Friday, February 27, 2009

श्रद्धा से याद किए जाते हैं काली भक्त रामप्रसाद


विनय बिहारी सिंह

यह सत्रहवीं शताब्दी की बात है। पश्चिम बंगाल में रामप्रसाद सेन और मां काली का गीत एक दूसरे के पर्याय हैं। रामप्रसाद सेन सिर्फ रामप्रसाद के नाम से लोकप्रिय हैं। वे ६१ वर्ष तक इस पृथ्वी पर रहे। उनके लिखे मां काली के भजन सुनने वाले के दिल में उतर जाते हैं। मां आमाके कतो घुराबी (मां, मुझे कितना घुमाओगी, दर्शन क्यों नहीं देती?) इतना मधुर और दिल को छूने वाला है कि आज भी यह भक्ति संगीत का सिरमौर बना हुआ है। रामप्रसाद का स्वर इतना मीठा था कि जो उनका भजन सुनता, उनका दीवाना हो जाता। एक बार गंगा के किनारे वे भजन गा रहे थे और नवाब सिराजुद्दौला उधर से गुजर रहा था। उसने अपना बजरा रोका और रामप्रसाद को बुला लिया। रामप्रसाद ने दो ही भजन सुनाए और सिराजुद्दौला पर जादू सा असर हो गया। उसने अपने साथ उन्हें ले जाना चाहा, लेकिन वे राजी नहीं हुए। एक राजा ने कहा - यह आदमी मां काली में इतना डूबा हुआ है कि इसे कुछ होश नहीं है। इसकी एक एक सांस अपनी मां काली को समर्पित है। सन १७२० में जन्मे रामप्रसाद के पिता आयुर्वेद के प्रतिष्ठित डाक्टर थे। वे २४ परगना के कुमारहाटा में रहते थे। वे बेटे को भी डाक्टर बनाना चाहते थे। लेकिन रामप्रसाद तो बचपन से ही मां काली के भक्त थे। सिर्फ काली कह देने से ही वे गहरे ध्यान में डूब जाते थे। जब उनके पिता ने देखा कि उनका मन पढ़ने में नहीं लग रहा है तो उन्होंने रामप्रसाद के लिए फारसी का एक अध्यापक रख दिया। १६ साल की उम्र तक रामप्रसाद संस्कृत, बांग्ला, फारसी और हिंदी सीख ली थी। तभी अचानक उनके पिता की मृत्यु हो गई। परिवार आर्थिक संकट से जूझने लगा। रामप्रसाद नौकरी ढूंढ़ने कलकत्ता आए। वहां एक जमींदार के यहां क्लर्क की नौकरी मिल गई। लेकिन मां काली की भक्ति में वे इतने डूबे रहते थे कि बही खातों तक पर वे भजन लिख देते थे औऱ ज्यादातर अकेले में ध्यान करते रहते थे। जमींदार को लगा कि रामप्रसाद पहुंचे फकीर हैं। उन्हें एक सम्मानित राशि प्रति महीने देने का इंतजाम कर उसने उन्हें घर जाने की सलाह दी। रामप्रसाद को अब चिंता ही क्या थी। वे घर चले गए औऱ मां काली के भजन गाने लगे। दिल को छू लेने वाले उनके भजन पूरे बंगाल में फैलने लगे। उनकी ख्याति शिखर पर पहुंच गई। कई राजाओं ने उन्हें अपने दरबार में कवि की हैसियत से उन्हें रखना चाहा, लेकिन उन्होंने सबको मना कर दिया। उन्होंने कहा- मैं सर्वशक्तिमान के दरबार में पहले से ही हूं। अब किसी के दरबार में जाने की जरूरत ही क्या है। रामप्रसाद का निधन सन १७८१ में हुआ।

Thursday, February 26, 2009

भगवान शिव की नृत्य मुद्रा




विनय बिहारी सिंह


भगवान शिव की नृत्य मुद्रा को नटराज कहते हैं। उनके बाएं हाथ में डमरू और अग्नि है और दायां एक हाथ आशिर्वाद दे रहा है और दूसरा हाथ अभय दान कर रहा है। शिव जी का एक पैर ऊपर उठा है और दूसरा जमीन पर है। उनका डमरू ऊं शब्द का प्रतीक है तो आग ब्रह्माग्नि है। कुछ चित्रों में डमरू की जगह सांप है, जो इस बात का प्रतीक है कि कुंडलिनी भगवान शिव ही नियंत्रित कर रहे हैं। उनका वह पैर जो जमीन पर है, एक दैत्य को दबाए हुए है। यानी नकारात्मक प्रवृत्तियों पर अंकुश है। शिव जी का जो पैर उठा हुआ है, वह संसार से वैराग्य का प्रतीक है> ऊं के साथ शिव जी का नृत्य ब्रह्म में लीन करा देता है। जैसे ध्यान मन का ईश्वर में लय है उसी तरह शिव जी का ब्रह्म नृत्य ईश्वर से साक्षात्कार कराने वाला है। शिव नृत्य को महसूस कराने वाले वाद्य यंत्र जब बजते हैं तो उसकी ध्वनियां आपको बताती हैं कि सृष्टि का प्रारंभ, पोषण और लय का स्पंदन क्या और कैसे होता होगा। हालांकि ये ध्वनियां मनुष्य पैदा करके एक आभास मात्र देने की कोशिश करता है। असली ध्वनि कैसी है यह तो योगी ही बता सकते हैं। जो योग में सिद्ध हो, वही योगी है। योग किसके साथ? उत्तर है- ईश्वर के साथ। संतों ने कहा है- हम कितनी सांसें लेंगे, यह भी ईश्वर ने तय कर रखा है। हमारे जीवन में कुछ भी आकस्मिक नहीं है। हमें भले लगता है कि यह घटना अचानक हो गई, लेकिन सब कुछ पहले से तय है। हम चूंकि संसार में इतने लिप्त हो जाते हैं कि काल का पता नहीं चलता। जो चीजें घटती हैं, वे आकस्मिक सी लगती हैं। संतों ने इसीलिए तो कहा है कि ईश्वर का नाम जप भी हो तो आप धीरे धीरे संकटों से मुक्त हो जाएंगे। और वे लोग तो धन्य हैं जो नियम से हर रोज शुद्ध मन से ईश्वर का नाम जपते हैं। अगर हम हर रोज सुबह शाम १० मिनट भी ईश्वर के नाम का जाप करें तो क्या से क्या हो जाएगा। वरना संसार के जंजाल में जितने भीतर जाएंगे, उतने ही कष्ट भोगेंगे। संसार में रह कर ईश्वर के प्रति समर्पण के लिए ही हमारा जन्म मनुष्य योनि में हुआ है। रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि मनुष्य का जन्म इसलिए हुआ है ताकि वह ईश्वर को जान सके। जो इस प्रयत्न में लगे हुए हैं, वे धन्य हैं।

Wednesday, February 25, 2009

क्रोध आपको ही मारता है - वैग्यानिकों ने माना




विनय बिहारी सिंह


शिकागो स्थित येल यूनिवर्सिटी की राशेल लैंपर्ट ने गहन शोध के बाद यह बताया है कि क्रोध मनुष्य को १० गुना तेजी से मारता है। यानी अगर आप क्रोधी व्यक्ति हैं तो निश्चित रूप से आप खुद को ही मार रहे हैं। यह रिपोटॆ अमेरिकन कालेज आफ कार्डियोलाजी के जरनल में छपा है। शोध में कहा गया है कि जब आपको क्रोध आता है तो आपके हृदय से नुकसान पहुंचाने वाला करेंट निकलने लगता है। नतीजा यह होता है कि आपका नर्वस सिस्टम बुरी तरह क्षतिग्रस्त होता है। इसके अलावा आपके मस्तिष्क को भी भारी नुकसान पहुंचता है। शोध में यह भी सामने आया है कि अगर आप अक्सर क्रोध करते हैं तो आपको दिल की बीमारी या ब्रेन हेमरेज का खतरा बना रहता है। हमारे ऋषि- मुनियों ने तो पहले ही कहा है कि मनुष्य को क्रोध से बचना चाहिए। अपना आपा नहीं खोना चाहिए। उन्होंने हजारों साल पहले ही कह दिया है कि क्रोध से आप अपना ही नुकसान करते हैं। इसीलिए उन्होंने ध्यान करने पर जोर दिया है। ध्यान में आप सोचने- विचारने से पूरी तरह मुक्त हो जाते हैं। आप मानते हैं कि सिर्फ भगवान हैं और मैं हूं। और कोई नहीं है। जब मेरे साथ भगवान हैं तो फिर डर किस बात का? जो होगा, भगवान देखेंगे। इस मानसिकता के साथ धीरे- धीरे आपके दिमाग में एक सुरक्षा भावना आने लगती है। लेकिन यह तभी संभव होगा, जब आप लगातार ध्यान करेंगे। आज ध्यान किया और दो दिन छोड़ दिया या एक दिन छोड़ दिया तो फिर कोई फायदा नहीं होगा। हर रोज एक निश्चित समय तय कर लेना चाहिए। चाहे वह रात को ही क्यों न हो। लेकिन जो समय तय किया है बस उस समय और कोई काम नहीं सिर्फ ध्यान करना चाहिए। अगर आप ध्यान नहीं कर सकते तो जाप ही कीजिए। अगर आप जाप नहीं कर सकते तो भजन ही कीजिए। रामकृष्ण परमहंस इसे भजनानंद कहते थे। यानी जो आनंद आप भजन गा कर पा रहे हैं उसे भजनानंद कहते हैं। तो क्या अकेले भजन गाएं? आपका सवाल हो सकता है। क्यों नहीं। अकेले भजन गाने में क्या बुराई है। आराम से- हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।। गा सकते हैं। गुनगुना सकते हैं। हर्ज क्या है? इसमें तो आनंद ही आनंद है।

Tuesday, February 24, 2009

कैसे मनाई महाशिवरात्रि



विनय बिहारी सिंह


कल महाशिवरात्रि योगदा मठ, कोलकाता में मनाने का मौका मिला। वहां ध्यान, भजन और पूजन के बाद प्रसाद वितरण हुआ। जैसे जैसे रात गहराती गई स्वामी अमरानंद जी का भजन और भावपूर्ण होता गया। ऊं शिव ऊं का गायन हारमोनियम और ढोलक की संगत में इतना मधुर हो गया कि लोग झूमने लगे। ये तीन शब्द कितने प्रभावशाली हैं, यह कल रात अनुभव हुआ। इन शब्दों का स्पंदन समूचे माहौल में फैल गया- ऊं शिव ऊं, ऊं शिव ऊं। इसके बादहर हर शंकर शंभु सदाशिवहर हर महादेव बम बम भोला।।इसके बादचंद्रमौलि चंद्रशेखर शंभु शंकर त्रिपुरारी.... ऐसे ही अनेक भजन। रात गहरा रही थी और लग रहा था ढोलक कभी मृदंग हो गया तो कभी डमरू। ढोलक के कलाकार एक शिव भक्त ही थे। अद्भुत माहौल बन गया था। मानो हम सब कैलाश पर्वत पर बैठे हों और शिव जी का दिव्य नृत्य देख रहे हों।बम बम बबमबम... की ध्वनि के साथ हर हर महादेव की सम्मिलित ध्वनि से रोम रोम तृप्त हो रहा था। शिव का नाम लेने से ऐसा सुख भी मिल सकता है, कई लोगों ने पहली बार जाना। शिव का नाम उच्चारित करने से सचमुच एक खास किस्म का स्पंदन माहौल में पैदा होता है। अगर सबके मन में वह भाव भक्ति हो तो क्या कहने। यही तो कल देखा महसूस किया। इतना दिव्य, अद्भुत और रोम रोम को तृप्त करने वाला आयोजन विरल है रेयर है। योगदा मठ के सन्यासी सचमुच प्रणम्य हैं। बिना एक पैसा लिए लोगों को प्रसाद खिला कर खुश हो रहे थे वे। हर हर महादेव।

Monday, February 23, 2009

भगवान शिव की अराधना


विनय बिहारी सिंह

न जाने कितने वर्षों बाद महाशिवरात्रि सोमवार को आई है। इस दिन का खास महत्व है। भगवान शिव वैसे तो हमेशा ही जीवों को आशीर्वाद देते रहते हैं। लेकिन महाशिवरात्रि के दिन उनकी विशेष कृपा रहती है। जो भी उनके पास स्वच्छ हृदय और भक्ति के साथ जाता है यानी श्रद्धा के साथ स्मरण, पूजन और जाप करता है, उस पर उनकी कृपा बरसती है। समुद्र पार कर लंका में प्रवेश करने से पहले भगवान राम ने रामेश्वरम में भगवान शिव की स्थापना की और उनकी विधिवत पूजा की। फिर उन्होंने यह भी कहा-
शिव द्रोही मम दास कहावा।
सोई नर सपनेहुं मोहिं न पावा।।
यानी जो व्यक्ति शिव का विरोधी है और मुझसे प्रेम करता है, वह मुझे सपने में भी नहीं पा सकता। यानी भगवान राम या कृष्ण तक पहुंचने के लिए भगवान शिव की अराधना बहुत जरूरी है। आपने सुना ही होगा कि जिस व्यक्ति के जीवन पर खतरा आता है, वह महामृत्युंजय जाप कराता है। अगर उसे कोई घातक रोग हो गया हो या बार- बार वह दुर्घटनाओं का शिकार हो रहा हो तो उसे यह जाप कराने को कहा जाता है। यह जाप है क्या? सभी जानते हैं कि यह जाप भगवान शिव की अराधना है। तो शिव जी महामृत्युंजय भी हैं। और अगर शिव के सिद्ध साधक से पूछिए तो वह कहेगा- यह संपूर्ण जगत ही शिवमय है। इस पृथ्वी पर जो कुछ भी दिखाई देता है, वह शिव की महिमा के कारण ही है। इसके अलावा जो आपको नहीं दिखाई देता वह भी शिव की ही महिमा के कारण है। शिव साधना रहस्य में कहा गया है कि अगर आप संपूर्ण इंद्रिय, मन और बुद्धि के अलावा अहं और चित्त का समर्पण भगवान शिव के सामने कर दें तो वे आपका उद्धार कर देंगे। लेकिन इसके लिए संपूर्ण भक्ति की जरूरत है। मन कहीं न भटके, सिर्फ भगवान शिव में रमा रहे। धीरे- धीरे यह स्थिति हो कि आप और शिव मिल कर एक हो जाएं। आप न रहें, सिर्फ शिव ही शिव रहें। ऐसी स्थिति में आप शिव की कृपा पाएंगे। महाशिवरात्रि के दिन रात्रि जागरण और शिव मंत्र का जाप बहुत ही प्रभावकारी माना गया है। ऊं नमः शिवाय।

Saturday, February 21, 2009

शांति और आनंद के दाता शिव


विनय बिहारी सिंह

एक दिन बाद शिवरात्रि है। माना जाता है कि शिवरात्रि की रात जाग कर शिव जाप करने से वे प्रसन्न होते हैं। प्रसन्न हो कर क्या करेंगे। कहा जाता है- वे जीवन में शांति लाते हैं। हमें तनाव मुक्त करते हैं। शिव जी जिसको प्यार करते हैं, उसे किसी बात की चिंता करने की जरूरत नहीं। इसीलिए तो उन्हें औघड़ दानी कहते हैं। वे सिर्फ देना जानते हैं। देना और उद्धार करना। भगवान शिव तुरंत प्रसन्न होने वाले देवता हैं। वे ज्यादातर ध्यान मुद्रा में बैठे रहते हैं। लेकिन समूचे ब्रह्मांड की गतिविधियां उनकी जानकारी में रहती हैं। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है कि पुराणों में जिन्हें कृष्ण कहा गया है, तंत्रों में उन्हें ही शिव कहा गया है। वही परमब्रह्म हैं। चाहे कृष्ण कहें या शिव, चाहे काली कहें या दुर्गा। वही सृष्टि करने वाले, उसका पोषण करने वाले और अंत में संहार करने वाले हैं। ऋषियों ने कहा है कि जो पैदा होता है वह खत्म भी होता है। लेकिन जो सनातन है, वह कभी खत्म नहीं होता। ईश्वर के अलावा सब कुछ तो नश्वर है। और शिव जी तो वीतरागी हैं। एक मृगछाला पहने, शरीर में भभूत लगाए और ध्यान में बैठे हैं। न उन्हें अच्छा खाना चाहिए और न कपड़ा। हां, अगर समुद्र मंथन में भयंकर विष निकलता है तो उसे पीने के लिए वे तैयार हो जाते हैं। इसीलिए उनका नाम नीलकंठ है। राजा भगीरथ जब स्वर्ग से गंगा नदी को धरती पर ले आए तो उन्हें चिंता हुई कि आखिर गंगा का वेग रुकेगा कैसे? कहीं पूरी पृथ्वी की आबादी बह न जाए। उन्होंने शंकर भगवान से प्रार्थना की। उन्होंने गंगा के प्रचंड वेग को अपनी जटाऔं में उलझा दिया। वेग शांत हो गया। तब गंगा नदी स्वाभाविक गति से धरती पर बहने लगीं। भगवान शंकर के ही पुत्र हैं गणेश भगवान। वे सिद्धि विनायक हैं। कोई भी काम करने से पहले हम सब कुछ मंगलमय हो, इसके लिए गणेश जी की पूजा करते हैं। इस महाशिवरात्रि में क्यों न हम कुछ देर शांति से बैठ कर भगवान शिव का ध्यान करें और अपना मंगल तो चाहें ही, सबके मंगल की भी कामना करें।

Friday, February 20, 2009

अमरकंटक में एक दिव्य संत से भेंट


विनय बिहारी सिंह

मध्यप्रदेश के अमरकंटक में जिस दिव्य संत से भेंट हुई, उनका नाम है- बर्फानी दादा जी। उनके बारे में आप वेबसाइट पर भी प्रचुर सामग्री पाएंगे। फरवरी के दूसरे हफ्ते में उनसे मेरी भेंट हुई। उनसे भेंट कर मैं खुद को भाग्यशाली महसूस कर रहा हूं क्योंकि मैं तीन दिन तक उन्हीं के आश्रम में रहा। उनसे बातचीत करता रहा। हालांकि वे बहुत कम बोलते हैं। लेकिन उनके साथ मूक संवाद करना एक सुखद अनुभव था। सभी का कहना है कि दादा जी की उम्र २५० साल है। उनके गुरु भाई देवराहा बाबा और शिरडी के साईंबाबा थे। उनके इष्ट हैं हनुमान जी। उनकी खूबी यह है कि वे सभी जीव- जंतुओं के कल्याण की निरंतर कामना करते रहते हैं। उनके पास थोड़ी देर बैठ जाने पर प्रेम और भक्ति की धारा आपके भीतर से फूट पड़ती है। वे खुले हाथों से सबको आशीर्वाद बांटते हैं। आप अपनी कोई समस्या ले जाते हैं तो भी वे मुस्करा कर उसका निदान बता देते हैं। वे हनुमान चालीसा या दुर्गा चालीसा का पाठ करने की सलाह देते हैं। उनका कहना है भगवान से दिल लगाओ, शांति और आनंद मिलेगा। वे प्रेम की लहर छोड़ते रहते हैं। वे चुपचाप बैठे हैं और आप भी उनके पास चुपचाप बैठे हों तो कुछ बोलने की जरूरत नहीं है। उनके पास से प्रेम की धारा लगातार बहती रहती है। यह बात मैंने गहराई से महसूस की। वे सचमुच प्रेम की मूर्ति हैं। अपने जीवन में ऐसे पहुंचे हुए संत का दर्शन मैंने पहली बार किया। कम बोल कर भी आपके दिल प्रेम की लहर पैदा कर देना, एक चमत्कार की तरह ही तो है। उनकी मुस्कराहट भी प्रेम और आनंद की दिव्य लहर फेंकती है। वे देखने में साधारण तरीके के संत लगते हैं, पर उन्होंने ३२ साल तक कैलाश पर्वत पर तपस्या की है और जो सिद्धियां पाई हैं, उनकी तरफ वे ध्यान ही नहीं देते और न कोई चमत्कार दिखाते हैं। उनके करीब रहने वाले कुछ लोग कभी- कदा कुछ चमत्कार देख भी लेते हैं। लेकिन वे उसे प्रचारित करने से मना कर देते हैं। प्रचार से कोसों दूर रहना चाहते हैं बर्फानी बाबा। उनका तो बस एक ही कहना है- ईश्वर से प्रेम कीजिए। वे ही हमारे मालिक हैं। उनसे हुई भेंट मैं आजीवन नहीं भूल सकता। ऐसी प्रेम की धारा कहां मिलेगी? वह भी निस्वार्थ।

Wednesday, February 18, 2009

अमरकंटक में दुर्वासा ऋषि की गुफा


विनय बिहारी सिंह

अमरकंटक मध्य प्रदेश के अनूपपुर जिले में है। वहां कपिल मुनि का आश्रम तो है ही, वह गुफा भी है जिसमें दुर्वासा ऋषि ने तपस्या की थी। इसी जगह का नाम दूध धारा है। यहां नर्मदा एक पतली पहाड़ी नदी के रूप में है। उसका पानी जहां झरने जैसा गिरता है, दूध की तरह दिखता है। कपिल मुनि के आश्रम के पास नर्मदा नदी खूबसूरत झरने जैसी गिरती है। इसे कपिलधारा कहते हैं। यहां का दृश्य अत्यंत नयनाभिराम है। सचमुच अमरकंटक ऋषियों की तपस्या स्थली है। वहीं तीन दिन पहले दुर्वासा ऋषि की गुफा में भी मुझे जाने का मौका मिला। वहां एक शिवलिंग है, जिस पर न जाने कहां से लगातार बूंद- बूंद करके पानी गिरता रहता है। शायद नर्मदा नदी भगवान शिव की अराधना करती है। वहां से हटने की इच्छा नहीं हो रही थी। नर्मदा नदी के पवित्र जल में पैर धोकर मैं दुर्वासा ऋषि की गुफा में गया। वहां घनघोर शांति का अनुभव होता है। यूं तो दुर्वासा ऋषि क्रोधी के रूप में प्रसिद्ध हैं लेकिन उनकी गुफा में ऐसी शांति पा कर मुझे लगा कि कई बातें सुनी- सुनाई भी हैं। अगर उनमें क्रोध होता तो उनकी गुफा इतनी प्रेम और शांति के साथ वाइब्रेट कैसे होती। कपिल मुनि की तपस्या स्थली भी अत्यंत गहरी शांति से ओतप्रोत है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- सिद्धों में मैं कपिल मुनि हूं। सांख्य योग के जनक कपिल मुनि की तपस्या स्थली पर जाकर मैं खुद को अत्यंत भाग्यवान महसूस कर रहा था। वहां मधुमक्खियों के अनेक छत्ते बता रहे थे कि वहां भारी मात्रा में मधु है। सांसारिक मधु तो है ही, आध्यात्मिक मधु भी है। आप तनिक शांत होइए और जी भर कर पीजिए।

Friday, February 13, 2009

संकट के समय भगवान


विनय बिहारी सिंह

एक अत्यंत छात्रा को दसवीं कक्षा की परीक्षा देनी थी। उसे तो भोजन के ही लाले पड़े थे। फीस कहां से देती। साल भर की फीस बाकी थी। इसके अलावा एक जरूरी किताब भी खरीदनी थी। फार्म भरने की फीस भी देनी थी। कुल राशि करीब ५०० रुपए बैठ रही थी। यह लड़की के लिए पहाड़ जैसा धन था। उसके मां- बाप महीने में १० दिन मजदूरी करते तो किसी तरह पेट चल जाता था। लड़की ने सोचा अब तो वह परीक्षा में नहीं बैठ पाएगी। सारी तैयारी बेकार ही है। वह दिन रात भगवान को याद करने लगी- हे भगवान तुम्हीं इस संकट से उबार सकते हो। तुम्हीं मेरी नैया पार लगा सकते हो। क्या मैं परीक्षा में नहीं बैठ पाऊंगी? कुछ करो भगवान, मेरे ऊपर कृपा करो। जिस दिन सभीबच्चे प्रवेश पत्र लेने जा रहे थे, लड़की गुमसुम बैठी थी। तभी उसके घर एक अन्य लड़की आई और बोली- प्रवेश पत्र लेने चलोगी नहीं? वह बोली- मैं तो फीस जमा नहीं कर पाई। प्रवेश पत्र कैसे मिलेगा? उसे उसके घर आई लड़की ने बताया- तुम्हें पता नहीं है, शैलजा मैम ने तुम्हारी पूरी फीस भर दी है और तुम्हारे लिए एक सेकेंड हैंड पुस्तक भी उन्होंने ले रखी है। लड़की तो भौंचक रह गई। यह क्या? उसकी खुशी का पारावार नहीं रहा। वह तुरंत तैयार होकर उस लड़की के साथ स्कूल पहुंची। शैलजा मैम को ढूंढा। उसके कुछ बोलने के पहले ही शैलजा मैम बोलीं- कहां थी तुम। जाओ जल्दी प्रवेश पत्र ले लो। इस लड़की की आंखों में आंसू थे। उसने पूछा- आपने मेरी फीस भर दी मैम? मैम ने कहा- हां, तो क्या हुआ? लड़की ने पूछा- आपका बहुत रुपया खर्च हो गया न मैम? शैलजा मैम खिलखिला कर हंस पड़ीं और बोलीं- तो क्या हुआ? प्रिंसपल साहब ने कहा कि गरीबी के कारण एक लड़की का एक साल बरबाद हो जाएगा। मैं भी गरीबी का दुख जानती हूं। मैंने भी एक बार परीक्षा में नहीं बैठ पाई थी और तब कितना रोई थी। वह कहानी फिर दुहराई जाए, मैं नहीं चाहती। आखिर हम मनुष्य क्यों हैं?

Tuesday, February 10, 2009

सिर्फ हाथ फूल, अक्षत चढ़ाता है और दिमाग जहां- तहां घूमता है



विनय बिहारी सिंह


हममें से कई लोगों की पूजा बहुत मेकेनिकल यानी यांत्रिक होती है। जल चढ़ाया, फूल चढ़ाया, अक्षत अर्पण किया, अगरबत्ती दिखाई, घंटी बजाई और प्रणाम करके आफिस या कहीं और चलते बने। मन में यह पक्की धारणा बन गई कि हां, आज पूजा की। ज्यादातर लोग तो ऐसे ही करते हैं। कई लोग तो घड़ी भी देखते रहते हैं औऱ मंत्र वगैरह भी पढ़ते रहते हैं। मन में चलता रहता है कि अमुक अमुक काम करने हैं या यहां जाना है वहां जाना है वगैरह वगैरह। तो फिर यह पूजा कहां हुई? यह तो जैसे कोई औपचारिकता कर ली। भगवान तो तब भी खुश हो जाते हैं जब आप उन्हें प्यार से याद करते हैं। कथा है कि एक बार नारद मुनि ने भगवान से पूछा कि आपका सबसे बड़ा भक्त कौन है। भगवान ने कहा- तुम्हीं बताओ। नारद मुनि ने कहा- जंगल में एक साधु ४० वर्षों से साधना कर रहा है, वही होगा। भगवान ने कहा- नहीं। नारद मुनि ने पूछा तो फिर कौन है? उन्होंने बताया कि अमुक गांव में एक किसान है जो अभी हल जोत रहा है। वही मेरा सबसे बड़ा भक्त है। नारद मुनि हैरान रह गए। वे तत्काल धरती पर उस किसान के पास एक साधारण आदमी के वेश में पहुंचे। देखा वह हल जोत रहा है और नारायण, नारायण का जाप भी कर रहा है। और जाप भी कैसा। बिल्कुल सहज ढंग से। हल भी जोत रहा है और भगवन्नाम भी चल रहा है। नारद मुनि ने पूछा कि भाई, तुम पूजा- पाठ कुछ करते हो? किसान बोला- नहीं उस तरह तो पूजा नहीं करता जैसे और लोग करते हैं। पर हां मैं मानता हूं कि मैं ईश्वर में ही हूं। हर सांस उसी की कृपा से चल रही है। बल्कि मैं तो मानता हूं कि यह मेरी सांस नहीं है, खुद ईश्वर मेरी सांस के रूप मे चल रहे हैं। इसीलिए हमेशा नारायण नारायण कहता रहता हूं। लगता है उसके बिना मेरा जीवन अधूरा है। इसलिए काम करते हुए, सोते, उठते, बैठते, हल पल हर क्षण बस उसी के बारे में सोचता रहता हूं। नारद मुनि उस जंगल के साधु के पास गए। पूछा- आप किस तरह साधना कर रहे हैं? भगवान के दर्शन हुए? साधु बोले- वही तो मैं भी सोच रहा हूं। रोज सोचता हूं कि आज भगवान दर्शन देंगे। लेकिन देते नहीं हैं। अब लगता है भगवान है ही नहीं। अगर इतने दिनों बाद दर्शन नहीं दिया तो शायद उनका कोई अस्तित्व नहीं हो। नारद मुनि ने पूछा- क्या ईश्वर के अस्तित्व पर आपको शुरू से ही शक था? साधु बोले- हां। मैंने सोचा कि साधना करके देखें, अगर ईश्वर हैं तो दर्शन देंगे। पर लगता है ईश्वर नहीं है। ़ नारद मुनि भगवान के पास पहुंचे। बोले- आपने बिल्कुल ठीक कहा। सच्चा भक्त तो वह किसान ही है। उसे यह परवाह नहीं कि आप दर्शन देंगे या नहीं। बस आपके चिंतन में वह दीवाना है। इधर वह ४० साल से साधना कर रहा साधु पहले दिन से ही शक मे है कि पता नहीं ईश्वर है भी या नहीं। होगा तो दर्शन देगा। यह अधूरी श्रद्धा तो उसे कहीं नहीं ले जाएगी। हर काम के लिए पूरा कंसंट्रेशन चाहिए। पूरी एकाग्रता चाहिए। यह उस किसान में है। वह तो यह मानता है कि सांस के रूप में भी ईश्वर ही हैं। भगवान उत्तर दिया- मैं उसे रोज दर्शन देता हूं। लेकिन मैंने मना किया है कि वह किसी को बताए नहीं। इसीलिए उसने आपको नहीं बताया।

Sunday, February 8, 2009

पूतना वध

विनय बिहारी सिंह


जब कंस को लगा कि कृष्ण का वध मुश्किल है तो उसने बहुत ही मायावी मानी जाने वाली राक्षसी पूतना को बुलाया और कृष्ण वध का आदेश दिया। पूतना की तारीफ भी की। वह अद्भुत मायाविनी थी। कोई भी वेश धर सकती थी। जब सुंदर स्त्री का रूप धरती थी तो बड़े- बड़े बुद्धिमान उस उस पर मोहित हो जाते थे। जब वह मथुरा से गोकुल में गई तो उसने. गोपी का रूप बना लिया। उस समय उसके चेहरे पर अद्भुत प्यार छलक रहा था। उसने सबको मायावी जादू की गिरफ्त में ले लिया। कुछ संतों का तो कहना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने खुद ही सबका दिमाग लापरवाह बना दिया क्योंकि उन्हें पूतना क मौका देना था। तो पूतना ने कृष्ण को गोद में ले लिया और चुपके से पास के पहाड़ पर ले गई। उसने पहले से ही अपने स्तनों पर जहर लगा रखा था।
भगवान कृष्ण प्रेम से दूध पीने लगे। कथा है कि उन्होंने पूतना का
दूध तो पीया ही उसके साथ उसकी जीवनी शक्ति भी पी ली। कंस ने पूतना के मरने की खबर सुनी तो सन्न रह गया। उसने अपने करीबी मंत्रियों से कहा कि कृष्ण भी बहुत मायावी है। लेकिन उसकी माया की काट हमारे पास है। अनंत कोटि ब्रम्हांड के सावामी को भी उसने चुनौती दी। आखिरकार वह मारा गया। लेकिन पूतना को और कृष्ण को भी बैकुंठ धाम मिला। वजह? स्वयं भगवान के हातों ये दोनों मरकर बैकुंठ के अधिकारी हो गए। जिसके लिए बडे- बडे संत तरसते हैं। क्यों? भगवान कृपालु हैं। वे करुणा के सागर हैं। उन्हें चाहे मित्र के भाव से याद कीिजए या शत्रु के, वे आपको बहुत प्यार करते हैं। एसी करुणा कहां मिलेगी? यह लीला उन्होंने हम सबको सीख देने के लिए की। प्रेम का कोई विकल्प नहीं है। और प्रेम जितनी ताकत भी किसी चीज में नहीं है। बशर्ते वह प्पेम निस्वार्थ हो।

Friday, February 6, 2009

केवट ने राम से कहा- पारिश्रमिक नहीं लूंगा



विनय बिहारी सिंह


जब भगवान राम वनवास के लिए जा रहे थे तो रास्ते में एक नदी पड़ी। वहां मौजूद केवट तो धन्य हो गया। धन तो उसने बहुत कमाया था। आज वह चीज मिलने वाली थी, जिसके लिए बड़े- बड़े संत तरसते हैं। केवट राम जी को देख कर निहाल था। उन्हें स्पर्श कैसे करे? आमतौर पर होता है कि बड़ा आदमी नाव पर बैठता है और केवट चप्पू चला कर पार उतार देता है। लेकिन यहां तो केवट चरण स्पर्श का सुख चाहता था। उसने कहा- मैंने सुना है, आपका स्पर्श पाते ही पत्थर भी स्त्री बन जाता है। कहीं मेरी नाव भी स्त्री न बन जाए। इसलिए इसे मैं पवित्र जल से धो देना चाहता हूं। भगवान राम मुस्कराए। वे उसकी चालाकी समझ रहे थे। लेकिन केवट तो प्रेम में रोए जा रहा था। उसने जी भर कर चरण धोए। चरणामृत अपने परिजनों को दिया और नदी पार करा दी। लेकिन जब पार उतारने का पारिश्रमिक देने की बात आई तो उसने कहा कि एक ही पेशे के लोग एक दूसरे से पारिश्रमिक नहीं लेते। राम जी ने कहा- तुम्हारा औऱ मेरा पेशा एक कैसे है? केवट बोला- मैं बताता हूं। मैं नदी पार कराता हूं और आप भक्तों को भवसागर पार कराते हैं। मैं आपसे पारिश्रमिक नहीं लूंगा। राम जी ने सीता जी को इशारा किया। उनके पास एक स्वर्ण आभूषण था। सीता जी ने उसे केवट को देना चाहा। लेकिन जब अनंत कोटि ब्रह्मांड के स्वामी खुद सामने खड़े हों तो धन की क्या कीमत? केवट ने पारिश्रमिक लेने से ही इंकार कर दिया। बस इतना ही कहा- अगर देना ही है तो यह वचन दीजिए कि आप मेरे दिल से कभी नहीं निकलेंगे औऱ आपकी कृपा हमेशा मुझ पर और मेरे परिवार पर बनी रहेगी। राम जी ने मुस्करा कर यह वचन दे दिया। यहां जीसस क्राइस्ट की बात भी याद आती है। उन्होंने कहा था- सीक ये द किंगडम आफ गाड, द रेस्ट थिंग्स विल कम अन टू यू। पहले ईश्वर के साम्राज्य को प्राप्त करो, बाकी चीजें अपने आप तुम्हारे पास चली आएंगी। जो तुमने नहीं चाहा था, वो भी। केवट को और क्या चाहिए था। जब ईश्वर की ही कृपा मिल गई तो बाकी चीजों का वह क्या करेगा? धन की मांग करना तो ऐसे ही होता जैसे कोई बहुत बड़ा सम्राट पूछे कि तुम्हें क्या चाहिए। और जवाब में कोई कहे- एक किलो आलू। जहां अनंत कोटि ब्रह्मांड के स्वामी की कृपा है, वहां कुछ भी मांगना हास्यास्पद है।

Wednesday, February 4, 2009

भगवान राम तात्विक स्वरूप

विनय बिहारी सिंह

सीता जी की खोज में जब भगवान राम वन में भटक रहे थे और हा सीते, हा सीते कर रहे थे तो माता पार्वती ने भगवान शंकर से पूछा कि आप तो भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम और सबका आराध्य कहते हैं। लेकिन वे तो पत्नी के लिए इतने व्याकुल हैं जैसे कोई सामान्य व्यक्ति। फिर इनका ईश्वरीय स्वरूप कहां बिला गया? भगवान शंकर ने कहा कि यह उनकी मनुष्य अवतार की लीला है। अगर मनुष्य में जन्म लिया है तो पीड़ा, दुख, सुख औऱ वे सभी भाव तो दिखाने पड़ेंगे जो एक मनुष्य में होती हैं। लेकिन वे यह सब नाटक के रूप में कर रहे हैं। भगवान शंकर ने कहा कि अगर विश्वास न हो तो तुम खुद परीक्षा ले लो। मां पार्वती ने हू- ब- हू सीता का रूप धरा और सीधे राम के सामने खड़ी हो गईं। भगवान राम ने पूछा- मां, पार्वती आप यहां क्यों खड़ी हैं? शंकर जी कहां हैं। कथा है कि मां पार्वती लज्जित हो गईँ। अब आइए तात्विक चर्चा पर। मां सीता स्वयंवर में जाने के पहले मां पार्वती के ही मंदिर में प्रार्थना करने गई थीं कि राम से मेरा विवाह हो जाए। वही मां पार्वती भगवान राम की परीक्षा लेने कैसे पहुंच गईं? वे तो सर्वदर्शी हैं। संतों ने इसकी बहुत रोचक व्याख्या की है। रामचरितमानस में ये घटनाएं या कथाएं सामान्य पाठक के दिल में राम तत्व उतारने के लिए लिखी गई हैं। राम ने अपनी चेतना खोई नहीं थी। सीता जी के अपहरण के बाद भी वे चैतन्य थे। उधर रावण से उसकी पत्नी मंदोदरी लगातार प्रार्थना कर रही थी कि राम साधारण व्यक्ति नहीं हैं। वे ईश्वर के अवतार हैं। राम से संधि कर लीजिए। लेकिन रावण में अपने बल का अभिमान था। भगवान राम को दिखाना था कि चाहे कोई कितना भी बलशाली हो जाए- वह सर्वोच्च शक्ति के सामने बौना ही है। रावण, और उसके बेटों, भाइयों की मायावी ताकतें सर्वोच्च सत्ता के सामने जल कर राख हो गईं। सत्य तो ईश्वर ही है।

Sunday, February 1, 2009

सब कुछ बदल जाएगा, सिवाय ईश्वर के

विनय बिहारी सिंह

बात अठारहवीं शताब्दी की है। बहुत दिनों से एक व्यक्ति को एक संत से मिलने की इच्छा थी। वे काफी दूर रहते थे। अपने कामकाज में बहुत ज्यादा व्यस्त होने के कारण इस व्यक्ति को मौका ही नहीं मिल पाता था कि वह यात्रा का समय निकाले। संयोग से पांच साल बाद उसे यह मौका मिल ही गया। उसे व्यवसाय के सिलसिले में उसी इलाके में जाना था। वह संत से मिला। उसे बहुत सुकून मिला। जब वह चलने लगा तो संत ने उसे एक कागज पर कुछ लिख कर दिया औऱ कहा- जब भी तुम किसी अच्छे या बुरे अनुभव से गुजरो, इसे पढ़ लेना लेकिन इसके पहले इस कागज को मत पढ़ना। संत से ऐसा उपहार पाकर वह बहुत खुश हुआ। गरीब छात्रों को छात्रवृत्ति देने की पहल के लिए एक बार उसका नगर में सम्मान हुआ। फूल- मालाओं उसे लाद दिया गया। उसकी तारीफ में बहुत कुछ कहा गया। वह तो आनंद में हिलोरें ले रहा था। तभी उसे संत की बात याद आई। वह उनका दिया कागज हमेशा रखता था। उसने कागज खोल कर देखा। उस पर लिखा था- यह भी बीत जाएगा। उसे लगा- अरे हां। यह सुख भी तो क्षणिक ही है। तब उसने अपने सम्मान को बहुत साधारण घटना माना और खुश हुआ कि उसे इस बात का चैतन्य हुआ। संत ने कहा था कि इस दुनिया में सब कुछ परिवर्तनशील है, बदलने वाला है. सिर्फ एक ही शक्ति अपरिवर्तनशील या स्थाई है- वह है हमारा परमपिता यानी ईश्वर। उस व्यक्ति को यह सब याद आया। कुछ दिन बीत गए। अचानक एक समारोह में भोजन करने के कारण उसे फूड प्वाइजनिंग हो गई। उसके पेट में भयानक दर्द हुआ। डाक्टरों ने उसे अस्पताल में भर्ती कराने की सलाह दी। घंटे भर बाद उसे कै हुई और तब उसे राहत मिली। वह अभी अस्पताल में ही था कि उसे खबर मिली कि उसके बेटे को अफीम रखने के जुर्म में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है और डर है कि उस पर ऐसा मामला दर्ज होगा कि वह जीवन भर जेल में सड़ जाएगा। उसे बड़ा दुख हुआ। तभी फिर उसने संत का दिया हुआ कागज पढ़ा। उस पर वही लिखा हुआ था- यह भी बीत जाएगा। पढ़ कर उसे बड़ी राहत मिली। उसे लगा- हां, वह फिर स्वस्थ हो जाएगा और उसका बेटा अगर निर्दोष है तो छूट जाएगा। वही हुआ। यह व्यक्ति कुछ ही दिनों में पूरी तरह स्वस्थ हो गया और उसका बेटा भी छूट गया। जीवन में न सुख से अपने को भूल जाना चाहिए और दुख से बेहाल हो जाना चाहिए। गीता में तो कहा ही है- सुखदुखे समे कृत्वा...। सुख और दुख में संतुलित रहें। इसका मतलब यह नहीं कि हमें खुश नहीं होना चाहिए। खुश होना तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। यहां कहने का मतलब है कि हम लोग खुशी से तो फूले नहीं समाते औऱ दुख में तुरंत टूट जाते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। संतुलन जरूरी है।