Tuesday, May 31, 2011

अदृश्य सत्ता (भाग दो)

विनय बिहारी सिंह



क्या सांसारिक गतिविधियों में भी अदृश्य तत्व का समावेश है? इसका जवाब है- हां। कैसे? हम सब वर्चुअल दुनिया में यह सब देख रहे हैं। एक ई मेल लिखा और इसे अमेरिका भेज दिया। वह ई मेल तुरंत वहां संबंधित व्यक्ति के पास पहुंच गया। एक मिनट बाद उसका जवाब भी आपके पास आ गया। हम एक दूसरे से व्यक्तिगत रूप से परिचित नहीं हैं। कभी मुलाकात नहीं हुई है लेकिन लिखित संवाद करते हैं। फेस बुक पर। ट्विटर पर, ई मेल के जरिए। फोन के जरिए। अच्छा संवाद होता है। भले ही हम एक दूसरे से न मिले हों। विचारधारा मिलती है। संवाद जारी रहता है। शायद हम जीवन में एक दूसरे से कभी मिल भी न पाएं लेकिन एक दूसरे के प्रति सद्भाव, प्रेम रहता है। यह वर्चुअल दुनिया की देन है। हम एक दूसरे से सहानुभूति रखते हैं। भले ही एक दूसरे से मिले नहीं हैं। अदृश्य और दृश्य का यह मेल है। इसे आप अदृश्य भी कह सकते हैं। और आगे बढ़ें तो आप किसी अनजानी जगह पर जाकर बहुत शांति महसूस करते हैं और किसी अनजानी जगह पर जाकर बहुत डिस्टर्ब्ड, तनावपूर्ण। ऐसा उस जगह के वाइब्रेशन के कारण है।
यह बाइब्रेशन या यह स्पंदन हम देख नहीं सकते। यह अदृश्य है। और फिर हमारा मन। मान लीजिए कि आप किसी के घर आप गए। उसे आपका घर आना बुरा लगा। लेकिन प्रकट रूप से उसने आपकी खातिरदारी की। कुछ देर के बाद आप वहां से चले आए। हो सकता है कि आप जिंदगी भर न जान पाएं कि आपका उसके घर जाना उसे बुरा लगा। यह मन की बात गुप्त है। अदृश्य है। फिर भी कई लोग हैं जो इसे पकड़ लेते हैं। ऐसे कुछ सन्यासी हैं जो मन के स्पंदन को पकड़ लेते हैं। लेकिन प्रकट नहीं करते। हो सकता है कि किसी के घर आप गए और उसने हृदय से आपका स्वागत किया। लेकिन आप किसी अन्य समस्या में उलझे होने के कारण उसके सद्भाव को ग्रहण नहीं कर रहे हैं। वह आदमी आपकी हंसी को ही सद्भाव मान कर खुश होगा। मन के भाव अत्यंत गोपनीय हैं और सबकी पकड़ में नहीं आते। वे भी अदृश्य ही हैं। लेकिन अदृश्य होने के बावजूद मन की सत्ता तो है ही। इससे कौन इंकार कर सकता।
अगर मन अदृश्य हो कर सत्तावान है तो इस संसार के सारे मनों का स्वामी (भगवान) अगर नहीं दिखता तो उसके अस्तित्व पर सवाल उठाना क्या नासमझी नहीं है? ईश्वर ही तो है। वरना यह सारी सृष्टि कौन चलाता? मैंने बचपन में अपनी स्कूली किताब में एक कविता पढ़ी थी। यह कविता ईश्वर के बारे में थी। कविता की एक पंक्ति मुझे आज भी याद है- जिसने सूरज- चांद बनाया। जिसने तारों को चमकाया।।......

Monday, May 30, 2011

जो दिखाई नहीं देता

विनय बिहारी सिंह



कल ब्रह्मचारी धैर्यानंद ने बहुत गहरी बातें कही। उन्होंने कहा- हम सब दिखाई देने वाली चीजों में इतने रमे रहते हैं कि जो अदृश्य है उस पर ध्यान ही नहीं देते। जबकि हर मूर्त वस्तु, हर दिखाई देने वाली वस्तु अमूर्त से ही आती है। कैसे? पानी को ही लें। उसका केमिकल कंबिनेशन है- एच२ओ। यानी हाईड्रोजन के दो और आक्सीजन का एक मालीक्यूल। दोनों मिले और पानी बन गए। लेकिन पानी पीते हुए हम सोचते नहीं हैं कि यह दो गैसों का मिश्रण है। गैस लिक्विड में बदली और द्रव यानी पानी बनी। अब पानी को हम जिरो डिग्री तक ठंडा करें तो वह बर्फ बन जाएगा। यह पानी का ठोस रूप है। फिर जब बर्फ को गर्म करेंगे तो पानी और पानी को और गर्म करेंगे तो भाप यान गैस बन कर हवा में मिल जाएगा। फिर अपने पुराने रूप में। लेकिन हम लोग सिर्फ पानी तक ही देख पाते हैं। उसके बाद वाले रूप को नहीं। ठीक इसी तरह हम फूलों को खिलते हुए देख सकते हैं, लेकिन फूल खिलने के पीछे की शक्ति को नहीं देख पाते। यह शक्ति क्या है? यही भगवान हैं। लेकिन हम सिर्फ फूल और उसके सुगंध पर मुग्ध हो कर रह जाते हैं। जिसने इस फूल को बनाया, खिलने का मौका दिया और सुगंध भर दी, उसे भूल जाते हैं। इस सृष्टि के कण- कण में भगवान हैं। बस हमें महसूस नहीं होते। इसलिए नहीं महसूस होते कि हमारा दिमाग स्थिर नहीं है। संसार की चिंताओं और गतिविधियों में जरूरत से ज्यादा इनवाल्व है, दिमाग का पुर्जा- पुर्जा संसार में आसक्त है। तो भगवान कैसे याद आएंगे? जबकि भगवान ही हमारे सबकुछ हैं। उनकी कृपा से ही हमारे भीतर प्राणों का संचार हो रहा है। फिर भी हम उन्हें याद नहीं करते तो वे बुरा नहीं मानते। अपनी कृपा बनाए रखते हैं। लेकिन अगर हम उन्हें व्याकुल होकर खोजते हैं तो वे खुश होते हैं। कभी छुप जाते हैं। लगता है कि वे हैं ही नहीं। लेकिन जो यह जानते हैं कि लुकाछिपी उनकी पुरानी आदत है, वे उनको पुकारते रहते हैं। जीव तो उनके छुपने की जगह खोज नहीं सकता। इसलिए करुण हो कर पुकारता है। तब भगवान उस पुकार पर दौड़े आते हैं।

Saturday, May 28, 2011

God



The Rishis wrote in one sentence profundities that commentating scholars busy themselves over for generations. Endless literary controversy is for sluggard minds. What more quickly liberating thought than “God is” — nay, “God”?

Sri Sri Swami Sri Yukteswar Giri, in “Autobiography of a Yogi”

Friday, May 27, 2011

विलक्षण संत वामाखेपा


विनय बिहारी सिंह


वामाखेपा पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले के रहने वाले थे। यहीं है तारा पीठ (मां काली का ही एक नाम है तारा, वे श्मशानवासिनी मानी जाती हैं)। वामाखेपा के गांव और तारापीठ के बीच बस एक नदी का अंतर था। इस नदी का नाम है द्वारका। सन १८३७ में वामाखेपा का जन्म हुआ। पिता सर्वानंद चटर्जी प्रकांड विद्वान थे। लेकिन वामाखेपा जब बच्चे थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। पिता विद्वान थे लेकिन आय का साधन कम था। पिता की मृत्यु के बाद मां ने उन्हें उनके चाचा के पास भेज दिया ताकि वे जीविका की खोज कर सकें। वामाखेपा का तो काम में मन ही नहीं लगता था। चाचा ने उन्हें गायों की रखवाली का जिम्मा दिया। वे यह काम भी नहीं कर पाए। दिन रात वे मां तारा, मां तारा कहते रहते थे और ध्यान या भजन में लीन रहते थे। परेशान हो कर चाचा ने उन्हें वापस मां के पास भेज दिया। एक दिन वे तारापीठ के लिए निकले। कोई नाव नहीं थी। इसलिए वे तैर कर ही उस पार पहुंचे। वहां कैलाशपति बाबा नाम के एक प्रसिद्ध संत हुआ करते थे। उनकी कुटिया में जब वे गए तो कैलाशपति बाबा समझ गए कि यह युवक चरम भक्ति का प्रतीक है। वामा खेपा का नाम सिर्फ वामा था। लेकिन उनकी चरम भक्ति के कारण लोग उन्हें बांग्ला भाषा में पागल यानी खेपा (क्षिप्त) कहने लगे। खेपा शब्द आदर के साथ बोला जाता है। यह संबोधन उसे ही दिया जाता है जो सार्थक उद्देश्य के लिए पागल हो। कैलाशपति बाबा चोटी के तांत्रिक थे। उन्होंने वामाखेपा को भी तंत्र की शिक्षा दी। जब वामाखेपा सिद्ध हो गए तो उन्हें तारापीठ मंदिर का इंचार्ज बना दिया। लेकिन वामाखेपा को यह जिम्मेदारी मंजूर नहीं थी। वे मंदिर के नियमों को नहीं मानते थे। वे मंदिर के नजदीक ही श्मशान में रहते थे और ध्यान करते थे। बीच- बीच में मंदिर में आया करते थे। एक दिन वे मां तारा को भोग लगने के पहले भोग को खाने लगे। पुजारी ने उन्हें मारा- पीटा और उस दिन से खाना देना बंद कर दिया। उस रात उस इलाके की रानी (उस जमाने में राजा लोग हुआ करते थे) को मां तारा ने स्वप्न में कहा- वामाखेपा मेरा बेटा है। मुझे भोग लगाने के पहले उसे खिला दिया करो। बेटा अगर नहीं खाएगा तो मां कैसे खा सकती है? रानी ने यह सपना अगले दिन भी देखा। उन्होंने पुजारियों को निर्देश दिया- मां तारा को भोग लगाने के पहले वामाखेपा को खिलाया जाए। तब तक वामाखेपा की प्रसिद्धि दूर- दूर तक फैल गई। लोग उनके पास रोग दूर कराने, आशीर्वाद लेने आने लगे। वे हमेशा नंगे रहते थे। एक दिन उनसे किसी ने पूछा- आप नंगे क्यों रहते हैं? वामाखेपा ने जवाब दिया- क्योंकि मेरे पिता (भगवान शिव) नंगे रहते हैं। मेरी मां (मां काली) नंगी रहती है। तो मैं उनका बेटा हूं, नंगा क्यों नहीं रहूं? और मैं तो श्मशान में रहता हूं। मुझे किस बात की चिंता या किस बात का डर है? वामाखेपा मां तारा को जिस करुणा से पुकारते थे उसे सुन कर लोगों का दिल पिघल जाता था।

Thursday, May 26, 2011

रमण महर्षि और रामकृष्ण परमहंस की बातें

विनय बिहारी सिंह






कई बार रमण महर्षि और रामकृष्ण परमहंस को पढ़ते हुए लगता है कि दोनों संतों ने लगभग एक ही बातें कही हैं। दोनों ही उच्चकोटि के संत प्रत्यक्ष रूप से एक दूसरे से मिले नहीं। उनका भौतिक शरीर भी अलग अलग समयों में इस पृथ्वी पर आया और रहा। रामकृष्ण परमहंस का भौतिक शरीर १८ फरवरी १८३६ में इस पृथ्वी पर अवतरित हुआ और १६ अगस्त १८८६ को उन्होंने महासमाधि लेली। अपना भौतिक शरीर छोड़ दिया। रमण महर्षि ३० दिसंबर १८७९ को इस पृथ्वी पर अवतरित हुए और १४ अप्रैल १९५० में महासमाधि ले ली। यानी अपना भौतिक शरीर छोड़ दिया। रमण महर्षि दक्षिण भारत में रहे तो रामकृष्ण परमहंस बंगाल में। दोनों महर्षियों का एक दूसरे से प्रत्यक्ष मिलना भले न हुआ हो, लेकिन ईश्वर में दोनों ही एक थे। दोनों ही ईश्वर की वाणी बोलते थे। इसलिए दोनों की बातें एक जैसी लगेंगी ही। वेद और पुराणों की बातें जो भी बोलेगा, एक ही होंगी। ईश्वरीय बातें एक ही होंगी। लेकिन इन संतों की बातें सहज सरल भाषा में हैं। दोनों महान आत्माओं ने अपने - अपने ढंग से लोगों में ईश्वरीय प्रेम पैदा किया।
दोनों ने कहा- खुद से पूछो कि मैं कौन हूं। क्या मैं यह शरीर हूं, क्या मैं यह मन हूं या बुद्धि या अहंकार हूं? इस तरह नेति नेति करते करते ईश्वर तक पहुंचा जा सकता है। एक बहुत रोचक प्रसंग है। एक आदमी ने मजाक में कहा- नींद में हमारा शरीर और दिमाग शांत हो जाता है, इसीलिए हम सुबह उठ कर तरोताजा महसूस करते हैं। कहावत है- सोना और मरना एक जैसा होता है। क्योंकि हमें नींद में यह नहीं पता होता कि हम कहां सोए हैं, यह संसार है भी कि नहीं। बस गहरी नींद में सोए हैं। लेकिन नींद में हमारी सांस चलती रहती है। भगवान ने यह नियम इसलिए बनाया है कि कहीं लोग सोए हुए आदमी को मृत न समझ लें। लेकिन यह मजाक अगर समझें तो यह भगवान के बारे में सोचने को प्रेरित करता है। सचमुच भगवान ने कितनी रहस्यमय यह प्रकृति बनाई है। हम तो इसके एक अंश को भी नहीं समझ पाते और जीवन का अंत हो जाता है। रमण महर्षि और रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- अगर हम भगवान की शरण में रहें तो वे हमें खुद समझा देंगे कि उनकी सृष्टि का रहस्य क्या है।

Wednesday, May 25, 2011

गर्भ के बच्चे के भीतर प्राण किसने डाला


विनय बिहारी सिंह



मां के पेट में बच्चा तैयार हुआ। उसके भीतर प्राण किसने डाला? इस प्रश्न पर अगर गहराई से विचार करें तो आप पाएंगे कि यह रहस्यमय प्राण प्रतिष्ठा भगवान करते हैं। माता या पिता बच्चे का प्राण रोपण नहीं कर सकते। क्योंकि वे स्वयं नश्वर हैं। बच्चे के माता- पिता का अपना प्राण ही अपने वश में नहीं है तो वे अपने बच्चे का प्राण कहां से ला कर रोप देंगे? मां- बाप के हाथ में कुछ नहीं हैं। वे सिर्फ कठपुतली हैं? प्रकृति उनसे जैसा कराती है, वे करते हैं। बाकी काम भगवान का होता है। मनुष्य सिर्फ माध्यम है। गर्भ में सोया हुआ बच्चा, अर्द्ध बेहोशी में रहता है। हम सभी गर्भ में नौ महीने रहे हैं। मां के पेट में। लेकिन हम पेट के भीतर कैसे रहे? आपको याद है? नहीं। हमारी चेतना इस स्तर की नहीं थी कि हम पेट के भीतर रहने के बाद उस अनुभव को याद रख सकें। हम अर्द्ध चेतना में वहां रहते हैं। बाहर आते हैं तो भी हमारी चेतना विकसित नहीं रहती। जब हमारी चेतना लौटती है तो हमारी उम्र तीन साल या चार साल हो चुकी होती है। फिर धीरे- धीरे यह विकसित होती जाती है। तब हम खुद को बहुत चालाक समझने लगते हैं। मनुष्य के भीतर धोखा-धड़ी, बेईमानी, ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि सक्रिय हो जाते हैं। लेकिन जो पवित्र आत्माएं हैं उनके भीतर प्रेम, परोपकार, दान, पूजा- पाठ, ध्यान, सेवा, तितिक्षा, सहायता, ईमानदारी, निष्कामता, निरपेक्षता, अक्रोध, अलोभ, मोहरहितता का भाव पुष्ट होता जाता है। लेकिन हमारे प्राण की चाभी भगवान के पास रहती है। वे जब चाहें हमें अपने पास बुला सकते हैं। चाहे हम जितना भी अपने शरीर से प्रेम करें, इसे छोड़ना ही पड़ेगा। चाहे हम जितना भी अपने परिवार, बच्चों, धन- संपत्ति, रिश्तेदारों या मित्रों या हितैषियों को प्रेम करें, उन्हें एक दिन छोड़ कर भगवान के पास जाना ही पड़ेगा। भगवान हमें सदा प्रेम करते हैं। वे चाहते हैं कि हम उन्हें याद करें, पुकारें। वे हमारी पुकार पर आएं। हमें प्यार करें। लेकिन हम हैं कि संसार में इस तरह लिप्त हैं कि भगवान के लिए समय नहीं मिलता। क्या आश्चर्य है। जिसने हमारे भीतर प्राण फूंक कर हमें संसार में भेजा, उसे हम भूल जाते हैं और संसार के प्रपंचों में रम जाते हैं। रामकृष्ण परमहंस और परमहंस योगानंद ने कहा है- संसार में रहो लेकिन संसार का हो कर मत रहो। भगवान का होकर रहो।

Tuesday, May 24, 2011

यह संसार कैसा है?

विनय बिहारी सिंह



भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है- हे अर्जुन, इस दुख के समुद्र रूपी संसार से बाहर निकलो। भगवान की बातों से स्पष्ट है कि इस संसार से सच्चे सुख की आशा रखना व्यर्थ है। आप यदि स्वादिष्ट भोजन को ही सुख मानते हैं तो जब तक आपने भोजन किया, आनंद है, सुख है। लेकिन जैसे ही भोजन खत्म हुआ- आपका सुख भी खत्म हो जाएगा। यदि आप अच्छे वस्त्र धारण करने को सुख मानते हैं तो जब तक उस वस्त्र को धारण करते हैं सुख है। उसके बाद सुख खत्म। यदि आप अपने आदर को, सम्मान को सुख मानते हैं तो जब तक आपका आदर होता है, आप सुखी हैं। उसके बाद सुख खत्म। यानी जो शुरू होता है, वह खत्म भी हो जाता है। तो फिर कौन सा सुख अनंत है। सभी धर्म ग्रंथों का कहना है कि एक भगवान में लय होने का सुख ही सर्वोत्तम सुख है। भगवान ही सर्वोच्च, अमर सुख के स्रोत हैं। उनसे जुड़ने के बाद अनंत सुख, निरंतर बढ़ता जाने वाला सुख है। यानी कभी खत्म न होने वाला सुख है भगवान में।
भगवान ने गीता में कहा ही है कि जो भक्त दिन- रात मुझमें ही रहता है, उसे मैं प्राप्त हो जाता हूं। लेकिन क्या वि़डंबना है कि जिस सुख में हमें हमेशा डूबे रहना चाहिए, उसके पास बहुत कम जाते हैं और सांसारिक भ्रम पैदा करने वाले आभासी सुख के पीछे- पीछे भागते हैं। मृगमरीचिका की भांति। कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूढ़े वन माहिं। ईश्वर हमारे भीतर है। आंखें बंद कर ईश्वर का ध्यान ज्यादा फायदेमंद है। लेकिन हम आंखें खोल कर संसार में सुख तलाशते हैं। वह संसार जो अपूर्ण है। जहां सुख का सिर्फ आभास है। सच्चा सुख नहीं है। पूर्ण सुख, पूर्ण आनंद तो सिर्फ भगवान में है। यही संसार की असलियत है। तो क्या हम संसार में न रहें? जरूर रहिए। रहना ही चाहिए क्योंकि संसार में हमें स्वयं भगवान ने भेजा है। किसलिए? शिक्षा लेने के लिए। किस बात की शिक्षा? यह कि यह संसार आपका नहीं है। इसमें आप सबक सीखने आए हैं। यह सबक कि भगवान ही सब कुछ हैं। बाकी सब मायाजाल है। इसलिए इस मायाजाल में सावधानी से रहते हुए, अपने असली लक्ष्य भगवान की ओर दृढ़ता के साथ बढ़ते रहें। चुपचाप। प्रेमपूर्वक। भगवान बाहें फैला कर खड़े हैं।

Monday, May 23, 2011

भगवान शिव, अर्द्ध नारीश्वर के रूप में


विनय बिहारी सिंह



सभी जानते हैं कि भगवान शिव अर्द्ध नारीश्वर के रूप में भी जाने जाते हैं। यानी माता पार्वती या जगन्माता भी उन्हीं का एक रूप हैं। अर्द्ध नारीश्वर का अर्थ है कि भगवान पिता भी हैं और माता भी। आप उन्हें जिस रूप में याद करेंगे, वे उसी रूप में दर्शन देंगे। अधिकांश उच्च कोटि के संतों ने कहा है कि भगवान को मातृ रूप में पुकारने पर जल्दी आते हैं। उनका ध्यान अगर जल्दी खींचना हो तो उन्हें मां के रूप में पुकारना चाहिए क्योंकि मां अपने बच्चे की पुकार सुन कर चुप नहीं रह सकती। पिता में तर्क बुद्धि आ सकती है। पिता में माता की तरह की गहरी भावना नहीं होती। मोह जरूर होता है। लेकिन माता तो माता ही है। इसलिए भगवान को माता के रूप में पुकारना ज्यादा कारगर है। परमहंस योगानंद जी ने भी यह बात स्पष्ट रूप से कहा है। रामकृष्ण परमहंस तो भगवान को काली माता के रूप में मानते थे। उनके लिए भगवान रूपी मां ही सबकुछ थीं। बंगाल में एक उच्च कोटि के संत थे रामप्रसाद उनके भजन रामप्रसादी गान के रूप में आज भी खूब बिकते हैं। इसी तरह बंगाल के एक और उच्च कोटि के संत हुए हैं-वामाखेपा। वे भी भगवान को मां के रूप में ही मानते थे। अर्द्ध नारीश्वर का अर्थ है- भगवान कहते हैं- मुझे पिता या माता जिस रूप में मानो मैं हूं तुम्हारा ही।

Saturday, May 21, 2011

हनुमान मूर्ति लाल रंग में

विनय बिहारी सिंह



मेरे कार्यालय आने के रास्ते में एक प्रसिद्ध हनुमान मंदिर पड़ता है। मंदिर तो लाल रंग से रंगा ही गया है, पवित्र हनुमान जी की मूर्ति भी लाल रंग में है। इस पर कई जगह खोजबीन की। किसी ने कहा कि हनुमान जी का जन्म मंगल को हुआ था। चूंकि मंगल ग्रह का रंग लाल है, इसलिए हनुमान मूर्ति लाल रंग की है। किसी ने कहा- कई जगहों पर तो हनुमान जी की मूर्ति सफेद संगमरमर की है। रामचरितमानस में तुलसीदास ने हनुमान जी का रंग स्वर्ण जैसा बताया है। तुलसीदास ने हनुमान जी का रंग स्वर्ण लिखा है तो वह निश्चय ही सही होगा क्योंकि उन्हें हनुमान जी ने दर्शन दिए थे। हनुमान जी ने तुलसीदास को एक बार नहीं कई बार दर्शन दिए थे। हनुमान चालीसा का पाठ इसीलिए प्रभावकारी माना जाता है। इसे तुलसीदास ने लिखा है। तभी मुझे एक जगह एक बहुत ही मनोहारी व्याख्या सुनने को मिली। मुझे लगा कि अब और खोजबीन की जरूरत ही नहीं।
इस कथा के अनुसार एक बार मां सीता मांग में सिंदूर लगा रही थीं। वहीं हनुमान जी बैठे थे। उन्होंने सीता जी से पूछा- मां, आप सिंदूर क्यों लगाती हैं? सीता जी ने कहा- यह पति के प्रेम का प्रतीक है। भगवान राम के प्रेम का प्रतीक है। हनुमान जी का रोम- रोम पुलकित हो गया। वे खुशी से झूम उठे। उन्होंने कहा- मां, क्या आप मुझे अपने सिंदूर में से थोड़ा सा सिंदूर देंगी? हनुमान जी ने जिस चीज की मांग की वह कोई भी सुहागिन स्त्री नहीं दे सकती थी। यह बात भगवान राम को पता चली। वे हंस पड़े। उन्होंने सीता जी से कहा- कोई बात नहीं। हनुमान हमारे अनन्य भक्त हैं। भक्त हमेशा सर्वोपरि होता है। उसे अपने सिंदूर में से थोड़ा सा सिंदूर दे दो। मां सीता ने फिर भी आश्चर्य व्यक्त किया। भगवान राम ने कहा- तुम तो जगन्माता हो। तुम्हारा बाल बांका नहीं हो सकता। तुम हनुमान को सिंदूर दे दो। मां सीता ने हनुमान जी कोसिंदूर दे दिया। हनुमान जी ने ढेर सारा सिंदूर लिया और मां सीता के सिंदूर को उसमें मिला दिया। फिर अपने सारे शरीर में उस सिंदूर का लेप कर लिया। उसी रूप में वे राम और सीता के पास पहुंचे। उन्होंने कहा- जब माता सीता आपके प्रेम के प्रतीक के रूप में सिंदूर लगा सकती हैं तो हनुमान अपने पूरे शरीर में सिंदूर क्यों नहीं लगा सकता? भगवान राम जानते थे कि हनुमान क्यों सीता जी से सिंदूर मांग रहे हैं। वे हनुमान जी को देख कर मुस्करा रहे थे। वे जानते थे हनुमान जी भक्ति शब्द के पर्यायवाची हैं। जब तक ब्रह्मांड रहेगा, हनुमान जी रहेंगे।
मुझे यह कथा बहुत अच्छी लगी। इसीलिए आपको भी बता दिया।

Friday, May 20, 2011

बचपन वाले भगवान कृष्ण


विनय बिहारी सिंह



कल आफिस के लिफ्ट में गया तो देखा वहां बाल कृष्ण का चित्र चिपकाया गया था। पोस्टकार्ड साइज का। सिर पर मोर पंख। घुटने के बल भगवान कृष्ण। उस मुग्धकारी चित्र को देख कर याद आया अभी दो दिन के ही हुए होंगे भगवान कृष्ण तो पूतना नाम की राक्षसी उनका वध करने आई। अपनी छाती पर विष का लेप किया और भगवान को दूध पिलाने के लिए मोहिनी रूप धर लिया। मां यशोदा ने उस मोहिनी को अपना बच्चा दे दिया- चलो उसके साथ खेल लो दो मिनट के लिए। लेकिन वह मोहिनी तो बाल भगवान को दूध पिलाने लगी। और मुश्किल से दो दिन के बाल भगवान पूतना की छाती से दूध पीने लगे। खूब किलकारियां मार कर। लेकिन यह क्या? पूतना को लगा कि मानो उसका रक्त ही पी रहे हैं भगवान। उसके शरीर की शक्ति जाती रही। इतना तेज विष इस बच्चे का कुछ बिगाड़ नहीं सका? और पूतना का प्राणांत हो गया। मां यशोदा घबरा कर अपने कृष्ण के पास गईं। देखा वे पहले की तरह ही किलकारियां मार कर हाथ- पैर चलाते हुए खेल रहे हैं। फिर बकासुर का वध किया, कालिया नाग का मान मर्दन किया। उसके फन पर नृत्य किया। और उसे कालिया दह से भागने पर मजबूर कर दिया। और न जाने कितनी घटनाएं याद आ गईं उस मनोहारी चित्र को देख कर। कितनी कितनी लीलाएं। और पूतना का वध किया तो पूतना भी भाग्यशाली बन गई। पूतना का मोक्ष हो गया। वह भगवान के धाम में चली गई। भगवान कृपासिंधु कहे जाते हैं। वे शत्रु को भी तार देते हैं। इसीलिए तो उनका रूप मुग्धकारी है। लेकिन भक्तों की बात ही कुछ और है। भक्त तो भगवान के हृदय में रहते हैं। वे भक्तों के पीछे- पीछे घूमते हैं। प्रेम का आकर्षण होता ही ऐसा है। कहा भी गया है- अगर भगवान को पाना है तो उन्हें प्रेमपाश में बांधना पड़ेगा। तब वे जाएंगे कहां?

Thursday, May 19, 2011

यूरोप में चमत्कारिक प्रयोग

विनय बिहारी सिंह



अस्पताल में एक मरीज दर्द से तड़प रहा था। उसे दर्द निवारक दवाएं दी गईं। लेकिन उसका दर्द पूरी तरह खत्म नहीं हुआ। अस्पताल के डाक्टर ने एक प्रयोग करने की सोची। उसने ओजोन गैस जो हमारे वायुमंडल के ऊपरी सतह पर है और जो पृथ्वी को अल्ट्रावायलेट किरणों से बचाती है को आकसीजन के साथ मिला कर उस मरीज की रीढ़ के उस खास जगह पर इंजेक्ट कर दिया जहां दर्द हो रहा था। चमत्कार हो गया। दर्द पूरी तरह गायब हो गया। फिर मरीज का स्वास्थ्य सुधरने लगा। अब यह चमत्कारिक प्रयोग यूरोपीय देशों में वैकल्पिक चिकित्सा के तौर पर स्वीकार कर लिया गया है। यूरोप में वैग्यानिक अब ओजोन गैस को आक्सीजन के साथ मिला कर इसका इंजेक्शन प्रभावित जगह पर दे देते हैं। इंजेक्शन शरीर के अंदर ठीक कहां लगाना है, इसके लिए अत्यंत सूक्ष्म कैमरे शरीर के भीतर ले जाए जाते हैं। फिर जगह चुन कर कैमरे के साथ फिट सुई या ओजोन और आक्सीजन के मिश्रण को प्रभावित जगह पर इंजेक्ट कर देती है। इससे वहां की फूली हुई अस्वस्थ कोशिकाएं स्वस्थ हो जाती हैं और सिकुड़ जाती हैं। अब वहां दर्द का कोई नामोनिशान नहीं रहता। लेकिन यह इलाज काफी महंगा है। इसलिए धनी- मानी लोग ही इसका लाभ उठा पा रहे हैं। लेकिन डाक्टरों का कहना है कि वे कोशिश में हैं कि सामान्य आर्थिक स्थिति वाले लोग भी इसका लाभ उठा सकें। प्रयोग जारी है। जब आम आदमी भी इस वैग्यानिक खोज का लाभ उठाने लगेगा तो सुखद होगा। लेकिन डाक्टरों का कहना है कि जब दर्द हद से ज्यादा होता है तब कुछ मरीजों पर यह दवा असर नहीं करती। इसके कारणों की खोज की जा रही है। जल्दी ही इसका भी उपाय ढूंढ़ लिया जाएगा।

Wednesday, May 18, 2011

आदि शंकराचार्य के बारे में कुछ और बातें


विनय बिहारी सिंह



आदि शंकाराचार्य ने ३२ वर्ष की आयु में अपना शरीर छोड़ा था। लेकिन इसके पहले ही वे देश के चारो कोनों पर चार पीठ बना गए। सभी महत्वपूर्ण ग्रंथों और ब्रह्मसूत्र का भाष्य लिखा। सन्यासियों के लिए दसनामी परंपरा शुरू की और अन्य अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए। जब वे सिर्फ आठ साल के थे तो उनका उपनयन संस्कार हुआ। उसी उम्र में वे वेद मंत्रों का स्पष्ट और शुद्ध उच्चारण करने लगे थे। वे बिना पुस्तक के पन्ने पलटे ही, श्लोकों की व्याख्या कर देते थे। आठ साल के इस विलक्षण बालक को देख कर दिग्गज विद्वान भी चकित थे। कुल ३२ सालों में ही उन्होंने जितने महत्वपूर्ण काम किए, उसे करने में एक साधारण आदमी को कई जन्म लग जाएंगे। इसीलिए आदि शंकराचार्य को अवतार कहा जाता है। लेकिन मनुष्य देह में जन्म लेने के कारण मनुष्य का अभिनय करना पड़ता है ताकि लोगों को शिक्षा मिल सके। एक बार आदि शंकराचार्य गंगा स्नान कर वापस आ रहे थे। तभी एक चांडाल बेचने के लिए मांस ले जा रहा था और उसकी देह शंकराचार्य से छू गई। शंकराचार्य ने कहा- तूने मेरा शरीर अपवित्र कर दिया? चांडाल हंसा और बोला- महाराज, न मैंने आपको छूआ और न आपने मुझे। क्योंकि आप भी आत्मा हैं और मैं भी। फिर मैं आपको छू ही कैसे सकता हूं। आत्मा को तो कोई छू ही नहीं सकता। कहा जाता है कि स्वयं भगवान ने लोगों की शिक्षा के लिए यह अभिनय किया। ताकि लोग भेदभाव, छुआछूत की मानसिकता से ऊपर उठें। शंकराचार्य इस घटना के पहले ही जानते थे कि ऐसा होने वाला है। लेकिन लोक शिक्षा के लिए उन्होंने यह घटना होने दी।

Tuesday, May 17, 2011

राजा जनक और उनके गुरु ऋषि अष्टावक्र के बीच का संवाद

विनय बिहारी सिंह


अष्टावक्र गीता राजा जनक और उनके गुरु ऋषि अष्टावक्र के बीच का संवाद है। ठीक जैसे भगवत गीता में अर्जुन और भगवान कृष्ण का संवाद है। अष्टावक्र गीता में राजा जनक अपने गुरु से पूछते हैं कि मुक्ति कैसे प्राप्त होती है। इसके उत्तर में गुरु कहते हैं- पुत्र, अगर तुम मुक्ति चाहते हो तो इंद्रियों में आसक्ति को जहर समझो और सहनशील बनो। ईमानदारी, मुक्ति की प्रबल चाह, दृढ़ता, सच्चाई आवश्यक है। तुम अग्रि, पृथ्वी, वायु, जल और आकाश नहीं हो। मुक्ति के लिए यह जानकारी आवश्यक है कि तुम शुद्ध आत्मा हो। सद् चित्त आनंद। इस सृष्टि का साक्षी।
यदि तुम इस चेतना में रहोगे। यानी शरीर की चेतना से अलग तब जाकर तुम प्रसन्न, शांत और सारे बंधनों से मुक्त होते जाओगे। तुम ब्राह्मण या कोई अन्य जाति नहीं हो। तुम वह भी नहीं हो जिसे आंखें देखती हैं। तुम आसक्ति रहित हो। तुम आकारविहीन हो। सिर्फ सभी वस्तुओं और घटनाओं का साक्षी। इसलिए प्रसन्नचित्त बनो। सच और झूठ, सुख और दुख केवल मन की स्थितियां हैं। इनसे तुम्हारा कोई संबंध नहीं है। तुम न तो कर्ता हो और न ही फल पाने वाले। इसलिए तुम स्वतंत्र हो। बंधन का कारण यह है कि मनुष्य स्वयं को द्रष्टा नहीं, कर्ता समझने लगता है। चूंकि मनुष्य को अग्यान रूपी काला सांप डंस लेता है, इसलिए उसे इस ग्यान रूपी दवा का सेवन करना चाहिए- मैं कर्ता नहीं हूं। ईश्वर ही कर्ता है। तब जाकर मुक्ति का द्वार खुल जाएगा। तुम अग्यान का जंगल ग्यान की आग से जला कर राख कर दो। तुम मुक्ति के रास्ते पर तेजी से बढ़ोगे। इससे तुम चिंता मुक्त हो जाओगे। तुम शुद्ध सच्चिदानंद हो। शुद्ध आत्मा। यदि कोई खुद को मुक्त समझेगा तो मुक्त होगा और यदि खुद को बंधन में मानेगा तो बंधा हुआ है। इसलिए मनुष्य की समझ ही महत्वपूर्ण है।
तुम पूर्ण हो, स्वतंत्र हो और तुम्हारी चेतना अनंत है। वह देह, मन या दिमाग तक सीमित नहीं है। जब यह ग्यान हो जाएगा कि ईश्वर ही कर्ता है। मनुष्य अपने कर्मों की कठपुतली भर है। जब वह ईश्वर से जुड़ जाएगा तो उसके बुरे कर्म जल कर राख हो जाएंगे। वह मुक्त हो जाएगा और ईश्वरानंद में डूबा रहेगा। लेकिन इसके लिए कामनाओं का त्याग और ईश्वर में पू्र्ण विश्वास जरूरी है। इसके बाद ध्यान, धारणा और समाधि के प्रयास। इस तरह मनुष्य मुक्त हो जाएगा। निश्चल हो कर ध्यान में बैठो। मन को ईश्वर को सौंप दो। तब न कुछ सोचना है और न कुछ करना। सिर्फ अपनी चेतना को ईश्वर में डुबा देना है।

Monday, May 16, 2011

आदि शंकराचार्य का ब्रह्मसूत्र भाष्य


विनय बिहारी सिंह



आदि शंकराचार्य का ब्रह्मसूत्र भाष्य अद्वितीय है। शंकराचार्य वेदांत दर्शन के शिखर संत थे। वेदांत का कहना है - ब्रह्म सत्यम जगन मिथ्या जीवो ब्रह्मैव न अपरा।। यानी ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है। संसार मिथ्या है। जीव ब्रह्म का ही अंश है। यानी ईश्वर अंश जीव अविनासी (तुलसीदास)। आदि शंकराचार्य ने कहा- जगत द्वैत है। डुअल नेचर वाला- सच- झूठ, दिन- रात, सर्दी- गर्मी, सुख- दुख, प्रेम- घृणा...... आदि आदि। लेकिन ईश्वर एक ही हैं और वही पूर्ण हैं। अगर किसी को संपूर्ण होना है तो वह पूर्ण में जाकर मिले, वह भी पूर्ण हो जाएगा। जैसे नदी समुद्र में मिलती है और उसका नाम भी समुद्र हो जाता है। दूध में जरा सा पानी मिलता है और उसका नाम भी दूध हो जाता है। तो यह मिलन कैसे हो? क्या यह मिलन इतना सहज है? इसी के बारे में संतों ने कहा है- इक आग का दरिया है और डूब कर जाना है। इसे कहते हैं साधना। यानी बहुत ही सावधान हो कर ईश्वर की ओर जाना। आदि शंकराचार्य ने कहा- ब्रह्म ही सत्य है। अनेक विद्वानों ने आदि शंकराचार्य को ईश्वर का अवतार कहा है। वे इस पृथ्वी पर चालीस साल भी नहीं रहे। बहुत कम उम्र में ही उन्होंने शरीर छोड़ दिया। लेकिन इसी बीच उन्होंने महत्वपूर्ण धर्म ग्रंथों पर अपने भाष्य लिखे। देश के चार कोनों पर चार पीठ स्थापित किए। सन्यास की दशनामी परंपरा का सूत्रपात किया और गहन साधना कर अपने शिष्यों को ईश्वर प्राप्ति की राह दिखाई। शंकराचार्य का लिखा भजन- भज गोविंदम, भज गोविंदम, भज गोविंदम मूढ़मते......... आज भी अत्यंत लोकप्रिय है। हमें जो कुछ भी सुखद प्राप्त होता है, वह ईश्वर के यहां से ही आता है। तो भौतिक वस्तुओं के बदले क्यों न सारी वस्तुएं देने वाले ईश्वर को ही चाहें। उसके मिल जाने से ही हमें संपूर्ण सुख मिल जाएगा। फिर सारी कीमती वस्तुएं व्यर्थ हो जाएंगी। क्योंकि ईश्वर सच्चिदानंद हैं।


Saturday, May 14, 2011

सीता की अग्नि परीक्षा


विनय बिहारी सिंह



एक संत ने कल बहुत बढ़िया प्रसंग छेड़ा। उन्होंने कहा- राम ने सीता की अग्नि परीक्षा क्यों ली, यह बहुत से लोग नहीं जानते। जब भगवान राम ने बनवास का फैसला स्वीकार किया तो अग्नि माता उनके पास आईँ (कुछ लोग अग्नि देवता भी कहते हैं। लेकिन कुछ लोग अग्नि माता कहते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अग्नि भगवान का ही एक रूप है। उससे खाना भी पकता है और मृत्यु के बाद शरीर का दाह संस्कार भी होता है।) अग्नि माता ने भगवान राम से कहा- सीता को मैं अपने पास रखना चाहती हूं। वन में आपके साथ जाने के लिए मैं सीता की तरह ही एक छाया सीता बना देती हूं। हू-ब-हू उसी के जैसा। जब आप वापस लौटेंगे तो आप छाया सीता को मुझे लौटा दीजिएगा। मैं आपको असली सीता लौटा दूंगी। भगवान राम तैयार हो गए। वे इस बात को पहले से जानते थे। वे अंतर्यामी हैं। असली सीता अग्नि माता के पास चली गईं और छाया सीता राम के साथ वन में गईं। जब रावण वध और लंका विजय के बाद राम अयोध्या लौटे तो उन्हें असली सीता से मिलने की इच्छा हुई। वे अग्नि माता के पास थीं। लोगों के सामने भगवान राम यह रहस्य उजागर नहीं करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने छाया सीता से कहा- तुम्हारे बारे में लोगों की शंका है कि तुम रावण के पास रह कर अशुद्ध तो नहीं हो गई हो। हालांकि मैं जानता हूं कि तुम्हें कोई छू नहीं सकता (क्योंकि वे छाया सीता थीं।) तुम अग्नि परीक्षा दो। आग प्रज्वलित की गई। छाया सीता अग्नि माता के पास चली गईँ। बदले में असली सीता अग्नि के गर्भ से निकल आईँ। भगवान राम उन्हें देख कर बहुत प्रसन्न हुए। राम और सीता का मिलन हुआ और इस तरह जीवों को आनंद मिला। साधु ने कहा- राम और सीता हमारे भीतर ही हैं। गहरे ध्यान और जप से दोनों का जिस समय मिलन होगा, हम भगवान की अत्यधिक कृपा के पात्र हो जाएंगे।

Wednesday, May 11, 2011

चाय की आदत से छुटकारा



विनय बिहारी सिंह



मुझे चाय ने बुरी तरह पकड़ रखा था। सुबह ब्रश करने के बाद अगर चाय नहीं मिलती थी तो परेशानी महसूस होती थी। चाय चाहिए ही चाहिए थी। इस साल के शुरू में मैंने सोचा कि इस बुरी आदत से छुटकारा पाना है। भारी व्यस्तता और भागदौड़ के कारण तीन महीने बीत गए। जब मार्च का महीना आया तो मुझे लगा कि अरे, यह क्या। देखते- देखते तीन महीने बीत गए। चाय ने तो मुझे अब तक गुलाम बनाया हुआ है। इसी बीच मुझे कब्ज की बीमारी ने दबोच लिया। मैं हैरान हुआ। मैं तो सुबह तीन रोटी और रात को दो रोटी ही खाता हूं। बीच में फल इत्यादि। तली- भुनी चीजों से दूर रहता हूं। खूब पानी पीता हूं। फिर यह कब्ज क्यों? कोलकाता के पानी में जितना आइरन होना चाहिए उससे १० गुना है। यानी आइरन की बहुलता। इससे भी पेट गड़बड़ होता है। पानी में आइरन की मात्रा ०.३ मिलीग्राम प्रति लीटर होनी चाहिए। मेरे इलाके में इसकी मात्रा है- ५. ८० मिलीग्राम प्रति लीटर। घर में लगा एक्वागार्ड शायद इस आइरन को फिल्टर नहीं कर पाता। मुझे मालूम है कि कब्ज की एक वजह यह भी है। लेकिन उपाय क्या है? डॉक्टरों ने दवाएं दी। सब बेअसर। क्योंकि दवा जब तक खाता ठीक रहता। फिर कब्ज मुझे दबोच लेता। इसबगोल आदि की भूसी का इस्तेमाल किया। फिर लगा कि इसबगोल तो अंतिम इलाज है नहीं। अंत में मैंने पूज्य सन्यासियों से सलाह ली। यह काम मुझे पहले करना चाहिए था। स्वामी शांतानंद जी और स्वामी शुद्धानंद जी से अपनी परेशानी बताई। उन्होंने पानी पीने की मात्रा दुगुनी करने की सलाह दी और खानपान में फाइबर की मात्रा और बढ़ाने को कहा। स्वामी शुद्धानंद जी ने कहा- टी इज द मेन कल्प्रिट। चाय ही असली अपराधी है। आप नाश्ता करने के बाद एक कप चाय ले लीजिए। दिन में सिर्फ दो कप ही चाय लीजिए। एक कप सुबह और एक कप शाम को। तब मुझे लगा कि हां, मैं तो दिन भर चाय पीता रहता हूं। और चाय ने मेरे ऊपर कब्जा कर लिया है। हर वक्त चाय की तलब लगी रहती है। स्वामी जी ने कहा कि पहले आप इसे घटा कर दो कप कीजिए। स्वामी जी से बात करने के अगले ही दिन मैंने उठते चाय पीने की आदत छोड़ दी। शरीर ने विद्रोह किया। शरीर झन- झन करता था। मन कहता था- हाय चाय। हाय चाय। लेकिन मैं दृढ़ रहा। आखिर स्वामी जी को वादा कर आया था। उन्होंने कहा- आदमी को लगता है कि चाय के कारण ही पेट साफ होता है। लेकिन यह भ्रम है। यह बुरी आदत है। मैं पूज्यवर सन्यासी जी का आभारी हूं। मैं इस आदत से मुक्त हो गया हूं।कब्ज की बीमारी से मुक्ति मिल चुकी है। अब मानो नया जीवन मिल गया है। दिन में दो कप ही चाय पीता हूं। बहुत हुआ तो तीन कप। इससे ज्यादा नहीं। अब मुझे लगता है, मैं किस तरह अपनी ही आदतों की गुलामी करता रहता था। अगर आप भी मेरी ही तरह चाय की जकड़ में हैं तो आजमा कर देखिए। यह आदत छोड़ कर बहुत राहत महसूस करेंगे। जो चाय जीवनदायी लगती थी, उसकी आप परवाह नहीं करेंगे। हालांकि अब नाश्ता करने के बाद चाय की तलब लगती है। लेकिन वह बेचैन करने वाली नहीं है। दिन भर चाय पीना अब बंद हो चुका है। यह ईश्वर की कृपा है।

Tuesday, May 10, 2011

गहरी और अनन्य भक्ति


विनय बिहारी सिंह




कथा है कि एक बार ब्रह्मा, विष्णु और महेश अपनी- अपनी शक्तियों पर मुग्ध थे। ब्रह्मा मुग्ध थे कि इस सृष्टि में उनकी अनुमति के अलावा कुछ भी बनाया नहीं जा सकता। वे स्रष्टा हैं। विष्णु मुग्ध थे कि वे इस समूची सृष्टि का पालन करते हैं। और महेश या भगवान शंकर मुग्ध थे कि वे इस सृष्टि के किसी भी वस्तु का संहार कर सकते हैं। तभी एक छोटा बालक आया और तीनों देवताओं से बारी- बारी से एक तिनका बनाने, उसका पालन करने और उसे नष्ट करने को कहा। तीनों देवताओं ने बारी- बारी से अपनी सृष्टि, पोषण और संहार शक्ति का प्रदर्शन करना चाहा। लेकिन आश्चर्य। वे ऐसा कर न सके। तब उस बालक ने ब्रह्मा जी से पूछा- क्या आपने मुझे बनाया है? ब्रह्मा ने कहा- नहीं। विष्णु जी ने कहा- मैं तुम्हारा पोषण नहीं करता। भगवान शंकर ने कहा- मैं तुम्हारा संहार नहीं कर सकता। लेकिन तुम हो कौन? उस लड़के ने कहा- मैं इन तीनों गुणों से अतीत हूं। ऐसी शक्ति मुझे भक्ति ने दी है। सभी देवताओं ने कहा- हां, भगवान के अनन्य भक्त की शक्ति असीम होती है। क्योंकि भगवान उसे प्यार करते हैं।
रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि ईश्वर को पाने का सबसे कारगर तरीका है- गहरी और अनन्य भक्ति। भक्ति का आकर्षण इतना गहरा होता है कि भगवान खिंचे चले आते हैं। हनुमान जी को भगवान क्यों माना जाता है? क्योंकि वे भगवान राम के साथ एक हो गए हैं। भक्त और भगवान के बीच अंतर नहीं रह जाता। लेकिन कब? जब यह भक्ति चरम पर पहुंच जाए। भक्त को भगवान के अलावा कुछ भी अच्छा न लगे। वह भगवान में ही सांस ले। एक क्षण भी ईश्वर से अलग रहना उसके लिए मुश्किल हो। और भगवान शिव? वे तो अनंत माने जाते हैं क्योंकि हमेशा उन्हें ध्यान की मुद्रा में ही दिखाया जाता है। ध्यान के माध्यम से वे अनंत भगवान के संपर्क में रहते हैं।

Friday, May 6, 2011

अक्षय तृतीया का महत्व


विनय बिहारी सिंह



आज अक्षय तृतीया है। यानी बैशाख महीने के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि। जैन धर्म में भी अक्षय तृतीया को पवित्र दिन माना जाता है। अक्षय यानी जिसका कभी क्षय नहीं होता हो। अमर। यह दिन भगवान विष्णु की पूजा के लिए विशेष माना जाता है। विष्णु जो इस ब्रह्मांड के पालक हैं। मान्यता है कि अक्षय तृतीया के दिन ही त्रेता युग का आरंभ हुआ था। इसे आखा तीज भी कहते हैं। इसे ऋषि परशुराम के स्मरण का दिन भी माना जाता है। ऋषि परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार थे। लेकिन जैसा कि होता है- इस पर्व में भी बाजार कूद पड़ा है। कहा जाता है कि इस दिन सोना खरीदिए। शुभ है। प्राचीन काल से माना जाता रहा है कि अक्षय तृतीया के दिन व्यापार या कोई नया काम शुरू करना अत्यंत शुभ होता है। अक्षय तृतीया को मानने वाले लोग भोर की वेला में उठ कर स्नान ध्यान करते हैं। फिर भगवान विष्णु की पूजा करते हैं। कई लोग भगवान कृष्ण की पूजा करते हैं क्योंकि वे भी विष्णु के ही अवतार हैं। आमतौर पर परंपरागत प्रारंभ- गणेश और लक्ष्मी पूजन से होता है। माना जाता है कि इस दिन इस विधिवत पूजा से धन धान्य में वृद्धि और भविष्य सुखमय होता है। अनेक लोग इस दिन व्रत रखते हैं और पूरे दिन ईश्वरानंद में डूबे रहते हैं। ऐसे शुभ मौके पर पूजा- ध्यान में और अधिक कौन नहीं रमना चाहेगा।

Thursday, May 5, 2011

एक चीनी कथा


विनय बिहारी सिंह



चीन की एक कथा है। एक किसान के तीन बेटे थे। तीनों डाक्टर बन गए। लेकिन सबसे छोटा बेटा सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ। उसके पास देश के ही नहीं, विदेश के मरीज भी आने लगे। उसकी कीर्ति लगातार फैल रही थी। उस शहर के लोग चकित थे। एक अन्य किसान ने इन डाक्टरों के पिता से पूछा- आखिर आपका सबसे छोटा बेटा ही क्यों लोकप्रिय है? जबकि डाक्टर तो आपके तीनों बेटे हैं। एक ही मेडिकल कालेज से पढ़े हैं। डाक्टरों के पिता ने कहा- दरअसल मेरा सबसे छोटा बेटा मरते हुए मरीजों, तड़प रहे मरीजों को ठीक कर देता है। स्वस्थ कर देता है। इसलिए उसकी ख्याति फैल गई है। मेरा मझला बेटा मरीजों का इतनी अच्छी तरह इलाज करता है कि उन्हें कोई गंभीर बीमारी नहीं होती। मेरा सबसे बड़ा बेटा इन दोनों से भी योग्य है। वह रोग शुरू होते ही उसे जड़ से खत्म कर देता है। नतीजा यह है कि उसके यहां जो भी मरीज आता है, वह कभी गंभीर रूप से बीमार ही नहीं होता। मेरा सबसे बड़ा बेटा चुपचाप श्रेष्ठ कार्य करता है, इसलिए उसे कोई नहीं जानता। सब उसे ही जानते हैं जो गंभीर रोगियों को ठीक करता है।
ऋषियों ने कहा है- जो चुपचाप आध्यात्मिक कार्य करता है, उसे कोई नहीं जानता। उसे अपना नाम हो, यश हो, इसकी अभिलाषा भी नहीं होती। वह तो बस भगवान के साथ अपने प्रेम में ही मस्त रहता है। वह कहता है- भगवान, मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। तुम्हारे सिवा मेरा कोई नहीं । तुम मेरी लाज रखो। तुम्हीं मेरे आधार हो। मेरा जीवन तुम्हें समर्पित है। ऐसे ईश्वर प्रेमियों को कोई नहीं जानता। वे अनाम रहते हैं। लेकिन रहते हैं आनंद में। उन्हें इसकी परवाह नहीं है कि उन्हें कौन जानता है और कौन नहीं। सारी शक्तियां तो भगवान के यहां से ही आती हैं। तो क्यों न उस स्रोत से जुड़ें। तो क्या अन्य लोगों की उपेक्षा करें? नहीं, बिल्कुल नहीं। जो प्रेम आप ईश्वर को देते हैं, वही आप अन्य लोगों को देंगे तो वह कई गुना होकर आपके पास लौट आएगI

Wednesday, May 4, 2011

जो ईश्वर की चर्चा सुनना न चाहे


विनय बिहारी सिंह



भगवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि मैंने जो तुम्हें बातें बताईं (यानी गीता में उल्लिखित सत्य) उसे उन लोगों से बिल्कुल मत कहो जो ईश्वर में विश्वास नहीं करते या जो सुनने के इच्छुक नहीं हों या जो ईश्वर को भला बुरा कहते रहते हैं। यानी ईश्वरीय चर्चा किसी के साथ जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए। यह भगवान के नियमों के खिलाफ है। अगर कोई व्यक्ति ईश्वर चर्चा को ऊबाऊ मानता है, तो उससे ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए। ऐसे अनेक लोग हैं जो सिर्फ उन्हीं बातों पर विश्वास करते हैं जो दिखाई देती हैं। भौतिक जगत दिखाई देता है, इसलिए वे मानते हैं कि भौतिक जगत के अलावा और कुछ भी सत्य नहीं है। वे कहते हैं कि भगवान दिखाई तो देते नहीं हैं। हम कैसे मान लें कि वे हैं। गीता में ही भगवान ने आसुरी संपदा और दैवी संपदा के बारे में बताया है। जो आसुरी संपदा के स्वामी हैं वे कहते हैं कि यह संसार स्त्री- पुरुष के संपर्क से बना है। ईश्वर का तो कोई अस्तित्व ही नहीं है। जो कुछ है वह देह और यह संसार ही है। बाकी कुछ नहीं। यही है आसुरी संपदा वाले व्यक्ति की सोच। लेकिन दैवी संपदा वाला व्यक्ति यह सुन कर मन ही मन हंसता है। क्योंकि मन सूक्ष्म है। मन तो दिखाई नहीं देता। तो क्या मन के अस्तित्व से ही हम इंकार कर दें? अगर कोई कहे कि चूंकि मन दिखाई नहीं देता, इसलिए हम नहीं मानते कि मन होता है, तो यह हास्यास्पद बात होगी। दैवी संपदा वाला व्यक्ति कहता है- तू इस दुनिया में क्या लेकर आया है और क्या लेकर जाएगा? जरा सोच। तू अपने कर्मों को लेकर आया है औऱ कर्मों को लेकर ही जाएगा। बाकी तेरे साथ कुछ भी नहीं जाएगा। इसलिए तू अच्छा काम कर। अच्छा सोच और ईश्वर के प्रेम में मस्त हो जा। तेरा कल्याण हो जाएगा।
भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है- हे अर्जुन, तू मेरा भक्त बन, मुझे प्रणाम कर और मेरी शरण में रह। मैं तुझे सारे पापों से मुक्त कर दूंगा और तुम मुझे ही प्राप्त कर लोगे। भगवान का संकेत है कि ईश्वर ही सब कुछ हैं। वहीं समर्पण कर दो। कल्याण इसी में है।

Tuesday, May 3, 2011

सबै भूमि गोपाल की


विनय बिहारी सिंह



सन्यासियों ने कहा है- सबै भूमि गोपाल की। यानी यह पूरा ब्रह्मांड ही कृष्ण का है। भगवान का है। हमारे अंतःकरण में भी वही गोपाल हैं और हमारे बाहर भी वही हैं। कबीरदास ने तो कहा ही है- जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर- भीतर पानी। कुंभ फुटा, सब जल समाना, बात करें ये ग्यानी।। क्या अद्भुत प्रसंग है। हमारे अंदर भी ईश्वर और बाहर भी। लेकिन हमारी अग्यानता के कारण भीतर का तत्व भीतर ही रह जाता है और विराट ब्रह्म से मिल नहीं पाता। अंतर में ही सब है। बस हमें इसके लिए कोशिश करते रहना है। भगवान के लिए ही प्रेम, उन्हीं के लिए तड़प। वे आखिर कब तक छुपेंगे? परमहंस योगानंद जी ने भजन लिखा है- मां मैंने तुझे दी है आत्मा....। जगन्माता को संबोधित करते हुए क्या अद्भुत भजन है। सबसे अधिक भगवान के पास हमारा प्रेम तब पहुंचता है जब हम उन्हें मां के रूप में पुकारते हैं। तब वे बंध जाते हैं। जब भक्त उन्हें मां के रूप में तीव्रता के साथ, गहराई के साथ हमेशा पुकारता रहेगा तो क्या वे चुप रह सकेंगे? उन्होंने कहा भी है कि मुझे जो भक्त जिस रूप में पुकारता है, मैं उसी रूप में उसके पास आता हूं। सर्वाधिक निकट का संबंध है माता का। बस, भगवान को माता मान लें और उनको लगातार पुकारें। चाहे मन ही मन क्यों न पुकारें। मौन पुकार तो और जल्दी और प्रभावकारी ढंग से भगवान के पास पहुंचती है।

Monday, May 2, 2011

आस्था की ताकत


विनय बिहारी सिंह



भक्त के लिए सबसे पहली सीढ़ी होती है आस्था। भगवान में पूर्ण विश्वास। यह नहीं कि अंधेरे से डर लग रहा है, या किसी और चीज से डर लग रहा है और भगवान का नाम लेकर भी विश्वास नहीं हो रहा है कि भगवान बचाएंगे या नहीं। आस्था एक दम से नहीं आ जाती। यह प्रयत्न करने पर धीरे- धीरे आती है। जब आस्था की नींव पक्की हो जाती है तो उस पर भगवान आ कर विराजते हैं। इसके पहले वे नही आते। क्यों आएंगे भला? जब आपको विश्वास ही नहीं है कि भगवान सर्वशक्तिमान हैं, उन्होंने ही आपको पैदा किया है, वही आपका पोषण कर रहे हैं और अंत में आप उन्हीं में लीन हो जाएंगे। भगवान ही पहले हैं और भगवान ही मध्य में है और वही अंत में भी हैं। फिर भी अगर विश्वास नहीं होता तो कोई उपाय नहीं है। ऐसे ही व्यक्तियों के लिए आदि शंकराचार्य ने कहा है- भज गोविंदम, भज गोविंदम, भज गोविंदम मूढ़मते।। ईश्वर का भजन करो। उनमें लीन होओ। वे बता देंगे कि वे हैं। और सच पूछा जाए तो एक वही हैं। एक उनकी ही सत्ता है। उन्हीं की सत्ता के अंश से सब लोग सत्तावान हुए हैं। भगवान ने कहा है- एको अहम बहुस्यामि।। मैं हूं एक ही। लीला के लिए अनेक हो गया हूं।
भगवान ही सब कुछ हैं। इसीलिए हम उन्हीं की शरण में रहें तो आनंद है।