Saturday, January 30, 2010

हम हैं ही क्या, पानी के बुलबुले

विनय बिहारी सिंह

मनुष्य को आखिर किस बात का अहंकार रहता है? न तो उसके हाथ में जन्म लेना है और न ही मृत्यु। वह तो ईश्वर के हाथ की कठपुतली है। ऐसे अनेक लोग मिल जाएंगे जो हुंकार के साथ कहते हैं कि अमुक काम उन्होंने किया। लेकिन क्या यह सच है? काम तो सब ईश्वर करता है, लेकिन नाम हमारा होता है। इसीलिए तो बंगाल के विख्यात काली भक्त रामप्रसाद ने गीत लिखा- तुमार काज तुमी करो, लोके बोले करी आमी।। यानी मां, तुम्हारा काम तुम ही करती हो, लेकिन लोग कहते हैं कि मैं कर रहा हूं। रामप्रसाद कहते थे कि यह ब्रह्मांड जगन्माता चला रही हैं। वे खुद को छुपाए रखती हैं। उनमें अहंकार नहीं है, अन्यथा वे छुपती ही क्यों? लेकिन साढ़े तीन हाथ का मनुष्य इतना अहंकारी है कि वह छोटा से छोटा काम भी- मैंने किया, मैंने किया कह कर संतुष्टि पाता है। रामकृष्ण परमहंस खुद को मैं नहीं कहते थे। वे अपना शरीर दिखा कर कहते थे कि यहां। मैं के बदले वे यहां कहते थे। जैसे- मान लीजिए उन्हें कहना है कि मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। तो वे कहते थे- यहां इस बात को कोई फर्क नही पड़ता। जब पूछा जाता था कि वे मैं शब्द का इस्तेमाल क्यों नहीं करते तो वे कहते थे, मैं तो कुछ करता नहीं, मैं रथ हूं, ईश्वर रथी हैं। मैं यंत्र हूं और ईश्वर यंत्री हैं। वे कहते थे- मैं कहने से तो अहंकार होता है। इसलिए इस मैं को ही खत्म कर दिया जाए। सामान्य व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता, लेकिन मैं के भाव से ऊपर तो उठ ही सकता है। यह तो सोच ही सकता है कि मनुष्य ईश्वर के अधीन है। उसकी अपनी कोई सत्ता नहीं है। इसलिए अगर हमारे जीवन में कुछ अच्छा हो रहा है या हुआ है तो इसे ईश्वर की कृपा ही मानें। इसके लिए ईश्वर का धन्यवाद करें। अहंकार से तो कुछ मिलने वाला नहीं है। जो अनंत कोटि ब्रह्मांड चला रहा है, उसके सामने हम हैं ही क्या? लेकिन ईश्वर की कृपा देखिए कि सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वग्य होकर भी ईश्वर हमसे कितना प्यार करते हैं। वे हमारा प्यार पाने के लिए कितना व्याकुल रहते हैं। इसकी वजह क्या है? वजह सिर्फ एक ही है- हम उनकी संतान हैं। हमें बस उनकी शरण में जाना है। एक बार उनसे अटूट संबंध बन जाए तो बस किसी बात की चिंता नहीं है। यानी प्रेम ही वह तरीका है जिससे हम भगवान को जीत सकते हैं। यह प्रेम कैसा हो? यह प्रेम बिल्कुल निर्मल, दिव्य और श्रद्धा में पगा हो। कहीं भगवान का नाम सुन लिया तो मन में प्रेम की हिलोरें मारने लगें। यही लक्षण है प्रेम का। असली प्रेम तो सिर्फ ईश्वर से ही हो सकता है क्योंकि वही हमारे माता, पिता, बंधु या सखा और ग्यान हैं। वे नहीं तो यह संसार कैसे अच्छा लगेगा? ईश्वर हैं तो सबकुछ है। बिना ईश्वर के जो जीते हैं, वे कैसे जीते होंगे, सोच कर आश्चर्य होता है।

Friday, January 29, 2010

क्या आपका मन शांत नहीं रहता?

विनय बिहारी सिंह

कल एक सन्यासी से मैं पुस्तक मेले में उपलब्ध आध्यात्मिक पुस्तकों की उपलब्धता पर बात कर रहा था। अचानक एक सज्जन महिला आईं और उन्होंने कहा कि उनके मन से घृणा निकल ही नहीं रही है। सन्यासी ने कहा- उस घृणा को प्यार से बदल दीजिए। जो व्यक्ति आपसे घृणा कर रहा है या आप जिससे घृणा कर रही हैं उसे प्यार करने लगिए। सुनने में आपको अजीब लगेगा लेकिन एक बार आप ऐसा करके तो देखिए। यही काम अपने शत्रु के प्रति भी कीजिए। कोई आपका शत्रु है, लेकिन आप मन से उस व्यक्ति को प्यार का स्पंदन भेजिए। यह बहुत कठिन है लेकिन असंभव नहीं है। आप इसका परिणाम देख कर चकित रह जाएंगे। यह चमत्कार है। आप उस आदमी के पास जाकर मत कहिए कि मैं आपसे प्यार करती हूं। कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है। बस आप मन में उस व्यक्ति के प्रति प्यार पैदा कीजिए। जब प्यार पैदा होने लगे तो अपना वह स्पंदन उसे भेजते रहिए। महिला संतुष्ट हुईं। इसके बाद महिला का अगला सवाल था- मन शांत कैसे हो? हमेशा अशांत रहता है। यह भी जेनुइन सवाल था। सन्यासी बोले- पहले खोजिए कि मन किस बात पर अशांत रहता है। उसे नोट करिए। उस कारण को खत्म करने की कोशिश कीजिए। तब महिला ने प्रश्न किया- अगर कारण पकड़ में आ जाए औऱ मैं उसे खत्म करने में असमर्थ होऊं तो क्या करना चाहिए। सन्यासी ने कहा- आप अपनी तरफ से ईमानदार कोशिश कीजिए कि मन जिन कारणों से अशांत है, वे खत्म हो जाएं। लेकिन जब आपकी अथक कोशिश से भी कुछ नहीं हो रहा है तो बस उसे आप ईश्वर पर छोड़ दीजिए। ईश्वर सिर्फ यही देखते हैं कि आप ईमानदारी से कोशिश कर रहे हैं कि नहीं। एक बार उन्हें पता चल जाए कि आप उनसे प्रेम करते हैं और अशांति के कारणों को खत्म करना चाहते हैं तो वह आपकी मदद करेगा। मां भी बच्चों को तभी कुछ खाने को देती है जब वे मांगते हैं। आप भी श्रद्धा और भक्ति के साथ ईश्वर से प्रार्थना कीजिए कि हे प्रभो, मेरी समस्या का समाधान कीजिए। मैं तो कोशिश करके थक गया। अगर आपकी पुकार दिल से निकल रही है तो ईश्वर उसे जरूर पूरी करेंगे। लेकिन कई लोग काम हो जाने के बाद ईश्वर को भूल ही जाते हैं। हम उस ईश्वर को कैसे भूल सकते हैं जिसने हमें इस पृथ्वी पर पाठ सीखने के लिए भेजा। यह जानने के लिए भेजा कि हम नाहक सांसारिक लालच और प्रपंच में फंसे रहते हैं। एक चीज मिलती है तो दूसरी के लिए ललक बढ़ती है। दूसरी मिलती है तो तीसरी के लिए मन छटपटाने लगता है। लेकिन कभी ईश्वर को पाने के लिए मन तो नहीं छटपटाता? साड़ी के लिए, पैंट और शर्ट के लिए, अच्छे से अच्छे भोजन के लिए मन छटपटाता रहता है। कई लोग तो पूजा करते वक्त भी यही सोचते रहते हैं कि भोजन में क्या बना है। कई लोग ध्यान करते हुए सोचने लगते हैं कि बाजार से क्या लाना है। या अमुक काम कैसे होगा। कई लोग तो यह भी कहते हैं कि ध्यान करते वक्त ऐसी बातें याद आने लगती हैं जो भूल चुके हैं। लेकिन उस दौरान अपनी चेतना ईश्वर में लय करनी होती है। सोचना कुछ नहीं है, बस अनुभव करना है। ईश्वर में लय होना है और ईश्वर आनंद से ओतप्रोत होना है। ईश्वर तो शरीर मन, बुद्धि, अहं से अलग हैं। इसलिए तरह तरह की बातें सोचना क्यों? इस चिंतन से तो कोई लाभ नहीं होने वाला? लेकिन ध्यान से अपार लाभ होगा। मन शांत रहेगा और ईश्वर की कृपा बरसेगी।

Wednesday, January 27, 2010

सब कुछ ब्रह्म ही है

विनय बिहारी सिंह

ऋषियों ने कहा है कि सर्वं खल्विदं ब्रह्मं यानी सब कुछ ब्रह्म ही है। ऋषियों ने यह भी कहा है- एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति यानी इस ब्रह्मांड में केवल और केवल ब्रह्म ही है। यह बात कितनी सटीक लगती है। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि मैं मनुष्य के हृदय में हूं। तब एक नए साधक ने उच्च कोटि के सन्यासी से प्रश्न किया कि अगर ईश्वर मनुष्य के हृदय में है तो वह महसूस क्यों नहीं होता? सन्यासी ने कहा- जिस मनुष्य के हृदय में वासनाओं, कामनाओं का आधिपत्य रहेगा, उसे ईश्वर की उपस्थिति कैसे जान पड़ेगी? आप जानते हैं कि अत्यंत तली- भुनी और गाढ़े मसाले में बनाई गई सब्जी या पकवान स्वास्थ्य के लिए घातक है। लेकिन चूंकि यह पकवान स्वादिष्ट लगता है, इसलिए अनेक लोग स्वास्थ्य की अनदेखी करते हैं। उनका रवैया यही रहता है कि अच्छा देखा जाएगा, फिलहाल तो खा लेते हैं। इसी तरह दिन पर दिन बीतते जाते हैं और जीवन के कई साल बीत जाते हैं क्योंकि चटपटा और खूब तले- भुने भोजन या जलपान के बिना उन्हें लगता है जीवन फीका पड़ गया। लेकिन जब इसी कारण तमाम तरह की गड़बड़ियां पैदा होने लगती हैं तो डाक्टर के पास दौड़ा- दौड़ी शुरू हो जाती है। इसी तरह हम जानते हैं कि हमारे हृदय में ईश्वर है, लेकिन हमारी वासनाएं, कामनाएं इतनी प्रबल होती हैं कि सोचते हैं कि पहले इसे पूरा कर लें, भगवान को बाद में महसूस करेंगे। भगवान को महसूस करने के लिए तो शांति चाहिए। मन शांत रहता है क्या? यह प्रश्न पूछिए तो ज्यादातर लोग कहते हैं कि नहीं। मन स्थिर रखना ही अनेक लोगों के लिए एक समस्या है। तो मन क्यों चंचल रहता है? इसका वे उत्तर नहीं दे पाते। कई लोग कहते हैं- पता नहीं। दरअसल मन की गति की तरफ हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया है। ध्यान देंगे और उसकी गतिविधि जानेंगे तब तो उसे नियंत्रण में करेंगे? इसीलिए हमारे ऋषियों ने कहा है कि पहले शांत हो जाओ। फिर सोचो कि इस दुनिया में हम क्यों आए? यह संसार किसने बनाया? यह इतने व्यवस्थित ढंग से कैसे चल रहा है। न हमारी कोई ऊंगली छोटी होती है न बड़ी। न दिन और रात में कोई व्यतिक्रम होता है। न सूर्य के उगने और अस्त होने में कोई व्यतिक्रम होता है। आखिर यह व्यवस्था करता कौन है? मनुष्य के प्राणों पर किसका नियंत्रण है? तब समझ में आता है कि अरे हां, सब कुछ तो ईश्वर के अधीन है। हम तो उसकी कठपुतली हैं। सर्वं खल्विंद ब्रह्म या एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति। पुराने जमाने में ऋषि- मुनि घनघोर जंगलों में तपस्या करते रहते थे, साधना करते रहते थे। उन्हें हिंस्र पशुओं की चिंता नहीं रहती थी। बाघ- भालू का भय नहीं रहता था। आज तो लोग रात में निकलने से भी इसलिए डरते हैं कि बाघ- भालू भले न हों, मनुष्य रूपी राक्षस हमला कर देंगे। नर्मदा परिक्रमा करने वाले तो आज भी कहते हैं कि रास्ते के जंगलों में बाघ- भालू और जहरीले सांप- बिच्छू रहते हैं लेकिन वहां साधु निर्भय हो कर रहते हैं। यह अठारहवीं शताब्दी की घटना है। एक बार परमहंस योगानंद जी के गुरु स्वामी श्री युक्तेश्वर जी पुरी (ओड़ीशा) के अपने आश्रम के बाहर अपने शिष्यों के साथ बैठे हुए थे तभी पास की झाड़ी से एक सांप फुंफकारते हुए उनकी तरफ तेजी से आया। स्वामी श्री युक्तेश्वर जी उसे देख कर ताली बजाने लगे। ज्योंही सांप पास आया- वह बिल्कुल शांत हो गया और दूसरी तरफ मुड़ गया। वहां बैठे शिष्यों ने राहत की सांस ली। स्वामी श्री युक्तेश्वर जी ने बताया- हर प्राणी प्यार के वश में आ जाता है। उन्होंन उस सांप के पास प्यार का ताकतवर वाइब्रेशन भेजा। वह वश में आ गया। स्वामी श्री युक्तेश्वर जी का कहना था- इस ब्रह्मांड में हर प्राणी को रहने का अधिकार है। इसलिए हर प्राणी से प्यार करना चाहिए। आखिर हर प्राणी ब्रह्म का रूप है। यह है ऋषियों की वाणी। हम इससे अगर थोड़ी भी सीख लेते हैं तो हमें सुख मिलेगा।

Saturday, January 23, 2010

रमण महर्षि कहते थे- खुद से पूछो कि मैं कौन हूं

विनय बिहारी सिंह

रमण महर्षि को उनके भक्त भगवान कहते थे। यूरोप के लेखक पाल ब्रंटन ने जब उनके बारे में सुना तो भारत पहुंचे और रमण महर्षि के आश्रम में पहुंच गए। वहां रमण महर्षि से मिलते ही चकित रह गए। वे अद्भुत संत थे। एकदम शांत। ज्यादा बातचीत नहीं करते थे लेकिन उनके मौन में ही गहरी शांति रहती थी। पाल ब्रंटन ने उन पर किताब लिखी और वह पुस्तक विश्व विख्यात हो गई। फिर तो विश्व भर के लोग उनके पास आने लगे। जब लोगों को उन्होंने आभास दे दिया कि वे अपना शरीर छोड़ने वाले हैं तो उनके भक्त व्याकुल हो गए। ऐसा सरल और उच्चकोटि का संत अब वे कहां पाएंगे। भक्तों की एक टोली ने रोते हुए उनसे पूछा- भगवान, आपके जाने के बाद हम कैसे रह पाएंगे? रमण महर्षि ने कहा- मैं कहां जाऊंगा? मैं तो यहीं बना रहूंगा। यह वाक्य उनके भक्तों का सूत्र वाक्य बन गया। आज भी उनके वेबसाइट पर जाइए- यह वाक्य लिखा मिलेगा कि मैं कहां जाऊंगा। मैं तो यहीं रहूंगा। भक्तों को उनकी बातें सुन कर संतोष हुआ। रमण महर्षि ने संकेत दिया कि मृत्यु के बाद वे शरीर में तो नहीं रहेंगे, लेकिन उन सबके संपर्क में जरूर रहेंगे। उनकी मृत्यु के अनेक वर्ष हो गए लेकिन आज भी उनके भक्त कहते हैं कि भगवान (रमण महर्षि) उनके संपर्क में हैं। परमहंस योगानंद जी ने सन १९३६ में रमण महर्षि से मुलाकात की थी। यह भी अविस्मरणीय मुलाकात थी। परमहंस जी और रमण महर्षि दोनों उच्च कोटि के सन्यासी। रमण महर्षि से एक युवक ने कहा- मैं ध्यान करना चाहता हूं लेकिन मेरा मन थोड़ी देर भगवान में लगने के बाद उछल- कूद करने लगता है। क्या करूं? रमण महर्षि ने कहा- ईश्वर को जोर से पकड़े रहो। युवक ने कहा- पकड़े तो रहता हूं लेकिन ईश्वर हाथ से छूट जाते हैं और संसार की बातें मुझे घेर लेती हैं। रमण महर्षि हंसते हुए बोले- जब तक भगवान को पकड़े रहोगे, संसार की बातें तुम्हारे दिमाग में नहीं आएंगी। युवक ने कहा- मैं तो कोशिश करता ही हूं। रमण महर्षि ने कहा- तुम हार मत मानो। डटे रहो। तुम्हारा दिमाग तुम्हारा कहना मानने लगेगा। विल पावर को मजबूत करो। कमजोर को हर कोई परेशान करता है। लेकिन मजबूत को नहीं। मजबूत बनो। तब उस युवक की समझ में आ गया कि परेशान होने की जरूरत नहीं है। उत्साह के साथ प्रयास जारी रखना होगा। तब ईश्वर प्राप्त होंगे। रमण महर्षि और अन्य ऋषियों ने कहा है कि ईमानदारी से ध्यान करने वाले की मदद भगवान जरूर करते हैं। लेकिन जो लोग ध्यान करके तुरंत उसका फल चाहते हैं, उन्हें कुछ नहीं हासिल होने वाला है। वे लोग तो रिजल्ट चाहते हैं। भगवान के साथ प्यार में रिजल्ट की उम्मीद करने की जरूरत ही नहीं है। भगवान अंतर्यामी हैं और यह भी जानते हैं कि जो व्यक्ति उन्हें प्यार कर रहा है उसकी जरूरतें क्या हैं। वे अगर उचित समझते हैं तो उसे पूरा करते हैं। सबसे खराब से संशय। ईश्वर को लेकर संशय क्या है? फिर भी लोग ईश्वर को लेकर और रमण महर्षि या परमहंस योगानंद जी जैसे सन्यासियों की बातों के प्रति शंका करते हैं। रमण महर्षि ने कहा है- गाड हिमसेल्फ कम्स एज अ गुरु। यानी ईश्वर ही गुरु बन कर आते हैं। गीता में है- संशयात्मा विनश्ति। संशय करने वाला नष्ट हो जाता है। ईश्वर को लेकर अगर कोई संशय करता है तो यह आश्चर्य की ही बात है। रमण महर्षि यह भी कहा है- ईश्वर के प्रति पूर्ण शरणागति होनी चाहिए। यानी हे ईश्वर तुम्हीं सब कुछ हो, मैं कुछ नहीं। मेरी औकात ही क्या है। मैं तो तुम्हारे ऊपर आश्रित हूं। कृपा कीजिए भगवन। बस, इसी भाव से बढ़ते रहिए। आपको ईश्वरीय आनंद मिलता जाएगा।

Thursday, January 21, 2010

देह की यही नियति है

विनय बिहारी सिंह

पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु की देह डीप फ्रीजर में रखी गई है। इसके पहले कई रसायनों से उसे सिंचित किया गया ताकि शरीर के भीतर जो तरल पदार्थ हैं वे सूख जाएं और शरीर डिहाइड्रेटेड हो जाए। डाक्टरों ने बताया है कि जब शरीर डिहाइड्रेशन के बाद बाहर आता है तो उसे पहचानना मुश्किल हो जाता है। उसकी पहचान दरअसल मिट जाती है। शरीर का रंग रूप पहचान करने लायक नहीं रह जाता। तो चाहे शरीर को जला कर राख कर दिया जाए या डीप फ्रीजर में रखा जाए, शरीर अपनी पहचान खो देगा। गीता के दूसरे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है- जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़ कर नए वस्त्र पहनता है, ठीक उसी तरह यह आत्मा भी पुराने शरीर को छोड़ कर दूसरा शरीर धारण कर लेती है। आत्मा को न शस्त्र काट सकता है, न आग जला सकती है, न जल भिंगो सकता है और न वायु सुखा सकती है। आत्मा को अनेक विद्वान आश्चर्य की तरह देखते हैं। जिस देह के प्रति हम इतने आसक्त हैं, उसका क्या अंत है? यह जल कर राख हो जाएगी। धूल में मिल जाएगी। उसी धूल में जिस पर हम चलते हैं। तो क्या हम देह को भूल जाएं? नहीं भूलें नहीं लेकिन आसक्त भी न हों। इस शरीर के पोषण के लिए जो भी जरूरी हो, उसे जरूर करें लेकिन इसमें अनावश्यक आसक्ति न हो। यह शरीर युवावस्था में आकर्षक हो जाता है, तो लोग यह नहीं समझते कि यह शरीर यात्रा का एक चरण है। बस उसकी तरफ यूं आकर्षित होते हैं जैसे कोई अजूबा वस्तु देख रहे हों। शरीर में जो जीव है, उसकी तरफ न देख कर हम सिर्फ देह को ही देखते हैं। मैंने अपनी मां को चिता पर जलते बचपन में देखा है। उनका शरीर जैसे जैसे जल रहा था, छोटा होता जा रहा था। छोटा होते होते ऱाख बन गया। फिर उसे हमने गंगा जल को अंजुली में लेकर उस राख को गंगा के पवित्र जल में बहा दिया। मां जहां से आई थी, वहीं चली गई। हम भारी मन से घर आए। धीरे- धीरे मां के जाने का दुख खत्म हो गया। मैं हंसने, बोलने और खाने-पीने लगा। बड़ा होकर समझ पाया कि जो जन्मता है, उसे मरना होता है। सभी एक दिन मरेंगे। फिर बेचैनी और तनाव क्यों? ईश्वर से संबंध जोड़ कर उसकी निकटता की कोशिश करना ही तो हमारा असली काम है। वरना दुनिया में न जाने कितने चक्करों से हमें गुजरना पड़ता है। अगर इन चक्करों में ईश्वर को भूल जाएंगे तो हमारी रक्षा कौन करेगा? एकमात्र वही हमारे सहारा हैं। लेकिन कई लोग ईश्वर के बदले किसी देहधारी को अपना रक्षक मान लेते हैं। देहधारी तो खुद ही नश्वर है। जो शास्वत है, सर्वशक्तिमान है, सर्वग्य है और सर्वव्यापी है उसकी याद हम क्यों नहीं करें। वह हमारे साथ हमेशा है लेकिन हम उसके साथ हमेशा क्यों नहीं रहते। ऋषियों ने तो कहा ही है कि सर्वं खल्विदं ब्रह। सब कुछ ब्रह्म ही है।

Wednesday, January 20, 2010

वसंत पंचमी और मां सरस्वती



विनय बिहारी सिंह


आज वसंत पंचमी पर बात की जाए। चार भुजाओं वाली मां सरस्वती को श्वेत वस्त्रों में हाथ में वीणा लिए हुए दिखाया गया है। ये चार भुजाएं चार वेदों की प्रतीक हैं। ये चार भुजाएं मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार पर नियंत्रण की भी प्रतीक हैं। वीणा दिव्य संगीत या ऊं का प्रतीक है। सरस्वती बुद्धि की देवी हैं, ग्यान की देवी हैं। विभिन्न प्रकार की कलाओं की देवी हैं- चाहे वह पेंटिंग हो या नृत्य, संगीत। उनकी सवारी हंस है। हंस के बारे में आध्यात्मिक व्याख्या है कि वह दूध और पानी को अलग कर देता है। यानी सार तत्व को ही ग्रहण करता है। ऐसा प्राणी मां सरस्वती का वाहन है। और हंस का रंग भी सफेद है। सफेद रंग शांति का प्रतीक है। गहरी शांति का। अगर आप पूर्ण रूप से शांत नहीं होंगे तो बुद्धि का उत्कृष्ट कार्य कर ही नहीं सकते। कोई भी अच्छा काम करना हो आपको एकाग्रता और शांति चाहिए। मां सरस्वती की पूजा यानी गहन अध्ययन बहुत जरूरी है। लेकिन आजकल सरस्वती पूजा के दिन मूर्तियों की पूजा का चलन बढ़ गया है। होड़ लगी है कि किसकी मूर्ति सुंदर और भव्य हो। इस पर खूब खर्च किया जाता है। लोगों से चंदा मांगा जाता है। मां सरस्वती की मूर्ति के पास ऐसे भौंडे गीत बजाए जाते हैं जिनका पूजा पाठ से कोई लेना देना नहीं है। ओछे से गीत। फिर खाने पीने का दौर चलता है। रात में कुछ युवक मूर्ति के पास बैठ कर शराब भी पीते हैं। यह क्या है? क्या सरस्वती मां की इस मूर्ति पूजा का वास्तविक पूजा से कोई संबंध है? बिल्कुल नहीं। रात दिन जोर जोर से लाउडस्पीकर बजा कर लोगों को डिस्टर्ब करना क्या सरस्वती पूजा है? और इतना खर्च तो भाई कोई अच्छी किताब खरीद कर कीजिए। सबको वह पुस्तक पढ़वाइए। तब तो मां सरस्वती की सच्ची पूजा होगी। वरना शोर- गुल और सजावट, मिठाई और भोजन बांटने से मां सरस्वती कैसे खुश होंगी, समझ से बाहर है। हां, पूजा पाठ बुरा नहीं है। लेकिन उसका एक शालीन तरीका है। मूर्ति पर हजारो खर्च करने से अच्छा है एक फोटो को फ्रेम करा कर और फूल- फल मिठाई चढ़ा कर पूजा की जा सकती है। मां सरस्वती के पूजा के मंत्रों का उच्चारण किया जा सकता है। लेकिन आजकल कई पूजा पंडालों में दिखावा ज्यादा हो जाता है। और मूर्ति के पास भौंडे गाने बजा कर आप क्या साबित कर रहे हैं। यह कैसी पूजा है भाई? शांति की देवी की पूजा शोर और भौंडे गाने से? अभी समय नहीं बीता है। हम फिर अपने ऋषियों की बातों को याद कर सकते हैं। मां सरस्वती के प्रतीकों का चिंतन- मनन कर सकते हैं। अपनी श्रेष्ठ परंपरा की तरफ लौटना सुखद ही है।

Tuesday, January 19, 2010

बच्चे ने पूछा- दादी का शरीर तो यहीं है, गई कहां?

विनय बिहारी सिंह

एक परिवार में १२ साल का प्यारा सा बच्चा था। उसकी दादी का लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। शव के अंतिम संस्कार की तैयारी होने लगी। बच्चा हैरान था। कल ही तो उसने दादी से कहानी सुनी थी। दादी की गोद में सोया था। नींद खुली तो पाया कि वह मां के पास सोया है। शायद मां रात को उसे अपने पास ले आई। घर के सभी लोग व्यस्त थे। लेकिन बच्चे के दिमाग को एक सवाल लगातार परेशान कर रहा था। लोग कह रहे थे कि उसकी दादी चली गई। लेकिन दादी तो बिस्तर पर मरी पड़ी है। गई कहां है? कुछ लोग कह रहे हैं कि प्राण आंखों से निकला है। इसीलिए आंखें खुली हैं। लेकिन प्राण क्या इतना सूक्ष्म है कि वह आंखों से निकल सकता है? बच्चा अपना सवाल पूछे तो किससे पूछे। वह दादी की मृत्यु के दुख में रो लेता और मन ही मन अपना सवाल दुहराता। लेकिन उसकी सुनने वाला आज कोई नहीं था। कई दिन बीत गए तो उसके नाना जी उसके घर आए। नाना जी जब इत्मिनान से बैठे तो बच्चे ने पूछा- एक बात पूछूं नाना जी? नाना जी ने सहमति दी। बच्चे ने पूछा- अच्छा, दादी जी के प्राण कहां चले गए? नाना जी ने कहा- भगवान के पास। बच्चे ने पूछा- भगवान कहां रहते हैं? नाना जी ने कहा- भगवान हर जगह हैं। मुझमें, तुममें इस समूचे संसार में। बच्चे ने पूछा- लेकिन न भगवान दिख रहे हैं और न ही दादी। भगवान कैसे दिखेंगे? नाना जी ने कहा- भगवान सूक्ष्म से सूक्ष्मतम हैं। तुम्हारी दादी के प्राण भी सूक्ष्तम हैं। इसलिए दोनों नहीं दिखाई दे रहे हैं। लेकिन उनका अस्तित्व है। जो चीजें नहीं दिखती हैं उनका भी अस्तित्व होता है। जैसे कोई तुम्हें पसंद नहीं करता लेकिन तुमसे हमेशा हंस कर बातें करता है तो उसकी भावना तुम देख नहीं सकते। लेकिन उस भावना का अस्तित्व है। भगवान इससे भी उच्च स्तर का है। १२ साल का बच्चा सूक्ष्म बातें नहीं समझ पाया। लेकिन इतना जरूर जान पाया कि प्राण हवा की तरह है जिसे देखा नहीं जा सकता। मनुष्य का जो प्राण सूक्ष्माति सूक्ष्म है, हम उसके शरीर में रहने पर आत्मविश्लेषण नहीं करते। हम तो तरह- तरह के झमेलों और प्रपंचों में समय बिताते रहते हैं। और अचानक एक दिन जाने का समय आ जाता है। कहां जाने का समय? ईश्वर के पास जाने का समय। तब हमें लगता है कि अरे? इतनी जल्दी? अभी मुझे संसार में और रहना चाहिए। लेकिन हमारे सोचने से क्या होगा? हम तो अपने कर्मों के हाथों में कठपुतली हैं। जब हम अपने ही कर्मों के फल भोगते हैं तो ईश्वर को याद करते हैं। एक बार दिल से पुकारने से ही ईश्वर हमारे पास आ जाते हैं। बस सच्ची पुकार होनी चाहिए। आप नितांत अकेले हैं और अचानक आपने दिल से कहा- हे भगवान। बस, उन्होंने सुन लिया। फिर भी हम अपने प्रपंचों में उन्हें पुकारना भूल जाते हैं। जबकि वे नजदीक से भी नजदीक हैं और अगर दूर समझेंगे तो वे बहुत दूर हैं। सबसे ज्यादा करीब तो भगवान ही हैं। वे हमारी तरफ लगातार देख रहे हैं, लेकिन एक क्षण के लिए भी उनकी तरफ देखना, उन्हें याद करना अपना कर्तव्य नहीं मानते। लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए।

Monday, January 18, 2010

ध्यान में शांत होना जरूरी

विनय बिहारी सिंह

कई लोग कहते हैं कि उनका ध्यान ठीक से नहीं लगता। इसकी वजह है कि बाहर की चीजों में उनका मन अंटका रहता है। ध्यान के लिए जरूरी है कि बाहर की सारी चीजें भूल कर अंदर की यात्रा करें। लेकिन अगर आंख बंद है और दिमाग संसार में ही चक्कर काट रहा है तो ध्यान का कोई मतलब नहीं है। प्रसिद्ध पुस्तक आटोबायोग्राफी आफ अ योगी के लेखक औऱ उच्चकोटि के सन्यासी परमहंस योगानंद जी कहते थे कि आंख बंद करते ही आप समूची दुनिया को भूल जाइए। आप अब तक ईश्वर को याद नहीं कर रहे थे, इसका पश्चाताप कीजिए और इस गलती को सुधारते हुए ईश्वर को प्रेम कीजिए क्योंकि वह आपको प्रेम करता है। सिर्फ और सिर्फ ईश्वर पर ध्यान केंद्रित कीजिए। कुछ लोगों का कहना है कि आंख बंद करते ही अंधेरा दिखता है। तो इस अंधेरे में हम क्या देखें। तमाम संतों ने कहा है कि इस अंधेरे में ही प्रेम से देखने के बाद प्रकाश दिखाई देगा। लेकिन हमारे पास धैर्य नहीं है। हम तो चाहते हैं कि आज ही ध्यान शुरू किया और हफ्ते भर में कोई चमत्कार हो जाए। ऐसा नहीं होना चाहिए। वर्षों की साधना के बाद तो कुछ महसूस होता है। कई लोगों का कहना है कि उनके पास इतना धैर्य नहीं है। इससे अच्छा तो है कि टीवी देखी जाए। यानी हम अपने भीतर नहीं उतरेंगे। बाहर- बाहर ही रहेंगे। टीवी देखेंगे, अखबार पढ़ेंगे, गाने सुनेंगे, इंटरनेट पर रहेंगे या गप करेंगे लेकिन कुछ देर बैठ कर ध्यान नहीं करेंगे क्योंकि उन्हें कुछ महसूस नहीं होता। विचित्र है। आदि शंकराचार्य ने कहा है कि मनुष्य को अकेले में सोचना चाहिए कि वह इस दुनिया में क्यों आया है? यह ब्रह्मांड कैसे बना? इसका मकसद क्या है? इस समूचे ब्रह्मांड को चलाने वाला कौन है? मनुष्य जन्म के पहले कहां था? फिर मरने के बाद कहां जाता है? वगैरह, वगैरह। एक ऋषि तुल्य सन्यासी ने कहा है कि जब तक आपका दिमाग घूमता रहेगा, आप ईश्वर से संपर्क नहीं कर सकते। उन्होंने कहा- पंखा चलता है तो उसके डैने नहीं दिखते। ज्योंही पंखा बंद होता है, उसके डैनों को आप गिन सकते हैं। इसी तरह घूमती चीज को आप ठीक से नहीं देख सकते। तब एक भक्त ने पूछा- पंखा बंद हो जाएगा तो हवा कहां से मिलेगी? प्रश्न करने वाला समझ नहीं पाया कि सन्यासी कह क्या रहे हैं। इसीलिए सन्यासी ने दूसरा उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि अगर आपके कमरे में घूमने वाला बलब लगा दिया जाए तो उसकी मदद से आप क्या ठीक से पढ़ सकेंगे। रात हो गई है। आपको कोई किताब पढ़नी है। आपने कमरे का बल्ब जलाया। वह बल्ब जला तो जरूर लेकिन चारो तरफ घूम रहा है। तब आप उसकी रोशनी में कैसे पढ़ पाएंगे। आप तो डिस्टर्ब हो जाएंगे। पढ़ाई तो दूर की चीज है। आपको पढ़ने के लिए स्थिर दिमाग और स्थिर बल्ब का प्रकाश चाहिए। ठीक उसी तरह ध्यान के लिए आपको स्थिर दिमाग और एकाग्रचित्त मन चाहिए। तब वह भगवान में लगेगा। अन्यथा आप घंटे भर आंखें बंद करके रहिए। कोई फर्क नहीं पड़ेगा। आपका ध्यान कभी नहीं सुधरेगा। दिमाग का चपर- चपर बंद करना पड़ेगा। एकदम शांत और स्थिर। तब मनुष्य गहरे ध्यान में उतरता है। अगर मन भागता है तो उसे बार- बार खींच कर ध्यान में लगाइए। इसे ही अभ्यास योग कहते हैं। धीरे- धीरे मन आपके नियंत्रण में आ जाएगा। लेकिन मन को नियंत्रित करने के लिए धैर्य चाहिए। धीरज चाहिए। हड़बड़ करने या दुखी होने से काम नहीं चलेगा। मन को दृढ़ करके आप डटे रहिए। ध्यान की एकाग्रता में बार- बार जाइए। फिर मन हटता है, तो फिर उसे खींच कर भगवान के पास ले जाइए। अब तक आपका मन आवारा था। अब उसे नियंत्रित करना है। आवारा इसलिए कि जहां जरूरत नहीं है, यह मन वहां भी जाना चाहता है। इसे ही रोकना है।

Saturday, January 16, 2010

वे रात दो बजे तक ओम नमः शिवाय जपते रहे

विनय बिहारी सिंह

यह घटना मेरे किशोर उम्र की है। मेरे गांव से जिला मुख्यालय १२ किलोमीटर दूर है। उस समय वहीं सिनेमा हाल थे। अब तो मेरे गांव तक में सिनेमा हाल है। यह १२ किलोमीटर की दूरी कुछ भी नहीं थी क्योंकि मेरे गांव से सारे साधन मिल जाते हैं। मैं बचपन से ही धार्मिक फिल्में देखना पसंद करता था। उस समय एक धार्मिक फिल्म लगी थी, जिसका नाम अब मैं भूल गया हूं। उन दिनों धार्मिक फिल्में खूब बनती थीं। राजा हरिश्चंद्र इत्यादि फिल्में मैंने बचपन में ही देखी थीं। मैं इस फिल्म को देखने के लिए जा रहा था तो मेरे गांव के एक अत्यंत धार्मिक व्यक्ति ने भी मेरे साथ फिल्म देखने की इच्छा जाहिर की। हम दोनों साथ चले। फिल्म में एक साधक ओम नमः शिवाय का वर्षों तक जाप करते हैं और तब भगवान शिव उन्हें दर्शन देते हैं और वर मांगने को कहते हैं। साधक उनसे वर मांगते हैं कि उनका जीवन जब तक रहे, प्रत्येक दिन शिव जी के प्रति उनकी श्रद्धा, भक्ति और समर्पण बढ़ता जाए और जब उनकी मृत्यु हो तो फिर दुबारा लौट कर पृथ्वी पर न आना पड़े। वे शिव जी में ही समा जाएं, लीन हो जाएं। तब भगवान शिव कहते हैं- ज्यादातर लोग मुझसे धन, यश, पुत्र, स्वास्थ्य, सुंदर स्त्री और सांसारिक सुख मांगते हैं लेकिन तुमने मुझसे मेरे प्रति भक्ति मांगी है इसलिए भक्ति और श्रद्धा तो तुम्हें दे ही रहा हूं, हर तरह का सांसारिक सुख भी दे रहा हूं। इस पर भक्त कहता है- नहीं प्रभु। मुझे सांसारिक सुख नहीं चाहिए। मैं सांसारिक सुखों में आपको भूल जाऊंगा। मुझे शुद्ध रूप से आपकी भक्ति चाहिए। भगवान शिव कहते हैं- नहीं पुत्र। तुम्हारी भक्ति दिनोंदिन बढ़ती ही जाएगी। तुम्हें मैं संसार के सारे सुख दे रहा हूं। हालांकि तुमने इसे लेने से इंकार कर दिया है। जाओ सुख से रहो और ईश्वर के प्रति भक्ति और श्रद्धा का संदेश लोगों में प्रसारित करो। उनका घर मेरे घर के पास ही है। उस दिन वे मेरे यहां ही सोए। वे हल्का खाना खाकर अपने बिस्तर पर बैठ गए और धीरे- धीरे ओम नमः शिवाय का जाप करने लगे। धीरे- धीरे मुझे नींद लग गई। अचानक रोने की आवाज से मेरी नींद खुली। देखता क्या हूं कि वे रो भी रहे हैं और ओम नमः शिवाय का जाप भी कर रहे हैं। जब रोना बंद होता है तो ओम नमः शिवाय का जाप कर रहे हैं। मेरी नींद पूरी तरह टूट गई। मैं उन्हें डिस्टर्ब नहीं करना चाहता था। रात दो बजे तक वे जाप करते रहे। मेरे घर से कुछ ही दूरी पर दो शिव मंदिर हैं। एक उत्तर की तरफ और दूसरा दक्षिण की तरफ। मैंने देखा वे रोज किसी न किसी शिव मंदिर में जा कर जल, फूल और अक्षत इत्यादि चढ़ा रहे हैं और रात को भी ओम नमः शिवाय का जाप कर रहे हैं।उनका यह क्रम जीवन भर चलता रहा। कोई फिल्म किसी के जीवन पर इतना गहरा प्रभाव डाल सकती है, यह मैंने पहली बार देखा था। आज वे इस दुनिया में नहीं है। लेकिन उनकी याद आते ही मन श्रद्धा से भर जाता है।

Friday, January 15, 2010

लकवाग्रस्त कुत्ते को प्यार ने स्वस्थ किया

विनय बिहारी सिंह

दिल्ली की यह घटना बताती है कि प्यार में अनंत ताकत है। प्यार वह है जो निःस्वार्थ हो। जहां स्वार्थ आ गया वहां प्यार शर्तों में बंध जाता है। यहां ऐसे प्यार की बात नहीं की जा रही है। आज के टाइम्स आफ इंडिया में छपी खबर ने बहुतों को आनंद से भर दिया। एक कुत्ता लकवाग्रस्त हो गया था। उसकी देखभाल एक महिला करने लगी। किसी स्वयंसेवी संगठन से संपर्क कर वह महिला लकवा ग्रस्त पैर के बदले पिछले हिस्से में पहिया लगा दिया। कुत्ता चलने लगा। लेकिन उसे और सहारे की जरूरत थी। वह महिला लगातार कुत्ते को प्यार देती रही। प्रोत्साहन देती रही। उसे बिना पहिए के ही चलने को प्रेरित करती रही। बिना पहिए के दो कदम चल कर वह डगमगाता, लेकिन प्यार और प्रोत्साहन ने उसे और चलने की हिम्मत दी। आज वह कुत्ता आराम से चल रहा है। उसकी फोटो भी छपी है। कुछ लोग कहते हैं कि इस दुनिया में खराब ही खराब घटनाएं हो रही हैं। लेकिन सच यह है कि अच्छी घटनाओं की कमी नहीं है। चूंकि अखबार ज्यादातर हत्या, बलात्कार, चोरी, डकैती और दुर्घटनाओं से ही भरे रहते हैं। टीवी का भी यही हाल है। इसलिए अच्छी खबरें दब जाती हैं। वे लोगों तक पहुंचती नहीं। भगवदगीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- सच का अभाव नहीं है और झूठ की कोई सत्ता नहीं है। किसी का झूठ ज्यादा दिन तक नहीं चलता। मातृ स्वरूपा स्त्री अंजलि काकाती ने सन २००८ से लेकर आज तक जिस तरह कुत्ते की सेवा की वह नायाब है। मनुष्य सारे जीवों में श्रेष्ठ है। तो यह मनुष्य का ही दायित्व बनता है कि वह मनुष्य के अलावा पशु- पक्षियों की सेवा करे। अंजलि काकाती ने यह काम किया। मैं ऐसे अनेक लोगों से मिल चुका हूं जो पशु- पक्षियों के प्रति दिल से जुड़े हुए हैं। वे उनकी तकलीफ अपनी तकलीफ समझते हैं। किसी पशु की तकलीफ से तो कुछ लोग रो तक देते हैं। यह करुणा मनुष्य में हमेशा रही है और हमेशा रहेगी। बेशक प्यार में अनंत ताकत है। अगर प्यार न हो तो यह दुनिया ध्वस्त हो जाए। मैं फिर यहां याद दिलाना चाहता हूं कि यहां निःस्वार्थ प्यार की बात की जा रही है। मैंने ऐसे छात्र और छात्राओं को देखा है जो पढ़ने में फिसड्डी थे लेकिन प्यार और प्रोत्साहन पाकर उन्होंने सर्वोच्च अंक पाया। क्षमताएं तो सबके भीतर हैं, उन्हें बस मौका मिलना चाहिए। एक बार एक किशोरी १२वीं कक्षा में दो बार फेल हो गई। उसके माता पिता फिर भी निराश नहीं हुए और लगातार उसे प्रोत्साहित करते रहे। इस लड़की को भी अंततः लगा कि कम नंबर पाना तो वाकई अच्छी बात नहीं है। उसने तीसरी बार अत्यंत मेहनत से पढ़ाई की। उसका पक्का इरादा ही था कि तीसरी बार वह प्रथम श्रेणी से पास हुई और अपने शुभचिंतकों को जा कर मिठाई बांट आई। प्यार वाकई अनमोल है। एक बात औऱ- हमें सबसे ज्यादा और बल्कि हद से ज्यादा जो प्यार करता है वह है ईश्वर। लेकिन हम तो अपनी चिंताओं में इतने मशगूल रहते हैं कि उसके प्यार को महसूस नहीं करते। दिमाग शांत कर दो मिनट के लिए उसे याद करने में कोई हर्ज नहीं है। वह हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। (आज सूर्यग्रहण था। यह ग्रहण ११.०६ बजे सुबह शुरू हुआ और दिन 3.35 तक रहा। सूर्य और चंद्रमा के एक सीध में आने से यह घटना हुई।)

Thursday, January 14, 2010

तमाम तरह के सोच का बंडल है दिमाग

विनय बिहारी सिहं

रमण महर्षि कहते थे- माइंड इज बंडल आफ थाट्स। सारी परेशानी की जड़ यह दिमाग ही है। जब आप सो जाते हैं तो सब कुछ भूल जाते हैं। आपको यह भी याद नहीं रहता कि आप कहां हैं। क्या कपड़ा पहना है। नींद आपको बिल्कुल शरीर से अलग कर देती है। लेकिन यह सब कांशस स्टेट है। ध्यान इससे भी बेहतर स्थिति है। इसमें आप जाग्रत रहते हुए चिंतन रहित अवस्था में जाते हैं। इसीलिए जिनका ध्यान गहरा लगता है, उन्हें नींद की जरूरत नहीं पड़ती। ध्यान का अर्थ है दिमाग की सारी चिंताएं, समस्याएं खत्म कर दीजिए और एकमात्र ईश्वर में समा जाइए। अत्यत आनंद का अनुभव होगा। शांति और आनंद का अनुभव। ऋषियों को इसकी चिंता नहीं रहती थी कि भोजन और वस्त्र कहां से आएगा। वे केवल ईश्वर के लिए व्याकुल रहते थे। नतीजा यह होता था कि भोजन और वस्त्र का इंतजाम ईश्वर ही कर देते थे। कैसे? जो परम ईश्वर भक्त थे और धन संपत्ति से भरपूर थे वे इन ऋषियों की सेवा के लिए एक पैर पर खड़े रहते थे। वे प्रतीक्षा करते रहते थे कि ऋषि की किस जरूरत को पूरा करने का मौका मिले। रामकृष्ण परमहंस की सेवा के लिए न जाने कितने लोग तैयार रहते थे। रानी रासमणि जब तक जीवित रहीं, उनकी सेवा की। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद भी रामकृष्ण परमहंस की सेवा के लिए अनेक लोग लालायित रहते थे। रामकृष्ण परमहंस का एक क्षण भी ईश्वर के बिना नहीं बीतता था। वे बहुत कम सोते और खाते थे। दिन में एक छोटी सी प्लेट में प्रसाद खा लिया और रात में थीड़ी सी सूजी की खीर। बस यही उनका भोजन था। वे मुश्किल से दो घंटे और कई बार तो एक घंटा ही सोते थे। बाकी समय ध्यान, समाधि और भजन- कीर्तन व भक्तों से ईश्वर संबंधी बातचीत में बिताते थे। उनके यहां जो भी जाता था वह ईश्वरीय सुख से सराबोर लौटता था। एक बार जो उनके पास चला गया वह दुबारा कब मौका मिले कि जाएं, यही सोचता रहता था। आध्यात्मिक जगत में उन्हें लेकर एक कहावत थी- रामकृष्ण परमहंस आध्यात्मिक अफीम खिला देते हैं। यानी वे ईश्वर के प्रति आसक्ति पैदा कर देते हैं। जो भी उनसे मिला उनका दीवाना हो गया। वे हमेशा ईश्वर के प्रसंगों पर बातचीत करते रहते थे। बातचीत के बीच में ही उन्हें समाधि लग जाती थी। यह समाधिक कभी कभी घंटों चलती थी। तब कोई उन्हें डिस्टर्ब नहीं करता था।

Wednesday, January 13, 2010

एक और छोटी सी कथा

विनय बिहारी सिंह

एक चालाक व्यापारी एक सन्यासी के पास पहुंचा। उसने संत से पूछा- भगवान के लिए तो एक करोड़ रुपए, एक रुपए के बराबर हैं न? सन्यासी ने कहा- हां। व्यापारी ने दूसरा सवाल किया- क्या आप भगवान से बातचीत करते हैं? सन्यासी ने कहा- हां। व्यापारी ने कहा- तो आप मेरे लिए भगवान से कहिए न कि वे मुझे सौ रुपए दे दें। सन्यासी ने कहा- ठीक है आप एक मिनट रुकिए। चालाक व्यापारी जवाब सुन कर ठगा सा रह गया। वह तो एक की संख्या को एक करोड़ मान रहा था और सन्यासी उसका आशय समझ रहे थे।

Tuesday, January 12, 2010

अब नमक कम खाने की सलाह

विनय बिहारी सिंह

अमेरिका में सरकार ने तमाम रेस्टोरेंटों और खाद्य पदार्थ बनाने वालों को एक आग्रह भेजा है कि अगले पांच सालों में प्रत्येक खाद्य पदार्थ में नमक की मात्रा २५ प्रतिशत तक कम कर दी जानी चाहिए। यह लोगों के रक्तचाप को नियंत्रित करने के लिए किया जा रहा है। कहा गया है कि नमक को एकबारगी २५ प्रतिशत कम कर देने से ग्राहकों को तुरंत पता चल जाएगा। इसलिए इसकी मात्रा धीरे- धीरे कम करना ठीक रहेगा। पहले इसी तरह का आग्रह अमेरिकी सरकार ने ट्रांस फैट के लिए किया था। जब देखा कि आग्रह से काम नहीं चल रहा है तो कानून बना दिया। सरकार का कहना है कि ट्रांस फैट से लोगों में मोटापा तो बढ़ता ही है, शरीर में नाना प्रकार की व्याधियां उत्पन्न हो जाती हैं और जीवित रहना अपनी लाश को ढोने जैसा हो जाता है। इसलिए हर रेस्टोरेंट, बेकरियां और खाद्य पदार्थों को बनाने वाले ट्रांस फैट का इस्तेमाल बंद कर दें। हमारे यहां ट्रांस फैट का इस्तेमाल धड़ल्ले से हो रहा है। आप अंदाजा नहीं लगा सकते कि जो नमकीन, भुजिया या समोसे आप खा रहे हैं वह किस घी या तेल में बना है। हमारे यहां तो इसे चेक करने वाली कोई एजंसी नहीं है। अगर है भी तो वह कहीं नजर नहीं आती। लापरवाही और भ्रष्टाचार का आलम यह है कि आप कहीं भी कुछ खाइए तो अपने रिस्क पर। सरकार इसकी जिम्मेदारी नहीं लेगी। लेकिन अमेरिकी सरकार अपने नागरिकों के हितों पर लगातार नजर रखती है। अगर हमें पश्चिमी देशों की नकल करते हैं तो उनकी अच्छाइयां ग्रहण करनी चाहिए। साफ सफाई, स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता और जवाबदेही के प्रति यूरोपीय देश ज्यादा कारगर हैं।
एक संत की सीख- परसो एक सन्यासी ने कहा कि ध्यान उन्हीं लोगों का ठीक से नहीं लगता जो सांसारिक मोह में फंसे रहते हैं। जो यह जानते हैं कि यह संसार नहीं भगवान ही हमारे काम आएंगे, उनका ध्यान खूब बढ़िया लगता है। वे कई घंटे एक ही पोज में बैठे रह जाते हैं और ईश्वर से संपर्क का आनंद लेते हैं। परमहंस योगानंद ने कहा है- आंखें बंद कीजिए और संसार को भूल जाइए। ईश्वर आपसे बातचीत की प्रतीक्षा कर रहे हैं। कितनी सुंदर बात है।

Monday, January 11, 2010

विष्णु सहस्रनाम की अनंतता

विनय बिहारी सिंह

विष्णु सहस्रनाम अद्भुत प्रभाव वाला है। ऋषियों ने कहा है कि विष्णु और विश्व एक ही है। यह ब्रह्मांड को विश्व कहा गया है। यानी समूचा ब्रह्मांड विष्णु का प्रतीक है। विष्णु सहस्रनाम में प्रत्येक नाम गहरे अर्थ को लिए हुए है। इन नामों का क्रम यूं ही नहीं रखा गया है। एक- एक नाम अपने आप में मंत्र है। इसीलिए विष्णु सहस्रनाम पाठ करने वाले लोग इसका नाम सुनते ही आह्लादित हो जाते हैं। विश्वं और विश्वमूर्ते विष्णु का ही नाम है। सहस्र नामों में कोई भी नाम कम ओजस्वी नहीं है। और हर नाम अनंतता लिए हुए है। इसी तरह शिव सहस्रनाम भी है। विष्णु सहस्रनाम पढ़ते हुए आपको लगेगा कि इस ब्रह्मांड के कण- कण में विष्णु भगवान हैं और बिना उनकी इच्छा के एक पत्ता भी नहीं हिलता। तो इन नामों का महत्व क्या है? ये नाम अपने आप में अनंत सागर हैं। इनमें डुबकी लगाइए और अमृत का आनंद पाइए। लेकिन हां, जो लोग मेकेनिकल ढंग से इसका पाठ करेंगे उन्हें इसका रस नहीं मिल पाएगा। कई लोग मशीन की तरह धड़ाधड़ नाम पढ़ कर आसन से उठ जाते हैं और भोजन करने बैठ जाते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। जो नाम आप पढ़ रहे हैं, उसके अर्थ में जाइए। तब उसका आनंद आएगा। अगला नाम पिछले नाम का ही विस्तार है। आपके सामने अनंत विस्तार फैला हुआ है। विष्णु भगवान अपनी बाहें फैला कर आपके सामने खड़े हैं और प्रतीक्षा कर रहे हैं कि आप उनके आगोश में चले जाएं और उन्हें अपने अंक पाश में बांध लें। आखिरकार आप उनके पुत्र हैं। आपका अधिकार बनता है। लेकिन कई लोगों का दिमाग अपने काम में इस तरह चक्कर काटता रहता है कि वे पढ़ते तो हैं विष्णु सहस्रनाम लेकिन दिमाग कहीं औऱ चक्कर काटता रहता है। ठीक है, हर आदमी को अपने काम पर केंद्रित रहना चाहिए। कहने का अर्थ यह नहीं है कि आप सारा कामधाम छोड़ कर विष्णु सहस्रनाम पाठ कीजिए। लेकिन एक समय एक ही काम कीजिए। अगर आप पाठ कर रहे हैं तो अपना पूरा ध्यान पाठ पर ही लगाइए। बीच में कोई चिंतन दिमाग में आने न दीजिए। आता भी है तो क्षण भर में झटक दीजिए। और जब काम कीजिए तो बस पूरी तन्मयता से काम ही कीजिए। जो भी काम कीजिए बस तन्मयता उसी के प्रति हो। वैग्यानिकों ने हाल ही में कहा है कि दो चित्त हो कर यानी डाइवर्टेड माइंड वाला आदमी किसी भी बीमारी का जल्दी शिकार होता है। उसे भय भी जल्दी पकड़ता है। इसके उलट एकाग्रचित्त व्यक्ति शक्तिशाली और निडर होता है। जिन लोगों ने विष्णु सहस्रनाम या शिव सहस्रनाम नहीं पढ़ा है, उन्हें इसे अवश्य पढ़ना चाहिए। अगर खरीदने की सुविधा न हो तो किसी लाइब्रेरी में ही सही। लेकिन पढिए जरूर। आनंद आएगा।

Saturday, January 9, 2010

ईश्वर कहां है?

विनय बिहारी सिंह

यह कथा योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के ब्रह्मचारी निगमानंद जी ने सुनाई। एक ईश्वर प्रेमी सैलून में बाल कटा रहे थे। नाई कहने लगा- लगता है ईश्वर नहीं है। अगर होता तो क्या इतना दुख, बीमारी और कष्ट होता? ईश्वर भक्त ने तर्क दिया। लेकिन नाई कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था। वह एक ही रट लगाए जा रहा था। ईश्वर कहां है? रहता तो संसार में इतना कष्ट होता? ईश्वर प्रेमी बाल कटा कर बाहर निकला। देखा कि दाढ़ी और बाल बढ़ाए कुछ लोग गांजे का दम लगा रहे हैं। वह वापस सैलून में गया और नाई से बोला- कोई नाई नहीं है। नाई बोला- क्यों, मैं तो हूं ही। ईश्वर प्रेमी बोला- नहीं। तुम मेरे साथ बाहर आओ। नाई के पास अभी कोई ग्राहक नहीं था। इसलिए वह बाहर आया। बोला- क्या है? ईश्वर प्रेमी ने कुछ दूरी पर पेड़ के नीचे दाढ़ी- बाल बढ़ाए गांजा पी रहे लोगों को दिखाते हुए कहा- अगर कोई नाई होता तो इनके दाढ़ी और बाल क्यों बढ़े होते? नाई ने कहा- अगर कोई मेरी दुकान पर आएगा, तब तो मैं उसके बाल काटूंगा। ईश्वर प्रेमी ने कहा- ठीक कहा। जब कोई ईश्वर के पास जाएगा, तब तो वे बताएंगे कि वे कहां हैं। ऋषि और महापुरुषों ने तो न जाने कितनी बार कहा है- ईश्वर हमारे हृदय में हैं। लेकिन हम हृदय की गहराई में जाते ही नहीं। हम चाहते हैं कि इंद्रियों का दास भी बने रहें। भोगी भी बने रहें और ईश्वर का भी दर्शन कर लें। ईश्वर को जानने और अनुभव करने के लिए उनके प्रति सर्वोच्च भक्ति, असीम प्रेम और उत्कंठा होनी चाहिए। तुलसीदास ने कहा है- भाद्रपद महीने में नदी व ताल तलैयों के अलावा छोटे- मोटे गड्ढे और यहां तक कि रास्ते भी पानी से भर जाते हैं। इसका मतलब यह तो नहीं कि सबको नदी कह दिया जाए। जब जेठ की दुपहरी आती है तब आप देखते हैं कि ये गड्ढे और ताल- तलैया सूख गए, लेकिन नदी लगातार बह रही है। जिसमें अत्यंत गहरी निष्ठा रहेगी वही ईश्वर का अनुभव कर पाएगा। उसे असली नदी बनना पड़ेगा। जो भाद्रपद में तो बहती ही है, जेठ की दुपहरिया में भी बहती है यानी संकट आने पर या कष्ट में भी जो ईश्वर से उतना ही प्रेम करता है जितना सुख में रहने पर।

Friday, January 8, 2010

नए युग की शुरूआत

विनय बिहारी सिंह

अगर किसी को जीवन की सारी सुख सुविधाएं और अरबों- खरबों धन दे दिया जाए तो क्या वह सुखी हो जाएगा? यह प्रश्न बार- बार मन में आता है। हो सकता है कि वह पहले खूब खुश हो और तरह- तरह के भोगों में डूब जाए। लेकिन आखिरकार तो वह ऊब ही जाएगा। दुनिया की कोई भी भौतिक चीज आपको हमेशा के लिए सुख नहीं दे सकती। उससे आप जल्दी ही ऊब जाएंगे और किसी नए आनंद की खोज में लग जाएंगे। इसीलिए हमारे ऋषियों ने कहा है- नित नवीन आनंद सिर्फ एक ही जगह मिल सकता है- वह हैं ईश्वर। सिर्फ वही सच हैं। ईश्वर के बिना जीवन का आनंद फीका है। आज एक और जीवंत व्यक्ति से मुलाकात हुई। उन्होंने कहा- जबसे चीनी ४५ रुपए किलो हुई है, मैंने मिठाई खाना छोड़ दिया है। इसका दोहरा फायदा मिला है। ज्यादा मिठाई या मीठी चीजें खाने से शरीर में कार्बन बनता है जो स्वास्थ्य के लिए घातक है। दूसरा नुकसान यह होता है कि मिठाई खाने वाले की रक्त शर्करा बढ़ जाती है। इस तरह पूरा शरीर तंत्र नुकसान से बच जाता है। मिठाई न खाने और चीनी वाली चाय कम पीने से उन्होंने जो फायदा बताया वह नोट करने लायक था। हां, वे मिठाई के बड़े शौकीन थे और रोज ही अलग- अलग किस्म की तीन- चार मिठाइयां खा लेते थे। धन की कमी नहीं है। वे सामान्य से ज्यादा मीठी चाय भी पीते थे। लेकिन चीनी महंगी होने से उन्होंने अपने खान- पान में बदलाव कर दिया है। उनका पैसा तो बच ही रहा है, स्वास्थ्य भी सुधर रहा है। एक बार जब प्याज महंगा हुआ था तो उन्होंने प्याज ही खाना छोड़ दिया था। उन्होंने प्याज खरीदना बंद कर दिया और तब तक बंद रखा जब तक कि उसका दाम नहीं घटा। हां, वे कहते हैं कि चावल और आटा महंगे होंगे तो यह नियम नहीं लागू हो सकता। उनका कहना है कि वे ईश्वर के भक्त हैं और सभी लोगों से यह आग्रह करना चाहते हैं कि वे मीठा खाने के अपने अभ्यास को नियंत्रित करें। भारत जैसे गरीब देश के लिए यह नुस्खा अच्छा लगा। घी-तेल महंगे हों तो लोग उन्हें खाना बंद कर दें। हालांकि पूरे देश में यह नियम लागू नहीं हो सकता। लेकिन हां, जो कर सकते हैं वे करें तो अच्छा ही है। बाजार में ऐसे कई मसाले और पदार्थ आए हैं जो लुभाते हैं लेकिन अंततः वे हमें नुकसान ही पहुंचाते हैं। तो लोग बाजार से मुंह मोड़ें और उतनी ही चीजें खरीदें जो जरूरत भर की हैं। तो कितना संतुलित जीवन हो जाएगा? हां, उन्होंने आज यह भी कहा- साबुन और सर्फ का कोई विकल्प नहीं है। इसे महंगा कर देने पर दिक्कत हो जाएगी। लेकिन उनके साथ खड़े एक अन्य व्यक्ति ने कहा- क्यों, लोग सस्ते साबुन इस्तेमाल करेंगे। सस्ता माल भारत के बाजारों में हमेशा था और रहेगा। उनके साथ एक बुजुर्ग खड़े थे। उन्होंने कहा- जो दुष्ट लोग जान बूझ कर महंगाई बढ़ा रहे हैं उन्हें सजा अवश्य मिलेगी। इस तरह आज एक नए अनुभव वाला दिन रहा।

Thursday, January 7, 2010

अर्जुन ने कहा- मुझे सिर्फ कृष्ण चाहिए

विनय बिहारी सिंह

क्या अद्भुत कथा है। जब कौरवों और पांडवों में युद्ध तय हो गया तो वे भगवान कृष्ण के पास मदद के लिए गए। कौरवों की तरफ से दुर्योधन और पांडवों की तरफ से अर्जुन कृष्ण के द्वारकापुरी पहुंचे। सबसे पहले दुर्योधन पहुंचे तो देखा कृष्ण सो रहे हैं। वह अहंकार में था। इसलिए कृष्ण जिधर सिर करके सोए थे, उधर ही रखे सिंहासन पर बैठ गया। थोड़ी ही देर बाद अर्जुन पहुंचे। देखा कि दुर्योधन पहले ही पहुंचे हुए हैं। इसलिए वह कृष्ण के पैर की तरफ बैठ गया। तभी कृष्ण की नींद खुली और सामने उन्होंने अर्जुन को पाया। उन्होंने पूछा- कब आए अर्जुन? अर्जुन ने उन्हें प्रणाम कर बताया कि थोड़ी देर पहले। तभी दुर्योधन बोला- मैं इससे पहले आया हूं महाराज। कृष्ण ने उसका भी मुस्करा कर स्वागत किया। स्वागत सत्कार के बाद कृष्ण ने उन दोनों से पूछा कि वे किसलिए आए हैं। दोनों ने कहा- आपकी मदद के लिए। दुर्योधन बोला- महाराज, मैं पहले आया हूं, इसलिए पहले मैं आपकी मदद मांगूंगा। कृष्ण ने कहा- तुम्हारी बात ठीक है। लेकिन सबसे पहले तो मैंने अर्जुन को देखा और चूंकि वह तुमसे छोटा है, इसलिए उसी को पहले अपनी बात कहने दो। दुर्योधन अब क्या कहते। तभी कृष्ण ने कहा- एक तरफ मेरी एक अक्षौहिणी सेना है। जो बल में मेरे बराबर है। दूसरी तरफ मैं अकेला हूं। मैं लड़ाई में शस्त्र नहीं उठाऊंगा। अर्जुन तुम किसे चाहते हो- मेरी सेना या अकेले मुझे। अर्जुन ने कहा- प्रभु, मैं सिर्फ और सिर्फ आपको चाहता हूं। कृष्ण ने कहा- सोच लो। मैं युद्ध नहीं करूंगा। सिर्फ तुम्हारी ओर रहूंगा। अर्जुन ने कहा- ठीक है भगवन। मुझे तो अकेले आपकी ही जरूरत है। दुर्योधन यह सुन कर बहुत खुश हुआ। उसे एक अक्षौहिणी सेना मिल गई। बाहर निकलते हुए वह सोच रहा था- अब तो पांडवों को हराना चुटकी बजाने जैसा है। जब कृष्ण की सेना मेरे साथ है तो फिर बात ही क्या है। जब दुर्योधन चला गया तो भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा- अर्जुन तूने मूर्खता की है। अकेले मुझ निहत्थे को लेकर क्या करोगे। अर्जुन बोला- प्रभु। मेरे अस्तित्व के कण- कण में आप विद्यमान हैं। आपके बिना मैं रह ही नहीं सकता। मुझे जीत या हार की चिंता नहीं है। मुझे तो बस यही खुशी है कि आप मेरे साथ हैं। बस, मैं आनंद में हूं। सभी जानते हैं कि अकेले कृष्ण के कारण ही पांडव इस युद्ध में जीते। भगवदगीता में है- जहां कृष्ण जैसे योगेश्वर हैं और अर्जुन जैसा धनुर्धारी है, जीत वहीं होगी। आज जब मैंने रास्ते में एक व्यक्ति को- हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम, हरे राम राम राम हरे हरे, गाते हुए सुना तो यह कथा याद आ गई।

Monday, January 4, 2010

समूचा पहाड़ ही उठा ले गए पवनसुत

विनय बिहारी सिंह

कल हनुमान जी का प्रसंग एक बार फिर पढ़ कर सुख मिला। जब रावण के पुत्र के बाण से लक्ष्मण जी मूर्छित हो गए तो भगवान राम ने विभीषण से सलाह ली कि वैद्य कहां मिलेंगे। तुलसी दास तो कहते थे कि जो सबके जीवन के मालिक हैं, उन्हें वैद्य की क्या जरूरत? और कोई वैद्य भी तो उन्हीं की कृपा से किसी को ठीक करता है। लेकिन चूंकि भगवान राम ने मनुष्य का अवतार लिया था। इसलिए वैद्य खोजने की बात आई। विभीषण ने कहा कि लंका में एक वैद्य हैं सुषेण। लेकिन वे आएंगे कि नहीं, कहना मुश्किल है। यह बात हनुमान जी ने सुन ली। उन्होंने कहा कि मैं उन्हें उठा लाता हूं। वे गए और उस कमरे को ही उठा लाए जिसमें सुषेण जी सोए हुए थे। उन्हें जगाया गया। सुषेण समझदार थे। समझ गए कि उन्हें किसी अत्यंत बलशाली व्यक्ति ने बुलाया है। वरना घर के एक हिस्से को उठाने की ताकत तो किसी में नहीं है। सुषेण से समस्या बताई गई। उन्होंने कहा कि मंदार पर्वत पर संजीवनी बूटी है। उसका रंग रूप भी बता दिया। कहा कि अगर संजीवनी बूटी मिल जाए तो लक्मण जी तुरंत होश में आ जाएंगे और उनमें पहले से भी ज्यादा शक्ति आ जाएगी। हनुमान जी तुरंत उड़ कर मंदार पर्वत गए लेकिन वहां एक ही तरह की लाखों जड़ी- बूटियां देख कर उन्हें समझ में नहीं आया। इसलिए वे उतना हिस्सा उखाड़ कर ले उड़े। रास्ते में अयोध्या नगरी पड़ती थी। हनुमान जी की विराट छाया जमीन पर पड़ी तो उस समय के राजा भरत ने आसमान की तरफ देखा और पाया कि कोई विशाल जीव उड़ा जा रहा है। उन्होंने तत्काल तीर चलाया और हनुमान जी बेहोश हो कर धरती पर गिर पड़े। लेकिन उनके मुंह से राम, राम निकला। भरत चौंके। हनुमान जी को होश में लाकर उन्होंने उनका परिचय और पहाड़ ले जाने का कारण पूछा। जब हनुमान जी ने बताया कि लक्ष्मण जी बेहोश हैं। यह उन्हीं की दवा है। तो भरत जी बेहद दुखी हुए। उन्होंने खुद को कोसा। वे अनजाने में ही भाई की चिकित्सा में विलंब कर रहे हैं। उन्होंने हनुमान जी का सत्कार किया और एक बाण को छोड़ा जो हनुमान जी को लेकर सीधे राम और लक्ष्मण जी के पास चला गया। सुषेण हनुमान जी के पराक्रम को समझ चुके थे। इसलिए तुरंत उन्होंने उपलब्ध जड़ी- बूटी से लक्ष्मण को ठीक कर दिया। रामायण के विशेषग्य कहते हैं कि हनुमान जी को आठ सिद्धियां और नौ निधियां प्राप्त थीं। यह भगवान राम ने नहीं मां सीता ने उन्हें दिया था। मां सीता जगन्माता हैं। भगवान राम को यह बात मालूम थी। भगवान शिव ने भगवान राम के बारे में रामचरितमानस में कहा है- पग बिनु चलै, सुनै बिनु काना। कर बिनु कर्म करै बिधि नाना।। वे तो अंतर्यामी हैं। सर्व शक्तिमान हैं और सर्व ग्याता हैं। लेकिन चूंकि मनुष्य का अवतार लिया है, इसलिए रावण से युद्ध कर रहे थे। पत्नी वियोग दिखा रहे थे और भाई के मूर्छित होने पर शोक व्यक्त कर रहे थे। जबकि सच्चाई यह है कि वे तो त्रिगुणातीत हैं। न उन्हें सत्व गुण व्यापता है और न ही रज या तम।

Saturday, January 2, 2010

एक बच्चे का आनंद

विनय बिहारी सिंह

आज घर से आफिस आते वक्त एक अद्भुत दृश्य देखा। इस घनघोर ठंड में एक पांच साल का बच्चा फुटपाथ पर पानी भरे टब में बैठ कर नहा रहा था। टब का पानी एक छोटे से प्लास्टिक के मग से अपने सिर पर डालते हुए वह अत्यंत आनंद महसूस कर रहा था। उसे नहाते देखने के लिए मुझे थोड़ी देर के लिए रुक जाना पड़ा। वह जब भी सिर पर पानी डाल रहा था, उसके चेहरे पर चरम आनंद का भाव आ जाता था। क्या दृश्य था। उसके आनंद से मैं खुद आनंदित हुआ। ऐसा ही एक दृश्य चार दिन पहले देखने को मिला। एक मां घर का अत्यंत आवश्यक कार्य निबटा रही थी। उसे सांस लेने की फुरसत नहीं थी। लेकिन उसका छोटा सा बच्चा मां के साथ खेलना चाहता था। उस घर में अत्यंत आग्रह से चाय पर मैं आमंत्रित था। बच्चा बार- बार मां से खेलने की जिद कर रहा था और मां बार- बार बच्चे की जिद को टाल रही थी। अचानक बच्चा उठा और मां के गाल पर अत्यंत प्यार से चुंबन दे दिया। आह, मां के चेहरे का आनंद तो देखते बन रहा था। मां की आंखें आनंदातिरेक में बंद हो गईं। उसके हाथ में जो काम था वह छूट गया। मां ने बच्चे को झपट कर गोद में ले लिया और उसे चुंबन देते हुए उसके साथ खेलने लगी। बच्चा बार- बार खिलखिलाने लगा। उसी मां को मेरे लिए चाय बनानी थी। कुछ देर बच्चे के साथ खेल लेने के बाद मां बोली- सॉरी, आपके चाय में विलंब हो गया। मैंने कहा- कैसा विलंब? जो दृश्य देख रहा हूं, उसकी तुलना चाय से करके क्यों आनंद को सीमित कर रही हैं आप। लेकिन वे नहीं मानीं। बच्चे को ही लिए हुए उन्होंने चाय बनाई और जलपान की कई और वस्तुएं मेरे सामने रख दीं। मेरे लिए बच्चे का यह दृश्य इतना सुखद था कि जलपान के दौरान मैं उसी में खोया रहा। मुझे कई बार लगा कि यह मां जगन्माता का ही रूप है। जैसे हम सब उसके बच्चे हैं और हमारी छोटी- मोटी गलतियों को जगन्माता माफ कर देती हैं, ठीक उसी तरह यह मां भी है। और अगर हम जगन्माता (मां काली, दुर्गा, सरस्वती या पार्वती, राधा या सीता जी वगैरह जगन्माता के ही रूप हैं। जगन्माता एक ही हैं, उनके रूप अलग- अलग हैं।) से प्यार करें और उसका ध्यान अपनी ओर खींचें तो वह भी हमें प्यार करेगी। पश्चिम बंगाल के रामप्रसाद के बारे में मैंने पिछले दिनों इसी जगह चर्चा की थी। वे तो कहते थे कि हर सांस ही जगन्माता के नाम है। और जगन्माता भी उनसे खूब प्यार करती थीं। वे जो चाहते थे उन्हें मिल जाता था। लेकिन मजे की बात यह है कि वे कोई भी भौतिक वस्तु चाहते ही नहीं थे। बस वे कहते थे- मां मुझे तो बस तुम्हारा प्यार चाहिए। मुझे इस योग्य बना दो कि मैं जब चाहूं, तुम्हारा दर्शन कर सकूं। तुमसे सीधे बातचीत कर सकूं। और यह सुविधा उन्हें प्राप्त थी।

Friday, January 1, 2010

नए साल में आप सबको ढेर सारी खुशियां मिलें

विनय बिहारी सिंह

आप सबको नए साल की असंख्य शुभकामनाएं। ईश्वर आप सबकी मनोकामनाएं पूरी करें। नए वर्ष में हम सब कुछ न कुछ अच्छा करने की सोचते हैं और अनेक लोग संकल्प करके भूल जाते हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो उस पर अमल करते हैं। मसलन मेरे एक परिचित ने पिछले साल नए साल शुरू होते ही कहा था- आज से मैं सिगरेट पीना छोड़ रहा हूं। और सचमुच उन्होंने सिगरेट पीना छोड़ दिया। अब उन्हें सिगरेट की ओर देखने की इच्छा भी नहीं होती। यह है दृढ़ इच्छा शक्ति का प्रमाण। जब उनसे पूछा कि क्या आपको कभी सिगरेट पीने की तलब तड़पा गई? उन्होंने कहा- हां। एक बार तो ऐसा लगा कि मैं सिगरेट के बिना जी ही नहीं सकता। लेकिन तब भी मैंने खुद पर कंट्रोल किया और आज सिगरेट से मुक्त हूं। उन्होंने कहा- दुनिया में कुछ भी करना असंभव नहीं है। दोष सिगरेट का नहीं है। दोष तो हमारा ही है। पैदा होते ही तो हमने सिगरेट पी नहीं। इसकी लत तो बड़े होने पर लगी। सिगरेट हमें गुलाम क्यों बनाए। उनकी बातें सुन कर सुख मिला। संत कहते हैं कि हमें हर वर्ष अपने भीतर झांक कर देखना चाहिए कि हमारे भीतर बुरी आदतों का कचरा क्या है। अगर है तो उन्हें दृढ़ इच्छा शक्ति से हटाने का काम शुरू कर देना चाहिए। यह सच है कि आप उसे जितना छोड़ना चाहेंगे, वह आपको उतना ही पकड़ना चाहेगी। लेकिन जब आप मानसिक रूप से ताकतवर रहेंगे तो वह आदत अंततः छूट जाएगी। आइए एक और पहलू का जिक्र करें। कई लोग नए साल पर संकल्प लेते हैं कि वे आज से रोज सुबह शाम दस मिनट का ध्यान करेंगे या ऊं नमः शिवाय का जाप करेंगे। कुछ लोग तो आलस के शिकार हो जाते हैं। वे तरह तरह के प्रपंचों के लिए समय निकाल लेते हैं लेकिन ईश्वर के लिए दस मिनट भी नहीं निकाल पाते। यह कितना आश्चर्य है? लेकिन कुछ लोग दृढ़ निश्चयी होते हैं। वे लोग जब तय कर लेते हैं कि ईश्वर के लिए आज से दस मिनट का समय रोज निकालेंगे तो वे उसका पालन भी करते हैं और ताजिंदगी उस नियम को निभाते हैं। मजे की बात यह है कि हम दूसरों के नियमों को निभाने में तो कोई कोर कसर नहीं छोड़ते लेकिन अपने बनाए नियम मानो तोड़ने के लिए ही बने हों। नहीं। जो शुभ काम तय कर लिया उसे करना ही चाहिए। जब तय किया तभी से उस पर अमल भी करना शुरू करना चाहिए। कहावत भी है- शुभ काम में देर क्यों? और सुबह- शाम जाप करने या पाठ करने या ध्यान करने का फल कितना सुखदायी होता है, यह तो इसका पालन करने वाला ही जानता है। नए साल की पूर्व संध्या पर मैं एक आश्रम में था और रात वहीं बिताई। पहली जनवरी २०१० को वहीं प्रसाद के रूप में जलपान किया और तब वहां से रवाना हुआ। एक अद्भुत अध्यात्मिक माहौल में नए साल में प्रवेश करना अनिर्वचनीय आनंद था। वहां के सन्यासियों ने ध्यान का एक खंड दूसरों की भलाई के लिए रखा था। यानी जिन्हें हम जानते हैं और जिन्हें हम बिल्कुल नहीं जानते उन सबकी भलाई के लिए ईश्वर से प्रार्थना। क्या आनंद था। सभी लोगों ने हृदय से अन्य लोगों के सुख और उनकी समृद्धि के लिए प्रार्थना की। सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामया।। ( सभी सुखी रहें। सबके सुख में अपना सुख है। सबमें हम भी आ गए।) मेरे जीवन का यह सबसे आनंददायी और कभी न भूलने वाला समय था। सुख से सराबोर ऐसा नया साल सबको मिले।