Saturday, November 21, 2009

प्रदूषण से कैसे नुकसान होता है हमारा

विनय बिहारी सिंह

कोलकाता महानगर इन दिनों गंभीर रूप से प्रदूषित है। हवा में जो प्रदूषण फैल रहा है उसे विग्यान की भाषा में पार्टीकुलेट मैटर या पीएम कहते हैं। यह पीएम ही शरीर में तमाम तरह की बीमारियां पैदा करता है और मनुष्य की असमय मौत हो जाती है। यह कैसे होता है? आमतौर पर गाड़ियों में इस्तेमाल होने वाले डीजल या पेट्रोल के धुएं से या पावर प्लांट से निकले धुएं वगैरह से। इस पीएम से मनुष्य को कैंसर भी हो सकता है। आखिर पीएम किस चीज का होता है? यह नाइट्रोजन आक्साइड या बेंजीन के खतरनाक कण होते हैं। इससे हड्डी की बीमारी तो होती ही है, हृदय, फेफड़ों, रक्त और मांसपेशियों का रोग भी हो सकता है। कोलकाता में हवा में नाइट्रोजन आक्साइड होना चाहिए ४० माइक्रोग्राम और इस समय वह है ६५ माइक्रोग्राम से भी ज्यादा। इसी तरह बेंजीन की मात्रा होनी चाहिए ५ माइक्रोग्राम लेकिन वह है ३५.६ माइक्रोग्राम। यह आटोमेटिक हाइड्रोकार्बन शरीर को बुरी तरह क्षतिग्रस्त करता है। डाक्टरों का कहना है कि पीएम भी दो तरह का होता है। पीएम १० और पीएम २.५०। तो पीएम १० फेफड़ों को नुकसान पहुंचाता है औऱ इससे प्रभावित व्यक्ति को कफ से परेशान करता है और गले में खराश रहती है। लेकिन पीएम २.५० और घातक है। यह फेफड़ों को बुरी तरह क्षतिग्रस्त करता है। एक डाक्टर का कहना है कि बेंजीन और नाइट्रोजन आक्साइड से हृदय की मांसपेशियां कमजोर हो जाती हैं औऱ हृदय से निकलने वाली इलेक्ट्रिक करेंट कमजोर होने लगती है। ऐसे में व्यक्ति को हृदय रोग का शिकार हो जाता है। ये दोनों खतरनाक तत्व अगर आपके खून में प्रवेश करते हैं और आपको शरीर संबंधी तमाम परेशानियां शुरू हो जाती हैं। जो धूम्रपान नहीं करते उन्हें भी फेफड़ों का रोग धर दबोचता है। इससे बचने का उपाय क्या है? आप अगर महानगर में रहते हैं तो नौकरी या व्यवसाय छोड़ कर अचानक तो जा नहीं सकते। तो जरूरत है पर्यावरण के प्रति सचेत लोगों की जो बार- बार सरकार का ध्यान इधर खींचें। (आज के बाद ३ दिसम्बर को भेट होगी)

इटली की एक रोचक घटना

विनय बिहारी सिंह


यह घटना मुझे एक सन्यासी ने सुनाई। उनका नाम है स्वामी अमरानंद जी। वे दिन- रात ईश्वर में डूबे रहते हैं और अपने नाम के अनुरूप भगवान के अमर आनंद का रस पीते रहते हैं। उन्होंने बताया- इटली में एक घर में बच्चा पैदा हुआ। इस बच्चे की एक १० साल की बहन थी। बच्चा बहुत प्यारा था। कुछ दिनों बाद इस बच्चे की बहन ने अपने मां- बाप से आग्रह किया कि वह अपने भाई को पास जाकर प्यार करना चाहती है। मां- बाप पहले तो डरे कि कहीं सगे भाई- बहनों के बीच प्यार का बंटवारा होने से यह बच्ची नाराज न हो औऱ अपने भाई को कोई नुकसान न पहुंचा दे। बच्ची ने जब कहा कि वह तो अपने भाई को बहुत प्यार करती है। उसके बाल सुलभ आग्रह के आगे मां- बाप पिघल गए और उसे अपने भाई से मिलने दिया। बच्ची अपने नन्हें से भाई के पास गई औऱ दरवाजा बंद कर दिया। मां- बाप बहुत उत्सुक हुए। वे दरवाजे के फांक से अंदर झांकने लगे। बच्ची अपने भाई के कान के पास मुंह ले गई औऱ बोली- मेरे भाई। भगवान देखने में कैसे लगते हैं? तुम तो ताजा ताजा देख कर आ रहे हो। वे क्या कहते हैं? जरा बताओ। मैं तो बड़ी हो कर भूल गई हूं। बस धुंधली सी याद है। प्लीज भाई, बताओ न। यह कह कर बहन बच्चे को दुलारने लगी। मां- बाप उसकी बातें सुन कर स्तब्ध रह गए। (आज के बाद आपसे ३ दिसंबर को भेंट होगी। तब तक के लिए सबको नमस्कार- विनय बिहारी सिंह।

Friday, November 20, 2009

ईश्वर पर अपनी शर्तें मत थोपिए

विनय बिहारी सिंह

हममें से अनेक लोग पूजा- पाठ करते हैं या ध्यान करते हैं तो लगातार भगवान से अपनी मांग पूरी करने के लिए आग्रह करते रहते हैं। यह भी चाहते हैं कि भगवान एक खास ढंग से हमारी मांग पूरी करें। यानी सब कुछ हमारी मर्जी से हो। कई लोग तो मांग पूरी नहीं होने पर कहने लगते हैं कि भगवान है ही नहीं। वे कहते हैं- भगवान इत्यादि कुछ नहीं है। यह सब मन का भ्रम है। कुछ नहीं। यह संसार अपने आप चल रहा है। है न मजेदार बात। लेकिन हम कौन होते हैं भगवान पर अपनी शर्तें लागू करने वाले? यह संसार उसका है। हम उसके हैं। वह चाहे जैसे हमारी मांग पूरी करे या न करे, यह उसकी मर्जी। हम क्यों कहें कि भगवान हमारी मांग आप इस ढंग से पूरी कीजिए? हम बस यही कह सकते हैं कि भगवान, आप कृपा कर मेरा यह काम कर दीजिए। वे कैसे करेंगे, यह वे जानें। बस हो गया। आपका काम यहीं पूरा हो गया। एक महात्मा का कहना है कि अगर आपने अपने दिल से किसी काम के लिए लगातार प्रार्थना की है औऱ वह काम पूरा नहीं हुआ तो यह मान कर चलिए कि उस का उस समय न होना ही अच्छा था। लेकिन इतना तय है कि जब आप प्रार्थना करते हुए आकाश- पाताल एक कर देंगे तो निश्चय जानिए आपका काम होगा। अगर आप किसी का कल्याण चाहते हैं, या आपकी मांग पूरी होने से अगर किसी का नुकसान न हो तो ऐसी मांग भगवान अवश्य पूरी करते हैं।

Wednesday, November 18, 2009

हारिए न हिम्मत, बिसारिए न राम

विनय बिहारी सिंह

कहावत है कि हारिए न हिम्मत, बिसारिए न राम। परमहंस योगानंद ने कहा है- आपका जीवन कैसा बनता है, यह आपकी सोच पर निर्भर करता है। लोग अपने लक्ष्य को पाने के लिए ३० साल ३५ साल तक लगे रहते हैं। वे जितनी बार भी असफल होते हैं, उनमें पिछली बार से दुगुनी ताकत आ जाती है, उत्साह आ जाता है। असफल होने के बाद जो लोग निराश या दुखी होते हैं, वे संघर्ष का मजा नहीं ले सकते। जो आदमी मुसीबतों या तकलीफों में भी चट्टान की तरह डटा रहता है, वही बाद में सफलता का स्वाद चखता है। सहज कुछ भी पा कर आप उसका उतना मजा नहीं ले सकते जितना संघर्ष करने के बाद। इसका अर्थ यह नहीं है कि यहां दुख या तकलीफ को महिमामंडित किया जा रहा है। नहीं, बिल्कुल नहीं। लेकिन ऐसे भी लोग हैं जो जरा सी तकलीफ या कष्ट में बेचैन हो जाते हैं, हारने लगते हैं और उनको लगता है कि यह तो तकलीफों का पहाड़ टूट गया। लेकिन जैसे ही आप अपने से भी ज्यादा तकलीफ झेल रहे लोगों की तरफ देखते हैं तो आपको लगता है कि आपकी तकलीफ तो कुछ भी नहीं है। आप तो आराम से दो वक्त का भोजन कर रहे हैं। नाश्ता कर रहे हैं। ऐसे भी लोग हैं जो आपसे दुगुनी तकलीफ झेल कर भी ठीक से भोजन नहीं कर पाते। नाश्ता की तो बात ही छोड़ दी जाए। मनुष्य का जीवन विभिन्नताओं से भरा हुआ है। हर आदमी का तनाव अलग है औऱ उसे लगता है कि सबसे ज्यादा परेशान या दुखी वही है। बाकी लोग तो मजे में हैं। लेकिन कहावत है न- दूर के ढोल सुहावन। दूसरे को देख कर मन में यह सोचना कि अगला सुखी है, गलतफहमी भी हो सकती है। इसलिए जिसका यह संसार है, क्यों न उसी की याद की जाए। उसने चाहे जो सोच कर यह संसार बनाया, इतना तो तय है कि हम उसकी संतानें हैं। अपनी संतान की वह नहीं सुनेगा तो किसकी सुनेगा? हमने तो कहा नहीं था कि हमें इस नाम से इस रूप में अमुक जगह पैदा करो। भगवान ने खुद ही यह सब किया। हम इसके पहले कहां थे, यह याद भी नही है। तो जो सब जानता है, सर्वग्याता है, उसी की शरण में जाएं। यही तर्कसंगत और आसान भी है। सभी प्राचीन संतों औऱ ऋषि- मुनियों ने कहा है- जो इस ब्रह्मांड का मालिक है, उसी से सीधे संपर्क कीजिए। बस काम बन जाएगा।

Tuesday, November 17, 2009

आखिर बुढ़ापा स्थगित करने का उपाय ढूंढ़ ही निकाला

विनय बिहारी सिंह

इंग्लैंड के अल्बर्ट आइंटाइन कालेज आफ मेडिसिन के शोधकर्ताओं ने आखिर बुढ़ापे को बहुत दिनों तक स्थगित रखने का उपाय ढूंढ़ ही निकाला। उन्होंने कहा है कि जब शरीर की कोशिकाएं मरने लगती हैं तो मनुष्य के शरीर में झुर्रियां पड़ना शुरू हो जाती है। जब शरीर की कोशिकाएं विभाजित होती हैं तो उनमें स्थित टेलोमियर्स नामक तत्व कम पड़ता जाता है। नतीजा यह है कि वह कोशिका विभाजित होते होते मर जाती है। इन शोधकर्ताओं ने डीएनए का परीक्षण बहुत गहराई से करने के बाद पाया है कि अगर टेलोमियर्स को हमेशा के लिए टोन अप रखा जाए तो बुढ़ापा टल जाएगा या नहीं आएगा। तो टेलोमियर्स को टोन कैसे किया जाए? शोधकर्ताओं का कहना है कि इसका भी उपाय है। शरीर में कुछ खास रसायनों के संतुलन से और कुछ रसायनों को शरीर में प्रवेश करा देने से काम बन जाएगा। तब आप ७० साल के व्यक्ति को भी भ्रम से ५० साल का व्यक्ति समझ लेंगे। शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि अगर आदमी खुश रहे तो भी शरीर चमकदार चेहरे वाला रह सकता है। हम सभी च्यवन ऋषि के बारे में जानते हैं। उनका भी कायाकल्प अश्विनी कुमारों ने किया था। वर्षों तक घनघोर तप के कारण उनके शरीर के चारो ओर मिट्टी का घेरा हो गया था। सिर्फ उनकी आंखों वाले स्थान पर दो छेद थे। एक राजा की कन्या अपने पिता के साथ वहां घूमते हुए आई और उत्सुकतावश उसने च्यवन ऋषि की आंखों वाले छेद में एक लकड़ी से खोद दिया। ऋषि की आंखों से धाराधार खून गिरने लगा। उनकी समाधि टूटी। चारो तरफ की मिट्टी अचानक हट गई और ऋषि ने राजा को पुकारा। राजा ने घटना जान कर माफी मांगी। ऋषि ने कहा कि वे इस कन्या से विवाह करेंगे। तेजस्वी ऋषि का प्रताप राजा को मालूम था। उन्होंने अपनी पुत्री को ऋषि से शादी के लिए राजी कर लिया। वयोवृद्ध ऋषि के साथ उसका विवाह हुआ। तब ऋषि ने अश्विनी कुमारों का आह्वान किया। वे आए और ऋषि का कायाकल्प किया। अब ऋषि २० वर्ष के युवा की तरह दिखने लगे। यहां से उनका पारिवारिक जीवन शुरू हो गया। उन्हीं के नाम पर आयुर्वेद की दवा बनाने वाले च्यवनप्राश बनाते हैं। कहने का अर्थ यह कि यह शोध कोई नया नहीं है। हमारे ऋषि- मुनि बहुत पहले से कायाकल्प की कला जानते थे।

Monday, November 16, 2009

भाग्य का नाम गोपाल है

विनय बिहारी सिंह

बांग्ला में एक बहुत ही सुंदर कहावत है। यह कहावत किसी संत के कथन से निकली है। कहावत है- कपालेर नाम गोपाल। इसका अर्थ है- भाग्य का नाम गोपाल (ईश्वर) है। इस संत की पुस्तक की बहुत ही पुरानी फटी हुई पांडुलिपि पढ़ने को मिली। इसलिए उनका नाम और किताब का नाम वह भाई नहीं बता सके जिनकी आलमारी में यह पड़ी हुई थी। लेकिन है गजब की पुस्तक। संत ने कहा है- आप भाग्य को लेकर हमेशा रोते मत रहिए। या अपने भाग्य को कोसते मत रहिए। अपनी नौकरी, अपने परिवेश, अपने पति या पत्नी या दोस्त या पड़ोसी को लेकर कुढ़ते मत रहिए। तो क्या करें? संत ने लिखा है- जो भी चीज आपके पास है या आपको मिली हुई है। उसका एक कारण है। क्या कारण है? ईश्वर आपको कुछ सबक सिखाना चाहते हैं। आपने विगत में जो काम किए हैं, उसका रिएक्शन अभी या महीने, दो महीने, आठ महीने बाद जरूर मिलेगा। हमारे कर्म हमारा पीछा करते रहते हैं। इन्हीं कर्मों के कारण आपको प्यार या घृणा या कटु वाक्य या झगड़ा या मनमुटाव या तनाव है। इनसे सीखिए। ये खराब या अच्छी परिस्थितियां आपको सबक सिखाने के लिए आपको मिली हैं। सभी जानते हैं कि एक न एक दिन सबको मरना है। लेकिन लोग इस सच्चाई को याद नहीं रखते। बार- बार प्रपंच में फंसे रहना चाहते हैं। ५०, ६० ७० या १०० साल बाद मरना ही है हमको। तब फिर? इस पर कुछ लोग सवाल करते हैं कि अगर मरना है तो क्या आनंद लेना छोड़ दें? नहीं कौन कहता है कि आनंद लेना छोड़ दीजिए। लेकिन प्रश्न है कि आप आनंद किसको कहते हैं और असली आनंद कहां छुपा है? अगर आप शराब पीने और जुआ खेलने को आनंद कहते हैं, गप्प हांकने को आनंद कहते हैं तो माफ कीजिए यह आनंद नहीं है। एक भाई ने कहा कि गप्प हांकना भी स्वास्थ्य के लिए जरूरी है। जी नहीं। यह हमारे लिए जहर है। मीठा जहर। ज्यादातर गप्प के बहाने पर निंदा ही होती है। कौन कैसा है, इसी पर चर्चा होती है। या अगर नहीं भी होती है तो समय बरबाद क्यों किया जाए? आप पूछेंगे कि क्या करें? कोई अच्छी किताब पढ़ सकते हैं। किसी रचनात्मक योजना पर सार्थक बातचीत कर सकते हैं। प्रेरणादायी पुस्तक पढ़ सकते हैं। किसी सफल व्यक्ति से उसके जीवन के सबक को सुन सकते हैं। ऐसे सफल व्यक्ति निश्चय ही आपके आसपास होंगे या नहीं तो उनकी पुस्तकें तो हैं ही। कुछ लोग तो खुद को समृद्ध करने के लिए आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ते हैं। तो भाग्य का नाम गोपाल है। यानी अगर आप अपना भाग्य ईश्वर को समर्पित कर देंगे तो वे आपका भाग्य बदल देंगे। इसका क्या अर्थ हुआ? अर्थ यह है कि भाग्य वाग्य कुछ नहीं होता। जो कुछ होता है वह ईश्वर ही है। आप ईश्वर की शरण में जाइए और भाग्य को भूल जाइए। वे तो बिगड़ी बनाने वाले हैं। उनका नाम ही है अनंत ब्रह्मांडों के स्वामी यानी भगवान। भाग्य का नाम भगवान। यानी वे कभी भी आपके ऊपर कृपा कर सकते हैं। बस निरंतर उनका स्मरण कीजिए। उनसे प्यार कीजिए।

Friday, November 13, 2009

ईश्वर के सर्वव्यापी होने का लाभ

विनय बिहारी सिंह

जब राक्षस हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र प्रह्लाद से पूछा- तेरा भगवान कहां है? उसने प्रह्लाद को खंभे में बांध दिया था क्योंकि वह ईश्वर भक्त था। हिरण्यकश्यप कहता था कि वह अपने पिता का नाम जपे, उसकी पूजा करे। कृष्ण, कृष्ण रटना तो पागलपन है। उसने पूछा कहां है तेरा भगवान? और तलवार से उसकी हत्या करनी चाही। तो प्रह्लाद ने कहा- हममें तुममें खड्ग खंभ में घट घट व्यापत राम। यानी वह ईश्वर हममें है, तुममें है, तुम्हारी तलवार में है औऱ जिस खंभे से तुमने मुझे बांधा है, उसमें भी है। हिरण्यकश्यप अट्टाहास करने लगा। उसे वरदान मिला हुआ था कि उसे न कोई मनुष्य मार सकता है न जानवर, न देवता और न राक्षस। उसकी मृत्यु न दिन में हो सकती है न रात में और न दोपहर को। लेकिन भगवान के सामने किसी की कहां चलती है? वह तो सर्वशक्तिमान है। भगवान ने उसे मारने के लिए न दिन चुना और न रात। समय कौन सा चुना? शाम का। और खुद नृसिंह अवतार धारण किया। यानी आधा शरीर मनुष्य का और आधा सिंह का। इस तरह भगवान ने हिरण्यकश्यप का वध किया। तो यह कथा बताती है कि ईश्वर हर जगह है। बस ज्योंही आपका हृदय भगवान के लिए तड़पने लगा। आपका रोम- रोम भगवान को चाहने लगा। बस वे हाजिर हो जाते हैं। वे किसी न किसी रूप में आपकी मदद करते हैं, आपकी रक्षा करते हैं। कई बार यह महसूस कर कितना सुख मिलता है कि ईश्वर सर्वव्यापी है। यानी हर जगह मौजूद है- आम्नीप्रेजेंट। इसका लाभ यह है कि आप जब चाहें तभी ईश्वर से संपर्क कर सकते हैं। चाहे आप सुरंग में हों, हवाई यात्रा कर रहे हों, जमीन पर चल रहे वाहन में हों या कहीं भी हों। आप ईश्वर से कनेक्ट हो जाते हैं, ईश्वर से जुड़ जाते हैं। ईश्वर की धारा आपके भीतर बहने लगती है। इसके लिए ईश्वर के प्रति प्यार होना चाहिए। बिल्कुल स्वाभाविक प्यार। ऐसा नहीं कि हमें ईश्वर से जबर्दस्ती प्यार करना है। हम तो उसी के अंश हैं। हमारे भीतर ही वह बैठा है। और बाहर भी है । हमारे हृदय में है वह। जैसे ही हम ईश्वर को अपना हृदय देंगे, वे हमें अपने आगोश में बिठा लेंगे। वे तो हमारे लिए प्रतीक्षा में बैठे हैं।

Thursday, November 12, 2009

जर्मनी के गोलकीपर ने आत्महत्या क्यों की?

विनय बिहारी सिंह

जर्मनी के धुरंधर फुटबाल खिलाड़ी राबर्ट एनके ने कल आत्महत्या कर ली। उन्हें हमेशा डर लगता रहता था कि वे अपनी स्टार हैसियत खो न दें। कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए। यह एक मानसिक बीमारी है, जिसका इलाज सन २००२ से चल रहा था। लेकिन वे इससे उबर नहीं पा रहे थे। सबको उम्मीद थी कि वे अगले साल होने वाले वर्ल्ड कप में जर्मनी को एक खास जगह दिलाएंगे। आखिर वे स्टार खिलाड़ी थे। भौतिक दृष्टि से एक व्यक्ति के पास जो कुछ होना चाहिए उनके पास था। मेधावी और अत्यंत सुंदर पत्नी टेरेसा थी। चोटी की लोकप्रियता थी। पर्याप्त धन था। खूबसूरत मकान था और सुख के सारे संसाधन थे। फिर भी राबर्ट ने ३५ साल की उम्र में आत्महत्या कर ली क्योंकि उसे बराबर यही लगता था कि लोगों को उसकी बीमारी का पता चलेगा तो उसकी लोकप्रियता मिट्टी में मिल जाएगी। उसने एक बेटी गोद ली हुई थी। यह बेटी भी बहुत प्यारी थी। राबर्ट को डर लगा रहता था कि अगर बेटी के असली मां- बाप को उसकी बीमारी का पता चल जाएगा तो वे अपनी बेटी को वापस बुला लेंगे। कई बार उसे यह भी लगता था कि उसके पास जो इतने ऐशो- आराम की चीजें हैं, वे सब एक दिन नहीं रहेंगी। यानी असुरक्षा और भयंकर डर का शिकार था वह। उसकी पत्नी टेरेसा ने कहा है कि सबकुछ खो जाने का सवाल ही नहीं है। अनेक खिलाड़ी बीमार हुए हैं और उससे उबर कर काफी लोकप्रिय हुए हैं। और हमारा धन क्यों खत्म हो जाएगा? हम काफी सोच- समझ कर खर्च करते हैं औऱ हमेशा बचत के बारे में सोचते रहते हैं। ऐसे में डरते रहने की कोई वजह नहीं थी। इलाज भी चल रहा था। लेकिन कोई भी दवा कारगर साबित नहीं हो पा रही थी। असुरक्षा और भय। यह राबर्ट ही नहीं दुनिया के अनेक लोगों को खा जाता है। या खा रहा है। अन्यथा लाइफ इंश्योरेंस वालों का धंधा नहीं चलता। फिर भी हमारे देश में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जिन्होंने कभी अपना बीमा नहीं कराया यानी लाइफ इंश्योरेंस नहीं कराई। उनकी नियमित आमदनी नहीं है। लेकिन वे भय में नहीं जीते। वे जानते हैं कि भय से आदमी जीते जी मर जाता है। हालांकि अपने देश में भी अभाव से तंग आकर लोग आत्महत्या करते हैं, लेकिन आत्महत्या करने वालों को कायर कहा जाता है। कोई भी आत्महत्या करने वाले की प्रशंसा नहीं करता। जो डर कर हार गया और जिसने जीवन की कठिनाइयों से संघर्ष नहीं किया, वह संतुलित मनुष्य कहलाने लायक नहीं है। वह कायर है। अनेक संतों ने कहा है- आत्महत्या करने वालों को मरने के बाद भी चैन नहीं मिलता । उनकी आत्मा कष्ट पाती है, भटकती है औऱ पीड़ा झेलती रहती है। लेकिन राबर्ट के डर ने यह साबित कर दिया कि सफलता सबको आत्मविश्वास से नहीं भरती। बीमार बीमार ही रहेगा, चाहे वह सोने- चांदी की खाट पर क्यों न सोए। चाहे वह समृद्धि की चरम सीमा पर ही क्यों न पहुंच जाए। इसका एक ही उपाय है- भगवान की शरण में जाना। अगर परेशान, कष्टों से घिरा हुआ व्यक्ति अपने दिल से ईश्वर के शरणागत होता है तो सच मानिए, उसका कल्याण हो जाता है। ऐसी अनेक घटनाएं मैंने देखी है। बस ईश्वर में पक्का विश्वास होना चाहिए।

Wednesday, November 11, 2009

साधक को ‌‌तब लगा- हां, ईश्वर कृपालु हैं

विनय बिहारी सिंह

एक बार एक साधक वाराणसी के विश्वनाथ मंदिर में पूजा करने जा रहे थे। आटोरिक्शा से उतर कर किराया देने की बारी आई तो उन्हें याद आया कि अपना पर्स तो वे होटल के कमरे में ही छोड़ आए हैं। पाकेट टटोलने के बाद उन्होने पाया कि शर्ट के ऊपर के पाकेट में सिर्फ दस रुपए थे। उन्होंने आटोरिक्शा वाले को किराया दे दिया। होटल स्टेशन के पास था और वहां से दूर था। वे लगभग मंदिर के करीब पहुंच चुके थे। उन्हें प्रसाद खरीदना था जिसके लिए उनके पास पैसे नहीं थे। वर्षों बाद वे इस प्रसिद्ध मंदिर में पूजा करने आए थे। कल उन्हें वापस दिल्ली लौट जाना था। प्रसाद चढ़ा कर घर ले जाने की तमन्ना उन्हें कचोट रही थी। आखिर उन्होंने सोचा कि वे होटल लौट जाएं औऱ पर्स लेकर आएं तब प्रसाद वगैरह चढ़ाएं। ज्यादा से ज्यादा घंटे भर की देर होगी। वे मायूस होकर मंदिर के द्वार पर यही सब सोच रहे थे। वहां से हटने का उनका मन भी नहीं कर रहा था। फिर सोचा कि वे पर्स ले आने के पहले एक बार बाबा विश्वनाथ का दर्शन तो कर लें। तब तक देखते क्या हैं कि सामने से उनकी बहन चली आ रही है जिसका ब्याह कलकत्ता में हुआ है। वे चकित और खुश हो गए। बहन भी उन्हें देख काफी खुश हुई। हालचाल पूछा। कहां ठहरे हैं, वगैरह पूछ लेने के बाद साधक ने कहा- मेरा तो पर्स ही होटल में छूट गया है। बहन बोली- तो दिक्कत क्या है। मैं प्रसाद चढ़ाने के पैसे दे देती हूं। कितने चाहिए- सौ, दो सौ। साधक ने कहा- १०१ रुपए का प्रसाद चढ़ाने की इच्छा है। इसके अलावा होटल तक जाने का किराया। बहन हंसने लगी। उसने भाई को यथोचित पैसे दिए। बहनोई भी उनकी इस भूल पर हंस रहे थे। साधक ने आनंद के साथ पूजा किया। प्रसाद दुकानदार से बंधवा लिया ताकि घर ले जा सकें। फिर बहन से पूछा- अचानक आज ही वाराणसी आने का तुम्हारा प्लान कैसे हुआ? बहन बोली- परसों सुबह तक कोई प्लान नहीं था। हम लोग बैठे सुबह की चाय पी रहे थे कि तभी पड़ोस के हमारी एक सहेली आई और बोली कि उसका वाराणसी जाने का प्रोग्राम रद्द हो गया है क्योंकि उसकी लड़की को देखने वाले लोग आ रहे हैं। उसने कहा - तुम चाहो तो मेरे टिकट पर वाराणसी घूम आओ। आज रात ही ट्रेन है। टिकट कैंसिल कराने से भी बहुत कम पैसा मिलेगा। इससे अच्छा है कि तुम लोग घूम आओ। बस उसी के टिकट पर हम लोग चले आए। उसने टिकट के पैसे भी नहीं लिए। हम तो वाराणसी आने की दो साल से सोच रहे थे। मंदिर आई तो देखा आप दरवाजे पर खड़े पता नहीं क्या सोच रहे हैं। तीनों लोगों ने साथ भोजन किया औऱ दिन भर साथ- साथ घूमते रहे। साधक बार- बार कहते रहे- ईश्वर कृपालु हैं, यह एक बार फिर साबित हो गया।

Tuesday, November 10, 2009

मां पीटती रही, बच्चे ने उसकी साड़ी नहीं छोड़ी

विनय बिहारी सिंह

रविवार को एक सन्यासी ने दिल को छूने वाली एक घटना सुनाई और उसे ईश्वर से जोड़ा। उन्होंने कहा- मैं एक जगह जा रहा था। रास्ते में देखा- एक मां अपने बच्चे को पीट रही है। बच्चा चिल्ला रहा है। लेकिन जाए कहां? तो उसने मां की साड़ी जोर से पकड़ी हुई थी और चिल्ला रहा था- मां, मां, मां। मां को जितना पीटना था, पीट लिया। लेकिन बच्चे का तो कोई ठौर नहीं है। वह मां की साड़ी पकड़े रहा और रोता रहा। सन्यासी ने कहा- यही हमें भगवान के साथ करना चाहिए। दुख है, कष्ट है। लेकिन हम जाएं कहां? भगवान तुमको जोर से पकड़े रहेंगे। हम ईश्वर को छोड़ेंगे ही नहीं, भूलेंगे ही नहीं। कई लोगों की एक बहुत अच्छी आदत होती है। वे हर घंटे या आध घंटा पर अपनी आंखें बंद कर कहते हैं- राम, राम। या शिव, शिव। ऋषि कहते हैं- दिल से किया गया ऐसा स्मरण हमें अमृत जैसा फल देता है। कई लोग व्यस्तता के बीच जब भी खाली समय मिलता है, चाहे एक मिनट ही सही- भगवान का स्मरण करते हैं। हममें से कई लोगों को कोई दुख है, कोई कष्ट है, अभाव या तनाव है। हम तो अपने किए का फल भोग रहे हैं। लेकिन भगवान चाहते हैं कि इन कष्टों से हम सीखें और भविष्य मे कुछ भी करने से पहले, कुछ भी बोलने से पहले सावधान होकर सोचें- हम कर क्या रहे हैं, बोल क्या रहे हैं, व्यहार कैसा कर रहे हैं। यह बहुत मुश्किल नहीं है। रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि खानदानी किसान अगर फसल सूख जाए, फसल को पाला मार दे या उपज बिल्कुल कम हो तो भी खेती करना नहीं छोड़ता। उसके पास कोई उपाय ही नहीं है। ठीक उसी तरह भक्त चाहे कोई तनाव हो, दिक्कत हो या कोई भारी परेशानी हो, भगवान को प्रेम करना नहीं छोड़ता। हमेशा उसके दिलोदिमाग पर भगवान ही छाए रहते हैं। मैंने एक अमेरिकी व्यक्ति को देखा है। वह हमेशा कहता रहता है- गाड, माई लार्ड आई लव यू, आई लव यू। रिवील दाईसेल्फ। आई लव यू।

Saturday, November 7, 2009

सीमित कौन करता है मनुष्य को?

विनय बिहारी सिंह

यूनिवर्सिटी आफ कैलीफोर्निया के वैग्यानिकों ने कहा है कि उन्होंने ऐसा कंप्यूटर तैयार कर लिया है जो मनु्ष्य के दिमाग में चल रही बातों का पता लगा सकता है। उन्होंने उम्मीद जताई है कि भविष्य में सपनों को भी रिकार्ड किया जा सकेगा। लेकिन जब कंप्यूटर नहीं था तो हमारे ऋषि- मुनि किसी भी व्यक्ति के दिमाग को स्कैन कर लेते थे। चाहे वह व्यक्ति सामने हो या दूर। उनमें यह क्षमता थी कि वे बैठे कहीं और हैं और अपनी स्पष्ट आवाज में सौ मील दूर किसी व्यक्ति को अपना निर्देश दे रहे हैं। उनका मानना था कि मनुष्य खुद को शरीर मान कर अपने को सीमित कर रहा है। दरअसल मनुष्य को शरीर से ऊपर उठ कर चिंतन करना चाहिए। मनुष्य सच्चिदानंद आत्मा है। उसका स्वरूप विराट है। यानी मनुष्य असीम है। वह अपने ही बनाई सीमाओं में तड़पता रहता है। इसी पाश या बंधन को काटना है। भगवान शिव को इसलिए पशुपति कहते हैं क्योंकि वे हमारे पाशों को काट देते हैं। हमें निर्भय और मुक्त कर देते हैं। तो फिर मनुष्य को सीमित कौन करता है? उसकी इंद्रियां। इंद्रियां हमें अपना गुलाम बनाए रहती हैं। कई लोग भोजन को लेकर इतने आसक्त होते हैं कि बिना खाए रहने की वे कल्पना भी नहीं कर सकते। लेकिन हमारे संतों ने उपवास रखने की सलाह दे रखी है। पूरे दिन औऱ रात उपवास रखिए। भोजन के गुलाम न बनिए। इससे आपके शरीर की सफाई होगी। जीभ पर नियंत्रण रखिए। बोलने में और खाने में भी जीभ पर अंकुश हो। तब हमारा जीवन आनंदमय हो सकता है। नियंत्रण में कष्ट तो है। लेकिन जिन लोगों को सुगर (रक्त शर्करा) की बीमारी है, वे तुरंत मीठी चीजें, आलू और चावल वगैरह छोड़ देते हैं। क्योंकि उन्हें अपने जीवन को बचाना होता है। लेकिन अगर किसी बीमारी के बिना यूं ही जीवन में परहेज के लिए कहा जाए तो ज्यादातर लोग सलाह नहीं मानते। उन्हें लगता है कि ठीक ही तो चल रहा है जीवन। लेकिन शरीर के भीतर सूक्ष्म रूप से क्या चल रहा है, इसे कौन जानता है? ऋषि- मुनि तो फिर भी जानते थे क्योंकि उन्हें दिव्य दृष्टि मिली हुई थी। आज भी ऐसे साधक हैं लेकिन उन्हें गिने- चुने ही लोग जान पाते हैं। ऐसे लोग अपना प्रचार नहीं चाहते क्योंकि उनकी साधना में बाधा आती है। भीड़- भाड़ ऐसे लोगों को पसंद नहीं। तो ऋषि- मुनियों ने हमें संयम सिखाया और कहा कि रोग व्याधि से दूर रहने के लिए अमुक- अमुक कदम उठाने चाहिए। अति किसी चीज में नहीं होना चाहिए। सोने और जागने का भी नियम उन्होंने बना दिया। कहा- मनुष्य को ब्रह्म मुहूर्त में जग जाना चाहिए। आज कितने लोग हैं जो ब्रह्म मुहूर्त में उठते हैं? जो उठते हैं वे भाग्यशाली हैं। कम से कम सूर्योदय के पहले तो उठना अति आवश्यक है। लेकिन अनेक लोग सूर्योदय के बाद भी सोते रहते हैं। इसीलिए ऋषि पातंजलि ने यम और नियम बनाए। हमें यम और नियम से सूत्रों के सहारे चलने में खुशी होनी चाहिए। आखिर फायदा तो हमारा ही है।

Friday, November 6, 2009

मृत्यु तो रूपांतरण है, दुख क्यों?

विनय बिहारी सिंह

बचपन में अपने गांव में शव यात्रा में बैंड बजते देख कर मैंने एक बुजुर्ग से पूछा था- मृत्यु पर खुशी का संगीत क्यों? बुजुर्ग ने कहा था- जब कोई बूढ़ा व्यक्ति मरता है तो माना जाता है कि उसने भरी- पूरी जिंदगी जी और आराम से चला गया। इसी की खुशी में बैंड बजाया जाता है। बड़ा हुआ तो गीता ने इसे और स्पष्ट कर दिया। मृत्यु के बाद जन्म और जन्म के बाद मृत्यु निश्चित है। परमहंस योगानंद कहते थे- योगी इस संसार को एक स्कूल के रूप में देखे। लगातार आत्मविश्लेषण करे कि वह लगातार बेहतर हुआ है या नहीं। उसके जीवन में प्रेम, भक्ति और सेवा की कितनी जगह है। आत्ममंथन जरूरी है। हमसे किसी को कष्ट न हो, इसका ख्याल रहे। सबसे प्रेम से मिलना चाहिए। किसी को नीचा देखना, ईश्वर की कृति का अपमान करना है। खुद को सुधारते हुए ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए- भगवान, अब और इस संसार में न आना पड़े। इसके लिए चाहे जो परीक्षा लेनी हो, ले लीजिए लेकिन मुझे आवागमन से मुक्त कीजिए। जैसे कोई किसी कक्षा में फेल हो गया तो उसे फिर उसी कक्षा में पढ़ना पड़ता है, ठीक वैसे ही अगर हमने खुद को ईश्वर के लायक नहीं बनाया औऱ अपनी इच्छाओं के वश में रहे तो इस संसार में बार- बार आना पड़ेगा। इच्छाएं हमें नचाती हैं। इन इच्छाओं को जब हम वश में कर लेंगे तो फिर हमारी बेचैनी, हमारा तनाव हमारी चंचलता सब खत्म हो जायेंगे। लेकिन मृत्यु से पहले अगर हमने अपने जीवन को भीतर से बेहतर नहीं बनाया। ईश्वरोन्मुखी नहीं बनाया तो मृत्यु के बाद भी हमारी गति वैसी ही रहेगी। हमें फिर से जन्म लेकर उसी प्रपंच में पड़ना पड़ेगा। इसलिए जिसने खुद को ईश्वर के रास्ते पर प्रस्तुत कर दिया है और फिर संसार में नौकरी- चाकरी या व्यापार कर रहा है, उसकी बिगड़ी बन जाएगी। रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- जैसे कटहल काटने के पहले लोग हाथ में तेल लगा लेते हैं ताकि कटहल से निकला चिपचिपा पदार्थ हाथ में न चिपके, उसी तरह संसार का प्रपंच हमारे मन को प्रभावित न करे, इसके लिए ईश्वर की भक्ति रूपी तेल जरूरी है।

Thursday, November 5, 2009

भय में विश्वास है लेकिन ईश्वर में नहीं

विनय बिहारी सिंह

अनेक लोग भय की कथाओं में बहुत रस लेते हैं। या सुनने या टीवी पर इस तरह की फिल्में या सीरियल देखने में बहुत रुचि लेते हैं। लेकिन जैसे ही भगवान की बात चलती है, टीवी बंद कर देते हैं। भगवान में उनको रस नहीं मिलता। यानी कई लोग काल्पनिक भय की कथा में सनसनी पाते हैं, लेकिन भगवान की बात में नहीं। है न आश्चर्य की बात? जिसने अनंत कोटि ब्रह्मांड बनाए हैं, उसमें कोई रुचि नहीं है। लेकिन एक निगेटिव बात में काफी रुचि है। ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि जहां- जहां वे नकारात्मक शक्तियों की कल्पना कर रहे हैं, वहां- वहां भगवान भी है। आप जिसके बारे में सोचेंगे, जिसकी बात करेंगे, जिससे प्रभावित होंगे, वही आपको आकर्षित करेगा। अगर कल्पना भी कर लें कि भूत का अस्तित्व है तो उसकी शक्तियों की एक सीमा है। लेकिन ईश्वर असीम है, अनंत है और सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्व ग्याता है। तब क्यों ईश्वर को छोड़ कर लोग भय और निंदा की बातें करते हैं। सभी संतों ने मनुष्य से कहा है- आप ईश्वर प्रधान व्यक्ति बनिए। आपका मंगल होगा। ईश्वर के राज्य में कोई भय नहीं, कोई चिंता नहीं है। ईश्वर हम सबका है। हम सबके भीतर भी है और बाहर भी। सर्वव्याप्त है वह। हमारा अस्तित्व भी उसी के कारण है। वह हमें प्यार करता है। जो लोग पाप के बारे में पूछते थे उनसे परमहंस योगानंद कहते थे - ईश्वर से नाता तोड़ना ही सबसे पाप है। भक्तों से वे कहते थे- ऐसा नहीं कि आप ही ईश्वर को प्यार करते हैं और उसे चाहते हैं, ईश्वर भी आपको प्यार करता है औऱ चाहता है। लेकिन बस, वह आस लगाए बैठा है कि आपके भीतर उसे प्यार करने की चाहत अपने आप पैदा हो। बिना किसी दबाव के। वह तो हमारे प्यार का भूखा है। बस हमें अपने भीतर उसके प्रति प्यार को बढ़ाते जाना है। ईश्वर के प्रति प्यार ही असली प्यार है। वही टिका रहेगा। मनुष्य का प्यार तो शर्तों पर आधारित है। लेकिन यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि हमें आपस में प्यार से नहीं रहना चाहिए। बेशक हमें प्रेम औऱ सौहार्द से रहना चाहिए। लेकिन ईश्वर के प्यार की तुलना किसी भी प्यार से नहीं हो सकती।

Wednesday, November 4, 2009

साइड एफेक्ट वाली दवाओं का कहर

विनय बिहारी सिंह

नाइस, विक्स एक्शन ५०० जैसी दवाओं पर अब जाकर केंद्र सरकार की नजर पड़ी है। न जाने कितने वर्षों से लोग इन दवाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं। कुछ डाक्टरों की सलाह पर और कुछ बिना सलाह के। विभिन्न अख़बारों से जो सूचनाएं मिली है आज उसी पर चर्चा की जाए। शोध से पता चला है कि साइड एफेक्ट वाली दवाओं से लीवर खराब हो सकता है, पाचन तंत्र गड़बड़ हो सकता है और शरीर में कष्टदायी लक्षण पैदा हो सकते हैं। आज के टाईम्स ऑफ़ इंडिया के अंक में है-- एंटी बायोटिक दवाओं से माताओं के गर्भ पर बहुत बुरा असर पड़ता है। नतीजा यह होता है कि पैदा होने के पहले ही बच्चा विभिन्न जटिलताओं का शिकार हो जाता है। एक अन्य शोध के मुताबिक यह भी पाया गया है कि ऐसे बच्चे बड़े होकर अनावश्यक तनाव में रहते हैं। विशेषग्यों ने आशंका जताई है कि बिक रही कई दवाओं में घातक साइड एफेक्ट वाली भी हो सकती हैं। उनकी गंभीरता से जांच की जानी चाहिए। गांवों और कस्बों में छोटी- मोटी बीमारियों के लिए लोग डाक्टरों से सलाह नहीं लेते। वे जिस- तिस से पूछ कर दवा खरीद लाते हैं और सुबह- शाम खा कर अपने शरीर पर खतरनाक प्रयोग करते रहते हैं। अनेक लोगों का मानना है कि एलोपैथिक दवाएं बगैर साइड एफेक्ट के नहीं होतीं। लेकिन चूंकि उनका तत्काल कुप्रभाव नहीं दिखाई देता, इसलिए लोग उन्हें खाते रहते हैं। लेकिन जब शरीर में इन दवाओं के साइड एफेक्ट के रूप में इकट्ठा विष एक सीमा से ज्यादा हो जाता है तो गंभीर बीमारी बन कर उभरता है। गांव के लोगों का कहना है कि डाक्टरों की फीस इतनी ज्यादा हो गई है कि लोग उनसे सलाह लेने से कांपते हैं। विदेशों की बात अलग है जहां प्रति व्यक्ति आय ज्यादा है। अपने देश में आयुर्वेद की दवाएं प्रचलित थीं। लेकिन एक खास साजिश के तहत उनका प्रचलन कम होता गया औऱ एलोपैथिक दवाओं का बाजार बनाए रखने के लिए उनकी महानता के गुण गाए जाने लगे। अपने यहां जड़ी- बूटियों की भारी संख्या है। जरूरत है उनके जानकारों की और उसके सही उपयोग की। आज भी आदिवासी इलाकों में जड़ी- बूटियों से रोगों को ठीक करने का चलन है। वे लोग पेट इत्यादि के लिए कभी एलोपैथिक दवाएं खाते ही नहीं । यह मैंने अपनी आंखों से देखा है। पेट के लिए तो जडी- बूटियां जादू की तरह असर करती हैं। पेट से ही हजारों रोगों का जन्म होता है। अगर अब भी आयुर्वेद को बढ़ावा मिले तो करोड़ो लोगों को राहत मिलेगी।

Tuesday, November 3, 2009

क्या सचमुच आएगा प्रलय २०१२ में

विनय बिहारी सिंह

भौतिक शास्त्रियों ने आशंका जताई है कि २०१२ में एक ग्रह- प्लैनेट एक्स पृथ्वी से टकराएगा और भयंकर भूकंप, ज्वालामुखी विस्फोट और सुनामी जैसी प्राकृतिक विनाश होगा। इसमें सभी मनुष्य मारे जाएंगे। जर्मनी के वैग्यानिक रोसी औडोनील और विली नेल्सन का कहना है कि पृथ्वी से प्लैनेट एक्स २१ दिसंबर २०१२ को टकराएगा। आपने इसका शोर टीवी चैनलों पर सुना ही होगा। लेकिन समाचार एजंसी भाषा के मुताबिक वैग्यानिक प्रोफेसर यशपाल ने कहा है कि ब्रह्मांड ऐसे हजारो क्षुद्र ग्रहों और आकाशीय पिंड चक्कर लगा रहे हैं, जो किसी भी समय पृथ्वी से काफी करीब से गुजर सकते हैं और पृथ्वी से टकरा सकते हैं। उनके मुताबिक इसकी बहुत कम संभावना है कि प्लैनेट एक्स का पृथ्वी से टक्कर हो। लेकिन उन्होंने कहा है कि अगर टक्कर हुई तो इसकी तीव्रता सबसे बड़े परमाणु विस्फोट से काफी ज्यादा होगी और एक समय जैसे डायनासोर समाप्त हो गए थे, उसी तरह पृथ्वी से मानव जाति समाप्त हो जाएगी। हाल ही आई किताब डार्क रेड प्लैनेट एक्स की पृथ्वी से टक्कर का ब्यौरा पेश किया गया है। ब्रिटिश वैग्यानिक और लेखक जेक्रियाह सिटचीन का कहना है कि प्लैनेट एक्स पृथ्वी की ओर हर ३६०० साल बाद आता है। इसके कारण पृथ्वी के साथ टक्कर की आशंका है। वैग्यानिकों का यह भी कहना है कि इस टक्कर के कारण पृथ्वी अपनी धुरी से आगे की ओर चली जाएगी। इस खबर के बाद कई लोग कह रहे हैं कि यही वह समय है जब प्रलय आयेगा लेकिन वैग्यानिकों के एक तबके का मानना है कि प्लैनेट एक्स आएगा जरूर लेकिन पृथ्वी से बिना टकराए ही चला जाएगा औऱ प्रलय नहीं होगा। लेकिन दुनिया भर वैग्यानिक यह भी मान रहे हैं कि अभी से कुछ भी कहना संभव नहीं है। यह पूरा ब्रह्मांड ईश्वर का है। वे ही इसके मालिक हैं। वे जो कुछ भी करेंगे, सबके हित में होगा। प्रलय हो तब भी और न हो तब भी।

Monday, November 2, 2009

प्रेम में रूपांतरण की ताकत

विनय बिहारी सिंह

यह कथा रामकृष्ण परमहंस सुनाया करते थे। एक शिकारी को पक्षियों का शिकार ही नहीं मिल रहा था। कई दिन बीत गए। एक दिन वह नदी के किनारे से गुजर रहा था। उसने देखा- एक साधु ताली बजा रहे हैं और भजन भी गा रहे हैं। पक्षी उनके कंधे पर बैठ रहे हैं। साधु उन्हें प्यार कर रहे हैं। यह शिकारी के लिए अद्भुत दृश्य था। आखिर इस साधु में क्या आकर्षण है? उसे देख कर तो सारे पक्षी भाग जाते हैं। शिकारी ने भी साधु की तरह दाढ़ी- मूंछें बढ़ानी शुरू कर दी। वह भी साधु की तरह कपड़े पहनने लगा। इस लालच में कि इस वेश में पक्षी आएंगे तो वह उन्हें धोखे से मार डालेगा। जब दाढ़ी पूरी तरह बढ़ गई तो उसने गेरुआ रंग का वस्त्र पहन कर उसी तरह ताली बजाने लगा और भजन भी गाने लगा। सचमुच पक्षी उसके कंधे पर बैठ गए औऱ चोंच से उसके गाल पर प्यार करने लगे। यह शिकारी के लिए नया अनुभव था। ऐसा तो उसके जीवन में कभी हुआ ही नहीं था। पक्षियों से उसका संबंध शिकार और शिकारी का था। प्यार का तो कभी रहा नहीं। पक्षियों का यह प्यार उसे अद्भुत लगा। वह रोज नदी में नहाने आने लगा और पक्षियों को बुलाकर कुछ देर उनके साथ रहने लगा। उसकी आत्मा पक्षियों को मारने से मना कर देती। वह प्यार करने वाले पक्षियों से क्रूरता से पेश ही नहीं आ पा रहा था। रामकृष्ण परमहंस कहते थे- यह है प्रेम के माध्यम से रूपांतरण। यह प्रेम अगर मनुष्यों के बीच हो तो पूरा समाज ही बदल जाए। और अगर यह प्यार ईश्वर के प्रति हो तो फिर आपका जीवन ही बदल जाएगा। कोई चिंता ही नहीं रहेगी। आनंद ही आनंद रहेगा। रामकृष्ण परमहंस कहते थे- सबसे ज्यादा हमसे ईश्वर ही प्रेम करता है। अगर उसके प्रेम का जवाब हम देंगे तो फिर हमारे जीवन में किसी चीज की कमी नहीं रहेगी।