Thursday, February 26, 2009

भगवान शिव की नृत्य मुद्रा




विनय बिहारी सिंह


भगवान शिव की नृत्य मुद्रा को नटराज कहते हैं। उनके बाएं हाथ में डमरू और अग्नि है और दायां एक हाथ आशिर्वाद दे रहा है और दूसरा हाथ अभय दान कर रहा है। शिव जी का एक पैर ऊपर उठा है और दूसरा जमीन पर है। उनका डमरू ऊं शब्द का प्रतीक है तो आग ब्रह्माग्नि है। कुछ चित्रों में डमरू की जगह सांप है, जो इस बात का प्रतीक है कि कुंडलिनी भगवान शिव ही नियंत्रित कर रहे हैं। उनका वह पैर जो जमीन पर है, एक दैत्य को दबाए हुए है। यानी नकारात्मक प्रवृत्तियों पर अंकुश है। शिव जी का जो पैर उठा हुआ है, वह संसार से वैराग्य का प्रतीक है> ऊं के साथ शिव जी का नृत्य ब्रह्म में लीन करा देता है। जैसे ध्यान मन का ईश्वर में लय है उसी तरह शिव जी का ब्रह्म नृत्य ईश्वर से साक्षात्कार कराने वाला है। शिव नृत्य को महसूस कराने वाले वाद्य यंत्र जब बजते हैं तो उसकी ध्वनियां आपको बताती हैं कि सृष्टि का प्रारंभ, पोषण और लय का स्पंदन क्या और कैसे होता होगा। हालांकि ये ध्वनियां मनुष्य पैदा करके एक आभास मात्र देने की कोशिश करता है। असली ध्वनि कैसी है यह तो योगी ही बता सकते हैं। जो योग में सिद्ध हो, वही योगी है। योग किसके साथ? उत्तर है- ईश्वर के साथ। संतों ने कहा है- हम कितनी सांसें लेंगे, यह भी ईश्वर ने तय कर रखा है। हमारे जीवन में कुछ भी आकस्मिक नहीं है। हमें भले लगता है कि यह घटना अचानक हो गई, लेकिन सब कुछ पहले से तय है। हम चूंकि संसार में इतने लिप्त हो जाते हैं कि काल का पता नहीं चलता। जो चीजें घटती हैं, वे आकस्मिक सी लगती हैं। संतों ने इसीलिए तो कहा है कि ईश्वर का नाम जप भी हो तो आप धीरे धीरे संकटों से मुक्त हो जाएंगे। और वे लोग तो धन्य हैं जो नियम से हर रोज शुद्ध मन से ईश्वर का नाम जपते हैं। अगर हम हर रोज सुबह शाम १० मिनट भी ईश्वर के नाम का जाप करें तो क्या से क्या हो जाएगा। वरना संसार के जंजाल में जितने भीतर जाएंगे, उतने ही कष्ट भोगेंगे। संसार में रह कर ईश्वर के प्रति समर्पण के लिए ही हमारा जन्म मनुष्य योनि में हुआ है। रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि मनुष्य का जन्म इसलिए हुआ है ताकि वह ईश्वर को जान सके। जो इस प्रयत्न में लगे हुए हैं, वे धन्य हैं।