Saturday, April 30, 2011

ईश्वर का अद्भुत चमत्कार


विनय बिहारी सिंह



ईश्वर के चमत्कार लगातार सृष्टि में घटित होते हैं। लेकिन हम उन पर ध्यान नहीं दे पाते। कितने आश्चर्य की बात है। अब मनुष्य के शरीर को ही लीजिए। ईश्वर ने हमारा शरीर कोशिकाओं से बनाया है। कोशिकाओं से ही हाथ बने हैं और कोशिकाओं से ही आंख भी बनी है। लेकिन हम हाथ से नहीं देख सकते। सिर्फ आंख से ही देख सकते हैं। क्योंकि हाथ में न रेटिना है और न उसके तार दिमाग से जुड़े हैं। इसका अर्थ है ईश्वर ने हमारी कोशिकाओं को तरह- तरह से रूपांतरित किया है। यह क्या ईश्वर का चमत्कार नहीं है? इतनी छोटी आंख से हम एक विशाल पहाड़ देख पाते हैं। विशाल आकाश देख पाते हैं। क्या यह चमत्कार नहीं है? कोई पूछ सकता है कि इसमें चमत्कार क्या है? लेकिन इस चमत्कार को वे ज्यादा महसूस कर पाते हैं जिनकी आंखें काफी दिनों तक खराब रहती हैं और अचानक किसी दान की आंख का प्रत्यारोपण होने के बाद वे दुनिया के दृश्य देख पाते हैं। उन्हें आंखों की कीमत पता है। उन्हें आंखे चमत्कार लगती हैं। लेकिन हम सब तो स्वस्थ अंगों वाले लोग हैं। हम इसे टेकेन फार ग्रांटेड ले लेते हैं। यानी इसे अपनी गारंटी समझ लेते हैं कि हमारे अंग स्वस्थ होने ही चाहिए। एक ही कोशिका के माध्यम से हम देख पाते हैं और दूसरी के माध्यम से हम देख नहीं पाते। यह ईश्वर का खेल है। यह समूचा ब्रह्मांड ही ईश्वर का है। वे इसमें तरह- तरह के खेल करते रहते हैं। ताकि हम ऊबें नहीं। आखिर हम उनकी संतानें हैं। हमारा ख्याल वे नहीं रखेंगे तो कौन रखेगा। इसीलिए तो ऋषियों ने कहा है- जगत मिथ्या, ईश्वर सत्य। मिथ्या का अर्थ है, जगत नश्वर है। ईश्वर ही शास्वत हैं। जगत स्वप्न की तरह है। इसमें लोग आते हैं और चले जाते हैं। आप स्वयं अगर २०० साल तक जीवित रह पाएंगे तो देखेंगे कि आपके सारे परिचित इस दुनिया से चले गए। आप अकेले रह गए। कहां गए सारे लोग? यह ईश्वर का ही चमत्कार है।।


Friday, April 29, 2011

जैसी करनी, वैसी भरनी


विनय बिहारी सिंह



ऋषियों ने कहा है कि हम जैसा कर्म करते हैं, उसी के अनुसार हमें भोगाभोग मिलता है। यानी अगर हम लगातार किसी के प्रति खराब बातें सोच रहे हैं तो हमारे साथ भी खराब होने लगेगा। तुरंत भले न हो, कुछ दिनों बाद। या कुछ वर्षों बाद। लेकिन होगा जरूर। इसीलिए कहा गया है कि सद्विचार बहुत जरूरी है। अच्छी बातें, अच्छे विचार। इसीलिए कहा गया है कि सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामया। सभी सुखी रहें। सभी में हम भी शामिल हो गए। गांव में एक वृद्धा मृत्यु शैया पर थीं। मैं वहां उपस्थित था। मेरी उम्र करीब १८ साल की होगी। परिजनों ने मुझसे कहा- ये बहुत साध्वी महिला रही हैं। इनसे आशीर्वाद मांग लो। वृद्धा ने मुझसे कहा- तुम खुश रहो, गांव के सभी लोग खुश रहें। साध्वी जैसी वृद्धा के ये आशीर्वचन मेरे हृदय पर अंकित हो गए। आज भी उनका यह आशीर्वाद मेरे कानों में गूंजता रहता है। मुझे लगा- मनुष्य को सिर्फ अपने बारे में ही नहीं सोचना चाहिए। ये पूरे गांव को आशीर्वाद दे रही हैं, जबकि गांव के लोग सुन भी नहीं रहे हैं। कैसा विशाल हृदय है इनका। आशीर्वाद के घंटा भर बाद ही उनका निधन हो गया। उनका प्राण शरीर से निकल गया। हम सब वहीं खड़े थे। प्राण निकलना कोई देख नहीं सकता। कहां गया प्राण? मैं बार- बार सोचता रहा। मेरे इस प्रश्न का उत्तर ३२ साल बाद गुरुदेव परमहंस योगानंद जी से मिला। तब लगा हम शरीर नहीं हैं। तुलसीदास ने ठीक ही कहा है- ईश्वर अंश जीव अविनासी।। जीव ईश्वर का अंश है। लेकिन माया का परदा इतना घना है कि उसे अपने असली रूप का पता नहीं चलता। ईश्वर से संपर्क करने पर माया का कुहासा छंटता है और दिव्य प्रकाश के दर्शन होते हैं। लेकिन इसके लिए मन शांत और स्थिर होना चाहिए। निरंतर जप, प्रार्थना और ध्यान से ही ईश्वर का आभास होगा।

Thursday, April 28, 2011

दीनानाथ, दीनबंधु, दीनहितकारी


विनय बिहारी सिंह



एक व्यक्ति ने प्रश्न किया कि भगवान को दीनानाथ, दीनबंधु और दीनहितकारी क्यों कहा गया है? उसे एक सन्यासी ने कहा- दीन का अर्थ बेचारा नहीं होता। दीन का अर्थ है जिसने ईश्वर के सामने खुद को नगण्य महसूस कर लिया है। वह समझ चुका है कि कर्ता मैं नहीं, ईश्वर है। इसलिए उसे दीन कहा गया है। दीन का अर्थ ही है शरीर, मन और इंद्रिय के पार चले जाना। अब ऐसे साधक का कोई नहीं है। सिर्फ भगवान ही हैं। वह और किसी को जानता ही नहीं। उसके केंद्र में भगवान हैं। वह उन पर पूरी तरह आश्रित है। हर क्षण वह हा भगवान, हा भगवान कहता रहता है। वह दरअसल भगवान के लिए दीन है। उसके हृदय में हाहाकार उठता रहता है- कब मिलेंगे भगवान? और उसे कोई चीज आकर्षित नहीं करती। चाहे आप उसे छप्पन प्रकार के व्यंजन दे दें। उच्च कोटि के वस्त्र दे दें। अकूत संपत्ति दे दें, लेकिन उसके प्राण छटपटाते रहेंगे- हा प्रभु, कहां हैं? कभी वह भगवान को पा लेने के अहसास में हंसता और आनंद मनाता है तो कभी उनके लुप्त हो जाने के गम में रोता है। कभी उनके लिए रोता है तो कभी उनसे प्यार करता है। तो ऐसे भक्त को भगवान अपने हृदय में रखते हैं। ऐसे ही भक्त भगवान के प्राण होते हैं। कहा भी गया है- भगवान को किस चीज की चाहत है? उत्तर में कहा गया गया है- मनुष्य के प्रेम की चाहत है। जो मनुष्य भगवान को हृदय से पुकारता रहता है, उनके लिए जीता है, सोता है, जागता है, उठता है, बैठता है, वह भगवान के हृदय में अपना स्थान बना लेता है। ऐसा भक्त सदा सुख और भगवान की सुरक्षा में रहता है। उसका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता।

Wednesday, April 27, 2011

ब्रह्म और शक्ति एक है


विनय बिहारी सिंह



रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- जब भगवान निष्क्रिय अवस्था में रहते हैं तो उन्हें ब्रह्म कहा जाता है और जब वे सृष्टि में सक्रिय होते हैं तो उन्हें शक्ति कहते हैं। जैसे स्थिर जल भी जल ही है और चंचल जल भी जल ही है। इसलिए भगवान ही ब्रह्म हैं और वही शक्ति भी हैं। एक वही हैं। उनके रूप भिन्न हैं। उन्होंने कहा है कि संसार में रहना चाहिए निर्लिप्त होकर। अगर उसमें लिप्त हुए तो बस हमारी आंख पर माया की पट्टी बंध जाएगी। हमें माया मोह के अलावा और कुछ नहीं दिखेगा। हम शरीर केंद्रित हो जाएंगे। इस शरीर को सजाने संवारने में लगे रहेंगे। अपने रिश्ते नातों को हद से ज्यादा बढ़ा लेते हैं। उनके जीवन का केंद्र हो जाता है रिश्ते नाते और अपनी देह का सुख। ऐसे में भगवान उन्हें भूले से भी याद नहीं आते। वे पूजा भी करते हैं तो मन रिश्ते नातों में ही घूमता रहता है। चैन से बैठ कर दस मिनट पूजा तक नहीं कर सकते। उन्हें हमेशा कोई न कोई काम ही याद आता रहता है। जबकि भगवान शांति और गहरी आस्था से मिलते हैं। वे हैं लेकिन आंखों पर लगी माया की पट्टी उन्हें देखने नहीं देती। इसलिए भगवान दिखते नहीं। महसूस नहीं होते। ज्योंही यह पट्टी हटेगी, वे स्पष्ट रूप से दिखेंगे, महसूस होंगे। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- भगवान कहते हैं- मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं। मुझसे बातें करो। लेकिन हम कहते हैं कि अभी नहीं, बाद में। भगवान कहते हैं कि ठीक है, मैं इंतजार करूंगा। भगवान कृपालु हैं। वे हमारी उपेक्षा का बुरा नहीं मानते। वे चाहते हैं कि हम अपनी इच्छा से उन्हें प्रेम करें। वे जबरदस्ती नहीं करना चाहते। प्रेम क्या जबरदस्ती हो सकता है? वे हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। उधर भक्त भी उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। जिन भक्तों की तड़प चरम हो जाती है, भगवान उसे अपनी छाती से लगा लेते हैं। और वह भक्त धन्य हो जाता है। आनंदविभोर। प्रेम से ओतप्रोत।

Tuesday, April 26, 2011

हनुमान जी अपनी छाती चीर कर दिखा रहे हैं



विनय बिहारी सिंह






किसी ने कहा कि राम कहां हैं? हनुमान जी ने अपनी छाती चीर कर दिखा दी- राम यहां हैं। मेरे हृदय में। क्या अद्भुत प्रसंग है। राम, हनुमान जी के हृदय में बसते हैं। हम अक्सर एक फोटो देखते हैं जिसमें हनुमान जी अपनी छाती चीर कर दिखा रहे हैं कि राम और सीता उनके हृदय में हैं। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है मैं जीवों के हृदय में रहता हूं। हृदय स्थान ही वह पवित्र स्थान है जहां भगवान का वास है। वही वृंदावन है। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है कि हनुमान जी से किसी ने पूछा कि आप भगवान राम को किस रूप में देखते हैं? हनुमान जी ने कहा- कभी तो मैं देखता हूं कि राम प्रभु हैं और मैं उनका भक्त। कभी देखता हूं कि राम मालिक हैं और मैं सेवक। लेकिन कभी यह भी देखता हूं कि राम और मैं एक ही हैं। कोई भेद नहीं है। क्या अद्भुत प्रसंग है। भक्त और भगवान में कोई भेद नहीं है। कहीं हनुमान जी को करताल बजाते हुए- राम राम राम का जप करते हुए दिखाया गया है। उनकी आंखें बंद हैं। वे भाव विभोर हैं। ऐसे चित्र को देख कर मन नहीं भरता। दूसरा मनभावन चित्र है- भगवान शिव का। आंखें बंद। शिव जी गहरी समाधि में लीन हैं। होठों पर मनोहारी मुस्कान है। आप मुग्ध होकर देखते रहें यह छवि। मन नहीं भरेगा।

Monday, April 25, 2011

नाम जप की महिमा



विनय बिहारी सिंह


विभिन्न ऋषियों ने नाम जप की महिमा को अकथनीय कहा है। यानी नाम जप से क्या- क्या लाभ होता है, इसका वर्णन करना असंभव है। फिर भी भक्तों का उत्साह बढ़ाने के लिए विभिन्न संतों ने कहा है कि नाम- जप का पहला फायदा यह होता है कि आपके साथ शुभ शक्तियां जुड़ जाती हैं। आपको पहले की तुलना में ज्यादा सुख मिलेगा। क्यों? क्योंकि आपके ऊपर भगवान की कृपा बरसने लगती है। किसका नाम जपें? यह आपके ऊपर है। आमतौर पर तीन प्रमुख देवता हैं- ब्रह्मा, विष्णु और महेश। ब्रह्मा जी का नाम जप प्रचलित नहीं है। सिर्फ विष्णु और शिव जी का नाम जप चलता है। भगवान राम और कृष्ण- विष्णु के ही अवतार कहे गए हैं। और भगवान शिव तो अविद्या का नाश करने वाले कहे ही जाते हैं। उन्हीं की पत्नी हैं माता पार्वती, जो दुर्गा के रूप में भी हैं और काली के रूप में भी। तो इन देवी- देवताओं में किसी का भी नाम जप किया जा सकता है। इससे मनुष्य की विपत्तियां और दुख टलते हैं। मन हल्का होता है। तनाव दूर होता है और भगवान के प्रति प्रेम बढ़ता है। प्रेम बढ़ने से कल्याण की मात्रा बढ़ती जाती है।

Saturday, April 23, 2011

वे रात को प्रसाद वाला लड्डू ही खाकर रह गए


विनय बिहारी सिंह



एक भक्त हैं। वे जब शाम को ध्यान में गहरे डूबते हैं तो रात का खाना नहीं खा पाते। शाम को ही कुछ हल्का- फुल्का नाश्ता कर लेते हैं और ध्यान करने बैठ जाते हैं। यह ध्यान रात के १२ बजे तक चलता है। यानी छह बजे से लेकर १२ बजे तक। छह घंटों का ध्यान। रात बारह बजे वे उठे तो देखा कि मंदिर में चढ़ाया गया प्रसाद उनके सामने ढक कर रख दिया गया है। ढक्कन हटाया तो देखा- एक लड्डू है। भगवान का प्रसाद पाकर वे प्रसन्न हो गए। उसे खाया। खूब जी भर कर पानी पीया और हरे कृष्ण, हरे कृष्ण कहते हुए सो गए। फिर सुबह छह बजे उठ कर ध्यान करने बैठ गए। चूंकि उन्हें जल्दी तैयार हो कर अपने आफिस जाना था, इसलिए वे नौ बजे उठे नहाया धोया। कुछ नाश्ता किया और निकल पड़े। उनसे पूछा गया कि आप छह घंटे ध्यान करते हैं तो क्या करते हैं? तो उन्होंने कहा- मैं ईश्वर को लगातार पुकारता रहता हूं। कहता हूं कि प्रभो, जब आपने मनुष्य जीवन दे दिया है तो अब दर्शन दीजिए। मैं आपको देखना चाहता हूं, महसूस करना चाहता हूं। आप ही मेरे जन्मदाता हैं। आप कहां हैं? जब उनसे पूछा गया कि भगवान आपको क्या उत्तर देते हैं? उन्होंने कहा- भगवान चुपचाप सुनते रहते हैं। वे कुछ कहते नहीं। इससे क्या फर्क पड़ता है? वे तो सुन रहे हैं न? यही काफी है। उनको अपनी बातें सुनाना बहुत आनंददायक अनुभव है। उन्होंने ही तो हमारे शरीर में प्राण फूंका है। वे हमारे हृदय में बैठे हुए हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो गीता में वे क्यों कहते कि मैं सबके हृदय में बैठा हूं। इसलिए उनसे मैं अपने दिल की सारी बातें कहता हूं और बातचीत का आनंद लेता हूं। भले ही बातचीत एकतरफा ही क्यों न हो। वे सुन तो रहे हैं न? मैं उनकी भक्ति के नशे में रहता हूं। इस नशा का आनंद वही जानता है जो हृदय से भगवान का भक्त है। इससे बड़ा सुख और कुछ हो ही नहीं सकता। मैं छह घंटे यही करता हूं।

Friday, April 22, 2011

शक्ति तो एक ही है चाहे शिव कहो या कृष्ण


विनय बिहारी सिंह



योगदा मठ, दक्षिणेश्वर में पिछले रविवार को स्वामी अमरानंद जी ने मनोहारी भजन गाए। वे नोएडा से एक दो दिन के लिए आए हुए थे। एक तो भगवान ने उन्हें अद्भुत सुरीला कंठ दिया है। ऊपर से भगवान कृष्ण का भजन- कृष्ण कन्हैया, कृष्ण कन्हैया। वृंदावन के बंसी बजैया।। की मिठास। इसके बाद उन्होंने हर, हर शिव, शिव। बम, बम भोले।। मोहक भजन गाया। फिर जगन्माता का भजन- जै मां जै। मुझे बार- बार महसूस हुआ है कि स्वामी अमरानंद जी जब इन भजनों को गाते हैं तो ये भजन विलक्षण बन जाते हैं। हम सब इन भजनों को सुन कर आनंदविभोर थे। लग रहा था कि आनंद की हाट लगी है। हम सब उसमें डूबे हुए हैं। इसके बाद एक भक्त ने पूछा- कभी कृष्ण तो कभी शिव जी तो कभी जगन्माता। स्वामी जी ने सिर्फ एक देवी या देवता को केंद्रित करके भजन क्यों नहीं गाया? तो एक पुराने भक्त ने जवाब दिया- सब भगवान के रूप तो हैं। भगवान तो एक ही हैं। एको अहम बहुस्यामि। मुझे तुरंत स्वामी शुद्धानंद जी की याद आ गई। वे ही तो कहते हैं कि भगवान कहते हैं- एको अहम बहुस्यामि। मैं एक ही हूं, अनेक रूप हैं मेरे। स्वामी शुद्धानंद जी कहते हैं- फूल का सुगंध लीजिए। उस फूल की कितनी पंखुड़ियां हैं, यह मत गिनिए। उन पंखुड़ियों की कटिंग कैसी है, यह मत देखिए। बस फूल की सुगंध का आनंद लीजिए। शुद्धानंद जी सिद्ध संत हैं। उनकी बातें गहरे दिल में उतर जाती हैं। वे कहते हैं- अपने इष्ट देवता (राम, कृष्ण या शिव) को केंद्र बना लीजिए। उन्हीं में डूबे रहिए। सोते, जागते, उठते- बैठते, चलते- फिरते, प्रत्येक क्षण उन्हीं का स्मरण कीजिए। मेरे प्रभु, मेरे प्रभु।

Thursday, April 21, 2011

सारी अच्छी वस्तुएं भगवान के यहां से आती हैं


विनय बिहारी सिंह



हमारे जीवन में जो कुछ भी अच्छा घटित होता है, वह भगवान के यहां से आता है। और जो भी खराब घटित होता है, उसके लिए हम जिम्मेदार हैं। ऐसा क्यों? भगवान हमेशा अच्छी वस्तुएं देने को तत्पर रहते हैं। उनके यहां कुछ भी खराब या बुरा नहीं है। सब कुछ निर्मल है, प्रेम से ओतप्रोत। इसलिए अगर हमें कोई सुखद क्षण मिलता है तो वह भगवान देते हैं। वे नहीं चाहते कि इस संसार में हमेशा हम अपने कर्मों के कारण दुख पाते रहें। वे बीच- बीच में हमें प्यार करते हैं। फिर छुप जाते हैं। हम अपने चंचल मन के कारण उन्हें महसूस नहीं कर पाते। ऋषियों ने कहा है कि भगवान सर्वत्र हैं, सर्वव्यापी और सर्वग्याता हैं। वे आपके हृदय और मन के गहनतर कोने में भी हैं। हम क्या सोचते हैं, वे यह जानते हैं। भगवान से हमारी कोई भी बात छुपी नहीं रह सकती। बुरे से बुरे आदमी को भी भगवान सुख के क्षण देते हैं ताकि वह सुधर जाए। अगर कोई फिर भी नहीं सुधरता तो वे कहते हैं- ठीक है अपने कर्मों का फल भोगो। तब शायद तुम मुझे याद करोगे। हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। अंग्रेजी में कहावत है- लव बिगेट्स लव। प्रेम ही प्रेम को आकर्षित कर सकता है। सबसे उच्चकोटि का प्रेम है- भगवान से प्रेम। अगर उनसे प्रेम किया जाए तो हमारा रोम- रोम आनंद से भर जाएगा। प्रेम की सर्वोच्च अभिव्यक्ति का नाम है ईश्वर। उनसे प्रेम कर हमारा रोम-रोम तृप्त हो जाता है। यह ऐसा प्रेम है कि आप इसके नशे में हमेशा चूर रहेंगे और दिन- रात आपकी आंखों के सामने भगवान ही छाए रहेंगे। गीता में तो भगवान कृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट शब्दों में कहा है- मुझसे प्रेम कर, मुझे नमस्कार कर, मेरे लिए सारे काम कर। इस प्रकार की भक्ति से तुम्हारा उद्धार हो जाएगा। तब ऐसा प्रेम कौन नहीं चाहेगा। सभी उच्चकोटि के साधक, ईश्वर के प्रेम से सराबोर रहते हैं।

Wednesday, April 20, 2011

हम सदा के लिए पृथ्वी पर नहीं आए हैं


विनय बिहारी सिंह


कल एक सन्यासी ने कहा- अनेक लोग यह याद नहीं रखते कि उन्हें एक दिन इस पृथ्वी से जाना पड़ेगा। अगर याद रहता तो फिर वे गलत कामों में लिप्त नहीं होते। किसी को सताते नहीं। अनैतिक काम नहीं करते। उन्हें तो लगता है कि जितना सुख है बटोर लो। जबकि सच्चाई यह है कि जिसे वे सुख समझते हैं, वह दरअसल दुख का जंजाल होता है। भगवत गीता में भगवान ने कहा है- मन पर नियंत्रण करने से इंद्रियों पर नियंत्रण हो जाएगा। वरना यह नौ द्वारों वाला शरीर व्यर्थ ही दुख पाता रहेगा। इंद्रियों का सुख असली सुख नहीं है। असली सुख तो ईश्वर में है। लेकिन उन लोगों को होश नहीं है जो भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। उन्हें लगता है कि इससे वे अधिक धनी, अधिक सुखी और सुरक्षित रहेंगे। जबकि सच्चाई यह है कि जिस दिन उनका समय आ जाएगा, उनको इस संसार से विदा लेना ही पड़ेगा। जिस शरीर के सुख के लिए इतना हाय- हाय करते थे, वह शरीर यहीं पड़ा रह जाएगा और उसे आग में जला कर राख कर दिया जाएगा। तब सारे रिश्ते- नाते, धन- संपत्ति व्यर्थ हो जाएंगे। वह व्यक्ति अपनी कामनाओं के मुताबिक फिर किसी और परिवार में जन्म लेगा। उसके नए माता- पिता और भाई- बहन होंगे। फिर वही बचपन, जवानी और अंत में बुढ़ापा। इसे याद नहीं रखने से मन सदा चंचल ही रहेगा। सदा असंतुष्ट ही रहेगा। इसीलिए जो बुद्धिमान हैं, वे सीधे ईश्वर की शऱण में चले जाते हैं। वे कहते हैं- भगवन, हम अपना कर्तव्य पूरी ईमानदारी और परिश्रम से पूरा करेंगे। लेकिन बिना आपकी मदद के कुछ भी संभव नहीं है। इसलिए हमें अच्छे काम करने की शक्ति और सामर्थ्य दीजिए।

Tuesday, April 19, 2011

'चमत्कारी' है मनुका शहद

शहद से संक्रमण का इलाज

ब्रिटेन में वैज्ञानिकों का कहना है कि मनुका शहद का इस्तेमाल कई ऐसे संक्रमणों से निपटने में किया जा सकता है जिनपर शक्तिशाली एंटीबायोटिक भी बेअसर साबित हुए हैं.

प्रयोगशाला में किए गए प्रयोगों से पता चला है कि मनुका शहद मवाद वाले घाव और अस्पतालों की संदूषित सतह पर पाए जानेवाले बैक्टीरिया का सफ़ाया कर सकता है.

एंटीबायोटिक के प्रभाव को बेअसर करने के लिए बैक्टीरिया जिस प्रतिरोध शक्ति का इस्तेमाल करते हैं, मनुका शहद उसे कमज़ोर कर डालता है.

इस शहद की इसी खूबी की वजह से ये एमआरएसए जैसे सुपरबग संक्रमण के इलाज में भी मददगार साबित हुआ है.

सुपरबग वैसे बैक्टीरिया होते हैं जिनपर ज़्यादातर एंटीबायोटिक दवाएं बेअसर साबित हुई हैं.

मनुका शहद पर किए गए प्रयोग के नतीजे 'सोसायटी फ़ॉर जेनरल माइक्रोबायोलॉजी' के सम्मेलन में पेश किए गए.

वेल्स यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर रोज़ कूपर ने पाया किये शहद काफ़ी असरदार है. इस शहद को मधुमक्खियां न्यूज़ीलैंड के मनुका वृक्षों से पराग इकट्ठा करती हैं.

प्रतिरोध क्षमता का मुक़ाबला

शहद निकालता किसान

पूरी दुनिया में ज़ख्मों के इलाज के लिए इस शहद का पहले से ही इस्तेमाल किया जा रहा है.

वैसे भी सदियों से लोग शहद की औषधीय शक्तियों की जानकारी रखते आए हैं और ज़ख़्मों के इलाज के लिए इसका इस्तेमाल भी करते रहे हैं.

शोधकर्ता मनुका शहद में मौजूद बैक्टीरिया से लड़ने की क्षमता को और बेहतर तरीक़े से जान लेना चाहते थे ताकि हमारे अस्पतालों में पाए जाने वाले कुछ बेहद मुश्किल बैक्टीरिया संक्रमणों से निपटा जा सके.

प्रोफ़ेसर कूपर ने दो सबसे सामान्य बैक्टीरिया स्ट्रेप्टोकोक्की और स्यूडोमोनड्स पर किए प्रयोगों के आधार पर निष्कर्ष दिया कि मनुका शहद बैक्टीरिया को कोशिकाओं तक पहुंचने से रोक देता है जो कि किसी भी गंभीर संक्रमण की शुरुआत की सबसे अहम कड़ी होती है.

प्रोफ़ेसर कूपर ने कहा,''प्रयोगों के आधार पर ये संकेत मिलता है कि दवाओं को बेअसर करनेवाले संक्रमणों के इलाज के लिए मनुका शहद को अगर एंटीबायोटिक दवाओं के साथ मिलाकर दिया जाए तो ये ज़्यादा असरदार साबित हो सकता है.''

हालांकि प्रोफ़ेसर कूपर ने लोगों को चेतावनी दी कि वो ख़ुद अपने घरों पर एंटीबायोटिक दवाओं के साथ बाज़ार से ख़रीदा शहद मिलाकर मरीज़ को न दें क्योंकि इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं.

उन्होंने कहा कि इसके लिए ब़ाज़ार का शहद नहीं बल्कि ख़ासतौर से तैयार किए गए मेडिकल ग्रेड शहद का इस्तेमाल किया जाता है.इसलिए लोगों को अपने घरों में ये प्रयोग नहीं करना चाहिए.

(courtesy- BBC Hindi service)

Monday, April 18, 2011

कबीरदास की गहरी बातें


विनय बिहारी सिंह



कबीरदास ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि ईश्वर के अलावा अन्य कहीं मन को केंद्रित करना, भारी भूल है। वे ईश्वर से प्रेम को महत्व देते हैं। प्रेम उनका केंद्रीय तत्व है। उनका एक दोहा इस तरह है-

ज्यों तिल मांहि तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग।।

एक अन्य दोहा देखें-

जो घट प्रेम न संचारे, जो घट जान समान।।
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण।।

क्या अद्भुत उदाहरण दिया है कबीरदास ने। तिल में तेल है, लेकिन प्रकट नहीं है। चिंगारी में आग है। ठीक उसी तरह मनुष्य के भीतर ईश्वर है। उसे देखना और महसूस करना है तो मन को स्थिर रख कर उस पर ध्यान केंद्रित करना पड़ेगा। तब जाकर ईश्वर का अनुभव होगा। वह है, लेकिन प्रकट नहीं है। तिल में तेल की तरह है। और प्रेम के बिना तो ईश्वर के करीब जाना असंभव है। कबीरदास ने कहा है कि जिस घट में प्रेम का संचार नहीं है, वह मुर्दा की तरह है। जैसे लोहार की धौंकनी। धौंकनी में प्राण नहीं हैं, वह उधार की हवा से लुहार की भट्ठी जलाए रखता है। ईश्वर से प्रेम में एक अद्भुत ताकत है। पहले ईश्वर को प्रेम कीजिए, फिर वही प्रेम ईश्वर को आपके पास खींच लाएगा। प्रेम में अद्भुत चुंबकीय आकर्षण होता है। इस अद्भुत ताकत को कबीरदास ने महसूस किया और सारे भक्तों के बीच घोषित कर दिया- प्रेम न खेतों नीपजे, प्रेम न हाट बिकाय।
प्रेम न खेत में पैदा किया जाता है और न बाजार में बिकता है। इसलिए इसका व्यापार नहीं हो सकता। यह अत्यंत पवित्र और मोहक तत्व है।

Saturday, April 16, 2011

मन रे भज ले हरि का नाम



विनय बिहारी सिंह


आज एक बहुत ही मनोहारी भजन सुना- मन रे भज ले हरि का नाम.....। भोर का समय था। वह अनजान व्यक्ति कहीं जा रहा था। रास्ते पर इक्का- दुक्का लोग जा रहे थे। भजन गाते हुए वह व्यक्ति इतना तल्लीन था कि मैं उसके पास क्षण भर के लिए ठिठका तो भी वह अपनी रौ में गाता रहा। उसकी आंखें अधखुली थीं। आगे की पंक्तियां याद तो नहीं, लेकिन उनका अर्थ था- ऐ मन, क्यों समय बरबाद कर रहे हो। क्या रखा है इस दुनिया में? यहां क्या लेकर आए हो? और क्या लेकर जाओगे? तुम अपने कर्म लेकर आए हो और कर्म ही लेकर जाओगे, अपनी कामनाएं लेकर जाओगे। ये कामनाएं तुम्हारी शत्रु हैं। छोड़ो यह प्रपंच और भगवान में रम जाओ। वहीं पर तुम्हें शांति और आनंद मिलेगा। भटको मत। जन्म- जन्मांतर से बहुत भटक चुके। अब तो संभलो। कितनी बार इस जाल में फंसोगे? हरि का भजन करो। हृदय की पुकार से हरि तुम्हारा भव बंधन काट देंगे और तुम मुक्त हो जाओगे। मैंने सोचा- कितने कम लोग भगवान के लिए तड़पते हैं। लेकिन जो तड़पते हैं, वे भाग्यशाली हैं।

Thursday, April 14, 2011

महर्षि याग्यवल्क्य और मैत्रेयी



विनय बिहारी सिंह


महर्षि याग्यवल्क्य (माफ कीजिए तकनीकी वजहों से ग्य शब्द इसी तरह लिख पा रहा हूं) ग्यान के असीम भंडार थे। उनकी दो पत्नियां थीं। ग्यान के बल पर ही वे अकूत संपत्ति के मालिक बन गए। जब उम्र ढलने लगी तो उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों को बुला कर कहा- अब मैं सन्यासी बनना चाहता हूं। मेरे पास अकूत संपत्ति है। तुम दोनों इसे बांट कर आराम से रहना। मैं दूर जंगल में जा रहा हूं। वहां तपस्या करूंगा। उनकी बड़ी पत्नी मैत्रैयी ने उनसे पूछा- महाराज, इससे आपको क्या मिलेगा? महर्षि ने कहा- परमानंद। तब मैत्रेयी ने कहा- यदि यह अकूत संपत्ति भी आपको वह परमानंद नहीं दे पा रही है जिसके लिए आप उत्सुक हैं तो फिर वह आनंद मैं भी लेना चाहती हूं। यह पूरी संपत्ति आप अपनी छोटी पत्नी को दे दीजिए और मुझे अपने साथ ले चलिए। मैं भी आपके साथ तपस्या करूंगी। मैं भी सन्यासिनी बनना चाहती हूं। आपकी शिष्या बन कर दीक्षा प्राप्त करना चाहती हूं। अपनी पत्नी की वैराग्य से भरी बातें सुन कर महर्षि को अच्छा लगा। उन्होंने मैत्रेयी से कहा- प्रिये, इस संसार में मनुष्य इसलिए आता है ताकि संसार के दुखों से सबक ले और ईश्वर की ओर मुड़े। ईश्वर ही हमें वह आनंद दे सकते हैं जिसकी हमें तलाश है। संसार के लोग भ्रम में पड़ कर जहां-तहां सुख खोजते फिरते हैं और बदले में उन्हें दुख, तनाव और असंतोष मिलता है। आओ चलें, घनघोर तपस्या करें और ईश्वरीय आनंद में सराबोर हो जाएं। यह शरीर साधना करने के लिए बना है। संसार के लोग समझते हैं कि यह शरीर भोग के लिए बना है। यही भ्रम है। यही माया है। इसे जो समझ लेता है, वह ईश्वर को पा लेता है।

Wednesday, April 13, 2011

Divine mother

We are free to visualise any aspect og God. Many prople have deep faith in God as divine mother. Ramkrishna Paramhansa, Ramprasad, Vamakhepa and other famous saints see God as Mother Kali. there is a song of Ramprasad as below- will the day o come to me ma when saying mother dear my eys will flow tears wisdom lotus will blossom forth daekness will steal away. steel away, steel away steal away ma steal away. thosand veda do declare divine mother every where.......... what a sweet song. when Ramprasad sang the song he was weeping in love of divine mother. his songs use to call- Ramprasadi gaan. Ramkrishna paramhansa also wept always for Mother Kali. He always said- Kali, Krishna, Durga, Ram, Shiva are same. these all names are of one God. repeat any name with full devotion, you will get benifited.

Tuesday, April 12, 2011

Movement of computer mouse by thought


Vinay Bihari Singh


Recent researches say that you can move computer mouse by thought. miracle? yes. Paramhansa Yogananda ji has said- Thought is fire. You can make your life heaven by good thoughts and disturbed by bad thoughts. It depends upon us. So, if your thoughts are powerful, you can make the situation according to your will. scientists says- a high sensitive computer will read you mind and move the mouse according to your choice.
In Upanishads it is said- Man ev manushyanam, karanam bandh mokshyo..
So we are, what we think. If good thoughts dominates us we are with God, if bad thoughts are in our mind we are suffering. That's why Rishies say- Chinta se chaturai ghate, means- If we are in tension, our mind will less intelligent. But why we fall in the net of tension? this is a habit of the mind. whay this bad habbit? because we ourself surrender to that situation. What should we do to avoid tension? Rishies say- Sit calmly, search the solution of the problem. Do your best and leave it to the God. This is best way to get out of tension.

Monday, April 11, 2011

नींद में हम किस अवस्था में होते हैं



विनय बिहारी सिंह


जब हम गहरी नींद में होते हैं तो हम कहां सोए हैं, संसार क्या है, हमारा संबंधी कौन है आदि बातों का कुछ पता नहीं होता। हम पूरी तरह अवचेतन स्थिति में रहते हैं। ऋषियों ने कहा है कि भगवान ने हमें नींद इसलिए दी है ताकि हम अपनी वास्तविक स्थिति समझ सकें। वास्तविकता क्या है? हम यह शरीर नहीं हैं, बल्कि शुद्ध आत्मा हैं। लेकिन हम नींद के बारे में बहुत गहराई से नहीं सोचते। बस मान लेते हैं कि नींद गहरा विश्राम है। लेकिन इस विश्राम के पीछे एक गहरा रहस्य छुपा हुआ है। यह कि हम मात्र यह भौतिक शरीर नहीं हैं। एक कहावत भी है- नींद न जाने टूटी खाट, भूख न जाने जूठा भात।। हम जीवन को इतनी सरलता से लेते हैं कि इसका रहस्य हमारी आंखों के सामने नहीं आता। भगवान कृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा है- अर्जुन तेरे और मेरे कई जन्म हो चुके हैं, लेकिन तू उन जन्मों को नहीं जानता, लेकिन मैं जानता हूं। भगवान की लीला अपरंपार है। मनुष्य के दिमाग की सीमाएं हैं। ईश्वर ने हमारे दिमाग को बनाया है, फिर हम इससे ईश्वर को कैसे जान सकते हैं। इसका भी उपाय भगवान कृष्ण ने गीता में बताया है- जो मेरा अनन्य भक्त है, जिसका कोई शत्रु नहीं है, वह भक्त मुझे जान सकता है, पा सकता है। अनन्य भक्त। अनन्य यानी न अन्य। अन्य कोई नहीं सिर्फ भगवान। सच भी है। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- इस ब्रह्मांड के स्रष्टा भगवान सबको भोजन दे रहे हैं लेकिन खुद छुपे हुए हैं। यह इसलिए कि वे चाहते हैं कि उनकी संतानें यानी हम सब उन्हें ढूंढ़ें। जब हम उन्हें ढूंढ़ने लगते हैं तो वे और छुपने लगते हैं। फिर एक झलक दिखा कर गायब हो जाते हैं। यह सब लुका- छिपी का खेल हर व्यक्ति अपनी संतान से खेलता है। इसलिए भगवान भी खेलते हैं। भक्त कहता है- प्रभु, आप भले ही मुझसे छिपते फिरें, मैं आपको प्रेम करना नहीं छोड़ सकता। आप नहीं दिखते हैं तो भी आप हैं और जब झलक दिखाते हैं तो हैं ही। आपका न आदि है और न अंत। मैं भी आपकी संतान हूं और छुपेंगे कैसे? आपके अलावा मुझे और कौन प्रेम कर सकता है। आपने मुझे जन्म दिया है इसलिए मेरा भार भी आप लीजिए। मैं आपके बिना नहीं रह सकता।

Saturday, April 9, 2011

यह ब्रह्मांड क्या है, हम कहां से आए?



विनय बिहारी सिंह


कई लोग मानते ही नहीं कि भगवान हैं। उनके लिए जो कुछ दिखाई देता है वही अस्तित्व में है। उन्हें शायद पता नहीं कि हाइड्रोजन के दो और आक्सीजन के एक एटम मिल कर पानी बनाते हैं। पानी दिख रहा है लेकिन ज्योंही वह हाइड्रोजन और आक्सीजन में टूटता है, दिखना बंद हो जाता है क्योंकि गैसें दिखती नहीं हैं। अब आप नहीं कह सकते कि पानी का अस्तित्व तो है क्योंकि वह दिखता है और हाइड्रोजन व आक्सीजन का अस्तित्व नहीं है। ठीक इसी तरह ईश्वर के बनाए सुंदर फूल, पत्ते, आसमान, हवा, सुंदर वस्तुएं और सुंदर प्राणी, भोजन और स्वादिष्ट फल तो दिखते हैं लेकिन उसको उत्पन्न करने वाला भगवान इसलिए नहीं दिखता क्योंकि वह सर्वव्यापी है। हां, दिख सकता है जब आपके दिल भी उसके लिए तड़प हो। वह साकार रूप ले सकते हैं। वैसे वे निराकार हैं। लेकिन भक्त के लिए वे साकार हो जाते हैं। गीता में ग्यारहवें अध्याय में जब अर्जुन भगवान का विश्वरूप देखते हैं तो भयभीत हो जाते हैं। वे कांपते हुए कहते हैं- भगवान न आपका आदि देखता हूं और न अंत। आप अनेक बाहों वाले, अनेक उदरों वाले, अनेक मुख वाले और अनंत रूप वाले दिख रहे हैं। हजारों सूर्य के एक साथ प्रकाशित होने पर भी शायद उतना प्रकाश न हो जितने प्रकाशित आप हैं। भगवान कृपया आप उसी चतुर्भुज रूप में मेरे सामने प्रकट होइए जिसे देख कर मन आनंद विभोर हो जाता है। और भगवान फिर उसी चतुर्भुज रूप में आ जाते हैं। विश्वरूप उन्होंने अर्जुन को शिक्षा देने के लिए प्रकट किया था। जो लोग भगवान को नहीं मानते उन्हें यह बोध नहीं है कि वे इस धरती पर कहां से आए। जन्म से पहले वे कहां थे और मृत्यु के बाद कहां जाएंगे। यह ब्रह्मांड उनके जन्म के पहले भी था और बाद में भी रहेगा। हम अपने कर्मों और कामनाओं के कारण ही फिर- फिर जन्म लेते हैं और फिर- फिर मृत्यु को प्राप्त होते हैं। मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य है- ईश्वर की प्राप्ति। इसके लिए ही भजन, जप, पूजा- पाठ, ध्यान का निर्देश है।

Friday, April 8, 2011

अंधेरी दुनिया में उजाले की किरण


रेटिना

जापान के वैज्ञानिकों ने पहली बार स्टेम सेल यानि मूल कोशिका से आंखों की रेटिना की कोशिकाओं को विकसित करने में सफलता हासिल की है.

‘नेचर’ पत्रिका में प्रकाशित लेख में जापानी शोधकर्ताओं ने कहा है कि सिद्घांत के हिसाब से ये तकनीक न देख सकने वाले लोगों के लिए काफ़ी कारगर साबित हो सकती है.

इस तकनीक से प्रयोगशाला में विकसित किए गये रेटिना का प्रत्यारोपण कर नेत्रहीन लोगों की रोशनी लौटाई जा सकती है.

बीबीसी के विज्ञान संवाददाता पल्लव घोष का कहना है, "हांलाकि शोधकर्ता इससे पहले भ्रूण कोशिका से तंत्रिका , मांस पेशी प्रयोगशाला में सफलतापूर्वक बना चुके हैं, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है जब जापान के वैज्ञानिकों ने रेटिना जैसी जटिल कोशिकीय संरचना बनाई है."

जापानी वैज्ञानिकों की इस नई खोज से दृष्टि गवां चुके मरीज़ों को काफी फायदा हो सकता है.

प्रोफेसर रॉबिन अली , युनिवर्सिटी कालेज, लंदन

दरअसल आँख के पीछे का पर्दा यानी रेटिना कोशिकाओं का समूह है जिसकी वजह से ही हमें दिखाई देता है. दृष्टिहीनता के अधिकतर मामलों में देखा गया है कि रेटिना की यही कोशिकाऐं क्षतिग्रस्त हो जाती हैं.

आशा की किरण

इस नए शोध पर लंदन के प्रोफेसर रॉबिन अली का कहना है कि जापानी वैज्ञानिकों की इस नई खोज से दृष्टि गवां चुके मरीज़ों को काफी फायदा हो सकता है.

हालांकि मानव की मूल कोशिका से रेटिना की बहुकोशिकाओं को विकसित करने का प्रयोग सफल रहा है, लेकिन इसे मरीज़ों में प्रत्यारोपित करने से पहले इस दिशा में काफ़ी काम करना होगा.

शुरुआती संकेत अच्छे हैं पर अभी इस क्षेत्र में और शोध की ज़रुरत है. विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर सब कुछ ठीक रहा तो पाँच सालों में छोटे स्तर पर चिकित्सीय परीक्षण शुरु हो सकते हैं .

(courtesy- BBC Hindi service)

Wednesday, April 6, 2011

संसार की बातें और भगवान



विनय बिहारी सिंह


संसार में आपकी बातें सबको अच्छी नहीं लगतीं। कई लोग आपकी बातों को चाव से सुनते हैं, लेकिन कई सुनना नहीं चाहते। आज देखा- एक बूढ़ा व्यक्ति ट्रेन में रिजर्वेशन के लिए अपने नंबर का इंतजार कर रहा था। वह रिजर्वेशन काउंटर पर उसके पहुंचने में अभी देर थी। वह व्यक्ति चाहता था कि आसपास के अनजान लोगों से बातें करे। लेकिन मैंने देखा उससे बातें करने को कोई भी व्यक्ति इच्छुक नहीं है। हर आदमी उसकी उपेक्षा कर रहा था। लेकिन वह आदमी लोगों की रुचि न रहने पर भी कुछ न कुछ बोल ही रहा था। लोग इससे भी ऊब रहे थे। अचानक लगा कि कोई व्यक्ति लोगों से बातचीत करने के लिए इतना आग्रही क्यों हो जाता है? क्या बातें करने के अभ्यास के कारण? शायद यही बात हो सकती है। आप कहेंगे मनुष्य है तो बातें करेगा ही। ठीक है। लेकिन जब कोई आपसे बात करने को इच्छुक न हो तो आप ईश्वर से मौन संवाद कर सकते हैं। रमण महर्षि कहते थे- ईश्वर से मौन संवाद, बोलने या जोर से प्रार्थना की अपेक्षा ज्यादा कारगर होता है। वे कहते थे- मन ही मन प्रार्थना कीजिए। विश्वास रखिए यह मौन संवाद ईश्वर सुन रहे हैं। परमहंस योगानंद जी कहते थे- ईश्वर आपकी प्रत्येक सोच के बारे में जानते हैं। आपकी मौन और भक्ति से ओतप्रोत प्रार्थना उन तक जरूर पहुंचती है। आपको यह विश्वास क्यों नहीं हो रहा है? जिस तरह आपके शरीर के किसी भी हिस्से में चिकोटी काटी जाती है तो आपको महसूस हो जाता है, ठीक उसी तरह इस ब्रह्मांड में जो कुछ भी सोचा जाता है, किया जाता है, ईश्वर उसे महसूस करते हैं। वे हर क्षण हमारे साथ होते हैं। जब हम गहरी नींद में सो जाते हैं तब भी। गीता में तो भगवान ने स्वयं ही कहा है कि भगवान सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म हैं। भक्ति के गहरे सागर में गोता लगाते ही यह अति सूक्ष्म भगवान आपके अनुभव में आ जाते हैं। कबीरदास ने तो कहा ही है-
पोथी पढ़ि, पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।।

Tuesday, April 5, 2011

यही तो है महिषासुर

विनय बिहारी सिंह

हमारे भीतर ही है महिषासुर। महिष यानी भैंसा। यानी कामनाओं- वासनाओं के न पूरा होने पर हिंसा में पागल मन। कहीं अपने ही लोगों के प्रति हिंसा, तो कहीं किसी दूसरे के प्रति। क्रोध, कुढ़न और बदले की भावना। यही तो है महिषासुर। हमारे अंदर जड़ जमा कर बैठा है। मां दुर्गा अराधना से मारा जाएगा यह महिषासुर। हमारे दैहिक, दैविक और भौतिक ताप यानी कष्ट दूर होंगे। मां दुर्गा की कैसे अराधना करें? गहरी भक्ति के साथ। भगवान ही शुरू में हैं, भगवान ही अंत में हैं और भगवान ही मध्य में हैं। यानी भगवान ही सर्वत्र हैं। भगवान की सेनानायक हैं मां दुर्गा। यानी भगवान का ही एक रूप हैं। उनके प्रसन्न होने पर हमारे भीतर और बाहर की सभी बाधाएं नष्ट हो जाएंगी और शांति का अनुभव शुरू हो जाएगा। एक साधु कहते हैं- अनेक लोग हमेशा दूसरों को दोष देते रहते हैं। अमुक ने ऐसा कर दिया वरना मेरा काम हो गया होता। वह काम उस समय होना ही नहीं था। कैसे हो जाता? समय आने पर आपका काम होगा। और अगर नहीं होगा तो इसी में आपकी भलाई है। भगवान के नियम में कहीं कोई त्रुटि नहीं है। हम अपने स्वार्थ में इतने अंधे हो जाते हैं कि भगवान को ही दोष देने लग जाते हैं। जो हमारे रक्षक हैं, वे हमारे साथ अन्याय कर ही नहीं सकते। मां दुर्गा ने अत्यंत बलवान महिषासुर का वध किया था। इसीलिए उनका नाम महिषासुर मर्दिनी पड़ा। हमारे भीतर हमारी कई खराब आदतें, कई खराब प्रवृत्तियां- जैसे भय, चिंता और दुख धीरे- धीरे महिषासुर बन जाते हैं और हमें सताने लगते हैं। आइए इस नवरात्रि के अवसर पर मां दुर्गा से प्रार्थना करें कि वे हमें सारी भव बाधाओं से दूर करें और हमें अपनी शरण में लेकर हमें मुक्ति का रास्ता दिखाएं।

Monday, April 4, 2011

नवरात्रि का महत्व

विनय बिहारी सिंह

चैत्र महीने की नवरात्रि का खास महत्व है। चैत्र के इन दिनों में मनुष्य के मेरुदंड मे स्थित चक्र विशेष रूप से सक्रिय होते हैं। इन्हें पुष्ट करने के लिए इन नौ दिनों में मां दुर्गा यानी शक्ति की देवी की पूजा की जाती है। इससे हमारे जीवन की विघ्न- बाधाएं तो खत्म होती ही हैं, जीवन में उम्मीद की नई किरणें फूटती हैं। नवरात्रि के पहले दिन (यानी आज) देवी दुर्गा की अराधना करने वाले घरों में सुबह विधिवत पूजा- पाठ और आरती होती है। मां दुर्गा शक्ति की प्रतीक हैं। इन नौ दिनों में माता दुर्गा की उनके नौ रूपों की स्मृति में पूजा होती है। पहले दिन शैलपुत्री यानी हिमालय की पुत्री (मां पार्वती) के रूप में पूजा की जाती है। दूसरे दिन ब्रह्मचारिणी (यानी ब्रह्म में लीन रहने वाली तपस्विनी) के रूप में, तीसरे दिन चंद्रघंटा (सौंदर्य और चरम साहस की प्रतीक), चौथे दिन कुशमांडस (जगत की उत्पत्ति करने वाली), पांचवे दिन स्कंदमाता (भगवान की सर्वश्रेष्ठ सेनानायक), छठे दिन कात्यायनी (तीन नेत्रों वाली यानी दिव्य चक्षु को धारण करने वाली), सातवें दिन कालरात्रि (भक्तों का भय हरण करने वाली), आठवें दिन महागौरी (शांत और ग्यान का केंद्र) और नौवें दिन सिद्धिदात्री (अष्ट सिद्धियों को देने वाली) के रूप में उनकी पूजा की जाती है। शक्ति के नौ रूप कहे गए हैं। ये नौ रूप मां दुर्गा के ही नौ रूप हैं- १- दुर्गा २- भद्रकाली ३- अंबा या जगदंबा ४- अन्नपूर्णा ५- सर्वमंगला ६- भैरवी ७- चंद्रिका या चंडी ८- ललिता और ९- भवानी। ये सभी रूप मां के विभिन्न पहलुओं को संक्षेप में बताते हैं। लेकिन मां की शक्तियों का वर्णन करना मनुष्य के वश में नहीं है। यह सारे वर्णन उनकी शक्ति के एक अंश मात्र हैं। जो समूचे ब्रह्मांड को धारण करने वाली हैं, उनका वर्णन कौन कर सकता है? मनुष्य के वश में तो उनका वर्णन करना संभव नहीं है। फिर भी जगन्माता की भक्ति, भक्त को कुछ न कुछ लिखवा ही लेती है। आखिर आदि शक्ति यानी मां दुर्गा की अराधना करने के लिए शब्द तो चाहिए होते हैं न। वरना मनुष्य जगन्माता के प्रति प्रेम कैसे प्रकट करता?

Saturday, April 2, 2011

दैवी संपत्ति और आसुरी संपत्ति


विनय बिहारी सिंह


गीता में भगवान कृष्ण ने स्पष्ट रूप से कहा है कि दो तरह की संपदा होती है। एक दैवी संपदा। दैवी संपदा तब इकट्ठी होती है जब मनुष्य ईश्वरपरायण होता है। ध्यान, पूजा- पाठ, जप इत्यादि करता है। ईश्वरीय चर्चा कर या सुन कर आह्लादित होता है। सात्विक भोजन करता है। किसी के प्रति द्वेष, क्रोध या निंदा नहीं करता। वह जो भी अच्छे काम करता है, मानता है कि ईश्वर के लिए ही कर रहा है। हर काम करने के पहले ईश्वर का स्मरण करना उसके अभ्यास में शामिल होता है। वह न किसी को उद्वेग में लाता है न ही स्वयं ही उद्वेलित होता है। सर्वथा शांत और ईश्वर प्रेम में डूबा हुआ। दूसरी होती है आसुरी संपदा। आसुरी संपदा तब इकट्ठी होती है जब मनुष्य दिन- रात परनिंदा में जुटा रहता है। हमेशा हिंसा, ईर्ष्या, क्रोध और कुढ़न का शिकार होता है। भोजन भी वह अत्यंत गरिष्ठ, मांसाहार और कई बार बासी भी करता है और वह समझता है कि सबकुछ वही कर रहा है। वह जो चाहता है, कर लेगा।
भगवान कृष्ण ने कहा है कि भक्त दैवी संपदा का स्वामी होता जाता है। वह जानता है कि यह ब्रह्मांड ईश्वर ने बनाया है। वह ईश्वर का प्रेमी है। ऐसा भक्त आजीन प्रार्थना, जप, ध्यान और पूजा- पाठ के जरिए इस दुख रूपी संसार से मुक्त हो जाता है और ईश्वर के साथ आनंद मनाता है। मृत्यु के पहले ही। यानी इसी शरीर में रहते हुए वह ईश्वर से जुड़ जाता है। मृत्यु के बाद तो आनंद में रहता ही है।

Friday, April 1, 2011

अपने कारण ही हम पाते हैं तकलीफ



विनय बिहारी सिंह

एक बहन ने पूछा है कि भगवान अगर माता, पिता और मित्र है तो क्यों दुख देता है। क्यों पीड़ा देता है। सभी धर्मग्रंथों में लिखा है। गीता में तो साफ- साफ है कि हम अपने ही कर्मों के कारण एक खास परिवार में जन्म लेते हैं, एक खास परिवेश में रहने को बाध्य होते हैं और कुछ खास तकलीफों को भोगते हैं। भगवान कृष्ण ने अर्जुन से गीता में कहा है- अर्जुन, संसार रूपी दुखों के समुद्र से बाहर निकलो। स्वयं भगवान ही कह रहे हैं कि यह संसार दुखों का समुद्र है। उपनिषदों में कहा है- मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयो।। मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है। तो फिर हम भगवान को क्यों दोष दें। कोई कर्म करने के पहले हम भगवान से नहीं पूछते। लेकिन जब उसका परिणाम आता है तो हम भगवान को दोष देते हैं। विंबलडन का एक विख्यात खिलाड़ी (नाम भूल रहा हूं) जब एड्स से मर रहा था तो उसके फैन ने उससे पूछा- भगवान ने आपको ही इस कष्ट के लिए क्यों चुना? उस खिलाड़ी ने कहा- जब भगवान ने मुझे दुनिया भर में सम्मान दिलाया, विंबलडन का विश्वविजयी कप मेरे हाथों में थमाया, मुझे खुशियों से सराबोर कर दिया तब तो मैंने एक बार भी भगवान से नहीं पूछा- भगवान मेरे साथ ही ऐसा क्यों? लेकिन जब दुख आया है तो मैं भगवान से क्यों पूछूं? जरूर यह भी मेरे कर्मो का फल है। चाहे इस जन्म के कर्मों का या चाहे पिछले जन्म के कर्मों का। डिवाइन लॉ, ईश्वरीय नियमों में कोई गलती नहीं होती। दुखों से छुटकारा पाने का एकमात्र रास्ता है- ईश्वर की शरण में जाना। ईश्वर ही हमारे माता और पिता हैं। एक बार उनकी शरण में जाने पर, एक बार उनके लिए आंसू बहाने पर वे बाध्य होकर हमें अपने आगोश में ले लेंगे। हमें प्यार करेंगे। कष्टों से उबारने वाले वही हैं।