर्य यह है कि राम की शरण में जाने के बाद पूर्ण आनंद मिलेगा। फिर सदा के लिए सुख। सांसारिक सुखों की एक सीमा है। उसके आगे कोई भी सुख उबाऊ हो जाता है। मनपसंद भोजन एक हद तक ही अच्छा लगेगा। उसके बाद उससे विरक्ति हो जाएगी। मन भर गया। फिर वह स्वादिष्ट व्यंजन उपेक्षित हो गया। कोई मनपसंद ड्रेस एक दिन, दो दिन पहनेंगे, लेकिन फिर उससे मन ऊब जाएगा। लेकिन भगवान का आनंद ऐसा है कि उससे कभी मन नहीं ऊबेगा। नित्य नवीन आनंद। हर क्षण नया आनंद और वह आनंद कभी खत्म नहीं होगा। निरंतर चिर काल तक चलता रहेगा।
बनवास के समय भगवान राम जहां जहां जाते थे, उन्हें देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। क्यों? उनका सौंदर्य मनुष्य का सीमित सौंदर्य नहीं था। वह सौंदर्य अलौकिक था। आप भगवान की तरफ जितनी देर तक देखेंगे, उनके सौंदर्य में नयापन दिखता रहेगा। आपकी आंखें उनके रूप माधुर्य से हटने का नाम नहीं लेंगी। इसीलिए उनका एक नाम- मनमोहन भी है। जो मन को मोह लेता है। भगवान हैं ही ऐसे। एक बार जिसने उनसे अपना हृदय जोड़ दिया बस, उसे वे छोड़ते नहीं हैं। आनंद से सराबोर करते रहते हैं। दिल जोड़ने के लिए करना क्या होगा? भक्ति का चुंबक प्रयोग में लाना होगा। अपने हृदय को भक्ति के प्रभाव से चुंबक बना दीजिए। भगवान अपने आप खिंचे आएंगे।
Monday, September 12, 2011
यह है अनन्य विश्वास
विनय बिहारी सिंह
योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के सन्यासी स्वामी कृष्णानंद जी का लिखा एक प्रसंग पढ़ कर बहुत अच्छा लगा। उन्होंने लिखा है- इगतपुरी आश्रम (जिला- नासिक, महाराष्ट्र) में अपनी कुटिया में बैठा था कि देखा पक्षी ने सामने पेड़ पर बच्चों को जन्म दिया है। मां- बाप बच्चों के लिए आहार ले आए तो बच्चों ने मुंह खोल दिया। आहार प्राप्त किया। इसी तरह जब- जब मां- बाप आहार ले आते थे, बच्चे मुंह खोल देते थे- आ..... और भोजन स्वीकार करते थे। बच्चों को इससे कोई मतलब नहीं था कि खाना कैसा है, स्वादिष्ट है या नहीं, पौष्टिक है या नहीं। बस पूरे विश्वास के साथ बच्चे वह भोजन ग्रहण कर रहे थे, जिसे उनके मां- बाप दे रहे थे। यह है पूर्ण विश्वास। इसी तरह मनुष्य को भगवान के प्रति पूर्ण विश्वास होना चाहिए। बिना कुछ सोच विचार किए, भगवान में पूर्ण विश्वास। वही हमारे मां- बाप हैं। वही हमारे सर्वस्व हैं। बस भगवान में शरणागति। इसी में सुख है।
Friday, September 9, 2011
ध्यान यानी ईश्वर से प्रगाढ़ संपर्क
विनय बिहारी सिंह
परमहंस योगानंद जी ने कहा है कि ध्यान का अर्थ है ईश्वर से गहरा संपर्क। ईश्वर के संपर्क के बिना जीवन व्यर्थ है। परमहंस जी की बातें दिल को छू लेती हैं। हम अपनी सीमित दुनिया में ही परेशान रहते हैं। जबकि ईश्वर असीम प्रेम हैं और उनसे संपर्क न कर अगर हम सिर्फ और सिर्फ सांसारिक प्रपंचों में उलझे रहेंगे तो परेशान होना या तनाव में होना स्वाभाविक ही है। जहां गहरी शांति है, अगर हम वहां नहीं जाकर उस जगह जाएं जहां भारी शोर- गुल है तो शांति कहां से मिलेगी। यह संसार दिन रात शोर गुल, दौड़- भाग और बेचैनियों से भरा हुआ है। और हमें रहना यहीं है। हम कई सारी परिस्थितियां बदल नहीं सकते। तब क्या करना चाहिए? तनाव से बचने का क्या उपाय है? उत्तर है- भगवान की शरण में जाना। भगवान ही हमें किसी भी परिस्थिति से उबार सकते हैं। चाहे वह परिस्थिति कितनी भी कठिन या अटल क्यों न दिखती हो, भगवान हमें उससे क्षण भर में बचा सकते हैं। लेकिन मुश्किल है कि हम भगवान की शऱण में नहीं जाते। उन पर पूर्ण विश्वास करके अगर हम उनकी शऱण में जाएं तो निश्चय ही हमें परम शांति मिलेगी। लेकिन शर्त यह है कि हमें थोड़ी देर के लिए ठहरना पड़ेगा। यानी? शांत और स्थिर चित्त हो कर ईश्वर की शरण में जाना पड़ेगा। मन औऱ शरीर शांत करना पड़ेगा। गहरी शांति में उतर कर ईश्वर को पुकारना पड़ेगा। ईश्वर तो हमारी प्रतीक्षा कर ही रहे हैं। बस शांत और स्थिर हो कर पुकारने भर की देर है।
Wednesday, September 7, 2011
मीराबाई के भजन
विनय बिहारी सिंह
आज मीरा के भजन बार- बार मुग्ध कर रहे हैं। भगवान के प्रति इतनी विह्वलता और इतना गहरा प्रेम आनंद से सराबोर करने वाला है। मीराबाई सन १५०४ में जोधपुर (राजस्थान) के ग्राम कुड्की में जन्मी थीं। सन १५६० में उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया। यानी कुल ६६ साल की उम्र तक उन्होंने शरीर को धारण किया। । विवाह के कुछ ही समय बाद उनके पति का देहांत हो गया। वे तो पहले से ही भगवान कृष्ण की अनन्य भक्त थीं। दिन- रात भगवान में ही डूबी रहती थीं। संसार से विरक्त थीं। अनेक वर्षों तक वे वृंदावन में रहीं। वे भक्ति की पर्याय थीं। नीचे दिए गए उनके भजनों को पढ़ कर यह समझना कठिन नहीं है कि उनका अंतःकरण भगवान कृष्ण के प्रेम में संपूर्ण रूप से ओतप्रोत था। वे अनंत काल तक भक्तों के लिए प्रेरणा स्रोत रहेंगी। आइए उनके भजन पढ़ते हैं---
१--
तुम बिन मेरी कौन खबर ले। गोवर्धन गिरिधारी रे॥
मोर मुकुट पीतांबर सोभे। कुंडल की छबी न्यारी रे॥
भरी सभा मों द्रौपदी ठारी। राखो लाज हमारी रे॥
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर। चरन कमल बलहारी रे॥
२--
हरी मेरे जीवन प्रान अधार।
और आसरो नाहीं तुम बिन तीनूं लोक मंझार।।
आप बिना मोहि कछु न सुहावै निरख्यौ सब संसार।
मीरा कहै मैं दासि रावरी दीज्यो मती बिसार।।
३--
राम नाम-रस पीजै मनुआं राम-नाम-रस पीजै।
तज कुसंग सत्संग बैठ नित हरि-चर्चा सुनि लीजै।।
काम क्रोध मद लोभ मोहकूं बहा चित्तसें दीजै।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर ताहिके रंग में भीजे।।
अंत में यह भजन-
४--
नहिं एसो जनम बारंबार।।
का जानूं कछु पुन्य प्रगटे मानुसा-अवतार।
बढत छिन-छिन घटत पल-पल जात न लागे बार।।
बिरछके ज्यूं पात टूटे लगें नहीं पुनि डार।
भौसागर अति जोर कहिये अनंत ऊंडी धार।।
रामनाम का बांध बेडा उतर परले पार।
ज्ञान चोसर मंडा चोहटे सुरत पासा सार।।
साधु संत महंत ग्यानी करत चलत पुकार।
दासि मीरा लाल गिरधर जीवणा दिन च्यार।।
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