Monday, August 31, 2009

डरना ज्यादा खतरनाक है

विनय बिहारी सिंह

यूरोप में हाल ही में शोध हुआ है कि नौकरी जाने का डर नौकरी जाने से भी खतरनाक है। यानी अगर आप हमेशा डरते रहते हैं कि कहीं आपकी नौकरी चली न जाए तो आप के शरीर के हारमोन असंतुलित हो जाएंगे आप धीरे- धीरे डिप्रेशन के शिकार हो जाएंगे। इस तरह आपका जीवन उदास, निराश और इनफीरियारिटी कांप्लैक्स का शिकार हो जाएगा। शोध से यह भी पता चला है कि जिनकी नौकरी चली गई है, वे इन डरने वालों से ज्यादा स्वस्थ हैं और उनके भीतर लगातार डर की कोई गुंजाइश नहीं है। यह महत्वपूर्ण शोध है। हमारे यहां ऋषि- मुनियों औऱ अब तो आज के मनोचिकित्सक भी कह रहे हैं कि डर कर जीना खतरनाक है। इससे शरीर के तंत्रिका तंत्र पर लागातार धक्का लगता है और मनुष्य धीरे- धीरे कायर हो जाता है। कोई भी कठिन काम सामने आते ही वह डर जाता है और उसे लगता है कि मुझसे तो यह काम होगा ही नहीं। सामान्य से काम भी उसे कठिन लगने लगते हैं। मनोचिकित्सक कहते हैं कि नौकरी को लेकर ही नहीं किसी भी परिस्थिति में डरना नहीं चाहिए। डर हमारे लिए धीमे जहर का काम करता है। गीता में तो कहा गया है कि भय, लोभ, क्रोध और ईर्ष्या इत्यादि भाव मनुष्य को नुकसान पहुंचाते हैं। क्रोध तो पूरे नर्वस सिस्टम (तंत्रिका तंत्र) को हिला कर ऱख देता है। कभी कभी यह बहस छिड़ जाती है कि भय ज्यादा खतरनाक है या क्रोध। चोटी के मनोचिकित्सक हालांकि दोनों को समान घातक बताते हैं लेकिन लोभ और ईर्ष्या भी कम खतरनाक नहीं है। हमारे शरीर का केंद्र बिंदु है नर्वस सिस्टम। अगर इस पर अनायास ही दबाव पड़ता रहा तो एक दिन ऐसा आएगा कि हमें जीवन में चारो तरफ अंधेरा ही दिखाई देने लगेगा। इसलिए हमेशा मन में ईश्वर के प्रति विश्वास रखना चाहिए। ईश्वर हमारे साथ है तो फिर कोई चिंता की बात नहीं है। हम हर बाधा, हर परेशानी आसानी से दूर कर सकते हैं। किसी बात के लिए अपने मन में दुख नहीं पालना चाहिए। जो हो गया सो हो गया। अब अपने मन को ईश्वर के साथ जोड़ कर प्रसन्न रहना चाहिए। एक बार ईश्वर के हाथों में अपनी बागडोर सौंप देने के बाद आपको लगता है कि अब किसी बात का डर, किस बात की चिंता? मैं तो सो भी रहा हूं तो ईश्वर मेरी देख भाल कर रहे हैं। यह विचार कितना सुखद है। कई लोग रात को सोने के पहले ईश्वर से गहरी प्रार्थना करते हैं। इसके बाद ही सोते हैं। उन्हें खूब अच्छी नींद आती है। सुबह उनका मन प्रफुल्लित रहता है क्योंकि रात को उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की हुई होती है। वे सदा ईश्वर को अपने हृदय में रखते हैं। इसे करने में कोई दिक्कत भी नहीं है।

Saturday, August 29, 2009

नींद में तो आप तनाव में नहीं रहते

विनय बिहारी सिंह

सोने से पहले न जाने कितनी बातें हमारे दिमाग में रहती हैं। लेकिन सोने के बाद सब कुछ भूल जाता है। यह सब कांशस स्टेट है। सोते वक्त हमारी सारी इंद्रियां शिथिल पड़ जाती हैं। हम पूरे आराम में होते हैं। हमारी नींद तब और अच्छी होती है जब कोई सपना नहीं आता। एकदम गहरी यानी संपूर्ण नींद से जब आप जागते हैं तो कहते हैं- आज बड़ी अच्छी नींद आई। रमण महर्षि कहते हैं- जाग्रत अवस्था में भी नींद वाली मनःस्थिति में रहना सीखिए। उनका कहने का अर्थ यह नहीं कि दिन में भी सोते रहिए। बल्कि जिस तरह जागते ही हमारा दिमाग संसार के प्रपंच में फंस जाता है और नींद की शांति गायब हो जाती है, उससे बचने की सलाह दे रहे हैं महर्षि। हमारा दिमाग न जाने कहां कहां दौड़ता रहता है। बेमतलब की जगहों पर भी जाता है और इस तरह समय बर्बाद होता है। कई लोगों का तो कहना है कि बंधन मुक्त दिमाग ही ठीक है यानी दिमाग जहां जाए वहां जाने दिया जाए। यही मुक्ति है। संतों ने कहा है ऐसी सोच गलत है। दिमाग को नियंत्रण में रखना होगा। दिमाग वह घोड़ा है जिसे अगर काबू में रखा गया तो मनुष्य की दुनिया ही बदल सकती है। लेकिन अगर उसे फ्री छोड़ दिया गया तो वह मनुष्य को बेचैन कर देगा। न जाने क्या- क्या सोचता है। रमण महर्षि ने कहा है- माइंड इज बंडल आफ थाट्स। भगवान बुद्धि के परे है। यानी जब ध्यान करना है तो चिंतन मुक्त होना पड़ेगा। माइंड को नकारना पड़ेगा। यानी माइंड के पार जाना पड़ेगा। क्योंकि जब तक एक भी विचार या एक भी कामना आपके मन में है, दिमाग उधर ही जाएगा। भगवान की तरफ जाएगा ही नहीं। इसलिए दिमाग को नकार देना पड़ेगा। यानी दिमाग को चिंतन मुक्त करना पड़ेगा। यह अचानक एक दिन में नहीं हो सकता। ऋषियों ने कहा है कि यह काम धीरे- धीरे ही संभव है। ध्यान यानी कंप्लीट एब्जार्ब्शन आफ माइंड इन टू गॉड। गीता के मुताबिक जैसे कोई दिया की लौ बिना हवा के स्थान पर लगातार स्थिर रहती है, बिना हिले- डुले, ठीक उसी तरह मनुष्य का दिमाग लगातार ईश्वर पर केंद्रित रहना चाहिए। ऐसा करते रहने से एक दिन अचानक ईश्वर की अनुभूति होगी और आप आनंद के सागर में डूब जाएंगे। आपका हृदय ईश्वरमय हो जाएगा।

Friday, August 28, 2009

सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम है सर्व शक्तिमान

विनय बिहारी सिंह

गीता के आठवें अध्याय में भगवान कृष्ण ने कहा है कि सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म है सर्वशक्तिमान परमात्मा। इसे जो जान लेता है, उसकी मुक्ति निश्चित है। तब आप पूछ सकते हैं कि अगर भगवान सूक्ष्म है तो परम भक्तों को कैसे दर्शन देते हैं। इसका जवाब भी गीता में ही है। भगवान कृष्ण कहते हैं कि वे साकार भी हैं और निराकार भी। वे सूक्ष्म भी हैं और स्थूल भी। जो अनंत शक्तिशाली है, क्या उसके लिए संभव नहीं है कि वह कृष्ण रूप में आ जाए। जो अनंत है, वही सर्व शक्तिमान भी है। ईश्वर के गुणों का अंत नहीं है। ईश्वर के लिए कुछ असंभव भी नहीं है। यह सृष्टि जिस तरह ठीक नियम से चल रही है, उसके नियंता की नजर से क्या कुछ भी चूक सकता है? ईश्वर के बारे में आप जितना सोचेंगे, हैरान होंगे। एक छोटा सा बरगद का बीज किस चमत्कारिक ढंग से विशाल वृक्ष बन जाता है, पेड़- पौधों की छोटी सी पत्तियां कैसे फोटो सिंथेसिस के जरिए भोजन तैयार कर पूरे वृक्ष या पौधे को जीवित रखती हैं, और ठीक समय पर कैसे दिन औऱ रात का क्रम चलता रहता है, कैसे ठीक समय पर ऋतुएं बदलती रहती हैं। इन सबके पीछे कैसे अदृश्य भगवान की पैनी नजर है। कभी एकांत में बैठ कर चैन से सोचिए तो भगवान के इन चमत्कारों का आनंद ले सकते हैं। आप कह सकते हैं कि जीवन में इतना तनाव है, भागदौड़ और समस्याएं हैं तो चैन से ईश्वर के बारे में सोचने का समय कहां है? हां, आप अपनी जगह ठीक हो सकते हैं लेकिन ईश्वर से दूर रह कर आपको क्या चैन मिलेगा? आप कहेंगे ईश्वर तो हमारे भीतर रहता है, ऐसा शास्त्र कहते हैं। फिर ईश्वर से हम दूर कैसे हैं। हां, यह ठीक है कि ईश्वर हमारे भीतर है, लेकिन हमने कभी यह महसूस किया है? हम तो हमेशा ही ईश्वर को छोड़ कर सब कुछ सोचते रहते हैं। ईश्वर हमसे दूर नहीं है, हम ईश्वर से दूर हैं। माया का परदा बीच में लटक रहा है। ईश्वर और हमारे बीच माया का परदा। जब हम चैतन्य होंगे, ईश्वर हमारे पास ही तो हैं।

Thursday, August 27, 2009

भगवान राम का तात्विक रूप

विनय बिहारी सिंह

सीता जी की खोज में जब भगवान राम वन में भटक रहे थे और हा सीते, हा सीते कर रहे थे तो माता पार्वती ने भगवान शंकर से पूछा कि आप तो भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम और सबका आराध्य कहते हैं। लेकिन वे तो पत्नी के लिए इतने व्याकुल हैं जैसे कोई सामान्य व्यक्ति। फिर इनका ईश्वरीय स्वरूप कहां बिला गया? भगवान शंकर ने कहा कि यह उनकी मनुष्य अवतार की लीला है। अगर मनुष्य में जन्म लिया है तो पीड़ा, दुख, सुख औऱ वे सभी भाव तो दिखाने पड़ेंगे जो एक मनुष्य में होती हैं। लेकिन वे यह सब नाटक के रूप में कर रहे हैं। भगवान शंकर ने कहा कि अगर विश्वास न हो तो तुम खुद परीक्षा ले लो। मां पार्वती ने हू- ब- हू सीता का रूप धरा और सीधे राम के सामने खड़ी हो गईं। भगवान राम ने पूछा- मां, पार्वती आप यहां क्यों खड़ी हैं? शंकर जी कहां हैं। कथा है कि मां पार्वती लज्जित हो गईँ। अब आइए तात्विक चर्चा पर। मां सीता स्वयंवर में जाने के पहले मां पार्वती के ही मंदिर में प्रार्थना करने गई थीं कि राम से मेरा विवाह हो जाए। वही मां पार्वती भगवान राम की परीक्षा लेने कैसे पहुंच गईं? वे तो सर्वदर्शी हैं। संतों ने इसकी बहुत रोचक व्याख्या की है। रामचरितमानस में ये घटनाएं या कथाएं सामान्य पाठक के दिल में राम तत्व उतारने के लिए लिखी गई हैं। राम ने अपनी चेतना खोई नहीं थी। सीता जी के अपहरण के बाद भी वे चैतन्य थे। उधर रावण से उसकी पत्नी मंदोदरी लगातार प्रार्थना कर रही थी कि राम साधारण व्यक्ति नहीं हैं। वे ईश्वर के अवतार हैं। राम से संधि कर लीजिए। लेकिन रावण में अपने बल का अभिमान था। भगवान राम को दिखाना था कि चाहे कोई कितना भी बलशाली हो जाए- वह सर्वोच्च शक्ति के सामने बौना ही है। रावण, और उसके बेटों, भाइयों की मायावी ताकतें सर्वोच्च सत्ता के सामने जल कर राख हो गईं। सत्य तो ईश्वर ही है।

Wednesday, August 26, 2009

शरणागति से मिलते हैं ईश्वर

विनय बिहारी सिंह

आप लाख बार कहिए कि सबके मालिक ईश्वर हैं, लेकिन कुछ लोग स्वीकार में सिर हिला कर भी दिल से नहीं मानते कि ईश्वर ही हमारा मालिक है। यह बात आश्चर्यजनक भी लगती है। कई लोग समझते हैं कि करने वाले वे ही हैं। अगर उन्होंने कोई कोठी बनाई, कोई व्यवसाय खड़ा किया या कोई पराक्रम किया तो वे यह मानते ही नहीं कि इसमें ईश्वर का कोई हाथ है। उनको लगता है कि जो किया मैंने किया। मैं, मैं और मैं। मनुष्य की औकात क्या है? हम भोजन करने के लिए जो हाथ उठाते हैं, वह भी ईश्वर की ही शक्ति से होता है। हमारे शरीर में जो खून दौड़ता है, वह भी ईश्वर की ही कृपा से। हमारे शरीर में जो प्राण है, वह भी ईश्वर की ही कृपा से। ईश्वर ही हमारा आधार है। लेकिन मजा देखिए कि हम सारी दुनिया को याद करते हैं लेकिन ईश्वर को नहीं। लेकिन ईश्वर चुपचाप हमारी मदद करते हैं। सोचते हैं कि शायद हम लोग उनकी याद करें। परमहंस योगानंद जी कहते हैं- जब भी हम उन्हें याद करते हैं, वे मुस्कराते हैं। जब दुनिया के सारे लोग हमारा साथ छोड़ देते हैं तो हमारे साथ कौन होता है? सिर्फ भगवान। जब भी आप अकेले होते हैं, दुखी होते हैं या बेचैन होते हैं तो भगवान हमारे साथ होते हैं। ऐसे प्रिय को हम भुला देते हैं। हम समझते हैं कि भगवान को न भी याद करें तो हमारा काम चल जाएगा। लेकिन अगर भगवान कह दे कि हमारे पास भी समय नहीं है, तब? परमहंस योगानंद जी की बातें दिल में उतर जाती हैं। उन्होंने कहा है- हमेशा ईश्वर को याद रखें। वह हमारे शरीर में हृदय के रूप में, हमारे खून के रूप में उपस्थित है। वह हरी घास में भी है और एक फूल में भी। उसी की ऊर्जा से सारा संसार संचालित हो रहा है। आप व्यस्त हैं अपने आफिस में, व्यवसाय में और तरह- तरह के कामों में। लेकिन यह व्यस्तता यहीं छोड़ कर एक दिन अचानक हमें यहां जाना पड़ेगा। कहां? ईश्वर के पास। तब भी वे यह नहीं कहते कि क्यों तुमने मुझे याद नहीं किया। वे हमसे प्यार ही करते रहते हैं। हमें उन्होंने फ्री विल यानी स्वेच्छा से काम करने की आजादी दी है। हम गलत भी करते हैं तो वे हमारी आत्मा के माध्यम से हमें सचेत करते हैं लेकिन हम अगर उनकी आवाज को कांशस को दबा कर कोई काम करने लगते हैं तो इसके लिए भगवान तो जिम्मेदार नहीं हैं। इसी फ्री विल का दुरुपयोग कर करके तो हमारी दुर्गति हो रही है। हम अपनी आदतों के गुलाम हैं, अपनी सोच के ढर्रे के गुलाम हैं और अपनी कामनाओं के गुलाम हैं। यही सब हमें नचा रहे हैं और हम नाच रहे हैं। भगवान को भूल कर। एक बार भगवान को दिल से याद करके तो देखिए। वे ही सर्वशक्तिमान हैं, सर्वग्याता हैं और सर्वव्यापी हैं।

Tuesday, August 25, 2009

मन की चंचलता रोकने के उपाय

विनय बिहारी सिंह

गीता के छठवें अध्याय में अर्जुन ने भगवान कृष्ण से पूछा है- हे भगवान, मन बड़ा चंचल औऱ मथ देने वाला है। इसे वश में करना मानो वायु को वश में करने जैसा है। यानी जैसे हवा को वश में नहीं किया जा सकता, वैसे ही मन को वश में करना दुष्कर है। भगवान कृष्ण ने कहा- हां अर्जुन, मन को रोकना कठिन है। लेकिन अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसे वश में किया जा सकता है। अभ्यास कैसा? इसी छठवें अध्याय में ही भगवान ने कहा है- मन जहां, जहां जाए, उसे रोक कर बार- बार भगवान में लगाना। इसे कुछ संत अभ्यास योग भी कहते हैं। लेकिन यह कैसे संभव है? यह तभी संभव होगा जब मन पर आप पैनी नजर रखें। आप ध्यान कर रहे हैं और मन को भी देख रहे हैं। हां, यह भगवान में लगा है। अचानक यह आपको चकमा देता है और सांसारिक प्रपंच में चला जाता है। चूंकि आप मन के प्रति सजग और सचेत हैं, इसलिए इसे फिर भगवान के पास खींच लाइए। इसमें ऊबने से काम नहीं चलेगा। मन की चालाकियां आपको पकड़नी पड़ेंगी। आप कहेंगे, मन तो मेरा है। यह चालाकी कैसे करता है? जी हां, मन बहुत चालाक है और अगर यह आपके वश में होता तो फिर चिंता ही क्या थी। तब तो आप जो कहते वही करता। लेकिन यह मन तो किसी न किसी इंद्रिय के माध्यम से आनंद चाहता है। मन खुद ही इंद्रिय है। शास्त्रों में कहा है- मन एव मनुष्याणां, कारणं बंध मोक्षयो। मन अगर वश में हो तो आप मुक्त हो जाते हैं। लेकिन अगर वश में नहीं हैं तो आप इसके गुलाम हो जाते हैं औऱ यही बंधन है। इसी से मुक्त होने के लिए तो साधक छटपटाता है, भगवान से प्रार्थना करता है, जप और ध्यान करता है। वह लगातार भगवान से योग चाहता है। भगवान से हमारा जब तक वियोग है तब तक दुख और पीड़ा है, तनाव और तकलीफ है। लेकिन ज्योंही योग हो गया, बस फिर आपको कोई चिंता नहीं। आपकी हर परेशानी हल होती जाएगी। जो परेशानी पहाड़ लग रही है, वह मामूली लगने लगेगी। और वैराग्य क्या है? वैराग्य है कि यह शरीर नश्वर है। और मैं यह शरीर नहीं हूं, मन नहीं हूं, बुद्धि नहीं हूं, अहंकार नहीं हूं। तो फिर क्या हूं। मैं हूं सिर्फ सच्चिदानंद। मैं पवित्र आत्मा हूं। इस संसार में मैं पिछले जन्मों के संस्कार और आसक्तियां ले कर आया हूं। वही भोग रहा हूं। हे ईश्वर मेरी आसक्तियों का नाश कीजिए और मुझे अपने स्वरूप का दर्शन कराइए। मुझे अब यह सांसारिक प्रपंच अच्छा नहीं लग रहा है। बस धीरे- धीरे आपका मन भगवान की तरफ खिंचने लगेगा। तब आपको ध्यान करना नहीं पड़ेगा, ध्यान अपने आप होने लगेगा।

Monday, August 24, 2009

मन की चार अवस्थाएं

विनय बिहारी सिंह

मन की चार अवस्थाएं होती हैं- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। मन संकल्प विकल्प करता है। मान लीजिए कि कोई एक फूल आपने देखा और उसे पहचान नहीं पा रहे हैं। तो आपके दिमाग में प्रश्न उठा- यह कौन सा फूल है? जूही का या रात की रानी का। फिर आपने पूछताछ करके और दोनों पौधों के फूलों से मिला कर निश्चित कर लिया कि यह तो जूही का फूल है। सुगंध भी वही है। तो जहां प्रश्न पैदा हुआ- वह आपका मन है। जिसने तय कर दिया कि यह जूही का फूल है- वह आपकी बुद्धि है। यह फूल जब भी आप देखेंगे तो तुरंत आपका दिमाग कहेगा कि यह जूही का फूल है। यह हुआ- चित्त। चित्त वह है जिस पर आपकी स्मृति की अमिट छाप पड़ जाती है। और मैंने किया, मैंने खाया, मैं अमुक हूं। यह अहंकार है। संतों ने कहा है कि जब तक ये चारों आपको घेरे रहेंगे, आप ईश्वर से दूर रहेंगे। मन हमेशा संकल्प- विकल्प करता रहता है। इसीलिए वह इतना चंचल है कि कभी चैन से नहीं बैठता। जब चैन से बैठता नहीं तो ईश्वर का ध्यान कैसे करेगा? ईश्वर तो शांति के साम्राज्य में रहते हैं। आप कहेंगे- इतना तनाव है जीवन में, किसके पास शांति है? हां। सच है। आज का जीवन बहुत सारी व्यस्तताओं से भरा है। लेकिन आपको ईश्वर के लिए समय निकालना पड़ेगा। क्योंकि ईश्वर हैं तभी आप भी हैं। अगर आपका अस्तित्व है तो ईश्वर के कारण ही है। एक नास्तिक व्यक्ति ने कहा- जब ईश्वर दिखता ही नहीं तो फिर हम कैसे विश्वास कर लें उस पर? तो उससे संत ने कहा- पानी कैसे बनता है, यह आपको दिखता है? वह तो हाइड्रोजन और आक्सीजन के मिश्रण से बनता है। लेकिन पानी पीते हुए क्या आप हाइड्रोजन या आक्सीजन के बारे में सोचते हैं? नहीं। अगर हाइड्रोजन नहीं दिखता तो क्या वह पानी में नहीं है? तब क्या आप हाइड्रोजन के अस्तित्व से इंकार कर देंगे? ऐसा कौन है जो इंकार करेगा। पानी तो हाइड्रोजन और आक्सीजन से ही बनता है। इसी तरह ईश्वर हममें, आपमें हर जगह पर हैं। उन्हें महसूस करने के लिए आपको शांत होना पड़ेगा। कुछ विधियां हैं- जैसे- ध्यान, जप और चरम भक्ति। तब भगवान का अनुभव होगा आपको। संत पागल नहीं होते कि ईश्वर के लिए अपना सारा जीवन दे देते हैं। सर्वशक्तिमान, सर्वग्याता और सर्वग्य से कौन प्रेम करना नहीं चाहेगा? उसका एक अंश भी आप महसूस कर पाए तो आपका जीवन रूपांतरित हो जाएगा। आप हमेशा आनंद में रहेंगे। संत तो हमेशा ही आनंद में रहते हैं। आप अरबों रुपए पा कर भी जो आनंद नहीं पा सकते उसे संत अपनी साधना से पा लेते हैं। वह आनंद है- सच्चिदानंद। आपको तब पूरा ब्रह्मांड आनंदमय लगेगा।

Saturday, August 22, 2009

कर्ता तो ईश्वर ही है, हम सोचते हैं हमने किया

विनय बिहारी सिंह

कल मशहूर गायिका आशा भोसले से मिला। उन्होंने कहा- ईश्वर अपने आप देता है। मैंने तो उससे कुछ मांगा नहीं था और उसने मुझे सब कुछ दे दिया। मैं उससे अब क्या मांगू? सब कुछ तो है मेरे पास। बच्चे हुए। अब नाती- पोते हो गए हैं। सब कुछ है। लेकिन मुझे लगता है जीवन में सब कुछ अप्रत्याशित होता है। आपको जो मिलना होता है, वह मिल ही जाता है। भगवान दे कर खुश होते हैं। इसीलिए मैं किसी चीज के बारे में निश्चित रूप से नहीं कहती। ईश्वर जानें वे क्या करना चाहते हैं।

कोई बात जब मशहूर हस्ती कहती है तो उस पर लोगों का ध्यान जाता है। वैसे तो हम सभी जानते हैं कि ईश्वर ही इस संसार के आधार हैं। कहा भी है- सर्वम खल्विदम ब्रह्म.....नेह नानान्ति किन्चन...। यह भी कहा गया है कि - सर्वं ब्रह्ममयम जगत . यानी सब कुछ ब्रह्म ही है। यह भी कहा है- ईमानि सर्वानि भूतानि....। हर वस्तु में भगवान का अंश है। बांग्ला में एक गीत है- मां, सब काज करो तुमी, लोके बोले करी आमी।।(भक्त मां काली से कहता है- मां सब काम तो तुम करती हो, लेकिन लोग कहते हैं कि मैं करता हूं। यानी मैं तो तुम्हारे हाथों की कठपुतली हूं।) कई लोगों के देखने का नजरिया इतना सीमित है, सोचने का नजरिया इतना सीमित है कि उसमें भगवान भगवान का स्थान ही नहीं है। बहुत कम लोग २४ घंटे में एक बार सोच पाते हैं कि जिसने यह संसार बनाया, वह हमारा परम पिता है, माता है, सखा है और सर्वाधिक प्रियतम है। क्या हम भगवान से कभी दिल से कहते हैं- हे भगवान, मेरे भीतर अपने प्रति गहरा प्यार स्थापित करने में मदद करो। यह तो पक्का है कि भगवान दिल की पुकार सुनते हैं। क्या प्रत्येक दिन हमारे मन में आता है कि भगवान सर्वव्यापी है, सर्व शक्तिमान है और सर्वग्य है? क्या कभी हम इस तरह का चिंतन करते हैं? अगर नहीं तो इसमें हमारा ही दोष है। क्यों हम भगवान को हाशिए पर रख देते हैं? जिसने हमें जीवन दिया है, उसी को हाशिए पर रख कर क्या हम चालाकी करते हैं? नहीं। बिल्कुल नहीं। यह हमारी अग्यानता ही है। जिसे हमें प्राणों से भी अधिक प्यार करना चाहिए, उसी को भूल जाते हैं। मनुष्य का प्यार स्वार्थी होता है। आज खूब प्यार मिलेगा और कल कम। मित्रता में तो प्यार करते- करते लोग दुश्मन बन जाते हैं। संसार परिवर्तनशील है। तब आप पूछेंगे- तो क्या संसार के प्राणियों से हम प्यार न करें। क्या सबसे दूरी बना कर रखें? नहीं। बिल्कुल नहीं। सबसे प्यार से ही मिलना चाहिए। लेकिन सारा प्यार मनुष्य या पशु- पक्षी पर ही खर्च नहीं कर देना चाहिए। जिसने हमारे भीतर प्यार करने की क्षमता दी है, उसे हम क्यों भूलें? यह भी आश्चर्य की ही बात है कि ईश्वर के दर्शन के लिए कई लोग लालायित नहीं होते। उन्हें दुनिया की बातें ही मुग्धकारी लगती हैं। दुनिया भर की बातें, सिनेमा, टीवी, अखबार, गप लड़ाना, घूमना और सांसारिक वस्तुओं की कामना करना। यह होता तो सुख मिलता, वह होता तो सुख मिलता। सुख तो ईश्वर के सिवा कहीं मिल ही नहीं सकता। लेकिन हम हैं कि हाय, हाय करके जहां तहां सुख की खोज में लगे हुए हैं। भीतर ही भीतर असंतोष है। सुख नहीं मिल रहा है। इसका असंतोष। आप ईश्वर के संपर्क के सिवा कुछ भी कर लीजिए आनंद या सुख मिल ही नहीं सकता। यह आप आजमा कर देख सकते हैं।

Thursday, August 20, 2009

yes, there is god

vinay bihari singh

there is a interesting news. the scientist of university of queensland, brisbane has revealed that when cockroach rests he or she stops breathing for 40 minutes. i wonder to read this research. after all yogi also reaches the breathless state. though yogi may live without breath as long as he or she wish. but to know about this creature in this regard is certainly new thing.
the second thing i read is a story of second world war. a french air force officer ronald nikson enterd in the german territory with his team for looking there bunkers. the germans fired at them and the plane caught fire. nikson did not believe in god. but when he confronted with death, he suddenly cried- IF THERE IS GOD, SAVE ME FROM DEATH. after that he was unconcious. when he awaken after long 2 months, he was informed by family members that he was only serviver in his team. immediately he realised GOD. he contacted many fathers of churches and asked- HOW I CAN CONTACT GOD?. he could not got any answer. then he turned towards india. he had heard about great indian saints. he resigned from air force and came to india- in lucknow (u.p). he joined as english proffesor in lucknow university and later he realised god- as sri krishna.

Wednesday, August 19, 2009

हमेशा कैसे याद रखें ईश्वर को

विनय बिहारी सिंह

आपके मन में प्रश्न उठ सकता है कि आदमी २४ घंटे काम-काज में लगा रहता है। तरह- तरह की समस्याएं आती हैं, उनके बीच ईश्वर को हमेशा कैसे याद रख सकते हैं? यह तो संभव नहीं। निश्चित रूप से यह संभव है। आपको करना सिर्फ यह है कि यह मान कर चलिए कि जो भी अच्छा काम कर रहे हैं, वह ईश्वर के लिए है। आफिस जा रहे हैं तो ईश्वर के लिए, बच्चों से प्यार कर रहे हैं तो ईश्वर के लिए और खेलने जा रहे हैं तो ईश्वर के लिए। अब आप पूछ सकते हैं कि बाजार जाना ईश्वर के लिए कैसे हो सकता है? इसका जवाब है- आप घर के काम करके निश्चिंत होने की कोशिश कर रहे हैं ताकि ईश्वर का ध्यान कर सकें, उनकी पूजा कर सकें। हर काम आप इसलिए निपटा रहे हैं कि ईश्वर के लिए समय मिल सके। तो जब लक्ष्य के रूप में ईश्वर रहेंगे तो हमेशा आप ईश्वर में रहेंगे या नहीं? कुछ लोग तो बाजार जाते हुए, बस या ट्रेन में जाते हुए या घर लौटते हुए भी हे ईश्वर, हे ईश्वर का जाप या राम राम या ऊं शिव ऊं शिव का जाप करते रहते हैं। यह उनकी आदत में शुमार हो गया है। वे हर खाली समय मे ईश्वर को याद करते हैं। पहली बार कोई चीज तौलते हैं तो राम कहते हैं, दूसरी बार से २ या ३ कहते हैं। लेकिन पहली बार उनके मुंह से राम ही निकलता है। यह है अभ्यास। नाम लेते ही ईश्वर की तरफ ध्यान चला जाता है। ईश्वर की तरफ ध्यान रहने से आपका मन शांत रहेगा, आपको बुरे सपने नहीं आएंगे, आपका हर काम बनता जाएगा क्योंकि आप हमेशा ही ईश्वर की शरण में हैं। ईश्वर अपने शरणागत की रक्षा अवश्य करते हैं। यह उनका कानून है। जो उनकी शरण में है, उसकी सुरक्षा वे खुद करते हैं। संतों ने कहा है कि एक बार ईश्वर को हृदय की गहराई से पुकार कर देखिए। वे किस तरह आपकी सुनते हैं। लेकिन कुछ मनुष्य मतलबी होते हैं। जब दुख आया तो हे भगवान, हे भगवान की पुकार करेंगे। जैसे ही दुख टल जाएगा, वे भगवान को भूल जाएंगे और फिर दुनिया के प्रपंच में रुचि लेने लगेंगे। यह है माया का खेल। जो हमेशा ईश्वर की शरण में रहता है, वह माया से दूर होता जाता है और ईश्वरीय आनंद में मस्त रहता है। जैसे- कोई रसायन बनाने की खास विधि होती है, उसी तरह ईश्वर से संपर्क करने की विधि है। विधि क्या है? दिल से, मन से प्राण से ईश्वर को पुकारिए- हे ईश्वर मैं तुम्हें प्यार करता हूं। मैं तुम्हारा हो कर जीना चाहता हूं। कौन ऐसा करता है? ज्यादातर लोग तो दोस्त को, पत्नी को, प्रेमिका को, बेटे को, बेटी को बहू को पोते- पोती को और न जाने किस किस को प्यार करते हैं। ईश्वर को प्यार करने का विचार तो किसी के मन में नहीं आता। परिवार के लोगों यानी मां, बहन, बेटी, बेटा, पोती, पोता, दादा या दादी को प्यार करना चाहिए। अवश्य करना चाहिए। लेकिन जिस परम पिता ने हमें इतने अच्छे संबंधी मां, बाप या बहू- बेटा या बेटी दी है, उसको क्यों भूल जाएं? सबसे पहले तो उसी की याद आनी चाहिए।

Tuesday, August 18, 2009

क्या भगवान के लिए आपके पास समय नहीं?

विनय बिहारी सिंह

कई लोग कहते हैं कि भगवान का ध्यान करने के लिए उन्हें समय नहीं मिलता। वे दिल से चाहते तो हैं कि किसी मंदिर में जाएं या कम से कम घर पर ही राम, राम का जप करें, लेकिन समय का अभाव है। यह विचित्र सी बात है। विचित्र इसलिए क्योंकि अगर भगवान नहीं तो हम भी नहीं। हम दुनिया का प्रपंच करने यहां नहीं आते। इसलिए भी नहीं कि सिर्फ और सिर्फ अपने परिवार को लेकर ही दिन रात सोचें। हां, परिवार की जिम्मेदारी से हमें भागना नहीं है। परिवार की सुख- शांति के लिए हमें खूब परिश्रम करना चाहिए। लेकिन सब कुछ हमारा परिवार ही नहीं है। उसके ऊपर ईश्वर भी हैं। चूंकि भगवान को याद किए बिना भी हमारा काम चल रहा है, इसलिए हमें उनका ध्यान जरूरी नहीं लगता। लगता है कि भगवान तो यूं ही खुश है या वह तो तटस्थ है। हम याद करें या न करें, उसे क्या फर्क पड़ता है। हम टीवी देखने लगते हैं या अखबार या पत्रिका पढ़ने लगते हैं या गप हांकने लगते हैं। इसके लिए हमारे पास जरूर समय होता है। लेकिन पांच या दस मिनट शांति से बैठ कर दुनिया जहान को भूल कर सिर्फ और सिर्फ भगवान में डूबना कई लोगों को अच्छा नहीं लगता। वे तो किसी मंदिर में भी जाते हैं तो झट से जल चढ़ाया, फूल और माला चढ़ाई औऱ बस हो गया। मंदिर से बाहर निकलते ही दिमाग में दुनिया भर का प्रपंच घूमना शुरू हो जाता है। यह पूजा किस काम की। परमहंस योगानंद जी का लिखा एक बहुत प्रसिद्ध गीत है। वे भगवान को संबोधित करते हुए कहते हैं-
तू ध्रुवतारा मम जीवन का।
भव सागर घोर अंधेरा और तारे डूब गए
फिर भी राह दिख रही, मुझे तेरी दया से।

आप कितने भी दुखी, निराश और परेशान हों। भगवान एक सुंदर सा रास्ता आपके लिए जरूर रखते हैं। वे सारे रास्ते बंद नहीं रखते। लेकिन एक शर्त है। भगवान के पास सब कुछ है। लेकिन फिर भी वे अपनी संतानों का प्यार चाहते हैं। यानी हम लोगों का प्यार उन्हें चाहिए होता है। अगर हम उन्हें प्यार करेंगे तो वे भी हमें कई गुना प्यार करेंगे। कितना आसान है। हमें सिर्फ भगवान को प्यार करना है। दिल से। क्या हमारे दिल में अपने सृजनकर्ता के लिए प्यार नहीं है? अगर नहीं तो हम कुछ नहीं कर सकते। लेकिन अगर हमारे दिल में भगवान के प्रति थोड़ा भी प्यार है तो हमारा जीवन सुखी है। हम भगवान के हैं और भगवान हमारे हैं। भगवान खुद ही कहते हैं- हम भक्तन के भक्त हमारे। फिर तो दुनिया की सारी चिंताएं, सारा बोझ एक पल में खत्म हो जाएगा। हम मुक्त आकाश में उड़ते पंछी से मुक्त होंगे। संसार का काम करेंगे लेकिन मन भगवान के पास रहेगा। सोचिए कितना सुखी होंगे हम। वही हमारे परिवार को देखता है, उसका भरण पोषण करता है। लेकिन हम सोचते हैं कि हम्हीं सब कुछ करते हैं।

Monday, August 17, 2009

मृत्यु के बाद आदमी जाता कहां है?

विनय बिहारी सिंह

मनुष्य के मन में बहुत सारी उत्सुकताएं रहती हैं। इनमें से एक है- मृत्यु के बाद आदमी जाता कहां है? या अन्य जीव जंतु कहां जाते हैं? तो सबसे पहला उत्तर हमें गीता में मिलता है। उसमें भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु निश्चित है और जिसकी मृत्यु होती है उसका जन्म निश्चित है। यानी मरने के बाद मनुष्य का फिर जन्म होता है। गीता के दूसरे अध्याय में भगवान कृष्ण ने कहा है- जैसे मनुष्य कपड़े पुराने होने पर उसे बदल कर नया कपड़ा पहनता है, ठीक उसी तरह जीव का शरीर जब पुराना पड़ जाता है तो वह यह शरीर या चोला छोड़ कर दूसरे नए शरीर में चला जाता है। गीता से हमें कई रहस्यमय प्रश्नों का उत्तर मिल जाता है। अन्य संतो और ऋषि- मुनियों ने भी कहा है कि हमारी कामनाएं हमें बार- बार जन्म लेने को मजबूर करती हैं वरना मनुष्य सुखी रहता। वह कामना करता है, कामना के कारण लोभ, क्रोध, ईर्ष्या और तरह- तरह के तनावों से गुजरना पड़ता है। जब हमारी मृत्यु होती है तो कुछ दिनों के भीतर ही फिर हम अपनी कामनाओं को लिए हुए वापस किसी माता के गर्भ में आते हैं। कुछ संतों ने कहा है कि इधर मृत्यु हुई और उधर किसी माता के गर्भ में जन्म हुआ- इस तरह की अनेक घटनाएं होती हैं। फिर नई माता, नए पिता, नए मित्र, फिर वही बचपन, जवानी, बुढापा, रोग- व्याधि और बेटे- बेटी व पोते- पोती का चक्कर। फिर उनके लिए नौकरी या व्यवसाय का चक्कर। फिर अपनी प्रतिष्ठा के लिए हाय- हाय। तो गीता में इसका उपाय क्या है? भगवान कृष्ण ने कहा है-
सर्व धर्मान परित्यज्ये मां मेकम, शरणम व्रज।।
यानी सारे काम मेरे लिए कर रहे हो, यह मान कर चलो। (अठारहवां अध्याय) जब पूर्ण शरणागति होगी तो मैं तुम्हारे सुख- दुख का ख्याल रखूंगा। सब कुछ मेरे ऊपर छोड़ दो। बांग्ला भाषा में कहा जाता है- अपने भक्त से मां काली कहती हैं- भय की रे पागल, आमी तो आछी ( डर क्यों रहे हो पगले, मैं तो हूं ही)। जितने भी मां काली के सच्चे भक्तों को मैंने देखा है, वे सभी निर्भय और निश्चिंत हो कर जीते हैं। उन्हें कोई चिंता नहीं रहती। जो होगा, मां काली देखेंगी, मुझे क्या चिंता करना है। उनका यह भाव देख कर अच्छा लगता है। ऐसे लोगों को मैंने बहुत करीब से देखा है। उनका जीवन बड़ा सुखी रहता है। वे मां- मां कहते रहते हैं और अपना भार मां काली पर छोड़ देते हैं। ऐसे ही एक भक्त को मैंने गाते सुना है-
कोले तूले ने मां काली, कालेर कोले दिस ना फेले।।
(अपनी गोद में ले लो मां काली, काल की गोद में मत फेंको)।।

Friday, August 14, 2009

जाड़े में साधु का नंगे बदन रहना

विनय बिहारी सिंह

घनघोर जाड़े में भी कई साधु नंगे बदन रहते हैं और उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। यह कैसे संभव है? कुछ साधओं से इस संबंध में बातें हुईं। एक साधु ने कहा- शरीर को आप जैसा ढालेंगे, वह वैसा ही हो जाएगा। हां, जाड़े से बचने के लिए एक खास प्राणायाम करना जरूरी होता है। उसके बाद ठंड आपसे दूर भागती है। मनुष्य के शरीर में गजब की सहनशक्ति है, बशर्ते तनिक धैर्य रखा जाए। दूसरे साधु ने कहा कि वह संखिया का प्रयोग करता है, इसलिए जाड़ा नहीं लगता। एक अन्य साधु ने कहा कि उसके पास जंगली जड़ी- बूटियों की भस्म है, जिसके कारण उसे जाड़ा नहीं लगता। आप पूछ सकते हैं कि किसकी बात सही है? मेरे ख्याल से तीनों ही साधुओं की बात सच है। कैसे? आइए देखें। पहले साधु ने जो कहा, उसके मुताबिक शरीर के भीतर अद्भुत ताप शक्ति है। हम जब स्वेटर पहनते हैं तो स्वेटर गर्म नहीं होता। स्वेटर या कोट तो हमारे ही शरीर के ताप या हमारे शरीर की गर्मी को बाहर नहीं जाने देते और हम गर्माहट महसूस करते हैं। लेकिन एक तरह की विशेष शारीरिक क्रिया या प्राणायाम है जिसके करने से शरीर का तापमान नंगे बदन रह कर भी आपको ठंड से बचाएगा और आपको कोई कष्ट नहीं होगा। इसकी पुष्टि अन्य स्थानों पर रहने वाले साधुओं ने भी की। दूसरे साधु की बात करें। संखिया खाने वाले को ठंड बिल्कुल नहीं लगती। यह सच है। अगर आप दियासलाई की काठी की नोंक बराबर भी संखिया खा लें तो कड़ी ठंडी रात में भी आराम से बिना रजाई को सो सकते हैं। अब तीसरे साधु की बात। जंगलों में जड़ी- बूटियों की भरमार है। इनमें ऐसी जड़ी- बूटियां भी हैं जिनके पत्तों को जला कर राख किया जाता है और उसे शरीर पर लगा लिया जाता है। यह रसायन ऊनी कपड़े से भी गर्म होता है।

Thursday, August 13, 2009

कई बार शत्रु हो जाता है हमारा मन

विनय बिहारी सिंह


अचानक आपका मन करता है कि नशा करें और यह किसकी करामात है? हमारे मन की। तो मन कई बार हमारा शत्रु हो जाता है। कोई अच्छा पकवान है और हम रोज से ज्यादा खा लेते हैं। यह किसकी करामात है? हमारे मन की। तो मन हमेशा हमारे भले के लिए काम नहीं करता। इसीलिए संतों ने कहा है कि संयम बरतना चाहिए। मन जो कहे, जिधर ललचाए, उसे अपने विवेक के तराजू पर पहले तौल लेना चाहिए। आपको सुगर की बीमारी है और आपके चारो ओर बैठे लोग मिठाई खा रहे हैं। अगर आप मन के कमजोर हैं तो तुरंत आपका मन कहेगा- खा लो यार एक मिठाई। इससे सुगर थोड़े ही बढ़ जाएगा। ऐसा मौका तो कभी कभी ही आता है। और आपने मिठाई खा ली। पता चला कि आपका सुगर बढ़ गया। कई लोगों को तो बदपरहेजी के कारण इंसुलीन की सुई तक लेनी पड़ती है। यही बात फास्ट फूड वगैरह पर भी लागू होती है। तो इसका उपाय क्या है? मन पर नियंत्रण। मन जो कहे, वह करना कमजोर आदमी की निशानी है। और सोच समझ कर कोई कदम उठाना समझदार आदमी की निशानी है। अगर हम हर वह काम करने को उतावले हो जाते हैं जो मन कहता है और विवेक को पीछे धकेल कर रखते हैं तो एक दिन हमें पछताना ही पड़ेगा क्योंकि हमने जो मन की गुलामी की है, उसके परिणाम आने लगेंगे और मन फिर भी अपनी मनमानी नहीं छोड़ेगा क्योंकि वह तो बेलगाम हो जाएगा। आप उसी की सुन रहे हैं तो वह बिगड़ैल हो जाएगा। बिगड़ैल व्यक्ति या जानवर या मन कभी संतुलित जीवन की बात सोच ही नहीं सकता। नतीजा यह है कि बिगड़ैल मन वाला व्यक्ति दुख, तकलीफ और तनाव से गुजरता है। संतों ने कहा है-कुछ भी करने से पहले तनिक ठहर कर सोचिए- क्या यह काम मेरे लिए हितकर है? अगर हां तो ठीक है। अगर आपके भीतर से यह आवाज आती है- पता नहीं यह ठीक है या नहीं। करने में हर्ज क्या है? बस आपको सावधान हो जाना चाहिए। किसी भी काम में जल्दीबाजी, शीघ्रता उचित नहीं है। तब आप पूछेंगे- फिर संतों ने शुभस्य शीघ्रम क्यों कहा है? यानी शुभ काम जल्द करना चाहिए। तो इसका जवाब है- शुभ काम ही सिर्फ जल्दी करना चाहिए। जैसे- पूजा- पाठ, जप- तप, किसी असहाय की मदद इत्यादि। लेकिन यहां बात हो रही है- मनमाना काम करने की। मनमाना काम हमें खाई में धकेल देते हैं। मन तो वह घोड़ा है जिसे काबू में न किया गया तो वह बहुत कुछ चाहता है। मन की इच्छाओं का अंत ही नहीं है। तब आप पूछेंगे कि क्या हम महत्वाकांक्षाएं न पालें। जी हां, अवश्य पालिए। लेकिन यहां बात मनमानेपन की हो रही है। महत्वाकांक्षाओं की नहीं। तो हुआ न हमारा मन हमारा शत्रु। इसीलिए आप कोई नशा करते हैं तो उसे छोड़ने पर देखिए आपका मन कैसे छटपटाता है। वह नशा छोड़ना चाहेगा ही नहीं। नशा ही नहीं कोई भी बुरी लत छोड़ने पर मन छटपटाता है। ऐसे में मन की सुनिए ही मत।

Wednesday, August 12, 2009

एक संत का पछताना

विनय बिहारी सिंह

घटना ५६ साल पुरानी है। साधुओं का एक दल मध्य प्रदेश में यात्रा कर रहा था। उनमें से एक साधु बीमार हो गए। उन्हें बार- बार दस्त होने लगी। इतनी दस्त हुई कि वे शक्तिहीन से हो गए। साधुओं का दल उन्हें वहीं छोड़ कर आगे बढ़ गया। जिस गांव में उनकी तबियत खराब हुई, उसमें बंजारे रहते थे। एक बंजारे की बेटी ने उनकी बहुत सेवा सुश्रुषा की। उस गांव के वैद्य की दवा से धीरे- धीरे वे स्वस्थ हो गए। साधु युवा थे। उन्होंने बंजारे की बेटी से विवाह कर लिया औऱ घर जमाई बन कर वहीं रहने लगे। दो वर्षों के भीतर ही उन्हें एक बेटा भी हो गया। वे गृहस्थ जीवन में इतने रम गए और अपने बच्चे से इतना प्यार करने लगे कि उनका उनका सारा ध्यान, जप और संतुलन खत्म हो गया। इस तरह कई वर्ष बीत गए। तभी उस रास्ते से जा रहे एक दिव्य संत से उनकी भेंट हुई। गृहस्थ बने साधु ने परिक्रमा करने वाले संत से अपने जीवन के बारे में बताया और कहा कि मैंने सोचा था वैवाहिक जीवन में स्वर्ग का सुख है। लेकिन इस जीवन तो और भी ज्यादा तनाव है। साधु जीवन छोड़ कर बहुत अफसोस हो रहा है। अब लगता है साधु रह कर साधना में जो आनंद आता था, वह अन्य किसी भी जीवन में दुर्लभ है। संत ने उन्हें सांत्वना दी और कहा- आप गृहस्थ जीवन को भी धन्य कर सकते हैं। यहां भी आप ईश्वर के रस का आनंद ले सकते हैं बशर्ते ईश्वर के लिए आपके भीतर तड़प हो। आप ईश्वर के अलावा जहां भी सुख तलाशेंगे, आपको निराशा ही हाथ लगेगी। असली सुख, आनंद और दिव्यानुभूति ईश्वर में ही है। अब पछताने से कोई लाभ नहीं है। गृहस्थ जीवन बुरा नहीं है। इसी में रह कर आप संत का जीवन जी सकते हैं। अपनी स्त्री औऱ बच्चों को भी ईश्वर की दिव्यता के बारे में बताइए। घर का वातावरण पवित्र और ऊर्जावान बना दीजिए। इसीलिए तो पुराने जमाने में कहा जाता था कि विवाहित जीवन है- गृहस्थाश्रम। शादी करना कोई पाप नहीं है। आपको ईश्वर ने परिवार इसलिए दिया है क्योंकि आपको इसकी जरूरत थी। अब आप पिता और पति धर्म का पालन कीजिए और हमेशा याद रखिए कि मनुष्य का जन्म ईश्वर को पाने के लिए ही हुआ है। मनुष्य का शरीर और उसके मेरुदंड में स्थित छह चक्र वरदान की तरह मिले हैं। इनका साधना में इस्तेमाल कीजिए और ईश्वर से साक्षात्कार कर सच्चिदानंद बन जाइए।

Tuesday, August 11, 2009

एक सन्यासी ने बाघ को काबू में किया

विनय बिहारी सिंह

यह प्रसंग हाल ही में पढ़ा बांग्ला में छपी पुस्तक तपोभूमि नर्मदा में। इसके लेखक हैं- शैलेंद्र नारायण घोषाल शास्त्री । शास्त्री जी दिवंगत हो चुके हैं। वे वैदिक इंस्टीट्यूट के निदेशक थे। उनके पिता ने उन्हें कहा कि पवित्र नदी नर्मदा की परिक्रमा करने से दिव्य संतों के दर्शन होंगे और मनुष्य जीवन सार्थक होगा। युवा होते ही वे नर्मदा परिक्रमा के लिए निकल पड़े। रास्ते में एक दिव्य साधु सोमानंद जी से भेंट हुई। वे पागलों की तरह रहते थे और कोई भी उन्हें देख कर डर जाता था। लेकिन थे वे उच्चकोटि के संत। जब लेखक अकेले परिक्रमा करते हुए उनके रहने के स्थान पर पहुंचे तो इस साधु ने उन्हें अपने साथ ठहरने की अनुमति दे दी। वहीं उनके दिव्य गुणों को लेखक ने देखा। एक बार परिक्रमा करते हुए लेखक जब एक साधु मंडली के साथ जा मिले तो चलते हुए एक जंगल पड़ा। वहां खुले मैदान में सबको ठहरना पड़ा। चारो तरफ धुनी जला कर साधु बैठ गए और जप करने लगे- हर नर्मदे, हर। दूसरा मंत्र वे जपने लगे- रेवा, रेवा, रेवा। जब लगा कि धुनी बुझते ही बाघ उन पर आक्रमण करेंगे तभी लेखक ने साधु सोमानंद को याद किया। वे तत्क्षण वहां उपस्थित हो गए। उन्हें देख कर शेर मानों पालतू जानवर हो गए। उन्होंने एक शेर के गालों को पकड़ा और पुचकारते हुए कहा- मैंने तुम लोगों से बार- बार कहा है कि नर्मदा परिक्रमा करने वालों का रक्त कड़वा होता है। उनका मांस खा कर तुम्हारा अहित होगा। लेकिन तुम फिर भी आ गए? जाओ भागो यहां से। और शेर पालतू कुत्ते की तरह भाग खडे़ हुए। साधु आश्चर्यचकित हो गए। हालांकि उन्हें मालूम था कि कोई भी उच्चकोटि का सन्यासी किसी भी जीव को काबू में कर सकता है। यह कैसे संभव है? हर जीव के मस्तिष्क की एक सीमा होती है। लेकिन उच्च कोटि के संतों का मस्तिष्क अनंत शक्तिशाली होता है। वे किसी भी जड़ और चेतन को अपने वश में कर सकते हैं।

Monday, August 10, 2009

एक सन्यासी के मुंह से कबीर का अद्भुत गीत

विनय बिहारी सिंह


पिछले दिनों एक सन्यासी से भेंट हुई। उनसे संत कबीर का एक अद्भुत गीत सुना। यह गीत आपको भी सुनाना चाहता हूः

अवधू योगी जग से न्यारा।
मुद्रा निरति सुरति करि सिंगी, नाद शंडे धारा।
बसै गगन में दूनी न देखै, चेतन चौकी बैठा।
चढ़ि आकाश आसन नहिं छोड़े, पीवै महारस मीठा।
परगट कंठा मा है योगी, दिल में दरपन जोवै।
सहस इकीस छह से धागा, निचल नाकै पोवै।
ब्रह्म अगनि में काया जारै, त्रिकुटी संगम जागै।
कहै कबीर सोई योगेश्वर, सहज सूनि लौ लागै।।
(अवधूत योगी संसार से अलग है। अवधूत योगी चिन्ह मुद्रा, सुरति, निरति, शिंगा तिलक माला वगैरह धारण नहीं करता। नाद या कोई शब्द उच्चारित नहीं करता, वह हृदय या मस्तिष्क कोष से निसृत नाद सुनता रहता है। इसी चैतन्य में उसे सुख मिलता है। वह गगनमंडल यानी समाधि अवस्था में रहता है और दुनिया की तरफ देखता भी नहीं। चैतन्य की चौकी पर बैठा वह अपना आसन कभी नहीं छोड़ता औऱ लगातार मधुर महारस पीते रहते हैं। वे प्रत्यक्ष रूप से ध्यान मग्न दिखें या न दिखें, वे अपने हृदय दर्पण में ईश्वर को देखते रहते हैं। वे २१, ६०० गांठ को बांध देते हैं यानी २४ घंटे में मनुष्य २१, ६०० बार सांस लेता है। वे इस सांस से मुक्ति पाकर समाधि में लीन हो जाते हैं। वे ब्रह्माग्नि में अपनी काया की आहुति देते हैं और त्रिकुटी संगम में जगे रहते हैं यानी दोनों भौहों के बीच में (भृकुटी के बीच) स्थिर हो जाते हैं। कबीर कहते हैं कि ये योगेश्वर सहज औऱ शून्य ध्यान में मग्न हो जाते हैं।)

Saturday, August 8, 2009

सूर्य उगने और डूबने से है ईश्वर का गहरा संबंध







विनय बिहारी सिंह



प्रकृति के सारे काम नियम से हो रहे हैं। सूर्य एक खास समय पर उगता और डूबता है। तारे और चांद एक खास समय पर उगते और अस्त होते हैं। एक खास समय पर कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष होता है। यह है ईश्वरीय नियम। यह नियम कभी टूटता नहीं है। दिन- रात का क्रम इसी कारण से होता है। रात गहराते ही हमें नींद दबोच लेती है। सुबह होते ही हम उठ जाते हैं। लेकिन कई लोग आलस्य में इस नियम को तोड़ देते हैं। वे रात को तो सोते ही हैं, दिन में भी सो जाते हैं। मानो सोते रहना ही उनका प्रिय काम हो। जो रात को जाग कर दफ्तरों में काम करते हैं, जैसे समाचार पत्रों या टीवी चैनलों या फैक्ट्रियों में उनकी बात अलग है। लेकिन जो बाकायदा रात को सोते हैं और दिन में भी सो जाते हैं उनका शरीर सुस्त होता जाता है। उनकी शारीरिक क्रियाएं, पाचन यहां तक कि तंत्रिका तंत्र भी सुस्त हो जाता है। मनुष्य में पशु वृत्ति आ जाती है। प्रकृति का नियम है कि हम फलों और सब्जियों को ज्यादा न तलें- भुनें। लेकिन अनेक लोग खूब तली- भुनी वस्तुएं खाना पसंद करते हैं। कुछ लोग तो नशीली चीजों के गुलाम ही हो जाते हैं जैसे- सिगरेट, शराब, तंबाकू, पान और गुटका इत्यादि। प्रकृति से दूर जाने से हमें कष्ट होता है। लेकिन तब भी हममें से अनेक लोग इस तथ्य को नहीं समझते। असमय और स्वाद के नाम पर खूब मसालेदार भोजन करना, असमय सोना, दूसरों की निंदा करना और खूब टीवी देखना यही कई लोगों का जीवन बन जाता है। संतों ने कहा है कि मनुष्य जन्म का दुरुपयोग है। जब ईश्वर अपने नियम में कोई ढील नहीं करता। ठीक समय पर सूर्योदय, ठीक समय पर सूर्यास्त, तो मनुष्य इससे शिक्षा क्यों नहीं लेता। प्रकृति से दूर जाने से हम कष्ट भोगते हैं। प्रकृति से तालमेल रखने से हमें सुख मिलता है। परमहंस योगानंद ने कहा है- गाड इज हार्मनी। ईश्वर मैत्रीपूर्ण है। यानी समस्वर है। सौंदर्य है। तालमेल वाला है। सुव्यवस्थित है। सामंजस्यपूर्ण है। और हम? अगर उल्टा- पुल्टा दिनचर्या अपनाते हैं तो ईश्वर से दूर जाते हैं। संतों ने कहा है हफ्ते या कम से कम महीने में एक दिन उपवास करना चाहिए। हममें से कितने लोग उपवास करना सुखद समझते हैं? भोजन करना ही तो सबको प्रिय है। उपवास बहुत कम लोगों को सुखद लगता है। तब तो शरीर का भीतरी तंत्र शुद्ध नहीं होगा। भीतर मल पदार्थ जमा होते रहेंगे और उपवास चाहे महीने में एक दिन का ही हो, हमें शुद्ध करता है, हमारे पाचन तंत्र को राहत देता है और शरीर पहले की तुलना में ज्यादा फुर्तीला होता है। हां, लेकिन उपवास से पहले किसी डायटीशियन से राय मशविरा कर लेना चाहिए। या डायटीशियन उपलब्ध नहीं हो तो डाक्टर से ही सलाह ले लेनी चाहिए। अगर कोई अनुभवी सन्यासी उपलब्ध हैं तो उनसे भी सलाह ली जा सकती है।

Friday, August 7, 2009

कैसे है जगत मिथ्या?

विनय बिहारी सिंह


मेरे पास प्रश्न आए हैं कि जगत मिथ्या कैसे है? मेरा कहना है कि जब जगद्गुरु आदि शंकराचार्य और उनके पूर्ववर्ती ऋषियों ने कहा कि जगत मिथ्या, ईश्वर सत्य तो इसका अर्थ यही है कि यह जगत सत्य नहीं है। यहां हम अपने कर्मों और कामनाओं के कारण वापस आते हैं। कहां से वापस आते हैं? और कहां जाते हैं? ईश्वर के पास से आते हैं औऱ ईश्वर के पास ही वापस जाते हैं। बीच में यानी संसार में अपनी कामनाओं, वासनाओं और कृत्यों, संकल्पों के कारण नाना प्रकार के कीचड़ में फंसते हैं, दुख- पीड़ा और बेचैनी अनुभव करते हैं। त्रिताप- दैहिक, भौतिक और दैविक से पीड़ित होते हैं। लेकिन यह भोगना या भोजन करना या क्रोध करना या प्यार करना स्वप्नवत है क्योंकि कार्य और उसका परिणाम का नियम लगातार चल रहा है। हम जो कर रहे हैं उसकी प्रतिक्रिया हो रही है और हम उसमें फंस रहे हैं या मुक्त हो रहे हैं। यह हमारी क्रियाओं पर निर्भर है। अब आप पूछेंगे कि तब जगत मिथ्या कैसे है? तो मिथ्या इसलिए कि इस जीवन में हम डाक्टर हैं या पत्रकार हैं या वकील हैं या कुछ भी नहीं हैं, साधारण से कमाने वाले हैं तो यह कितने दिन तक के लिए है? ७० साल, ८० साल या १०० साल। फिर? फिर मृत्यु होगी औऱ नया जन्म होगा (गीता यही कहती है)। फिर हम नए रंग, रूप, नए माता- पिता औऱ नई जगह पर जन्म लेंगे। नया पेशा या नौकरी होगी। नया नाम, ठिकाना और नई जिदगी। फिर मृत्यु। फिर जन्म। आदि शंकराचार्य ने कहा है- पुनरपि जन्मम, पुनरपि मरणम, जननी जठरे, पुनरपि शयनम। तो मिथ्या है न जगत। हर बार का जन्म ही स्वप्नवत है। भोग फिर मृत्यु, फिर जन्म। आप कहेंगे- भूख लगती है। क्या यह भी मिथ्या है? जी हां। स्वप्न में जो कुछ होता है, वह मिथ्या ही है। इस स्वप्न शरीर को भूख लगती है और स्वप्न भोजन कर हम तृप्त होते हैं। फिर मरते हैं और फिर जन्म लेते हैं.। मनुष्य का लक्ष्य क्या है? उत्तर है- ईश्वर की प्राप्ति। हमारा जन्म ईश्वर को पाने के लिए ही होता है। मनुष्य जन्म में ही ईश्वर के प्राप्त करने के साधन प्राप्त किए जाते हैं। लेकिन हम अपना सारा जीवन तमाम तरह के प्रपंचों, कामनाओं और वासनाओं में खर्च कर देते हैं। कबीर दास ने यूं ही नहीं कहा है- माया महाठगिनि हम जानी।

Wednesday, August 5, 2009

असत्य को सत्य और सत्य को असत्य मानने की गलती

विनय बिहारी सिंह

हमारे प्राचीन ऋषियों ने कहा है कि यह संसार स्वप्नवत है- जगत मिथ्या, ईश्वर सत्य। तो आप पूछ सकते हैं कि अगर जगत स्वप्न की तरह है तो क्या हम किसी पत्थर के खंभे से अपना सिर टकराएं और चोट नहीं लगेगी, क्योंकि खंभा भी स्वप्न ही है। तो इसका जवाब यह है कि आपका शरीर भी स्वप्नवत ही है। चोट तो उस स्वप्न शरीर को लगेगी ही। जब सबकुछ स्वप्नवत है तो फिर आपका शरीर भी वही है। अब आइए आगे बढ़ें। हम सिनेमाहालों में फिल्में देखते हैं। वे क्या हैं? वे दरअसल हैं तो स्थिर चित्र ही। स्थिर चित्रों की सिनेमा रील को हम प्रोजेक्टर के सामने से इतनी तेजी से गुजारते हैं कि सामने पर्दे पर ये चित्र चलते, बोलते, नाचते और गीत गाते दिखते हैं। इन स्थिर चित्रों के जरिए ही पूरी कहानी फिल्मा दी जाती है। यह कैसे होता है? इन स्थिर चित्रों की रील को हमारी आंखों के सामने एक सेंकेंड के एक बटा छठवें अंश के भीतर ही तेजी से चलती है और हमारी आंख दो चित्रों के बीच के गैप को पकड़ नहीं पाती और हम इन चित्रों को तरह- तरह के क्रिया कलाप करते देखते हैं। जबकि ये रीलें डिब्बे में बंद हो कर आती हैं और जब चलती हैं तो दर्शकों को हंसाती या रुलाती हैं। तो एक मिथ्या चीज को हम सत्य मान कर चलते हैं। आइए और आगे बढ़ते हैं। हम जिस पृथ्वी पर निवास करते हैं, वह हमेशा घूम रही है। पृथ्वी सूर्य के चारो ओर तो घूमती ही है, अपनी धुरी पर भी घूम रही है। फिर भी हम यह महसूस नहीं कर पाते। क्यों? क्योंकि पृथ्वी की गति को हम पकड़ नहीं पाते। सच यह है कि पृथ्वी लगातार घूम रही है और इसीलिए दिन औऱ रात हो रही है। हम जानते हैं कि यह दिन है और यह रात। लेकिन पृथ्वी का घूमना हम पकड़ नहीं पाते। यानी जो चीज असत्य है, उसे तो हम सच मानते हैं और जो सत्य है, उसे असत्य। आप किसी से कहें कि पृथ्वी घूम रही है तो वह कह ही सकता है कि यह झूठ है। कहां पृथ्वी घूम रही है। मैं तो एक ही जगह सुबह से शाम तक बैठता हूं। मेरा मुंह तो एक ही तरफ रहता है। मेरी मेज या कुर्सी किसी और दिशा मे तो घूमती नहीं। इसे आप क्या कहेंगे?

Tuesday, August 4, 2009

पातंजलि योगसूत्र

योगश्चित्तवृत्ति निरोधः। इस सूत्र का अर्थ है - योग वह है जो देह और चित्त की खीच-तान के बीच मानव को अनेक जन्मों तक भी आत्मा दर्शन से वंछित रहने से बचाता है। चित्तवृतियों का निरोध दमन से नहीं, उसे जानकर उत्पन्न ही न होने देना है।
योग का मूल सिद्धांत ध्यान तथा आसनों के माध्यम से दैहिक तथा मानसिक पूर्णता को प्राप्त करना है । इसका आरंभिक स्वरूप हिन्दू ग्रंथों - महाभारत, उपनिषदों, पतञ्जलि के योगसूत्र तथा हठयोग प्रदीपिका में मिलता है ।
योग एक पूर्ण विज्ञान है, एक पूर्ण जीवन शैली है, एक पूर्ण चिकित्सा पद्धति है एवं एक पूर्ण अध्यात्म विद्या है। योग की लोकप्रियता का रहस्य यह है कि यह लिंग, जाति, वर्ग, सम्प्रदाय, क्षेत्र एवं भाषा भेद की संकीर्णताओं से कभी आबद्ध नहीं रहा है। साधक, चिंतक, बैरागी, अभ्यासी, ब्रह्मचारी, गृहस्थ कोई भी इसका सान्निध्य प्राप्त कर लाभांवित हो सकता है। व्यक्ति के निर्माण और उत्थान में ही नहीं बल्कि परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व के चहुंमुखी विकास में भी यह उपयोगी सिद्ध हुआ है। योग मनुष्य को सकारात्मक चिंतन के प्रशस्त पथ पर लाने की एक अद्भुत विद्या है जिसे करोड़ों वर्ष पूर्व भारत के प्रज्ञावान ऋषि-मुनियों ने आविष्कृत किया था। महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग के रूप में इसे अनुशासनबद्ध, सम्पादित एवं निष्पादित किया।
योग आखिर है क्या-जब मन को एकाग्र कर के ध्यानावस्थित रूप में जीव परमात्मा से मिलन की आकांक्षा करता है वह भी योग है । योगासनों को आधुनिक जीवन में बस व्यायाम ही माना जाने लगा है । अन्ग्रेज़ी में इसे योग के बजाय 'योगा' कहा जाता है। योग कई प्रकार की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक गतिविधियों को अपने दायरे में लेता है जिनका उद्देश्य है मनुष्य को अपने सच्चे रूप के बारे में ज्ञान कराना जिससे वह मानव जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सके।
योग वैदिक/हिन्दू तत्त्वशास्त्र की छः दर्शन विचारधाराओं में से एक है। यहां इसका तात्पर्य राजयोग से है जो एक ब्रह्मन्‌ पाने के लिये ईश्वरीय ध्यान का राजसी मार्ग है।
हिन्दू धर्म में योग के और कई प्रकार भी हैं जैसे कि निष्काम कर्म योग, आत्महित विहीन भक्ति योग और ज्ञान योग का विवेकपूर्ण ध्यान।
योग पर पतञ्‍जलि मुनि ने योगसूत्र लगभग १५० ई.पू. में लिखा। पतंजलि के अनुसार अष्टांग योग का पालन करने से व्यक्ति अपने मन को शान्त कर सकता है और शाश्वत ब्रह्म में समा सकता है। इसी अष्टांग पथ ने बाद में आनेवाले राज योग, तन्त्र और बौध वज्रयान योग की नीवं डाली। (वीकेपीडिया से साभार)

Monday, August 3, 2009

तस्वीरें भी खींच सकते हैं धागे

अमरीका में शोधकर्ता ऐसे धागों पर काम कर रहे हैं जो उन पर पड़ने वाली रोशनी को पहचान सकते हैं और इसमें सेंसर लगा देने पर तस्वीरें भी खींच सकते हैं.
शोधकर्ताओं ने इन धागों के बीच सेंसर डालने और उन्हें बिजली के सिग्नलों से जोड़ने का तरीका खोज निकाला है. जब रोशनी इन धागों पर पड़ती है तो ये धागे सिग्नल भेजते हैं.
वैज्ञानिकों का कहना है कि इस दिशा में और अधिक काम करने पर ये धागे कैमरों का काम कर सकते हैं और तस्वीरें भी खींच सकते हैं.
मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के शोधकर्ता डॉ योएल फिंक की अगुआई में और भी महीन धागों पर काम कर रहे हैं ताकि सेंसरों को बेहतर तरीके से फिट किया जा सके.
डॉ फिंक की टीम ने अत्यंत महीन धागे बनाने में सफलता प्राप्त कर ली है. अगर ऐसे कपड़े बन पाते हैं तो इसे सबसे पहले सैनिकों के काम में लाया जाएगा जो ख़तरनाक स्थानों पर काम करते हैं.
इस टीम ने हाल ही में नैनो लेटर्स में लिखे अपने एक शोध में बताया है कि उन्होंने हाल में ही अत्यंत महीन धागों को जोड़ा और उसमें सेंसर लगाए और ये पता लगाने में सफल रहे कि कौन सा सेंसर क्या सिग्नल भेज रहा है. इन सिग्नलों के आधार पर टीम ने एक तस्वीर बनाने में भी सफलता प्राप्त कर ली है.
शोधकर्ता टीम का कहना है कि छोटे कणों को जोड़ लेना एक बड़ा क़दम है और ये आने वाले दिनों में बड़ी उपलब्धि होगी। (बीबीसी से साभार )

Saturday, August 1, 2009

अंगुलीमाल पर भगवान बुद्ध की कृपा

विनय बिहारी सिंह

खूंखार डकैत अंगुलीमाल के बारे में सभी जानते हैं। वह अपने शिकार को लूट लेता था और उसकी हत्या भी कर देता था। फिर उसकी उंगली काट कर उसकी माला बना कर पहन लेता था। उसके गले की उंगलियों को गिन कर समझा जा सकता था कि आज उसने कितने लोगों को मारा है। एक बार भगवान बुद्ध उसी रास्ते से जाने लगे जिसमें अंगुलीमाल का अड्डा पड़ता था। लोगों ने उन्हें रोका- भगवन, इस रास्ते से मत जाइए। आगे अंगुलीमाल मिलेगा जो अत्यंत क्रूर लुटेरा है। जिसके पास कुछ नहीं होता, उसे भी मार डालता है। भगवान बुद्ध पर इस चेतावनी का कोई असर नहीं पड़ा। वे आगे बढ़ते गए। उनके पीछे उनके समर्पित शिष्यों का छोटा सा काफिला चलता गया। अंगुलीमाल ने इन लोगों को देखा तो खुशी से झूम उठा। वह तेजी से इन लोगों की ओर आने लगा। भगवान बुद्ध ने उसे आते देखा, लेकिन वे शांत और संतुलित ढंग से ही आगे बढ़ते गए। पास आने पर अंगुलीमाल ने उन पर झपटना चाहा लेकिन आश्चर्य, उसके हाथ- पांव मानों बेकार हो गए थे। भगवान बुद्ध उसकी बगल से निकल गए। वह चिल्लाया- सन्यासी, रुको। हालांकि वह जानता था कि कोई रुकेगा नहीं। लेकिन भगवान बुद्ध अचानक रुक गए औऱ कहा- लो मैं रुक गया। मैं तो रुक गया हूं लेकिन तुम नहीं रुक रहे हो और लोगों की हत्याएं कर उनकी अंगुलियों की माला पहन कर खुद को बेताज बादशाह समझ रहे हो। तुम्हारा रास्ता दुख, पीड़ा और बेचैनी की ओर जाता है। हमारा रास्ता शांति और आनंद की तरफ जाता है। तुम्हें किस रास्ते की तलाश है? भगवान बुद्ध के शब्दों और उनकी साक्षात उपस्थिति में एक तरह का जादू था। अंगुलीमाल तो हक्का बक्का रह गया। उसे लगा कि यह सन्यासी तो ठीक ही कह रहा है। उसने अंगुलियों की माला दूर फेंक दी और बुद्ध के कदमों में गिर पड़ा। यह बुद्ध के शिष्यों के लिए चकित करने वाली घटना थी। एक दुर्दांत हत्यारे का रूपांतरण देख कर वे समझ गए- भगवान बुद्ध ने इसकी सारी मैल एक सेकेंड में धो दी। वह तुरंत भगवान बुद्ध का शिष्य बन गया। अंगुलीमाल को अगले ही दिन समझ में आ गया- भगवान ही शांति और आनंद हैं। बाकी सब बकवास है।