Saturday, December 26, 2009

कुछ जंतु और वनस्पतियां लुप्त होंगी

विनय बिहारी सिंह

वैग्यानिकों और पर्यावरणविदों ने माना है कि आने वाले दिनों में धरती का तापमान और ज्यादा बढ़ने से (ग्लोबल वार्मिंग) डार्विन का विकासवाद जैसी स्थिति होगी। यानी जो प्रकृति से लड़ पाएगा, वह जीएगा अन्यथा उसका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। तापमान बढ़ने से कुछ जीव- जंतु तो अपने अनुकूल तापमान वाली जगहों पर चले जाएंगे, लेकिन अत्यंत धीमी गति से चलने वाले प्राणी और कुछ वनस्पतियों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। विशेषग्यों का कहना है कि ऐसा पहले भी हुआ है। आखिर डायनासोर और कुछ अन्य जीव पृथ्वी से प्राकृतिक कारणों से ही तो लुप्त हुए। जो वनस्पतियां नष्ट होंगी, उनमें संभवतः कुछ औषधीय गुण वाले पौधे भी हैं। यानी तापमान पृथ्वी के अमृत तत्व को खाता जा रहा है। यह सिर्फ औऱ सिर्फ मनुष्य की अकूत धन कमाने की हवस के कारण हो रहा है। अभी कोपेनहेगन में गरीब देशों ने आरोप लगाया ही है कि सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन धनाढ्य उद्योग प्रधान देश ही कर रहे हैं। यानी पर्यावरण प्रदूषित हो तो हो, हम धन के पीछे ही भागते रहेंगे। पहाड़ काट कर, जंगल काटकर ,नदियों को गंदा कर, जैसे भी हो धन कमाओ। पर्यावरण की चिंता का समय नहीं है। धन को देखते ही अंधा हो चुका मनुष्य अपने भविष्य पर विचार नहीं कर रहा। आने वाली पीढ़ियां इस कारण कितना भोगेंगी, उन्हें इससे कोई सरोकार नहीं। प्रकृति किए का फल सबको देती है। वहां अंधेर नहीं है औऱ न ही किसी की सिफारिश चलती है। आपने तापमान बढ़ाया, इसका फल भोगिए। वहां सीधे सीधे गणित का हिसाब है। यह ईश्वर का नियम है। संतुलित जीवन बिताइए वरना दैहिक, दैविक और भौतिक तापों को झेलिए। इसीलिए बुजुर्गों ने कहा है- जो करोगे, वह भरोगे। एक कवि ने तो कहा ही है- बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाय।। हम गरिष्ठ भोजन रोज ठूंस- ठूंस कर खाते रहेंगे तो नाना प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त होने में कितना समय लगेगा? थोड़ी सी असावधानी हमारे जीवन में मुश्किल खडा कर देती है। ऐसे भी कई उदाहरण हैं कि आपकी जबान से कोई कठोर शब्द निकल गया और वह आदमी जिंदगी भर आपका दुश्मन बन गया। इसलिए सावधानी से क्यों न चलें। (इसके बाद नए साल में ही भेंट होगी- विनय बिहारी सिंह)

Friday, December 25, 2009

प्रेम और करुणा के अवतार जीसस क्राइस्ट



विनय बिहारी सिंह


आज क्रिसमस है। जीसस क्राइस्ट का जन्म दिन। जिस तरह भगवान कृष्ण प्रेम और करुणा के अवतार हैं, ठीक उसी तरह जीसस क्राइस्ट भी हैं। जहां भी उन्होंने पीड़ित और दुखी लोगों को देखा, उनकी मदद की। रोगियों को स्वस्थ किया, विकलांगों को सुंदर शरीर दिया और ईश्वर को चाहने वालों को अपने साथ ले लिया। उन्होंने कहा- सीक दि किंगडम आफ गाड, दि रेस्ट थिंग्स विल बी एडेड अन टू यू। यानी ईश्वर को चाहो, बाकी चीजें तुम्हारे पास अपने आप चली आएंगी। उनकी करुणा का सबसे बड़ा उदाहरण तो यही है कि जो लोग उन्हें सूली पर चढा रहे थे उनके लिए उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की- गाड, फारगीव देम, फार दे नो नाट, ह्वाट दे डू। ( हे भगवान, इन्हें माफ कर दो, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।) जीसस ने जिस समय येरूशलम के नजारेथ में जन्म लिया, वहां रोमन साम्राज्य के शासकों का राज्य था। लोग दमन के शिकार थे। जब स्थानीय राजा हेरोड ने सुना कि जीसस नाम का बच्चा छोटी उम्र से ही ईश्वर की बातें करता है और उसकी बातें उनके पोंगापंथ से बिल्कुल अलग हैं तो वह सतर्क हो गया। उसने जीसस की हत्या कर देनी चाही। इस बात का पता चलते ही जीसस के मां- बाप उन्हें लेकर मिस्र भाग गए। वहां छुप कर उन्होंने बच्चे जीसस को पाला। फिर थोड़े बड़े हुए तो वे वापस इस्राइल में अपने घर आए।


ठीक यही तो भगवान कृष्ण के साथ हुआ था। जब उनके मामा कंस को पता चला कि देवकी के गर्भ से पैदा हुआ बच्चा उसका हत्यारा बनेगा तो उसने अपनी बहन को जेल में बंद कर दिया और उसके सारे बच्चों की हत्या करने लगा। लेकिन जब भगवान कृष्ण पैदा हुए तो जेल के सारे पहरेदार सो गए और जेल का फाटक अपने आप खुल गया। ताला ही नहीं खुला सारे दरवाजे खुल गए। तब वासुदेव नन्हें कृष्ण को चुपके से टोकरी में लेकर यमुना पार किया। उस समय घनघोर अंधेरी रात थी और यमुना में बाढ़ आई हुई थी। लेकिन वासुदेव ने पैदल ही नदी पार किया। एक बार तो यमुना कृष्ण का पैर छूने के लिए उछालें मारने लगी। यह बात वासुदेव की समझ में आ गई। उन्होंने कृष्ण का पैर यमुना को छुआ दिया। बस क्या था। यमुना का जल बिल्कुल घुटने भर का हो गया और वासुदेव आराम से नदी पार कर गए। दूसरी तरफ गोकुल था। वहां यशोदा को पुत्री पैदा हुई थी। कृष्ण को यशोदा की गोद में लिटा कर वासुदेव उस कन्या को अपने साथ ले आए। ज्योंही वे जेल में अपनी कोठरी में घुसे, फिर अपने आप ताला लग गया और बच्ची रोने लगी। कंस खबर पा कर दौड़ा आया। उसने बच्ची को उठा कर पटकने के लिए ज्योंही उठाया, बच्ची हवा में उड़ गई और आकाश में जाकर बोली- मूर्ख तेरा वध करने वाला पैदा हो चुका है। तुम उसे नहीं मार सकते। मान्यता है कि यह कन्या आदि शक्ति थीं।


जीसस क्राइस्ट और भगवान कृष्ण के जीवन में कहीं- कहीं साम्य है। पश्चिमी देशों में जीसस क्राइस्ट प्रेम के सर्वोत्तम प्रतीक हैं। असीसी के सेंट फ्रांसिस ने क्राइस्ट का दर्शन किया था। अन्य संतों ने भी किया था। स्वयं परमहंस योगानंद जी ने उनके दर्शन किए थे। आइए हम कामना करें कि जीसस हमें आशीर्वाद दें ताकि हम सभी आपस में प्रेम और करुणा के साथ रह सकें। हमारे मन में ईश्वर के प्रति प्रेम निरंतर बढ़ता जाए और जैसे ईश्वर अनंत हैं उसी तरह हमारा प्रेम भी अनंत हो।

Thursday, December 24, 2009

एक छोटी सी कथा

विनय बिहारी सिंह

एक आदमी रोज मंदिर में आता था। आंख बंद कर चुपचाप बैठ जाता था। फिर दो घंटे बाद उठ कर चला जाता था। इस तरह दो साल बीत गए। पुजारी इस आदमी को रोज देखते थे। एक दिन पुजारी से रहा नहीं गया। उन्होंने उस आदमी से पूछा- आप रोज आंख बंद कर क्या दो घंटे तक ध्यान करते हैं? उस आदमी ने जवाब दिया- नहीं। मैं ईश्वर से बातें करता हूं। पुजारी ने पूछा- ईश्वर आपसे क्या कहते हैं? उस आदमी ने जवाब दिया- वे मेरी बातें सुनते हैं।

Wednesday, December 23, 2009

रामराज्य या कृष्ण की द्वारकापुरी में यह हाल नहीं था

विनय बिहारी सिंह

राम या कृष्ण के शासनकाल में आम आदमी महंगाई से कराहता नहीं था। बाजार लोगों को जरूरत की चीजें सही दाम पर मुहैया करा देते थे। राजा के मंत्री भी अत्यंत जिम्मेदार थे और वे हमेशा इस कोशिश में लगे रहते थे कि जनहित का काम ज्यादा से ज्यादा कैसे हो। जिनके घर खाने को नहीं था, उनका जिम्मा राजा उठाता था। इसके लिए एक संस्था का गठन कर दिया गया था जो पता लगा लेती थी कि कहां लोग भूखे सो रहे हैं। वहां भोजन का अच्छा प्रबंध कर दिया जाता था। लेकिन जिन्हें मुफ्त का भोजन मिलता था वे अकर्मण्य नहीं रहते थे। उनमें काम करने की ललक रहती थी। हां, आलसी लोग भी होते थे लेकिन उनकी संख्या बहुत कम थी। राजा अपनी जिम्मेदारियों से मुकरता नहीं था। वह बाजार ही नहीं सुरक्षा एजंसियों पर भी कड़ी नजर रखता था। उसके गुप्तचर अत्यंत मेधावी थे। उनकी संख्या बहुत ज्यादा थी। गुप्तचर दरअसल लोगों की आबादी के आधार पर रखे जाते थे ताकि कहीं से सूचना मिलने में चूक नहीं हो। एक सुचारु तंत्र का यही गुण है। पर्यटक और शोधकर्ता ह्वेनसांग ने तो प्राचीन भारत के बारे में बहुत ही प्रशंसा लिखी है। उसने जो कुछ भी देखा, वही लिखा। उसने लिखा है कि घरों में ताला लगाना जरूरी नहीं था। लोग यूं ही कुंडी चढ़ा कर घूमने निकल जाते थे। अगर किसी ने गलती से किसी के पास कुछ धन छोड़ दिया या उसे वापस लेना याद नहीं रहा तो जिसके पास धन रखा है वह ढूंढ़ कर उस आदमी को वापस कर आता था। यह जानकारी कहां से मिली? आप परमहंस योगानंद की आटोबायोग्राफी आफ अ योगी पढ़ लीजिए। उसमें प्राचीन भारत की समृद्धि की दास्तान मिलेगी। लेकिन आज क्या है? क्या आधुनिक भारत जो टेक्नालाजी और ग्यान में खुद को अग्रणी मानता है, नैतिकता में भी आगे है? क्या आज आम आदमी खुद को सुरक्षित और खुश मानता है? क्या उसकी भूख, उसके अभाव और उसकी चिकित्सा की परवाह किसी सरकार को है? यूं तो यह जगह अध्यात्म की है। लेकिन आइए संक्षेप में जानें कि आज इक्कीसवीं सदी में हमारा क्या हाल है। केंद्रीय कृषि मंत्री कह चुके हैं कि महंगाई रोकना असंभव है। केंद्र सरकार भी अपनी चुप्पी से यही बात दुहरा रही है। क्या आप दुनिया के किसी सुव्यवस्थित देश को जानते हैं जिसकी सरकार महंगाई रोकने में विफल हो? नहीं। केंद्र सरकार को इस पर शर्म नहीं आती। यह अति मुनाफाखोरी को महिमामंडित करना है। यानी बाजार केंद्र सरकार के नियंत्रण में नहीं है। यह कैसी सरकार है? क्यों बाजार उसके नियंत्रण में नहीं है? हर सांसद को उसके क्षेत्र के विकास के लिए २ करोड़ रुपये की मोटी रकम मिलती है। अब सांसद इस रकम को ५ करोड़ तक करने की मांग कर रहे हैं। उधर एक राज्य सभा के एक सांसद ने मांग की है की सांसद निधि ही खत्म कर दी जाये। इससे भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। हर सांसद और संसद को कानून बनाने ही नहीं, कानून को लागू करने का भी पूरा अधिकार है। फिर यह ड्रामा क्यों? सारी केंद्र सरकारें एक जैसी हैं। चाहे वे किसी पार्टी की हों। अपने देश में कोई भी पार्टी नहीं है जो जनहित के बारे में सोचे। सब राजनीति में कमाई करने या लूट- खसोट करने गए हैं। न कोई नीति न नैतिकता और न लोकहित। सिर्फ बयान भर दे देना है- हम महंगाई रोकने में नाकाम हैं।

Tuesday, December 22, 2009

हम कहां से आए?

विनय बिहारी सिंह

ऋषियों ने कहा है कि हमें खुद से सवाल करना चाहिए कि हम कहां से आए? इस दुनिया में किसलिए आए? इसके पहले हम थे कहां? मृत्यु के बाद कहां जाएंगे? भगवद् गीता कहती है कि आत्मा अजर- अमर है। सिर्फ शरीर नश्वर है। शरीर ही जन्मता है, जवान होता है, वृद्ध होता है, रोगी होता है और मरता है। जैसे मनुष्य पुराने कपड़े त्याग कर नए कपड़े पहनता है, ठीक उसी तरह आत्मा नया कपड़ा यानी नया शरीर धारण करती है। जिस घर में बच्चा जन्म लेता है उसकी स्वाभाविक अदाओं पर सभी लोग मोहित होते हैं। बच्चा तेजी से हाथ- पांव फेंक कर खेलता रहता है तो परिजन कितने खुश होते हैं? बच्चा जो भी आवाज निकालता है, घर के लोग उसे सुन कर कितने खुश होते हैं। बच्चा कहता है- बा---। घर के लोग खुश हो कर कहते हैं-- देखो, देखो बा ---- बोल रहा है। यह शास्वत आत्मा का नया शरीर होता है। यह बच्चा बड़ा होता है और तरह- तरह के प्रपंच करने लगता है। हमारा नाम भी तो इस देह को ही मिला है। इस नश्वर नाम को हम स्वर्णाक्षरों में चमकता देखना चाहते हैं। चाहते हैं हमारा खूब नाम हो, हमारे पास खूब पैसा हो, यानी हमारी हजार इच्छाएं हमें नचाती रहती हैं। इन्हीं इच्छाओं के चलते हमारा बार- बार जन्म होता है। शंकराचार्य ने कहा है- पुनरपि जन्मम, पुनरपि मरणम, जननी जठरे पुनरपि शयनम।। तो हम कहां से आए हैं? जन्म से पहले कहां थे? वेदों और ऋषियों ने कहा है- कुछ दिन अदृश्य लोक में विश्राम करने के बाद व्यक्ति का फिर किसी दूसरे घर में जन्म होता है। इसके बाद फिर वही तनाव, लालच, क्रोध और इंद्रिय सुख की लालसाएं। माया अपने जाल में इस तरह फंसाती है कि दुख में रहने के बावजूद मन ईश्वर की तरफ नहीं जाता। ईश्वर के बारे में बात करना भी अच्छा नहीं लगता। हां, संसारी प्रपंच के बारे में बात करने में खूब मन लगता है। लेकिन हमें उबारने वाले भगवान ही हैं। ईश्वर के अलावा हमारा अपना कोई नहीं है। इस संसार में हमारा जो सबसे प्रिय व्यक्ति होगा, उससे भी आत्मीय और उससे भी करीब ईश्वर हैं। उनकी याद या उनका स्मरण हम क्यों न करें?

Monday, December 21, 2009

जर्मन डाक्टरों का कमाल़

विनय बिहारी सिंह

सबसे पहले जर्मन डाक्टरों के कमाल की बात करें। एक अंधे आदमी की आंखों की कार्निया में विशेष माइक्रोचिप लगा कर उन्होंने उसे आंखों वाला बना दिया। अब वह आदमी आराम से देख रहा है और खुश है। डाक्टरों ने कहा है कि यह विचार काफी दिनों से चल रहा था कि निष्क्रिय या बेकार हो चुकी आंख को फिर से नई और सक्रिय कैसे बनाया जाए। इस घटना का आध्यात्म से क्या संबंध है? दिव्य प्रकाश तो आध्यात्म का ब्लाग है। आइए जानें। हमारे देश में एक विख्यात संत हुए हैं- योगावतार श्यामा चरण लाहिड़ी। लाहिड़ी महाशय के यहां एक सेवक था- राम। राम की दोनों आंखें बेकार थीं। वह दुनिया को देखना चाहते थे। उन्होंने हाथ जोड़ कर लाहिड़ी महाशय से कहा- आपने अनेक लोगों को ठीक कर दिया। क्या मेरी आंखें ठीक नहीं हो सकतीं। लाहिड़ी महाशय के मन में करुणा उपजी। वे देवता थे। उन्होंने कहा- तुम दिल से भगवान के नाम का जाप करो। पंद्रह दिन बाद तुम्हारी आंखें ठीक हो जाएंगी। राम ने पूछा- भगवन, मैं किस देवता के नाम का जाप करूं? लाहिड़ी महाशय ने कहा- तुम्हारा नाम राम है। तुम राम- राम जपते रहो। फिर क्या था। राम ने तुरंत जाप करना शुरू कर दिया। वह सोते, जागते, काम करते, विश्राम करते यानी हर वक्त राम- राम का जाप करता रहता। और तोते की तरह नहीं। बिल्कुल दिल से जाप करता। मानों भगवान राम सामने बैठे हों या खड़े हों और वह राम- राम कह कर उन्हें पुकार रहा हो। इसका चमत्कारी असर हुआ और राम की आंखें सचमुच १५ दिनों में ठीक हो गईं। उसने पंद्रहवें दिन सूर्योदय देखा। यह चमत्कार कैसे हुआ? लाहिड़ी महाशय के एक शिष्य ने कहा- हमें इस दुनिया में जो कुछ भी प्राप्त होता है वह सीधे ईश्वर से ही। लेकिन जिन्हें विश्वास नहीं है, उन्हें कुछ भी फलित नहीं होता। लेकिन जो गहरे अंतर से समूचे दिल से ईश्वर को पुकारता रहता है, वह उनका उत्तर अवश्य पाता है। वे इतने ही जीवंत और हमारे करीब हैं जितने हम औऱ आप हैं। यह संसार ईश्वर का है। हम यहां अपने कर्मों का फल भोगने आए हैं। लेकिन अगर हम ईश्वर को दिल से पुकारें तो वे हमें अपनी विशेष सुरक्षा घेरे में ले लेते हैं। वे वैसे भी हमारी रक्षा करते हैं क्योंकि वे ही हमारे माता है, पिता हैं। परमहंस योगानंद जी कहते हैं कि ईश्वर के पास एक चीज नहीं है, वह है हमारा प्यार। हर मां- बाप चाहता है कि उसकी संतान उसे प्यार करे। भगवान क्यों नहीं चाहेंगे? वे हमारे प्यार की प्रतीक्षा में हैं। यह कितना अद्भुत है कि इस संसार, इस ब्रह्मांड का स्वामी यानी मालिक हमारे प्यार की राह देख रहा है। हमें यह अद्भुत मौका मिला है। इसे हमें गंवाना नहीं चाहिए।

Wednesday, December 16, 2009

मित्रों अभी मैं अत्यंत व्यस्त हूँ। लेकिन सोमवार से ब्लॉग लिखना शुरू कर दूंगा।
कृपया २१ दिसम्बर २००९ को इस ब्लॉग पर नया लेख अवश्य पढ़ें ।

Saturday, December 12, 2009

रमण महर्षि ने कहा है- खुद से पूछो कि मैं कौन हूं

विनय बिहारी सिंह

रमण महर्षि तमिलनाडु (मदुरै से ३० मील दूर तिरुचुली) में के एक ब्राह्मण परिवार में ३० दिसंबर १८७९ में जन्मे और लगभग ७१ वर्ष की आयु में १४ अप्रैल १९५० को अपना शरीर छोड़ दिया। वे पूरे विश्व के अध्यात्म पुरुष थे। १६ वर्ष की उम्र में उन्होंने घर छोड़ दिया और तिरुवन्नामलइ चले गए। वहीं अरुणाचल में उन्होंने गहन साधना की। एक बच्चा उनकी साधना और कष्ट देख कर रो पड़ा। रमण महर्षि ने पूछा- क्यों रो रहे हो? बच्चे ने कहा- तुम्हें रोज देखता हूं। बहुत दिनों से देख रहा हूं- तुम बिना कुछ खाए- पीए, बिना कुछ पहने (उनके शऱीर पर सिर्फ कौपीन था) इतनी तपस्या कर रहे हो। तुम्हें देख कर मुझे पीड़ा होती है। रमण मुस्करा कर बच्चे से बोले- भगवान के प्रेम में पड़ने पर किसी चीज की परवाह नहीं होती। वहां तो बस आनंद ही आनंद है। भोजन और वस्त्र तो तुच्छ वस्तुएं हैं। तब बच्चे ने रोना बंद किया। रमण महर्षि ने कहा है- खुद से पूछो कि मैं कौन हूं। यानी खुद को जानने का प्रयत्न। मैं कौन हूं? क्या शरीर हूं। नहीं। यह शरीर मेरा है, मैं शरीर नहीं हूं। तो क्या मैं बुद्धि हूं? नहीं, बुद्धि मेरी है। तब क्या हूं? तो उत्तर मिलेगा- मैं शुद्ध सच्चिदानंद हूं। सच्चिदानंद? हां ( तुलसीदास ने भी तो कहा है- ईश्वर अंश जीव अविनाशी)। वे कहते थे मनुष्य जब अपने को भूल जाता है तो नाना प्रकार के कष्ट पाता है। वह भूल जाता है कि मैं ईश्वर का अंश हूं और तरह- तरह के माया के जालों में फंसता रहता है। जैसे प्याज का छिलका उतारते जाने से अंत में कुछ नहीं बचेगा, उसी तरह माया की परतों को हटाने से बचेगा सिर्फ शून्य लेकिन इसी शून्य में छुपे हैं भगवान। रमण महर्षि ने कहा है- ईश्वर के सिवा कुछ भी नहीं है। सर्वं खल्विदं ब्रह्म। सबकुछ ईश्वर है। द्वैत ही भ्रम का कारण है। कहीं कुछ भी नहीं- सिर्फ ईश्वर, ईश्वर औऱ ईश्वर ही हैं चारो तरफ। बस गहरे ध्यान में जाकर महसूस करने की जरूरत है।

Friday, December 11, 2009

चरम वैराग्य की स्थिति

विनय बिहारी सिंह

कई बार प्रश्न आता है कि मन को वश में करना मुश्किल है। कैसे करें? मन को तो चिंताएं घेरे हुए हैं, चंचल विचार घेरे हुए है, वह वश में आए कैसे? तो हमें फिर गीता की तरफ लौटना पड़ रहा है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा है- अभ्यास और वैराग्य से मन वश में आ जाएगा। अभ्यास तो ठीक है। लेकिन वैराग्य कैसे आए? हम कई बार अपनी पूंजी भूल जाते हैं। हमारे पास खजाना है। लेकिन हम भूल गए हैं। याद कीजिए भर्तृहरि को। भर्तृहरि ने एक अत्यंत प्रसिद्ध पुस्तक लिखी है- वैराग्य शतकम। यानी वैराग्य पर सौ पद। यानी सौ कविताएं। वैराग्य के दस उपाय बताते हुए अनेक लोग हांफने लगते हैं। यहां भर्तृहरि ने सौ उपाय बताए हैं। लेकिन इन्हें उपाय कहना ठीक नहीं होगा। ये विचार हैं। इन विचारों को पढ़ कर पाठक का मन उद्वेलित होता है। इनका सार है- इस दुनिया में आप अकेले आए हैं। अकेले ही जाएंगे। कोई किसी का नहीं है। हम अपने स्वार्थों, इच्छाओं और अस्थिरताओं के शिकार हो कर माया के भंवर में फंसे हुए हैं और कष्ट पा रहे हैं। जिस प्रेयसी की देह को आपने इतना आकर्षक माना, वह मृत पड़ी है और आप उसे जल्दी से घर से निकाल कर जला देना चाहते हैं। हम सब अपनी अपनी भूमिकाएं निभाने आए हैं लेकिन माया के जादू में फंस कर कष्ट भोग रहे हैं। सिर्फ और सिर्फ ईश्वर ही इस माया से उबार सकते हैं। यह देह रोज थोड़ा- थोड़ा करके मृत्यु की तरफ बढ़ रही है। एक दिन अचानक आपकी मृत्यु हो जाएगी और आपका धन, मान-सम्मान और घऱ परिवार रखा का रखा रह जाएगा। फिर किसी अन्य परिवार में जन्म होगा और फिर वही माया का जाल। सुख- दुख का भंवर। कष्टों और तनावों का दौर। इसका अंत नहीं। अंत करना है औऱ सुख से रहना है तो ईश्वर की शऱण में जाइए। वगैरह वगैरह। भर्तृहरि ने वैराग्य शतकम चरम वैराग्य की स्थिति में लिखा। उन्हें ईश्वर के सिवा कुछ दिखता ही नहीं था। इस संसार की जिन वस्तुओं के लिए सामान्य लोग तरसते हैं, भर्तृहरि के लिए वे धूल की तरह थीं। रामकृष्ण परमहंस भी कहते थे- रुपया- माटी। माटी- रुपया। यानी मिट्टी औऱ रुपया एक ही है। इसमें आसक्ति कैसी? वैराग्य के सौ उपायों या वैराग्य के सौ विचारों को पढ़ना सुखद अनुभव है। हम एक बार फिर अनुभव करते हैं कि यह संसार हमारे जन्म के पहले भी था और मृत्यु के बाद भी रहेगा। संसार तो आपकी परवाह नहीं करता। लेकिन आप संसार के मायाजाल में बुरी तरह फंसे रहते हैं। इससे मुक्ति के उपायों का ही नाम है- भर्तृहरि शतकम।

Thursday, December 10, 2009

अपने भीतर की दुनिया कैसी है?

विनय बिहारी सिंह


दो तरह की दुनिया है। एक तो बाहर की दुनिया, जिसे हम रोज देखते, सुनते और अनुभव करते हैं। दूसरी है भीतर की दुनिया। बाहर की दुनिया में शोर- शराबा, भागदौड़ और बेचैनी है तो भीतर की दुनिया में परम शांति और स्थिरता है। यानी पहली दुनिया दूसरी दुनिया से बिल्कुल उलट है। बाहर की दुनिया नित्य परिवर्तनशील और जन्म- मरण और भोगाभोग की है तो भीतर की दुनिया परिवर्तन रहित, स्थाई और सुख शांति वाली है। अब आप कहेंगे कि जो व्यक्ति परेशान है, तनाव झेल रहा है, वह अगर आंख बंद करके ध्यान करेगा और अपने भीतर उतरना चाहेगा तो उसका दिमाग स्थिर होगा ही नहीं। उसके लिए तो जैसे बाहर की दुनिया वैसी ही भीतर की दुनिया। नहीं। एक म्यान में दो तलवारें नहीं रहा करतीं। या तो आप बाहरी दुनिया के ही होकर रह सकते हैं या अंदर की दुनिया के। अब आप सवाल करेंगे कि जो भीतर की दुनिया को जानते हैं, वे भी तो बाहर की दुनिया में बरतते ही हैं। हां, यह ठीक है। लेकिन भीतर की दुनिया को जान कर बाहर की दुनिया के साथ आचार- व्यवहार करना अलग तरह का है। जिस साधक ने तत्व जान लिया वह बाहर की दुनिया में आनंद पूर्वक रह सकेगा। वह तो भगवान का हाथ पकड़े हुए है और भगवान भी उसका हाथ पकड़े हुए हैं। ऐसे में उस साधक को कोई चिंता करने की जरूरत ही नहीं है। भीतर की दुनिया का स्वाद या ईश्वर का स्वाद तब तक नहीं मिल सकता जब तक कि आप उतनी देर के लिए बाहर के संसार से नाता न तोड़ लें। अगर आप आंख बंद कर ईश्वर का ध्यान करने की कोशिश कर रहे हैं और उसके बदले संसार भर के प्रपंचों के बारे में सोच रहे हैं तो आप भीतर गए ही नहीं। बाहर- बाहर ही घूम रहे हैं। आंख बंद करने भर से अंदर की दुनिया में नहीं जाया जा सकता है। जो आपके दिल में होगा वही आप आंखें खुली रख कर भी देखेंगे और आंखें बंद कर भी वही देखेंगे। जो आपके दिलो दिमाग पर हावी रहेगा, वही आप देखेंगे, सुनेंगे और महसूस करेंगे। कहावत है न कि जिस रंग का चश्मा होगा, उसी रंग का दृश्य आपको दिखाई देगा। इसलिए जिसने इस दुनिया में रहते हुए भी अपना गहरा रिश्ता ईश्वर से जोड़ रखा है, वह सबसे सुखी है। उसे ईश्वर का पक्का सहारा मिल गया। और जो बौद्धिक तर्क में पड़े हुए हैं कि ईश्वर है भी कि नहीं, उन्हें कुछ नहीं मिलेगा। ईश्वर देह, मन और बुद्धि से परे है। यह गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है। जिस क्षण आपने संपूर्ण समर्पण कर दिया, ईश्वर आपके हो गए। लेकिन टोटल सरेंडर या पूर्ण समर्पण एकबारगी नहीं होता। यह धीरे- धीरे होता है। आप जैसे जैसे ईश्वर के भीतर गहनतम उतरते जाएंगे, आप उनके प्रेम में आनंदित होते जाएंगे। यह बात अनुभव की है। कबीर दास ने कहा ही है-
पार ब्रह्म के तेज का कैसा है परमान।कहिबे को सोभा नहीं, देखन को परमान।।

Wednesday, December 9, 2009

मां काली के विख्यात भक्त रामप्रसाद सेन

विनय बिहारी सिंह

पश्चिम बंगाल में १८वीं शताब्दी के काली भक्त रामप्रसाद सेन घर- घर में जाने जाते हैं। आज भी उनके गीत सुन कर लोग मुग्ध हो जाते हैं। उनके गाने को रामप्रसादी संगीत कहा जाता है। वे मां काली के अनन्य भक्त थे और मान्यता है कि मां काली ने उन्हें कई बार दर्शन दिए थे। बल्कि उनका वे पुत्र की तरह ख्याल रखती थीं। वे पश्चिम बंगाल में एक राजा के दरबार में कवि थे। उनका जन्म तांत्रिक परिवार में हुआ था। इसीलिए बचपन से वे काली के भक्त बन गए। धीरे- धीरे उन्हें लगा कि मां काली तो कल्पना की वस्तु नहीं हैं, वे सचमुच मौजूद हैं। उनके भजन इस बात के प्रमाण हैं कि उन्होंने दिव्य अनुभव प्राप्त किए थे। रामप्रसाद सेन आमतौर पर सिर्फ रामप्रसाद के नाम से ज्यादा जाने जाते हैं। उनके लिखे गीत आमतौर पर हजारों की संख्या में हैं। उनकी पुस्तकें विद्या सुंदर, काली कीर्तन और कृष्ण कीर्तन अमर कृतियों की तरह हैं। रामप्रसाद मूलतः बांग्ला में गीत लिखते थे। लेकिन अंग्रेजी में भी उनके गीतों के अनुवाद हुए हैं। उनके एक गीत का अर्थ देना प्रासंगिक होगा- क्या वह दिन आएगा, जब मां तारा (काली) कहते मेरी आंखों से आंसू बहने लगेंगे? मां का नाम लेते लेते मुझे तत्व ग्यान होगा। वेदों का कहना है कि दिव्य मां हर जगह हैं। रामप्रसाद कहता है कि मां हर जगह हैं। अंधे उन्हें हर जगह छुपा हुआ देखते हैं। जबकि वे प्रकट हैं। रामप्रसाद मां काली के गहनतम भक्त थे। वे फूल को भी छूते थे तो कहते थे- मां काली को छू रहा हूं। सांस लेते थे तो कहते थे कि मेरी सांस में मां काली इसमें बसी हुई हैं। वे कहते थे- मां आछे, आमी आछी, आर के आमार, माए दिया खाई पोड़ी, मां निएछे भार आमार ( मां है, मैं हूं बाकी मेरा है ही कौन। मां का दिया ही खाता औऱ पहनता हूं। मां ने मेरी जिम्मेदारी ले रखी है।)। रामप्रसाद के बारे में एक कहानी सुनने को मिलती है। भजन गाते- गाते एक बार वे समाधि में चले गए। यह दोपहर बाद तीन बजे का समय था। उन्होंने दिन का खाना नहीं खाया था। रात हो गई, फिर भोर हुई। रात का खाना भी यूं ही पड़ा रहा। अगले दिन आठ बजे उनकी समाधि टूटी। उनकी सेवा में लगे आदमी ने उन्हें खीर खाने को दी। लेकिन वे तो एक अद्भुत आनंद में डूबे हुए थे। बहुत कहने पर उन्होंने खीर खाई। वे भोजन और वस्त्र का ख्याल नहीं रख पाते थे। भयानक ठंड पड़ रही है और उन्हें होश नहीं है कि एक ऊनी चादर शरीर पर डाल लें। लोग ही उनका ख्याल रखते थे। धोती मैली हो गई है तो लोग ही साफ कर देते थे। अगर उन्हें एक तरह का ही खाना रोज दिया जाता तो भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था। भोजन उनके लिए जीने भर का साधन था। स्वाद से ऊपर उठ चुके थे वे। लेकिन हमेशा वे आनंद में डूबे रहते थे।

Tuesday, December 8, 2009

कंसंट्रेशन की ताकत

विनय बिहारी सिंह

वैग्यानिकों ने एक ऐसा कंप्यूटर तैयार किया है जो मनुष्य के सोचे हुए शब्दों को लिख देता है। इस कंप्यूटर का संबंध माइंड वाइब्रेशन से है। कैलिफोर्निया के वैग्यानिकों ने यह अद्भुत काम कर दिखाया है। मान लीजिए कि आपने अंग्रेजी का अक्षर वी सोचा। बस कंप्यूटर स्क्रीन पर वी टाइप हो जाएगा। तो ऋषियों ने जो कहा है कि आप जैसा सोचते हैं, वैसे ही बन जाते हैं, वह एक बार फिर साबित हो गया। तुलसीदास के बारे में एक संत ने कहा था- हाथ तुलसीदास के थे लेकिन रामचरितमानस लिखा स्वयं राम ने। यानी तुलसीदास रामचरितमानस लिखते वक्त सुपरकांशसनेस में रहते थे। लेकिन अन्य संतों ने कहा है- तुलसीदास हमेशा ही सुपरकांशसनेस में रहते थे। चाहे रामचरितमानस लिख रहे हों या चुपचाप बैठे हों या किसी से बात कर रहे हों। राम उनकी चेतना में गहरे समाए हुए थे। इसीलिए उनके बारे में कहा जाता है कि वे हनुमान और राम के दर्शन अक्सर किया करते थे। शाम होते ही तुलसीदास अकेलापन चाहते थे। वे अपनी कुटिया बंद कर लेते थे। इसी बंद कुटिया में वे राम और हनुमान से घंटों साक्षात्कार करते रहते थे। जो ब्रह्मांड के मालिक हैं, उनके साथ आनंद करते थे। रामचरितमानस यूं ही अमर कृति नहीं है। तो बात चल रही थी एक अद्भुत कंप्यूटर की। आप जो भी सोचते हैं उसका एक स्पंदन होता है। मान लीजिए आप किसी देवता के बारे में लगातार सोच रहे हैं। मसलन भगवान कृष्ण के बारे में। तो आपके लगातार सोचने का परिणाम यह होगा कि भगवान कृष्ण के स्पंदन आपके भीतर पैदा हो जाएंगे। आपके भीतर एक सुरक्षा कवच बन जाएगा। और भीतर ही क्यों, आपके बाहर भी एक सुरक्षा कवच बन जाएगा जो आपकी लगातार रक्षा करता रहेगा। अगर यकीन न हो तो करके देखिए। दिमाग का वाइब्रेशन बहुत ताकतवर चीज है। इसे ही आधार बना कर वैग्यानिकों ने एक खास सुपर कंप्यूटर तैयार किया है। दरअसल ज्यादातर लोगों का चिंतन इतना बिखरा हुआ होता है कि वे दिमाग को एकाग्रचित्त कर ही नहीं पाते। अन्यथा एकाग्रचित्त से बहुत कुछ संभव है। कंसंट्रेशन की ताकत पर अनेक पुस्तकें लिखी गई हैं। हमारे ऋषि- मुनि तो कहते थे कि ईश्वर की उपस्थिति को महसूस कीजिए। आपकी सांस भी ईश्वर के कारण चल रही है। आपका दिल भी ईश्वर के कारण धड़क रहा है। आपका समूचा अस्तित्व भी ईश्वर के कारण है। आखिरकार कंप्यूटर भी तो आदमी ने ही बनाया है। आदमी को किसने बनाया है? जाहिर है- ईश्वर ने। तो जब कंप्यूटर मनुष्य के सोचे हुए शब्दों को लिख सकता है तो आप ईश्वर के साथ कंसंट्रेशन की स्थिति में क्यों नहीं बात कर सकते? लेकिन इसके लिए गहरी श्रद्धा और विश्वास चाहिए। लगन और अटूट साधना चाहिए। यह लगन, अटूट विश्वास और गहरी भक्ति ही थी कि नचिकेता जैसा बालक यम के पास पहुंच गया औऱ उनसे पूछ बैठा- मृत्यु के बाद आदमी कहां जाता है? यम ने बहुत लालच दिया- सारी पृथ्वी के राजा बन जाओ, लेकिन यह प्रश्न मत पूछो। तुम्हें मैं अजर- अमर होने का वरदान दे दूंगा। लेकिन यह प्रश्न मत पूछो। तुम अभी बच्चे हो। नहीं समझ पाओगे। लेकिन नचिकेता दृढ़ थे। उन्होंने अपने प्रश्न का उत्तर पाने की जिद की। यम समझ गए कि यह साधारण बालक नहीं है। यह बालक के रूप में एक महात्मा है। इसके बाद यम ने जो उत्तर दिया वह कठोपनिषद में दर्ज है। तो गहरी भक्ति के बिना, अटूट विश्वास के बिना कुछ पाने की कल्पना करना व्यर्थ है।

Saturday, December 5, 2009

भोग ही हमें भोग रहे हैं

विनय बिहारी सिंह

ऋषियों ने कहा है- हम इस संसार में अपनी भूमिका निभाने आए हैं। किसकी भूमिका? अपने चरित्र की भूमिका। कैसा चरित्र? पूर्व जन्म की इच्छाओं और वासनाओं ने फिर- फिर हमें इस दुनिया में भेजा है। हम यह भोगना चाहते हैं, वह भोगना चाहते हैं लेकिन चाहे जो कुछ भी भोग लें, मन तृप्त नहीं होता। इसका अर्थ है- भोग को हम नहीं भोग रहे हैं, भोग ही हमें भोग रहे हैं। यानी हम्हीं भोगे जा रहे हैं फिर भी भ्रम है कि हम सुख भोग रहे हैं। क्या विडंबना है? हम भोगों से तृप्त नहीं हो पा रहे हैं। और जिसे हम सुख कह रहे हैं, वह वास्तविक सुख है भी नहीं। वास्तविक सुख तो वह है जो एक बार मिलने पर फिर खत्म नहीं होता। अनंत सुख- जिसका अंत नहीं है। यह कैसे संभव है? हमारे ऋषियों ने इसी का उपाय बताया है। बिना किसी फीस के बिल्कुल मुफ्त में। उन्होंने कहा है- ईश्वर से संपर्क जोड़िए। कैसे संपर्क जोड़ें? इसका भी उपाय उन्होंने बता दिया है। आप दिल से ईश्वर को पुकारिए, वे आपकी बात सुनेंगे। वे अंतर्यामी हैं। भगवान के बारे में ऋषियों ने तीन बातें कही हैं- ईश्वर अंतर्यामी हैं, सर्वव्यापी हैं और सर्वशक्तिमान हैं। लेकिन इसके बावजूद कुछ लोगों के मन में शंका बनी रहती है कि पता नहीं मेरी पुकार भगवान सुन भी रहे हैं या नहीं। क्या आश्चर्य है। उच्चकोटि के ऋषियों ने हमें ईश्वर से संपर्क का रास्ता बताया है, लेकिन हम इंद्रियों के इतने गुलाम हो गए हैं कि उनकी बात पर भी शंका करते हैं। किसी सामान्य व्यक्ति की बात पर फिर भी विश्वास कर लेते हैं लेकिन ऋषियों की बात पर शंका करते हैं। कुछ लोग कहते हैं- क्या पता ईश्वर है भी या नहीं? तो यह है हमारा मन। ऋषियों ने अपना समूचा जीवन लोक कल्याण के लिए बिताया। वे जो कुछ मिलता पहन लेते, जो कुछ मिलता खा लेते थे। उनकी अपनी कोई इच्छा नहीं थी। बस उनका एक ही काम था- लोक कल्याण कैसे हो। वे इसके लिए चुपचाप तपस्या करते रहते थे। वे प्रचार से कोसों दूर रहते थे। क्योंकि वे सच्चे साधक थे। लेकिन हम उनकी बात पर भी शक करते हैं और कहते हैं कि क्या पता ईश्वर है भी कि नहीं। इस तरह तो हम कहीं के नहीं रहेंगे। ईश्वर पर गहरा भरोसा और उससे संपर्क के लिए ही हमें मनुष्य जन्म मिला है। इसे सार्थक करना है तो ईश्वर में डूबना चाहिए। अन्यथा संसार के प्रपंच तो अपने जाल में फंसाने के लिए तैयार खड़े हैं। फैसला करना है कि हमें प्रपंच चाहिए या दिव्य आनंद, अनंत आनंद। दोनों रास्ते खुले हैं। भगवान का रास्ता और माया (शैतान) का रास्ता। ईश्वर के रास्ते पर जाने के लिए अपने दिमाग को सख्त करना पड़ेगा और दृढ़ता से ईश्वर के रास्ते पर आगे बढ़ना होगा। शुरू में थोड़ा कठिन लग सकता है, लेकिन आगे का रास्ता अत्यंत आनंदमय है। लेकिन शैतान के रास्ते पर जाने के लिए किसी तैयारी की जरूरत नहीं है। वह तो यूं ही हमें लुभा रहा है। आप सोए हैं तब भी और जगे हैं तब भी।

Friday, December 4, 2009

पैर बताते हैं कि आपके मन में है क्या

विनय बिहारी सिंह

हमारे ऋषि- मुनि तो मनुष्य के शरीर के स्पंदन से ही बता देते थे कि अमुक आदमी के मन में क्या है। वे शारीरिक हाव भाव से भी जान लेते थे कि किसी व्यक्ति के मन में क्या चल रहा है। ऐसे ऋषि तो निरंतर ईश्वर के संपर्क में रहते थे और पूरे ब्रह्मांड की खबर रखते थे। पश्चिम के वैग्यानिकों ने अब जाकर खोज निकाला है कि स्त्री या पुरुष के हावभाव क्या कुछ कहते हैं। यह अत्यंत रोचक विषय है। जिन बातों पर सामान्य व्यक्ति ध्यान नहीं देता वे भी कितनी महत्वपूर्ण होती हैं यह जानना आवश्यक है। इससे ईश्वर की सृष्टि का रहस्य खुलता है। मनुष्य का मन जब तक परत दर परत अठखेलियां करेगा, वह शांत नहीं रह पाएगा। जिस क्षण वह सारी सोच, सारी चिंताएं दरकिनार कर देगा और ईश्वर में डूब जाएगा, उसे अत्यंत शांति और आनंद का अनुभव होगा। आइए जाने कि रिसर्च क्या है। पश्चिमी वैग्यानिकों ने कहा है कि महिलाओं के पैर बताते हैं कि उनके मन में क्या है। कैसे? अगर महिला बातचीत करते हुए अपने पैर अपने शरीर से दूर रख रही है तो इसका अर्थ है वह आपकी बातचीत पसंद कर रही है और अगर वह पैर सिकोड़े हुए है तो इसका अर्थ है वह आपको और आपकी बातचीत को नापसंद कर रही है। पुरुषों के बारे में कुछ दिन पहले शोध आया था कि अगर पुरुष अपनी मांसपेशियां कड़ी रख कर किसी से बात करता है तो इसका अर्थ है उसके मन में सामने वाले के प्रति कुछ संदेह है। कई पुरुष अपनी मुट्ठियां भींच कर बातें करते हैं। उन्हें इस बात का होश नहीं रहता कि बात करते वक्त उनकी मुट्ठियां किस स्थिति में हैं। इसी तरह लोग अपने पैरों के प्रति अनजान रहते हैं। लेकिन पैर अपना काम करते रहते हैं। वैग्यानिकों ने निष्कर्ष निकाला था कि अगर पुरुष सहज ढंग से बातचीत करता है तो इसका अर्थ है वह बातचीत में रुचि ले रहा है और आपका काम होगा। वैग्यानिकों का कहना है कि स्त्री और पुरुषों में प्रतिक्रिया का अलग- अलग तौर तरीका है। उनका कहना है कि चेहरा और आंखें धोखा दे सकती हैं। लेकिन पैर और मांसपेशियां धोखा नहीं दे सकतीं। इस बीच एक और रिसर्च सामने आया है। वैग्यानिकों ने पाया है कि आपका मन जिस व्यक्ति पर अत्यंत गहराई से टिकेगा, आप भी वैसे ही होते जाएंगे। है न अद्भुत? हालांकि हमारे ऋषि- मुनि इसे पहले ही सिद्ध कर चुके हैं। मान लीजिए आपका मन किसी साधु की ओर खिंच रहा है तो आप जाने- अनजाने उसी जैसा बनते जाएंगे। किसी राजनेता पर या किसी फिल्मी व्यक्ति पर आपका मन गहराई से टिका है तो आप वैसे ही बनते जाएंगे। यह जानने के बाद आप सतर्क हो जाएंगे और हमेशा किसी अच्छे या ऊर्जावान व्यक्ति पर ही मन केंद्रित करेंगे।

Thursday, December 3, 2009

ऊं तो ईश्वर की आवाज है

विनय बिहारी सिंह

ऋषियों ने कहा है- ऊं या ओम ईश्वर वाचक शब्द है। यह अनहत नाद है। कैसे? ऋषि कहते हैं ऊं या ओम तीन शब्दों से बना है- अ, उ और म। अ- यानी सृष्टि, उ- यानी पोषण या सस्टेनेंस और म- यानी लय, जिसे कुछ लोग संहार भी कहते हैं। तो यह ईश्वर वाचक कैसे है? हर आवाज दो वस्तुओं की टकराहट से निकलती है जैसे- ताली या वाद्य यंत्र या अन्य कोई आवाज। अनहत यानी बिना किसी वस्तु के टकराए जो आवाज शास्वत सृष्टि में गूंज रही है वह है ऊं। यह ईश्वरीय सृष्टि की आवाज है। वेद कहते हैं कि अगर ईश्वर से संपर्क करना है तो आप ऊं से संपर्क करें। कैसे? अत्यंत गहरे ध्यान में उतर कर ऊं को सुनें और धीरे- धीरे आपका उसमें लय हो जाए। यानी आप और ऊं एक हो जाएं। तब ईश्वर की अनुभूति होगी। वेद कहते हैं ऊं का उच्चारण संभव नहीं है। ऊं की नकल कर मुंह से उसका उच्चारण संभव नहीं है क्योंकि वह अनहत नाद है। उसकी एकदम कापी नहीं हो सकती। मंदिर में घंटों की आवाज या गिरिजाघरों में घंटों की आवाज ऊं का ही द्योतक है। लेकिन एकदम हू-ब- हू ऊं की नकल नहीं है क्योंकि यह संभव ही नहीं है। ऋषियों ने कहा है कि ऊं अनवरत यानी २४ घंटे सृष्टि में बज रहा है। इसे सुनने से मन को शांति मिलती है। कई लोग तो अपने घरों में या दफ्तर में सुबह शाम ऊं का कैसेट सुनते हैं। इसी में उन्हें बहुत आनंद मिलता है। लेकिन जहां सन्नाटा हो, वहां भी ऊं तो है ही। ऊं से ही यह ब्रह्मांड बना है। बाइबिल में भी कहा है- द वर्ड वाज विथ गॉड एंड वर्ड वाज गॉड। यानी यह शब्द ही ईश्वर है। यह शब्द क्या है? ईसाई धर्म में ऊं आमेन हो जाता है। यह ऊं ही है। यही शब्द सर्वाधिक पवित्र और दिव्य अनुभूतियों का स्रोत है। ऊं के संपर्क से ही पता चलता है कि हम सिर्फ शरीर नहीं हैं। हम मन या चित्त नहीं हैं। हम तो सच्चिदानंद आत्मा हैं। निरंतर आनंद में डूबे हुए। पवित्रता के पर्याय। यह अलग बात है कि हम खुद को भूल गए हैं। हमें हमारी अपनी ही आकांक्षाएं, इच्छाएं और वासनाएं नचा रही हैं। ऐसे में ईश्वर से संपर्क मुश्किल लगता है। लेकिन एक बार ईश्वर की शरण में जाने के बाद हर परिस्थिति आसान हो जाती है। बल्कि सुखद हो जाती है।