Saturday, January 9, 2010

ईश्वर कहां है?

विनय बिहारी सिंह

यह कथा योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के ब्रह्मचारी निगमानंद जी ने सुनाई। एक ईश्वर प्रेमी सैलून में बाल कटा रहे थे। नाई कहने लगा- लगता है ईश्वर नहीं है। अगर होता तो क्या इतना दुख, बीमारी और कष्ट होता? ईश्वर भक्त ने तर्क दिया। लेकिन नाई कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था। वह एक ही रट लगाए जा रहा था। ईश्वर कहां है? रहता तो संसार में इतना कष्ट होता? ईश्वर प्रेमी बाल कटा कर बाहर निकला। देखा कि दाढ़ी और बाल बढ़ाए कुछ लोग गांजे का दम लगा रहे हैं। वह वापस सैलून में गया और नाई से बोला- कोई नाई नहीं है। नाई बोला- क्यों, मैं तो हूं ही। ईश्वर प्रेमी बोला- नहीं। तुम मेरे साथ बाहर आओ। नाई के पास अभी कोई ग्राहक नहीं था। इसलिए वह बाहर आया। बोला- क्या है? ईश्वर प्रेमी ने कुछ दूरी पर पेड़ के नीचे दाढ़ी- बाल बढ़ाए गांजा पी रहे लोगों को दिखाते हुए कहा- अगर कोई नाई होता तो इनके दाढ़ी और बाल क्यों बढ़े होते? नाई ने कहा- अगर कोई मेरी दुकान पर आएगा, तब तो मैं उसके बाल काटूंगा। ईश्वर प्रेमी ने कहा- ठीक कहा। जब कोई ईश्वर के पास जाएगा, तब तो वे बताएंगे कि वे कहां हैं। ऋषि और महापुरुषों ने तो न जाने कितनी बार कहा है- ईश्वर हमारे हृदय में हैं। लेकिन हम हृदय की गहराई में जाते ही नहीं। हम चाहते हैं कि इंद्रियों का दास भी बने रहें। भोगी भी बने रहें और ईश्वर का भी दर्शन कर लें। ईश्वर को जानने और अनुभव करने के लिए उनके प्रति सर्वोच्च भक्ति, असीम प्रेम और उत्कंठा होनी चाहिए। तुलसीदास ने कहा है- भाद्रपद महीने में नदी व ताल तलैयों के अलावा छोटे- मोटे गड्ढे और यहां तक कि रास्ते भी पानी से भर जाते हैं। इसका मतलब यह तो नहीं कि सबको नदी कह दिया जाए। जब जेठ की दुपहरी आती है तब आप देखते हैं कि ये गड्ढे और ताल- तलैया सूख गए, लेकिन नदी लगातार बह रही है। जिसमें अत्यंत गहरी निष्ठा रहेगी वही ईश्वर का अनुभव कर पाएगा। उसे असली नदी बनना पड़ेगा। जो भाद्रपद में तो बहती ही है, जेठ की दुपहरिया में भी बहती है यानी संकट आने पर या कष्ट में भी जो ईश्वर से उतना ही प्रेम करता है जितना सुख में रहने पर।

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