Tuesday, August 4, 2009

पातंजलि योगसूत्र

योगश्चित्तवृत्ति निरोधः। इस सूत्र का अर्थ है - योग वह है जो देह और चित्त की खीच-तान के बीच मानव को अनेक जन्मों तक भी आत्मा दर्शन से वंछित रहने से बचाता है। चित्तवृतियों का निरोध दमन से नहीं, उसे जानकर उत्पन्न ही न होने देना है।
योग का मूल सिद्धांत ध्यान तथा आसनों के माध्यम से दैहिक तथा मानसिक पूर्णता को प्राप्त करना है । इसका आरंभिक स्वरूप हिन्दू ग्रंथों - महाभारत, उपनिषदों, पतञ्जलि के योगसूत्र तथा हठयोग प्रदीपिका में मिलता है ।
योग एक पूर्ण विज्ञान है, एक पूर्ण जीवन शैली है, एक पूर्ण चिकित्सा पद्धति है एवं एक पूर्ण अध्यात्म विद्या है। योग की लोकप्रियता का रहस्य यह है कि यह लिंग, जाति, वर्ग, सम्प्रदाय, क्षेत्र एवं भाषा भेद की संकीर्णताओं से कभी आबद्ध नहीं रहा है। साधक, चिंतक, बैरागी, अभ्यासी, ब्रह्मचारी, गृहस्थ कोई भी इसका सान्निध्य प्राप्त कर लाभांवित हो सकता है। व्यक्ति के निर्माण और उत्थान में ही नहीं बल्कि परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व के चहुंमुखी विकास में भी यह उपयोगी सिद्ध हुआ है। योग मनुष्य को सकारात्मक चिंतन के प्रशस्त पथ पर लाने की एक अद्भुत विद्या है जिसे करोड़ों वर्ष पूर्व भारत के प्रज्ञावान ऋषि-मुनियों ने आविष्कृत किया था। महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग के रूप में इसे अनुशासनबद्ध, सम्पादित एवं निष्पादित किया।
योग आखिर है क्या-जब मन को एकाग्र कर के ध्यानावस्थित रूप में जीव परमात्मा से मिलन की आकांक्षा करता है वह भी योग है । योगासनों को आधुनिक जीवन में बस व्यायाम ही माना जाने लगा है । अन्ग्रेज़ी में इसे योग के बजाय 'योगा' कहा जाता है। योग कई प्रकार की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक गतिविधियों को अपने दायरे में लेता है जिनका उद्देश्य है मनुष्य को अपने सच्चे रूप के बारे में ज्ञान कराना जिससे वह मानव जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सके।
योग वैदिक/हिन्दू तत्त्वशास्त्र की छः दर्शन विचारधाराओं में से एक है। यहां इसका तात्पर्य राजयोग से है जो एक ब्रह्मन्‌ पाने के लिये ईश्वरीय ध्यान का राजसी मार्ग है।
हिन्दू धर्म में योग के और कई प्रकार भी हैं जैसे कि निष्काम कर्म योग, आत्महित विहीन भक्ति योग और ज्ञान योग का विवेकपूर्ण ध्यान।
योग पर पतञ्‍जलि मुनि ने योगसूत्र लगभग १५० ई.पू. में लिखा। पतंजलि के अनुसार अष्टांग योग का पालन करने से व्यक्ति अपने मन को शान्त कर सकता है और शाश्वत ब्रह्म में समा सकता है। इसी अष्टांग पथ ने बाद में आनेवाले राज योग, तन्त्र और बौध वज्रयान योग की नीवं डाली। (वीकेपीडिया से साभार)

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