Tuesday, January 19, 2010

बच्चे ने पूछा- दादी का शरीर तो यहीं है, गई कहां?

विनय बिहारी सिंह

एक परिवार में १२ साल का प्यारा सा बच्चा था। उसकी दादी का लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। शव के अंतिम संस्कार की तैयारी होने लगी। बच्चा हैरान था। कल ही तो उसने दादी से कहानी सुनी थी। दादी की गोद में सोया था। नींद खुली तो पाया कि वह मां के पास सोया है। शायद मां रात को उसे अपने पास ले आई। घर के सभी लोग व्यस्त थे। लेकिन बच्चे के दिमाग को एक सवाल लगातार परेशान कर रहा था। लोग कह रहे थे कि उसकी दादी चली गई। लेकिन दादी तो बिस्तर पर मरी पड़ी है। गई कहां है? कुछ लोग कह रहे हैं कि प्राण आंखों से निकला है। इसीलिए आंखें खुली हैं। लेकिन प्राण क्या इतना सूक्ष्म है कि वह आंखों से निकल सकता है? बच्चा अपना सवाल पूछे तो किससे पूछे। वह दादी की मृत्यु के दुख में रो लेता और मन ही मन अपना सवाल दुहराता। लेकिन उसकी सुनने वाला आज कोई नहीं था। कई दिन बीत गए तो उसके नाना जी उसके घर आए। नाना जी जब इत्मिनान से बैठे तो बच्चे ने पूछा- एक बात पूछूं नाना जी? नाना जी ने सहमति दी। बच्चे ने पूछा- अच्छा, दादी जी के प्राण कहां चले गए? नाना जी ने कहा- भगवान के पास। बच्चे ने पूछा- भगवान कहां रहते हैं? नाना जी ने कहा- भगवान हर जगह हैं। मुझमें, तुममें इस समूचे संसार में। बच्चे ने पूछा- लेकिन न भगवान दिख रहे हैं और न ही दादी। भगवान कैसे दिखेंगे? नाना जी ने कहा- भगवान सूक्ष्म से सूक्ष्मतम हैं। तुम्हारी दादी के प्राण भी सूक्ष्तम हैं। इसलिए दोनों नहीं दिखाई दे रहे हैं। लेकिन उनका अस्तित्व है। जो चीजें नहीं दिखती हैं उनका भी अस्तित्व होता है। जैसे कोई तुम्हें पसंद नहीं करता लेकिन तुमसे हमेशा हंस कर बातें करता है तो उसकी भावना तुम देख नहीं सकते। लेकिन उस भावना का अस्तित्व है। भगवान इससे भी उच्च स्तर का है। १२ साल का बच्चा सूक्ष्म बातें नहीं समझ पाया। लेकिन इतना जरूर जान पाया कि प्राण हवा की तरह है जिसे देखा नहीं जा सकता। मनुष्य का जो प्राण सूक्ष्माति सूक्ष्म है, हम उसके शरीर में रहने पर आत्मविश्लेषण नहीं करते। हम तो तरह- तरह के झमेलों और प्रपंचों में समय बिताते रहते हैं। और अचानक एक दिन जाने का समय आ जाता है। कहां जाने का समय? ईश्वर के पास जाने का समय। तब हमें लगता है कि अरे? इतनी जल्दी? अभी मुझे संसार में और रहना चाहिए। लेकिन हमारे सोचने से क्या होगा? हम तो अपने कर्मों के हाथों में कठपुतली हैं। जब हम अपने ही कर्मों के फल भोगते हैं तो ईश्वर को याद करते हैं। एक बार दिल से पुकारने से ही ईश्वर हमारे पास आ जाते हैं। बस सच्ची पुकार होनी चाहिए। आप नितांत अकेले हैं और अचानक आपने दिल से कहा- हे भगवान। बस, उन्होंने सुन लिया। फिर भी हम अपने प्रपंचों में उन्हें पुकारना भूल जाते हैं। जबकि वे नजदीक से भी नजदीक हैं और अगर दूर समझेंगे तो वे बहुत दूर हैं। सबसे ज्यादा करीब तो भगवान ही हैं। वे हमारी तरफ लगातार देख रहे हैं, लेकिन एक क्षण के लिए भी उनकी तरफ देखना, उन्हें याद करना अपना कर्तव्य नहीं मानते। लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए।

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