Saturday, February 14, 2015

महान योगी
श्री श्री परमहंस योगानंद 
विनय  बिहारी  सिंह





महान योगी श्री श्री परमहंस योगानंद  पश्चिमी देशों में योग के प्रणेता के रूप में जाने जाते हैं। उनकी शिक्षा पद्धति क्रिया योग पर आधारित है। क्रिया योग की संक्षिप्त जानकारी देने से पहले आइए जानें इस महान संत के जीवन के बारे में। श्री श्री परमहंस योगानंद का जन्म पांच जनवरी १८९३ को उत्तर प्रदेश के नगर गोरखपुर में हुआ था।  बचपन से ही उनमें गहरी आध्यात्मिक रुझान थी।
  वे बचपन में हिमालय में साधना के लिए घर से भागे लेकिन घर वालों ने उन्हें पकड़ लिया। उनके पिता श्री भगवती चरण घोष (१८५३-१९४२) बंगाल- नागपुर रेलवे (बीएनआर) में उपाध्यक्ष (वाइस प्रेसीडेंट) के समकक्ष पद पर कार्यरत थे।  यात्रा उनके पिता की नौकरी का ही हिस्सा थी, इसलिए उनका परिवार अनेक शहरों में रहा। उनकी माता ज्ञानप्रभा घोष (१८६८- १९०४) अत्यंत धार्मिक और प्रेममयी महिला थीं। श्री श्री परमहंस योगानंद के माता- पिता विख्यात  संत,  योगावतार श्यामा चरण लाहिड़ी (लाहिड़ी महाशय) के शिष्य थे। माता बचपन में उन्हेंं अनेक धार्मिक कथाएं सुनातीं। लेकिन जब परमहंस जी च लगभग ११ वर्ष के बच्चे थे, तभी उनकी माता का देहांत हो गया। वैराग्य ने तब उन पर और गहरे प्रभाव डाला।
  सन १९१५ मेें कोलकाता विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद श्री योगानंद जी को उनके गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि जी ने संन्यास की दीक्षा दी। श्रीयुक्तेश्वर जी ने भविष्यवाणी की थी कि, भारत की प्राचीन क्रिया योग ध्यान प्रविधि का समूचे विश्व में प्रचार करना ही उनके जीवन का मूल उद्देश्य होगा। उन्हें सन १९२० में अमेरिका के बोस्टन शहर में होने वाले धार्मिक उदारवादियों के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने का निमंत्रण मिला। उन्होंने  अपने गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी की अनुमति  से यह निमंत्रण स्वीकार कर लिया। इस प्रकार वे अमेरिका गए और वहां ही अपने जीवन का अधिकांश समय बिताया। वे बीच में अपने गुरु के देह त्याग के सूक्ष्म संकेत पर १९३५ में भारत आए और कुछ महीने गुरु प्रदत्त कार्य कर १९३६ वापस चले गए। लेकिन भारत  में अपने कार्य में उनकी गहरी रुचि थी। उनकी रुचि के कारण ही भारत में उनका कार्य व्यापक रूप से फैला। महासमाधि के समय उन्होंने भारत की प्रशंसा में ही कविता पढ़ी थी। परमहंस योगानंद गुरु परंपरा में अंतिम गुरु थे। उनके बाद जो भी संन्यासी संघ के शीर्ष पद पर होता है, वह कुछ सन्यासियों को अधिकृत करता है जो क्रिया योग की दीक्षा देने का माध्यम बनते हैं। श्री श्री परमहंस योगानंद की शिक्षावली, पाठ ( लेसन) के रूप में हर माह डाक से घर आ जाती है। इन पाठों में व्यक्त पद्धतियों का अनुसरण करने पर साधक को अद्भुत लाभ मिलता है। इन पाठों में साधना के समूचे तत्व विद्यमान हैं। साधना पद्धतियां साधक को नई चेतना में ले जाती हैं- ईश्वर की ओर। यदि किसी साधक को कोई चीज समझ में नहीं आती तो वह बिना हिचक किसी योगदा संन्यासी से मिल कर शंका निवारण कर सकता है या रांची (झारखंड) मुख्यालय में पत्र लिख कर जानकारी ले सकता है। योगदा का अपना वेबसाइट भी है, वहां भी इस बारे में पूरी जानकारी उपलब्ध है।
   अपनी शिक्षाओं के प्रसार के लिए श्री श्री परमहंस योगानंद ने योगदा सत्संग सोसाइटी अॉफ इंडिया/सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप की स्थापना की। ये दोनों संस्थाएं आध्यात्मिक और परोपकारी संस्थाएं है। योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया की स्थापना श्री श्री परमहंस योगानंद ने सन १९१७ में की थी। परमहंस जी विख्यात आध्यात्मिक पुस्तक ''आटोबायोग्राफी अॉफ अ योगी'' (हिंदी अनुवाद- ''योगी कथामृत'') के लेखक हैं। उन्होंने समूचे विश्व के आध्यात्मिक सत्यान्वेषियों के लिए यह अनूठी पुस्तक लिखी जो विश्व की ३४ भाषाओं में अनूदित हो चुकी है। इसका उर्दू अनुवाद भी उपलब्ध है।
श्री श्री परमहंस योगानंद की शिक्षावली क्रिया योग पर केंद्रित है। यह एक परम पवित्र आध्यात्मिक विज्ञान की विधा है, जो आदि काल से चली आ रही है। संप्रदायवाद से परे इन शिक्षाओं में जीवन के संपूर्ण तथ्यों और जीवन- दर्शन प्रत्यक्ष रूप से समाहित है जिसमेें मनुष्य की बहुआयामी सफलता और सुखी जीवन के तत्व हैं। इसके अलावा इन शिक्षाओं में जीवन का चरम उद्देश्य - आत्मा का परमात्मा से मिलन के लिए ध्यान के तरीके बताए गए हैं।
जैसा कि परमहंस योगानंद ने अपने लक्ष्य और आदर्शों को व्यक्त किया है- योगदा सत्संग सोसाइटी का कार्य- विश्व परिवार के विविध प्रकार के लोगों और धर्मों के प्रति प्रेम व सद्भाव के लिए गहरी समझ को प्रोत्साहित करना और सभी संस्कृतियों और राष्ट्रों के लोगों के बीच मनुष्य की आत्मा की सुंदरता, अभिजात्यता और आध्यात्मिकता का अनुभव करने के लिए प्रेरित करना है।
योगदा सत्संग सोसाइटी अॉफ इंडिया ९० वर्षों से भी अधिक समय से इसके संस्थापक श्री श्री परमहंस योगानंद के आध्यात्मिक निर्देशों और मनुष्य की सेवा का कार्य कर रही है।
आज पूरे देश में योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के १८० केंद्र हैं। सोसाइटी देश भर में २३ शैक्षणिक संस्थानों का संचालन कर रही है। यह संस्था कई सामाजिक, परोपकारी गतिविधियों, जैसे गरीबों और जरूरतमंदों की चिकित्सा सेवा, प्राकृतिक आपदा से पीड़ित लोगों के लिए राहत कार्य, कुष्ठ रोगियों के लिए चिकित्सा सेवा, गरीब मेधावी विद्यार्थियों के लिए आर्थिक सहायता और छात्रवृत्ति भी देती है।
अपने लेखों व भारत, अमेरिका और यूरोप के सघन  दौरोंं में अपने व्याख्यानों द्वारा व अनेक आश्रम व ध्यान केंद्र बनाकर उनके माध्यम से हजारों सत्यान्वेषियों को उन्होंने योग के प्राचीन विज्ञान- क्रिया योग और दर्शन से
तथा ध्यान पद्धतियों से परिचित कराया। इस समय  योगदा सत्संग सोसाइटी अॉफ इंडिया/सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप की संघमाता और अध्यक्ष के रूप में श्री श्री मृणालिनी माता हैं। इसके पहले १९५५ से लेकर २०१० दया माता यह जिम्मेदारी संभाल रही थीं। उनके पहले राजर्षि जनकानंद जी लगभग दो वर्ष तक इस शीर्ष पद पर रहे। उनके पहले स्वयं श्री श्री परमहंस योगानंद ही अध्यक्ष थे। वे सात मार्च १९५२ को महासमाधि में लीन हुए। अर्थात मृणालिनी माता श्री श्री परमहंस योगानंद जी के बाद तीसरी अध्यक्ष और दूसरी संघमाता हैं।
  अब एक संक्षिप्त जानकारी क्रिया योग के बारे में। वैसे तो कुछ प्राचीन यौगिक विधि निषेधों के कारण क्रिया योग का पूर्ण विवरण देना वर्जित है। संपूर्ण रूप से इसे दीक्षा के समय ही जाना जा सकता है। इन पंक्तियों के लेखक ने यह दीक्षा ली है। हर साल योगदा सत्संग सोसाइटी अॉफ इंडिया के माध्यम से अनेक लोग दीक्षा लेते हैं। फिर भी श्री श्री परमहंस योगानंद जी ने अपनी पुस्तक ''आटोबायोग्राफी अॉफ अ योगी'' में जितना बताना संभव है, बता दिया है। उसे ही यहां दिया जा रहा है-
''क्रिया योग एक सरल मनःकायिक प्रणाली है जिसके द्वारा मानव रक्त कार्बन रहित होकर आक्सीजन से प्रपूरित हो जाता है। इस अतिरिक्त आक्सीजन के अणु प्राण- धारा में रूपांतरित हो जाते हैं, जो मस्तिष्क और मेरुदंड के चक्रों में नवशक्ति का संचार कर देती है। शिराओं में बहने वाले अशुद्ध रक्त का संचय रुक जाने से योगी उत्तकों में होने वाले ह्रास को रोक सकता है या कम कर सकता है। उन्नत योगी अपनी कोशिकाओं को प्राणशक्ति में रूपांतरित कर देता है। एलाइजा, इसा मसीह,कबीर औऱ अन्य महानुभाव क्रिया योग या उसी के समान किसी प्रविधि के प्रयोग में अवश्य निष्णात थे, जिसके द्वारा वे अपने शरीर को अपनी इच्छानुसार प्रकट या अंतर्धान कर सकते थे। ''
   परमहंस योगानंद पर पिछले साल अमेरिका में एक फिल्म बनी है- अवेक, द लाइफ आफ योगानंद। इसका निर्देशन दो मशहूर महिलाओं ने किया है- पावला डी फ्लोरियो और लिसा ली मैन। इसके निर्माता हैं- पीटर राडर। फ्लोरियो आस्कर नामांकित निर्देशक हैं। वे टेलीविजन प्रोड्यूसर भी हैं। यह फिल्म कई अवार्ड जीत चुकी है। अब भारत में इस फिल्म के रिलीज होने की प्रतीक्षा की जा रही है। इन पंक्तियों के लेखक ने निर्देशकों से ई मेल के माध्यम से संपर्क किया था। उनका कहना है कि वे भारत में किसी स्पांसर की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इस फिल्म की शूटिंग लगभग ३० देशों में हुई है। जाहिर है भारत में जिन जगहों से परमहंस जी जुड़े हैं, इस फिल्म में उनका भी दृश्य है। लास एंजिलिस टाइम्स ने इस फिल्म को गहरे प्रभावित करने वाला बताय है।
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२० दिन के बाद भी उनका पार्थिव शरीर जस का तस 

 देहांत के २० दिन के बाद भी उनका पार्थिव शरीर जस का तस था
परमहंस जी द्वारा लिखित पुस्तक ''आटोबायोग्राफी आफ अ योगी'' के अंतिम हिस्से में इस घटना का उल्लेख है। इसका शीर्षक है- ''जीवन में भी योगी और मृत्यु मेें भी''। उसका अनुवाद  आप भी पढ़ें-

श्री श्री परमहंस योगानंद जी ने  लॉस एंजिलिस, कैलिफोर्निया (अमेरिका) में सात मार्च १९५२ को भारतीय राजदूत श्री विनय रंजन सेन के सम्मान के लिए आयोजित भोज के अवसर पर अपना भाषण समाप्त करने के बाद ''महासमाधि'' (एक योगी का सचेतन अवस्था में देह त्याग) में प्रवेश किया।
 विश्व  के महान गुरु ने योग के मूल्य (ईश्वर-  प्राप्ति के लिए वैज्ञानिक प्रविधियों) को जीवन में ही नहीं बल्कि देहांत के बाद भी प्रदर्शित किया। उनके देहावसान के कई सप्ताह बाद भी उनका अपरिवर्तित चेहरा अक्षयता की दिव्य कांति से आलोकित था।
फारेस्ट लॉन मेमोरियल- पार्क, लॉस एंजिलिस (जहां इस महान गुरु का पार्थिव शरीर अस्थायी रूप से रखा गया है) के  निदेशक श्री हैरी टी रोवे ने सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप को एक  प्रमाण पत्र भेजा था, जिसके कुछ अंश निम्नलिखित हैंः
''परमहंस योगानंद  के पार्थिव शरीर में किसी भी प्रकार के विकार का लक्षण नहीं दिखाई पड़ना हमारे लिए एक अत्यंत असाधारण और अपूर्व अनुभव है। .. उनके देहांत के बीस दिन बाद भी उनके शरीर में किसी प्रकार का विघटन नहीं दिखाई पड़ा। न तो त्वचा के रंग में किसी प्रकार परिवर्तन के संकेत थे और न शरीर के उत्तकों  में शुष्कता आई प्रतीत होती थी। शवागार (मार्चुअरी)  के इतिहास में हमें जहां तक विदित है, पार्थिव शरीर की परिपूर्ण संरक्षण की ऐसी अवस्था अद्वितीय है। .. योगानंद  का पार्थिव शरीर स्वीकार करते समय शवागार के कर्मचारियों को यह आशा थी कि उन्हें  शवपेटिका के कांच के ढक्कन  से आमतौर से बढ़ते शारीरिक क्षय के चिह्न दिखाई पड़ेंगे। हमारा विस्मय बढ़ता गया, जब निरीक्षण के अंतर्गत दिन पर दिन बीतते गए, लेकिन उनकी देह पर परिवर्तन के कोई चिह्न दिखाई नहीं पड़े।... योगानंद  की देह निर्विकारता की अद्भुत अवस्था में थी।
    ''किसी भी समय उनके शरीर से तनिक भी दुर्गंध नहीं आई।  २७ मार्च को शवपेटिका पर कांसे के ढक्कन को बंद करने के पूर्व योगानंद  का शारीरिक रूप ठीक वैसा ही था जैसा ७ मार्च को। २७ मार्च को भी उनका शरीर उतना ही ताजा और विकाररहित दिखाई पड़ा, जितना कि उनके  देहांत वाली रात को। २७ मार्च को ऐसा कोई कारण नहीं दिखा जिससे कहा जा सके कि उनके शरीर में किसी भी प्रकार का थोड़ा भी विकार आया हो। इन कारणों से हम  फिर बताना चाहते हैं कि परमहंस योगानंद  का उदाहरण हमारे अनुभव में अभूतपूर्व है।
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उनके सम्मान में डाक टिकट

 श्री श्री परमहंस योगानंद की महासमाधि की पच्चीसवीं वर्षगांठ पर भारत सरकार ने, उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया था। इस डाक- टिकट के साथ, भारत सरकार ने एक पर्चा प्रकाशित किया, जिसका एक अंश इस प्रकार है-
''ईश्वर के लिए प्रेम और मानवता की सेवा का आदर्श परमहंस योगानंद के जीवन में पूर्ण  रूप से व्यक्त हुआ.. यद्यपि उनका अधिकांश जीवन भारत के बाहर व्यतीत हुआ, फिर भी उनका स्थान हमारे महान संतों में है। उनका कार्य पहले से अधिक बढ़ और चमक रहा है, और ईश्वर की तीर्थ यात्रा के पथ पर हर दिशा से लोगों को आकर्षित कर रहा है।

Monday, August 4, 2014

शीशे की तरह दिखेंगे शरीर के अंग

Courtesy-BBC Hindi

किडनी के ऊतक
वैज्ञानिकों ने एक ऐसी तकनीकी विकसित की है जिससे पूरा शरीर शीशे की तरह पारदर्शी हो सकता है.
'सेल' नाम की विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने इस तकनीक की जानकारी दी है.

   अभी तक चूहों और गिलहरी जैसे स्तनपायी जानवरों पर इसका प्रयोग किया गया है लेकिन इसका प्रयोग मानव शरीर में विषाणुओं के प्रसार और कैंसर का पता लगाने में भी किया जा सकता है.

क़रीब एक सदी से वैज्ञानिक शरीर को पारदर्शी रूप से देखने का प्रयास कर रहे थे लेकिन अधिकांश तकनीकें उत्तकों को नुक़सान पहुंचा सकती हैं.
कोशिकाओं में मौज़ूद लिपिड (वसा) के मोटे कण प्रकाश किरणों को विकृत कर उत्तकों को अपारदर्शी बना सकते हैं लेकिन उन्हें विघटित करने में प्रयोग होने वाली प्रक्रिया से क्लिक करें अंग कमज़ोर हो सकते हैं और उनका आकार बिगड़ सकता है.
आंत के ऊतक
कैलिफ़ोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों ने पूर्व के वैज्ञानिक कामों के आधार पर एक तीन स्तरीय तकनीक विकसित की है.
  • एक नरम प्लास्टिक की झिल्ली उत्तकों को सहारा देती है.
  • ख़ून के प्रवाह के ज़रिए आनुवांशिक डिटर्जेंट (साफ़ करने वाले पदार्थ) को लगातार डाला जाता है. यह लिपिड को घोलता जाता है और अंगों को पारदर्शी बनाता जाता है.
  • महत्वपूर्ण जोड़ों को पहचानने के लिए इस मिश्रण में पहचान करने वाले रंगों और अणुओं को मिलाया जा सकता है.
इस विधि का चूहों और गिलहरियों में प्रयोग कर वैज्ञानिक उनकी  किडनी, दिल, फेफड़ों और आंतों को तीन दिन में देखने में सफल रहे. उन्होंने दो हफ़्ते में उनके पूरे शरीर को पारदर्शी रूप से देख लिया.

वैज्ञानिकों का सपना

रिपोर्ट के प्रमुख लेखक डॉक्टर विवियाना गार्डिनारू कहते हैं कि यह जीव वैज्ञानिकों के सपनों को सच करने जैसा है.
वो कहते हैं कि स्कैनिंग तकनीक की मदद से डॉक्टरों को शरीर को देखने में मदद मिल रही है. लेकिन वो यह नहीं जान पा रहे है कि कोई कोशिका या उत्तक कर क्या रहे हैं. मगर इस तकनीक के ज़रिए शरीर के उन अंगों की पहचान और उनके काम की प्रामाणिक जानकारी जुटाई जा सकती है, जिसके बारे में हम जानकारी हासिल करना चाहते हैं.

Friday, March 21, 2014

कान के मैल से जुड़ी पांच अहम बातें


कान का मैल
कान का मैल कुछ उन शारीरिक पदार्थों में से एक है जिसकी चर्चा करना अमूमन हम पसंद नहीं करते हैं.
शरीर के अन्य स्रावों की तरह, हम में से ज़्यादातर अकेले में इससे निपटना पसंद करते हैं. तब भी कई लोगों के लिए यह एक आकर्षण का विषय है.
पहले इसका इस्तेमाल एक लिप बाम और ज़ख़्मों पर मरहम के तौर पर किया जाता था
लेकिन यह इससे कुछ ज़्यादा कर सकता है. हाल के शोध से पता चलता है कि यह शरीर में प्रदूषक पदार्थ इकट्ठा होने का संकेत देता है और इससे शरीर में कुछ बीमारियों का भी पता लगाया जा सकता है.
कान के मैल से जुड़ी पाँच चीजें जो शायद आप ना जानते हो.

1. ये बाहर कैसे आता है?

कान के अंदर की कोशिकाएँ विशेष तरह की होती है. वे एक जगह से दूसरे जगह तक जाती है.
लंदन के रॉयल नेशनल अस्पताल में गला, नाक और कान के प्रोफेसर शकील सईद के मुताबिक़ " आप कान में स्याही की एक बूंद डाल कर देखिए, कुछ हफ़्तों के बाद पाएंगे कि कोशिकाओं के साथ ये बाहर आ रही है."
यदि ऐसा नहीं होता है तो कान का छेद प्राकृतिक प्रक्रिया से बनी मृत कोशिकाओं से भर जाएगा.
कान का मैल
इसी तरह से कान का मैल भी आगे बढ़ता है. ऐसा माना जाता है कि खाने-पीने के दौरान जबड़े के हिलने से भी ये मैल बाहर आता है.
प्रोफेसर सईद ने पाया है कि उम्र बढ़ने के साथ कभी-कभी यह मैल ज़्यादा काला हो जाता है और जिन लोगों के कान में बाल ज़्यादा होते हैं उनके कान से मैल बाहर नहीं आ पाता है.

2. एंटी-माइक्रोबियल गुण

कान के मैल में मोम होता है लेकिन यह मूल रूप से मृत केराटिनोसाइट्स कोशिकाओं का बना होता है.
कान का मैल कई पदार्थों का मिश्रण होता है. करीब 1,000 से 2,000 के बीच ग्रंथियां एंटी-माइक्रोबियल पेप्टाइड बनाती हैं. बालों की कोशिकाओं के करीब मौजूद वसा की ग्रंथियां मिश्रित एल्कोहल, स्कुआलीन नाम का तेल, कोलेस्ट्रॉल और ट्राइग्लिसराइड बनाती हैं.
महिलाओं और पुरूषों में कान का मैल एक समान मात्रा में बनता है लेकिन एक अध्ययन से पता चला है कि ट्राइग्लिसराइड की मात्रा नंवबर से जुलाई के बीच कम हो जाती है.
कान के मैल में लाइसोज़ाइम भी पाया जाता है जो एक एंटी-बैक्टिरियल एंज़ाइम है.

3. आपका परिवार कहां से है ये मायने रखता है

कान का ऑपरेशन
अमरीका के फिलाडेल्फिया के मोनेल संस्थान के वैज्ञानिकों के मुताब़िक एशियाई और गैर एशियाई लोगों के कान में अलग-अलग तरह का मैल होता है. क्रोमोज़ोम 16 कान के मैल के "गीले" या "सूखा" होने के लिए जिम्मेदार है.
जीन एबीसीसी11 में एक छोटा सा परिवर्तन कान के मैल के सूखा होने और चीनी, जापानी और कोरियाई व्यक्तियों के शरीर के कम दुर्गंध युक्त होने से संबंधित है.
अमरीकी अध्ययन में पूर्वी एशियाई और गोरे पुरुषों के समूहों में कान के मैल में 12 वाष्पशील कार्बनिक यौगिक पाए गए हैं.

4. साफ़ करने का तरीका

कान का मैल
कान के मैल में एंटी-बैक्टीरियल एंजाइम लाइसोज़ाइम पाया जाता है.
कान को साफ़ करने के लिए किसी सिरींज के बदले नन्हा वैक्युम क्लीनर बेहतर है.
प्रोफेसर सईद सिरीज से बेहतर वैक्युम क्लीनर को मानते हुए कहते है, "अगर आप पानी का इस्तेमाल करते हैं तो उसे मैल से आगे जाना होगा और मैल लेकर वापस आना होगा. अगर कोई अंतर नहीं होगा तो ये मैल से आगे नहीं जा सकेगा और इस पर ज़्यादा ताकत भी नहीं लगाई जानी चाहिए. कान के पर्दे को सिरींज करने पर यूं तो नुकसान नहीं पहुंचता लेकिन ऐसा कभी-कभी होता है."

5. इससे प्रदूषण का पता चलता है

कान के मैल में कई अन्य शारीरिक स्राव की तरह कुछ भारी धातुओं के रूप में कुछ विषाक्त पदार्थ हो सकते हैं.
लेकिन एक तो यह ऐसी चीज़ देखने के लिए एक अजीब जगह है और दूसरी बात ये कि एक साधारण रक्त परीक्षण से ज़्यादा विश्वसनीय नहीं है.
कुछ दुर्लभ चयापचय संबंधी विकार कान के मैल को प्रभावित करने वाले होते हैं.

Thursday, March 20, 2014

'सैचुरेटेड फैट' से जुड़ी सलाह 'स्पष्ट' नहीं


सैचुरेटेड फैट
आमतौर पर सलाह दी जाती है कि यदि ह्रदय रोगों से दूर रहना है तो सैचुरेटेड फैट वाले भोजन की जगह पॉलीअनसेचुरेटेड फैट का सेवन करें. मगर एक नया शोध बताता है कि इस बात के पुख्ता प्रमाण नहीं है.
ब्रिटिश हॉर्ट फाउंडेशन के  शोधकर्ताओं ने पाया कि खाने में मक्खन की जगह सनफ्लावर स्प्रेड की अदला-बदली दिल की बीमारियों से जुड़े खतरों को कम नहीं करती.
600,000 से ज्यादा प्रतिभागियों के साथ किए गए 72 शोधों के बाद ये नतीजा सामने आया है.
ह्रदयरोग विशेषज्ञ हमेशा से कहते आए हैं कि बहुत सारा पनीर, पाई और केक खाना सेहत के लिए हानिकारक होता है.

सैचुरेटेड फैट

विशेषज्ञों का मानना रहा है कि आप बहुत ज्यादा सैचुरेटेड फैट वाला भोजन ले रहे हैं तो  सावधान रहिए, इससे आपके रक्त में कॉलेस्ट्रोल की मात्रा बढ़ सकती है. यदि ऐसा हुआ तो कोरोनरी ह्रदयरोग का गंभीर खतरा पैदा हो जाएगा.
मक्खन, बिस्किट, मीट के वसायुक्त टुकड़े, सॉसेज, बैकन, पनीर और क्रीम आदि में जो वसा पाई जाती है उसे संतृप्त वसा यानि सैचुरेटेड फैट कहते हैं.
वसा
अधिकांश लोग इस तरह की चीजें बहुत ज्यादा मात्रा में खाते हैं. जबकि इसे खाते समय हमें खास ख्याल रखना चाहिए. विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि पुरुषों को एक दिन में 30 ग्राम संतृप्त वसा और महिलाओं को एक दिन में 20 ग्राम संतृप्त वसा खाना चाहिए.
पिछले कई दिनों से सेहत संबंधी अभियान जोर-शोर से चलाया गया कि कम संतृप्त वसा वाला खाना जैसे कि जैतून का तेल, सनफ्लावर ऑयल और दूसरे गैरपशु वसा वाला भोजन अधिक लाभकारी होता है.
मगर कैंब्रिज विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं की अगुवाई में किए गए और 'अनल ऑफ इंटरनल मेडिसिन' में छपे हुए शोध के मुताबिक इस बात का कोई सबूत नहीं है कि कम संतृप्त वसा वाला भोजन लाभकारी होता है.
यह शोध कहता है कि पॉलीअनसेचुरेटेड फैट वाले भोजन के सेवन से भी दिल की बीमारियों से कोई बचाव नहीं होता.

कृत्रिम वसा

वसा
शोधकर्ताओं का कहना है कि ट्रांस वसा से भी गंभीर ह्रदयरोग का खतरा हो सकता है. इसलिए प्रसंस्कृत फूड आइटमों, कृत्रिम मक्खन आदि में पाई जाने वाली इस तरह की कृत्रिम वसा का सेवन करने से बचना चाहिए.
प्रमुख शोधकर्ता डॉ. राजीव चौधरी का कहना है आम तौर पर हम संतृप्त वसा वाले भोजन की जगह ढेर सारा कार्बोहाइड्रेट ले लेते हैं, जैसे कि व्हाइट ब्रेड, व्हाइट राइस, पोटैटो आदि, या प्रोसेस्सड फूड में रिफाइन चीनी और नमक का सेवन करते हैं. इन दोनों से बचना चाहिए.
वे कहते हैं, "परिष्कृत कार्बोहाइड्रेट, चीनी, नमक ये सब वैस्कुलर हेल्थ के लिए गंभीर रूप से खतरनाक है."
मक्खन
फाउंडेशन कहता है कि इस खोज से उस हिदायत पर कोई असर नहीं पड़ता जिसमें कहा जाता है कि ज्यादा वसा वाला भोजन सेहत के लिए हानिकारक होता है.
एसोसिएड मेडिकल डायरेक्टर प्रो जेरेमी पियरर्सन कहते हैं, "यह शोध ये नहीं कहता कि अब आप जितना चाहे उतना वसा वाला खाना खा सकते हो. बहुत ज्यादा वसा खतरनाक है आपके लिए."

Monday, March 17, 2014


धरती के गर्भ में है महासागरों से ज़्यादा पानी


नीला खनिज
हीरे के अंदर संरक्षित खनिजों ने धरती के गर्भ में दबी चमकदार नीली चट्टानों के बारे में संकेत दिए हैं, जिनमें इतना पानी हो सकता है जितना सारे महासागरों में है.
मध्य-पश्चिम ब्राज़ील से मिले एक हीरे में ऐसे खनिज मौजूद हैं जो धरती से करीब 600 किलोमीटर अंदर बनते हैं और इनके अंदर पर्याप्त मात्रा में पानी मौजूद है.
इस शोध को विज्ञान की पत्रिका नेचर में प्रकाशित किया गया है. इस शोध से यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि पत्थरों से पटे बहुत से ग्रहों की गहराई में पानी हो सकता है.

प्राकृतिक हीरा

बहुत गहरे ज्वालामुखी पहाड़ के फटने से जो चट्टान या पत्थर धरती की सतह पर आए और इनमें जो हीरे के टुकड़े मिले वो धरती की बड़ी ही दिलचस्प तस्वीर दिखाते हैं.
कनाडा के अल्बर्टा विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर ग्राहम पीयरसन के नेतृत्व वाले शोध दल ने एक विस्तृत परियोजना के तहत दस करोड़ साल पुराने किंबरलाइट से निकले और ब्राज़ील के जुइना में मिले एक हीरे का अध्ययन किया.
उन्होंने देखा कि इसमें रिंगवूडाइट नाम का एक खनिज है जो धरती के अंदर 410 से 660 किलोमीटर की गहराई में ही बन सकता है. इससे यह भी पता चला कि कुछ हीरे कितनी गहराई में तैयार होते हैं.
इससे पहले रिंगवूडाइट सिर्फ़ उल्कापिडों में ही पाया गया था, ऐसा पहली बार हुआ है कि धरती में रिंगवूडाइट पाया गया. इससे भी आश्चर्यजनक बात यह है कि इस खनिज का तक़रीबन एक फ़ीसद हिस्सा पानी है.
हालांकि यह सुनने में बहुत कम लगता है लेकिन क्योंकि रिंगवूडाइट धरती की गहराई के बहुत बड़े हिस्से में पाया जाता है, इसलिए इसका मतलब हुआ कि धरती के अंदर बहुत सारा पानी होगा.
ब्राज़ील से मिला हीरा
कैंब्रिज विश्वविद्यालय की डॉ सैली गिबसन इस शोध में शामिल थीं. वह कहती हैं, "पानी का इतनी भारी मात्रा में पाया जाना हमारी धरती की सतह पर सबसे पहले पानी मिलने की अवधारणा में बेहद महत्वपूर्ण नई जानकारी है."
यह अवलोकन हमारे ग्रह की गहराई में पानी जमा होने का पहला भौतिक सबूत तो है ही इसके साथ ही यह धरती के अंदरूनी हिस्से के सूखे, तरल या कई हिस्सों में तरल होने के 25 साल पुराने विवाद पर भी विराम लगाता है.
हीरे के इन नमूनों की व्याख्या करते हुए प्रोफ़ेसर पीयरसन कहते हैं, "ऐसा लगता है कि यह नरक तक जाकर वापस आया है, जो इसमें मौजूद है."

नीला ग्रह

कोलोराडो विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर जोसेफ़ स्मिथ कई सालों से रिंगवूडाइट का अध्ययन कर रहे हैं और उनकी प्रयोगशाला में ऐसे कई खनिजों का अध्ययन किया गया है.
वह कहते हैं, "मुझे यह अचंभित करने वाली बात लगती है! इसका मतलब यह हुआ कि धरती के गर्भ में महासागरों से कई गुना ज़्यादा पानी जमा हो सकता है. इससे हमें यह भी पता चलता है कि हाइड्रोजन धरती का आधारभूत तत्व है और वो बाद में धूमकेतुओं से नहीं आया है."
पृथ्वी
"इस खोज के आधार पर कहा जा सकता है कि हाइड्रोजन धरती की अंदरूनी व्यवहार को वैसे ही नियंत्रित करता होगा जैसे कि वह सतह पर करता है. और धरती जैसे पानी वाले ग्रह हमारे सौरमंडल में और भी हो सकते हैं."
यह अनुमान भी लगाया जा सकता है कि दूसरे चट्टानी ग्रहों में किस मात्रा में पानी हो जमा हो सकता है.
प्रोफ़ेसर स्मिथ की प्रयोगशाला में भी इसी तरह के खनिज के कण है जो माइक्रोस्कोप से देखने पर चमकदार नीले नज़र आते हैं.
रिंगवूडाइट के पानी धारण करने की क्षमता की खोज, धरती की गहराई में इसकी प्रचुरता और इसके ख़ूबसूरत रंग को देखते हुए धरती को मिला "नीले ग्रह" का नाम और भी सार्थक हो जाता है.

Monday, March 10, 2014



वैज्ञानिकों को ऐसी चार नई मानव-निर्मित गैसों का पता चला है, जो ओज़ोन परत को नुक़सान पहुँचा रही हैं.
इनमें से दो गैसें ओज़ोन परत को इतनी तेज़ी से नुकसान पहुँचा रही हैं कि वैज्ञानिक इसे लेकर काफ़ी चिंतित हैं.
ज़मीन से 15 से 30 किलोमीटर की ऊंचाई पर वायुमंडल में पाई जाने वाली ओज़ोन की परत मनुष्यों और जानवरों को हानिकारक अल्ट्रावायलट (यूवी) किरणों को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. यूवी किरणों से मनुष्यों में कैंसर होता है. जानवरों की प्रजनन क्षमता पर भी इनका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
क्लिक करें ओज़ोन परत में बढ़ते छेद के कारण 1980 के दशक के मध्य से क्लोरोफ़्लोरोकार्बन (सीएफ़सी) गैस के उत्पादन पर प्रतिबंध लगा दिया गया है.

गैस की उत्पत्ति

"हमारे शोध से पता चलता है कि ये चार गैसें 1960 तक वायुमंडल में नहीं थीं. इससे पता चलता है कि ये मानव निर्मित गैसें हैं."
डॉक्टर जॉनसन लाउबे, प्रमुख शोधकर्ता
सीएफ़सी से मिलती-जुलती इन गैसों की उत्पत्ति का सटीक कारण अभी भी रहस्य है.
सबसे पहले ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे के वैज्ञानिकों ने 1985 में अंटार्कटिक के ऊपर ओज़ोन परत में एक बड़े छेद की खोज की थी.
वैज्ञानिकों को पता चला कि इसके लिए सीएफ़सी गैस ज़िम्मेदार है, जिसकी खोज 1920 में हुई थी. इस गैस का प्रयोग रेफ्रिज़रेटर, हेयरस्प्रे और डिऑडरेंट बनाने वाले प्रोपेलेंट में अधिकता से होता है.
सीएफ़सी पर नियंत्रण पाने के लिए 1987 में दुनिया के देशों में सहमति बनी और इसके उत्पादन को नियंत्रित करने के लिए मांट्रियल संधि अस्तित्व में आई.
साल 2010 में सीएफ़सी के उत्पादन पर वैश्विक स्तर पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया.

इंसान ने बनाया

ओज़ोन परत में छेद
ओज़ोन परत में छेद का पता सबसे पहले ब्रितानी वैज्ञानिकों ने 1985 में लगाया था.
इन चार नई क्लिक करें गैसों की मौज़ूदगी का पता लगाया है ईस्ट एंजिलिया विश्वविद्लय के शोधकर्ताओं ने.
इनमें से तीन गैसें सीएफ़सी हैं और एक गैस हाइड्रोक्लोरोफ़्लोरोकार्बन (एचसीएफ़सी) है, यह गैस भी ओज़ोन परत को नुक़सान पहुँचा सकती है.
इस अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता डॉक्टर जॉनसन लाउबे कहते हैं, ''हमारे शोध से पता चलता है कि ये चार गैसें 1960 तक वायुमंडल में नहीं थीं यानी ये मानवनिर्मित गैसें हैं.''
वैज्ञानिक ध्रुवीय बर्फ़ से निकाली गई हवा के विश्लेषण से पता लगा सकते हैं कि आज से 100 साल पहले कैसा वायुमंडल कैसा था.
शोधकर्ताओं ने इनकी तुलना वर्तमान वायुमंडल में पाई जाने वाली गैसों के नमूने से भी की. इसके लिए तस्मानिया के दूर-दराज़ के इलाक़े से नमूने लाए गए.
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि वायुमंडल में 74 हज़ार टन ऐसी गैस मौजूद हैं. इनमें से दो गैसें ओज़ोन परत में क्षरण की दर में उल्लेखनीय वृद्धि कर रही हैं.
डॉक्टर लाउबे कहते हैं, ''इन चार गैसों की पहचान बहुत चिंताजनक है, क्योंकि वो ओज़ोन परत के क्षरण में योगदान देंगी.''

बहुत बड़ा ख़तरा नहीं

वो कहते हैं, ''हम यह नहीं जानते कि इन नई गैसों का उत्सर्जन कहाँ से हो रहा है, इसकी जाँच की जानी चाहिए. कीटनाशक के निर्माण में उपयोग होने वाला कच्चा माल और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के अवयवों की धुलाई में काम आने वाले विलायक इसके संभावित स्रोत हो सकते हैं.''
वो कहते हैं कि ये तीन सीएफ़सी वायुमंडल में बहुत धीरे-धीरे नष्ट होते हैं. इसलिए अगर इनके उत्सर्जन को तत्काल प्रभाव से रोक भी दिया जाए, तो भी वो कई दशक तक वायुमंडल में बने रहेंगे.
वहीं अन्य वैज्ञानिकों का मानना है कि अभी इन गैसों की मात्रा कम है और इनसे अभी कोई तात्कालिक ख़तरा नहीं है लेकिन इनके स्रोत का पता लगाने की ज़रूरत है.
लीड्स विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर पाइरस फॉरेस्टर को कहते हैं, ''इस अध्ययन से पता चलता है कि ओज़ोन परत का क्षरण अभी भी पुरानी बात नहीं हुई है.''
वो कहते हैं, ''जो चार गैसें खोजी गई हैं, उनमें से सीएफ़सी-113ए ज़्यादा चिंता पैदा करने वाली प्रतीत हो रही है क्योंकि कहीं से इसका मामूली उत्सर्जन हो रहा है, लेकिन यह बढ़ता जा रहा है. हो सकता है कि यह कीटनाशकों के निर्माण से पैदा हो रही हो. हमें इसकी पहचान करनी चाहिए और इसका उत्पादन रोक देना चाहिए."

Wednesday, December 25, 2013

Happy Christmas

A very warm and happy Christmas my dear friends. May Lord Jesus shower all His blessings always on you. May Christ always present in your hearts.