Thursday, December 30, 2010

हां, इस सृष्टि में चमत्कार होते हैं


विनय बिहारी सिंह


क्या इस साल डिहिका आश्रम में आपने परमहंस योगानंद जी को साक्षात शरीर में देखा? मैंने इकसठ साल के तारापद चट्टराज से चकित होकर पूछा।चट्टराज पास के नगर बर्नपुर के रहने वाले हैं और आश्रम में सेवा कार्य करते रहते हैं। उन्होंने कहा- हां, बिल्कुल शरीर में देखा। आश्चर्य इसलिए कि परमहंस जी ने सन १९५२ में अपनी देह का त्याग कर महासमाधि ले ली थी। जिन्हें मालूम नहीं है उन्हें बता दें- महान योगी परमहंस योगानंद जी की आत्मकथा - आटोबायोग्राफी आफ अ योगी, दुनिया की अनेक भाषाओं में अनूदित हो चुकी है। उर्दू में भी। हिंदी में योगी कथामृत नाम से यह अपार लोकप्रिय है। योगी कथामृत के २७ वें अध्याय में डिहिका के ब्रह्मचर्य विद्यालय का उल्लेख है। चट्टराज जी कह रहे थे कि उन्होंने १३ मई २०१० को उन्हें सशरीर देखा। मैंने उनसे पूछा- किस समय उन्होंने इस देव तुल्य परम योगी को देखा?
उन्होंने कहा- शाम का समय था। मैं योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के डिहिका स्थित आश्रम में बैठा हुआ था। आश्रम में मुझे छोड़ कर कोई नहीं था। लेकिन जरा ठहरिए। यह अत्यंत रोचक घटना बताने से पहले मैं आपको बता दूं कि अपने गुरु स्वामी श्री युक्तेश्वर जी की प्रेरणा से परमहंस जी ने २२ मार्च १९१७ को डिहिका में अपने पहले आश्रम स्कूल की स्थापना की। डिहिका बर्दवान जिले के आसनसोल से १० किलोमीटर दूर दामोदर नदी के पास है। बाद में छात्रों की संख्या में भारी वृद्धि हुई। डिहिका में जगह कम थी। इसलिए यह स्कूल यह रांची स्थानांतरित हो गया। वहीं यानी रांची में उसी स्थान पर आज पवित्र योगदा आश्रम है। डिहिका और रांची की जमीन कासिम बाजार के महाराजा मणिंद्र चंद्र नंदी ने दी थी। इसकी चर्चा इसी लेख में बाद में आएगी।
आइए अब रोमांचकारी घटना की तरफ मुड़ें। चट्टराज जी ने कहा- शाम का समय था। मैं अकेल आश्रम में मुख्य गेट के बगल में एक पेड़ के पास बैठा था। तभी देखा- एक लंबे बालों वाले बलिष्ट सन्यासी तेजी से आश्रम में घुसे और आज जहां ध्यान मंदिर बन रहा है, उसमें थोड़ी देर के लिए रुके। फिर आश्रम में स्थित तालाब के भीतर गए। तब तालाब में पानी नहीं था। वहां तालाब के बीचोबीच गए और वहां चारो तरफ घूम कर देखा। मैं तो खड़ा होकर अवाक् उन्हें देख रहा था। फिर वे वापस आए। जब वे नजदीक आए तब मैंने पहचान लिया- अरे, यह तो साक्षात परमहंस योगानंद जी हैं। वही चेहरा, वही जादुई आंखें और वही बलिष्ट शरीर। गेट से बाहर जाने के पहले उन्होंने तीन बार कहा- माई गॉड इज लव, माई गॉड इज लव, माई गॉड इज लव। ( मेरे ईश्वर प्रेम हैं यानी प्रेम ही ईश्वर हैं ) और वे तेजी से चले गए। तब मैं उनके पीछे भागा। गेट के बाहर गया। लेकिन आश्चर्य। उनका कहीं पता नहीं था। गेट के बाहर लोग आ जा रहे थे। लेकिन गुरु जी नहीं दिखे। यहां गुरु जी परमहंस जी के लिए कहा गया है।
मैंने उनसे पूछा- परमहंस जी ने क्या पहना था? चट्टराज जी ने कहा- उन्होंने भूरे रंग का सन्यासियों का गाउन पहन रखा था। मैंने पूछा- गेरुए रंग का नहीं। उन्होंने कहा- नहीं। उनका वस्त्र भूरा था। वे जिस तेजी से आए आश्रम में घूमे और गए, वह चकित करने वाला था। अब मैं सोचता हूं कि उनके पैर छू लेता तो मेरा जीवन सार्थक हो जाता। लेकिन वे तो मानो हवा की तरह चल रहे थे। मैं उन्हें छू ही कैसे सकता था।
जीवन में पहली बार मैं किसी व्यक्ति से मिला, जिसने एक दिव्य योगी का शरीर छोड़ने के बाद दर्शन किया है। मैंने चट्टराज जी से कई प्रश्न किए। पर वे तो उसी क्षण के बारे में बार- बार बता रहे थे। मानो वह उनके जीवन का केंद्रीय अनुभव बन गया हो। मैं उनके सौभाग्य को महसूस कर सकता हूं।
जब यह आश्रम स्कूल रांची स्थानांतरित हो गया तो यह डिहिका की यह जमीन कई लोगों के हाथों में बिकी। तभी सन १९९२ में योगदा आश्रम के एक भक्त ने अचानक उस जगह की पहचान की। उसने कहा- यही वह जगह है जहां गुरुदेव ने अपना पहला आश्रम स्कूल खोला था। यहीं पर परमहंस जी के संस्कृत अध्यापक स्वामी केवलानंद जी ने बच्चों को पढ़ाया और अपनी साधना भी जारी रखी। यहीं पर स्वामी केवलानंद जी ने सन्यास लेकर गेरुआ वस्त्र धारण किया। वे स्कूल के धर्माचार्य थे। इसी वयोवृद्ध भक्त ने बताया कि किस सेमल के वृक्ष के नीचे बैठ कर परमहंस जी ध्यान करते थे। उसने अब तक मौजूद उस पेड़ को भी दिखाया। संयोग यह कि सन १९३५ में परमहंस योगानंद जब अपने गुरु से मिलने अमेरिका से भारत आए तो डिहिका आए और उसी पेड़ के नीचे बैठ कर गहन ध्यान किया। योगदा सत्संग सोसाइटी (वाईएसएस) और सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप (एसआरएफ) की संघमाता और अध्यक्ष दयामाता भी जब भारत आईं तो उन्होंने इस पवित्र स्थल पर आईं। मूल आश्रम की दो तिहाई जमीन लेकर विभिन्न लोगों ने अपना घर बना लिया है। मार्च १९९७ में सिर्फ एक तिहाई जमीन यानी ६५००० स्क्वायर फीट जमीन आश्रम खरीद सका। डिहिका में यहीं पर है योगदा सत्संग ध्यान केंद्र। तालाब के घाट पर एक तरफ प्राचीन पत्थर की सीढ़ियां हैं। इन पत्थरों पर परमहंस जी ने अपने पैर रखे होंगे, यह सोच कर मैंने उन्हें छू कर अपने माथे पर लगाया। वहां एक सुखद गेस्ट हाउस, ध्यान केंद्र बन गया है। आश्रम के चारो तरफ चारदीवारी बना दी गई है। इस आश्रम के कायाकल्प की तैयारियां चल रही हैं। अभी बहुत काम बाकी है। उस पवित्र सेमल के पेड़ को जहां परमहंस जी बैठते थे, वेस्ट बेंगाल स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड बार- बार काट रहा है। उसका कहना है कि ऊपर से बिजली के जा रहे तारों को यह पेड़ डिस्टर्ब कर रहा है। आश्रम के कर्मचारी आग्रह करते हैं कि इन तारों और खंभों को हटाने की जगह तो है, हटा क्यों नहीं देते। तो वेस्ट बेंगाल स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड कह रहा है- आश्रम रुपए देगा तब हम खंभा और तार हटाएंगे। वेस्ट बेंगाल स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड की यह बात सुन कर ईश्वर परायण लोग चकित हैं. जिस परमहंस योगानंद जी की स्मृति में भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किया था, जिन्होंने अमेरिका और समूचे विश्व में क्रिया योग का प्रचार प्रसार किया ऐसे महान योगी का स्मृति चिन्ह भी बनाए रखने की शालीनता वेस्ट वेस्ट बेंगाल स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड नहीं कर पा रहा है। क्या विडंबना है। ईश्वर करें इस पवित्र पेड़ का महत्व उनकी समझ में आए।
परमहंस योगानंद के इस ब्रह्मचर्य स्कूल में भोर से ही गतिविधियां शुरू हो जाती थीं। बच्चे अपने अध्यापकों के साथ वेदों और पुराणों के श्लोक गाते थे। इसकी गूंज पूरे माहौल को पवित्र बना देती थी। फिर ध्यान। इसके बाद जलपान। स्कूल इसके बाद ही शुरू हो जाता था। विभिन्न विषयों का गहन अध्ययन। एक से एक विद्वान अध्यापक। स्कूल की सफाई, बर्तनों की सफाई खाना इत्यादि सब छात्र करते थे। वे समय पर ध्यान करते थे। योगानंद जी चाहते थे कि स्कूलों में नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा भी दी जाए ताकि स्कूल से पास हो कर निकले बच्चे देश और दुनिया के लिए कुछ करें। एक स्वस्थ राष्ट्र और समाज का निरंतर विकास हो। शनिवार की शाम को योगानंद जी का प्रवचन होता था। पास ही दामोदर रेलवे स्टेशन है। वहां के कुछ कर्मचारी आ जाते थे। आसपास के गांवों के लोग भी आते थे। कभी- कभी आसपास के जंगल और पहाड़ों पर योगानंद जी के साथ अध्यापक और छात्र घूमने जाते थे। वहां उन्हें प्रकृति के असली रूपों का दर्शन होता था। नदी और पहाड़ बच्चों से मौन संवाद करते जान पड़ते थे। परमहंस योगानंद जी तब स्वामी योगानंद जी थे। वे कभी- कभी खुद खाना बनाते थे। देर होने पर कहते- यह देर क्षमा करने योग्य है क्योंकि भोजन पकाना एक कला है। देर हो ही सकती है। वे भोजन बनाने के नए तरीकों पर प्रयोग करते रहते थे। लेकिन बच्चों की संख्या लगातार बढ़ रही थी। योगानंद जी ने कासिम बाजार के महाराजा से कहा कि वे इस स्कूल में और कमरे बनवा दें। लेकिन महाराजा नंदी ने कहा- इससे ज्यादा स्थान रांची में है। कृपया वह जगह आप ले लें। स्कूल के अध्यापक यह मनोरम स्थल छोड़ना नहीं चाहते थे। लेकिन कोई उपाय नहीं था। साल भर बाद उन्हें स्कूल को रांची स्थानांतरित करना पड़ा। कई उत्सुक लोग पूछते हैं कि इस स्कूल की स्थापना का संयोग कैसे बैठा। उनके लिए यह जानकारी जरूरी है कि जब योगानंद जी के मन में एक आदर्श स्कूल की कल्पना चल रही थी तो अपना संक्षिप्त ब्लू प्रिंट लेकर वे कासिम बाजार के महाराजा मणिंद्र चंद्र नंदी से मिले। महाराजा नंदी तो ब्लू प्रिंट देखते ही खुशी से उछल पड़े और कहा- स्वामी जी, क्या अद्भुत संयोग है। मैं भी एक ऐसा ही स्कूल खोलना चाहता था। कृपा कर इस योजना की विस्तृत रूपरेखा बनाएं। योगानंद जी ने वहीं बैठ कर विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत कर दी। महाराजा इस स्कूल को खोलने के लिए तत्पर हो गए। स्कूल खुला और खूब लोकप्रिय हुआ। वेस्ट बेंगाल इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के उच्चाधिकारी इन सारे तथ्यों से शायद परिचित नहीं हैं। उन्होंने कहा- हां, बिल्कुल शरीर में देखा। आश्चर्य इसलिए कि परमहंस जी ने सन १९५२ में अपनी देह का त्याग कर महासमाधि ले ली थी। जिन्हें मालूम नहीं है उन्हें बता दें- महान योगी परमहंस योगानंद जी की आत्मकथा - आटोबायोग्राफी आफ अ योगी, दुनिया की अनेक भाषाओं में अनूदित हो चुकी है। उर्दू में भी। हिंदी में योगी कथामृत नाम से यह अपार लोकप्रिय है। योगी कथामृत के २७ वें अध्याय में डिहिका के ब्रह्मचर्य विद्यालय का उल्लेख है। चट्टराज जी कह रहे थे कि उन्होंने १३ मई २०१० को उन्हें सशरीर देखा। मैंने उनसे पूछा- किस समय उन्होंने इस देव तुल्य परम योगी को देखा। उन्होंने कहा- शाम का समय था। मैं योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के डिहिका स्थित आश्रम में बैठा हुआ था। आश्रम में मुझे छोड़ कर कोई नहीं था। लेकिन जरा ठहरिए। यह अत्यंत रोचक घटना बताने से पहले मैं आपको बता दूं कि अपने गुरु स्वामी श्री युक्तेश्वर जी की प्रेरणा से परमहंस जी ने २२ मार्च १९१७ को डिहिका में अपने पहले आश्रम स्कूल की स्थापना की। डिहिका बर्दवान जिले के आसनसोल से १० किलोमीटर दूर दामोदर नदी के पास है। बाद में छात्रों की संख्या में भारी वृद्धि हुई। डिहिका में जगह कम थी। इसलिए यह स्कूल यह रांची स्थानांतरित हो गया। वहीं यानी रांची में उसी स्थान पर आज पवित्र योगदा आश्रम है। डिहिका और रांची की जमीन कासिम बाजार के महाराजा मणिंद्र चंद्र नंदी ने दी थी। इसकी चर्चा इसी लेख में बाद में आएगी।
आइए अब रोमांचकारी घटना की तरफ मुड़ें। चट्टराज जी ने कहा- शाम का समय था। मैं अकेल आश्रम में मुख्य गेट के बगल में एक पेड़ के पास बैठा था। तभी देखा- एक लंबे बालों वाले बलिष्ट सन्यासी तेजी से आश्रम में घुसे और आज जहां ध्यान मंदिर बन रहा है, उसमें थोड़ी देर के लिए रुके। फिर आश्रम में स्थित तालाब के भीतर गए। तब तालाब में पानी नहीं था। वहां तालाब के बीचोबीच गए और वहां चारो तरफ घूम कर देखा। मैं तो खड़ा होकर अवाक् उन्हें देख रहा था। फिर वे वापस आए। जब वे नजदीक आए तब मैंने पहचान लिया- अरे, यह तो साक्षात परमहंस योगानंद जी हैं। वही चेहरा, वही जादुई आंखें और वही बलिष्ट शरीर। गेट से बाहर जाने के पहले उन्होंने तीन बार कहा- माई गॉड इज लव, माई गॉड इज लव, माई गॉड इज लव। और वे तेजी से चले गए। तब मैं उनके पीछे भागा। गेट के बाहर गया। लेकिन आश्चर्य। उनका कहीं पता नहीं था। गेट के बाहर लोग आ जा रहे थे। लेकिन गुरु जी नहीं दिखे। यहां गुरु जी परमहंस जी के लिए कहा गया है।
मैंने उनसे पूछा- परमहंस जी ने क्या पहना था। चट्टराज जी ने कहा- उन्होंने भूरे रंग का सन्यासियों का गाउन पहन रखा था। मैंने पूछा- गेरुए रंग का नहीं। उन्होंने कहा- नहीं। उनका वस्त्र भूरा था। वे जिस तेजी से आए आश्रम में घूमे और गए, वह चकित करने वाला था। अब मैं सोचता हूं कि उनके पैर छू लेता तो मेरा जीवन सार्थक हो जाता। लेकिन वे तो मानो हवा की तरह चल रहे थे। मैं उन्हें छू ही कैसे सकता था।
जीवन में पहली बार मैं किसी व्यक्ति से मिला, जिसने एक दिव्य योगी का शरीर छोड़ने के बाद दर्शन किया है। मैंने चट्टराज जी से कई प्रश्न किए। पर वे तो उसी क्षण के बारे में बार- बार बता रहे थे। मानो वह उनके जीवन का केंद्रीय अनुभव बन गया हो। मैं उनके सौभाग्य को महसूस कर सकता हूं।
जब यह आश्रम स्कूल रांची स्थानांतरित हो गया तो यह डिहिका की यह जमीन कई लोगों के हाथों में बिकी। तभी सन १९९२ में योगदा आश्रम के एक भक्त ने अचानक उस जगह की पहचान की। उसने कहा- यही वह जगह है जहां गुरुदेव ने अपना पहला आश्रम स्कूल खोला था। यहीं पर परमहंस जी के संस्कृत अध्यापक स्वामी केवलानंद जी ने बच्चों को पढ़ाया और अपनी साधना भी जारी रखी। यहीं पर स्वामी केवलानंद जी ने सन्यास लेकर गेरुआ वस्त्र धारण किया। वे स्कूल के धर्माचार्य थे। इसी वयोवृद्ध भक्त ने बताया कि किस सेमल के वृक्ष के नीचे बैठ कर परमहंस जी ध्यान करते थे। उसने अब तक मौजूद उस पेड़ को भी दिखाया। संयोग यह कि सन १९३५ में परमहंस योगानंद जब अपने गुरु से मिलने अमेरिका से भारत आए तो डिहिका आए और उसी पेड़ के नीचे बैठ कर गहन ध्यान किया। योगदा सत्संग सोसाइटी (वाईएसएस) और सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप (एसआरएफ) की संघमाता और अध्यक्ष दयामाता भी जब भारत आईं तो उन्होंने इस पवित्र स्थल पर आईं। मूल आश्रम की दो तिहाई जमीन लेकर विभिन्न लोगों ने अपना घर बना लिया है। मार्च १९९७ में सिर्फ एक तिहाई जमीन यानी ६५००० स्क्वायर फीट जमीन आश्रम खरीद सका। डिहिका में यहीं पर है योगदा सत्संग ध्यान केंद्र। तालाब के घाट पर एक तरफ प्राचीन पत्थर की सीढ़ियां हैं। इन पत्थरों पर परमहंस जी ने अपने पैर रखे होंगे, यह सोच कर मैंने उन्हें छू कर अपने माथे पर लगाया। वहां एक सुखद गेस्ट हाउस, ध्यान केंद्र बन गया है। आश्रम के चारो तरफ चारदीवारी बना दी गई है। इस आश्रम के कायाकल्प की तैयारियां चल रही हैं। अभी बहुत काम बाकी है। उस पवित्र सेमल का पेड़ जहां परमहंस जी बैठते थे, को बिजली विभाग बार- बार काट रहा है। उसका कहना है कि इस पेड़ के ऊपर से बिजली के जा रहे तारों को यह पेड़ डिस्टर्ब कर रहा है। आश्रम के कर्मचारी आग्रह करते हैं कि इन तारों और खंभों को हटाने की जगह तो है, हटा क्यों नहीं देते। तो बिजली विभाग कह रहा है- आश्रम रुपए देगा तब हम खंभा और तार हटाएंगे। बिजली विभाग यानी वेस्ट बेंगाल इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड। जिस परमहंस योगानंद जी की स्मृति में भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किया था, जिन्होंने अमेरिका और समूचे विश्व में क्रिया योग का प्रचार प्रसार किया ऐसे महान योगी की स्मृति चिन्ह भी बनाए रखने की शालीनता वेस्ट बेंगाल इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड नहीं कर पा रहा है। क्या विडंबना है। बिजली विभाग को समझाने की कोशिशें जारी हैं। ईश्वर करें इस पवित्र पेड़ का महत्व उनकी समझ में आए।
परमहंस योगानंद के इस ब्रह्मचर्य स्कूल में भोर से ही गतिविधियां शुरू हो जाती थीं। बच्चे अपने अध्यापकों के साथ वेदों और पुराणों के श्लोक गाते थे। इसकी गूंज पूरे माहौल को पवित्र बना देती थी। फिर ध्यान। इसके बाद जलपान। स्कूल इसके बाद ही शुरू हो जाता था। विभिन्न विषयों का गहन अध्ययन। एक से एक विद्वान अध्यापक। स्कूल की सफाई, बर्तनों की सफाई खाना इत्यादि सब छात्र करते थे। वे समय पर ध्यान करते थे। योगानंद जी चाहते थे कि स्कूलों में नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा भी दी जाए ताकि स्कूल से पास हो कर निकले बच्चे देश और दुनिया के लिए कुछ करें। एक स्वस्थ राष्ट्र और समाज का निरंतर विकास हो। शनिवार की शाम को योगानंद जी का प्रवचन होता था। पास ही दामोदर रेलवे स्टेशन है। वहां के कुछ कर्मचारी आ जाते थे। आसपास के गांवों के लोग भी आते थे। कभी- कभी आसपास के जंगल और पहाड़ों पर योगानंद जी के साथ अध्यापक और छात्र घूमने जाते थे। वहां उन्हें प्रकृति के असली रूपों का दर्शन होता था। नदी और पहाड़ बच्चों से मौन संवाद करते जान पड़ते थे। परमहंस योगानंद जी तब स्वामी योगानंद जी थे। वे कभी- कभी खुद खाना बनाते थे। देर होने पर कहते- यह देर क्षमा करने योग्य है क्योंकि भोजन पकाना एक कला है। देर हो ही सकती है। वे भोजन बनाने के नए तरीकों पर प्रयोग करते रहते थे। लेकिन बच्चों की संख्या लगातार बढ़ रही थी। योगानंद जी ने कासिम बाजार के महाराजा से कहा कि वे इस स्कूल में और कमरे बनवा दें। लेकिन महाराजा नंदी ने कहा- इससे ज्यादा स्थान रांची में है। कृपया वह जगह आप ले लें। स्कूल के अध्यापक यह मनोरम स्थल छोड़ना नहीं चाहते थे। लेकिन कोई उपाय नहीं था। साल भर बाद उन्हें स्कूल को रांची स्थानांतरित करना पड़ा। कई उत्सुक लोग पूछते हैं कि इस स्कूल की स्थापना का संयोग कैसे बैठा। उनके लिए यह जानकारी जरूरी है कि जब योगानंद जी के मन में एक आदर्श स्कूल की कल्पना चल रही थी तो अपना संक्षिप्त ब्लू प्रिंट लेकर वे कासिम बाजार के महाराजा मणिंद्र चंद्र नंदी से मिले। महाराजा नंदी तो ब्लू प्रिंट देखते ही खुशी से उछल पड़े और कहा- स्वामी जी, क्या अद्भुत संयोग है। मैं भी एक ऐसा ही स्कूल खोलना चाहता था। कृपा कर इस योजना की विस्तृत रूपरेखा बनाएं। योगानंद जी ने वहीं बैठ कर विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत कर दी। महाराजा इस स्कूल को खोलने के लिए तत्पर हो गए। स्कूल खुला और खूब लोकप्रिय हुआ। वेस्ट बेंगाल इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के उच्चाधिकारी इन सारे तथ्यों से शायद परिचित नहीं हैं।

Wednesday, December 29, 2010

जीवन संरचना में नए तत्व की खोज



पारुल अग्रवाल
बीबीसी संवाददाता

अब तक यह माना जाता था कि धरती पर जीवन के छह प्रमुख तत्त्व हैं-कॉर्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, सल्फ़र और फ़ॉस्फ़ोरस.

इस साल अनुसंधानकर्ताओं ने कैलिफ़ॉर्निया की झील में एक ऐसा जीवाणु पाया जिसने फ़ॉस्फ़ोरस के बदले ज़हरीले रसायन आर्सेनिक को अपनी संरचना में शामिल कर लिया है.

इस खोज से यह धारणा पुष्ट हुई कि दूसरे ग्रहों पर अलग-अलग रसायनों से मिलकर बने जीवाणु और जीवन संरचनाएं भी मौजूद हो सकती हैं.

इस साल विश्व में पहली बार इस साल वैज्ञानिकों ने एंटी मैटर या प्रतिपदार्थ के अणुओं को कुछ क्षणों के लिए पकड़ने में भी सफलता पाई.

पदार्थ उसे कहते हैं जिससे कि पूरी दुनिया का निर्माण हुआ है. जब पदार्थ और प्रतिपदार्थ एक साथ जुड़ते हैं तो एक दूसरे का अस्तित्व समाप्त कर देते हैं और शेष कुछ नहीं बचता. इससे दुनिया की उत्पत्ति के बारे में काफ़ी जानकारी मिल सकती है.

उधर अमरीका में मंदी की मार का असर साल 2010 में नासा के अंतरिक्ष कार्यक्रमों पर पड़ा.

अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने वित्तीय तंगी के चलते 2020 में एक मानव दल के चांद पर जाने के कार्यक्रम को रद्द कर दिया. माना जा रहा है कि ये कार्यक्रम अब निजी हाथों में सौंपा जाएगा.

भारत के लिए एक दुखद घटना-- श्रीहरिकोटा से जीएसएलवी-एफ़06 यान के ज़रिए किया गया उपग्रह प्रक्षेपण विफल हो गया. प्रक्षेपण के कुछ ही समय बाद इसमें विस्फोट हो गया.

वैज्ञानिकों को उम्मीद थी कि नए संचार उपग्रह से टीवी, टेलीमेडीसन, टेलीशिक्षा और टेलीफ़ोन सेवाओं को बेहतर करने में मदद मिलेगी.

अगर ये मिशन सफल होता तो भारत अमरीका और रुस जैसे उन पाँच देशों की श्रेणी में शामिल हो जाता जिनके पास इस तरह की तकनीक है.
मैक्सिको की खाड़ी में हुआ तेल का रिसाव अमरीका के इतिहास में अब तक की सबसे भीषण पर्यावरण संबंधी दुर्घटना है.

साल 2010 को संयुक्त राष्ट्र की ओर से अंतरराष्ट्रीय जैव विविधता वर्ष घोषित किया गया. ये मौका था दुनिया को आगाह करने का कि जैव विविधता को नुकसान पहुंचा कर इंसान मुफ़्त में मिल रही प्राकृतिक सुविधाओं को किस तरह खत्म करता जा रहा है.
इस साल के इतिहास में अब तक की सबसे भीषण पर्यावरण संबंधित दुर्घटना भी दर्ज हुई. 20 अप्रैल 2010 को दुनिया की सबसे बड़ी तेल कंपनी के तेल के कुएं में विस्फोट हुआ.
मैक्सिको की खाड़ी में हुई इस दुर्घटना में 11 लोगों की मौत हो गई और समुद्र में 40 लाख बैरल से भी ज़्यादा तेल का रिसाव हुआ. समुद्री जीवन को भारी नुकसान के बाद तेल का यह रिसाव जुलाई में बंद हुआ.
अप्रैल के महीने में आइसलैंड में फटे एक ज्वालामुखी की राख ने यूरोप के कई देशों में हवाई सेवा को ठप कर दिया. एयर लाइंस की चिंता थी कि ज्वालामुखी की राख विमानों के इंजनों को जाम कर सकती है. छह दिनों तक हज़ारों उड़ानें बाधित रहीं और लाखों यात्री प्रभावित हुए.
25 साल की लगातार खोज के बाद मैडास्कर की एलाओट्रा झील में पाई जाने वाली चिड़िया एलाओट्रा ग्रेब को 2010 में विलुप्त घोषित कर दिया गया.
पीली चोंच वाले इस पक्षी का आकार इतना छोटा था कि यह ज़्यादा लंबी उड़ान नहीं भर सकता था. यही वजह है कि झील में मानवीय गतिविधियां बढ़ने के साथ यह पक्षी विलुप्त हो गया.
भारतीय पत्रकार पल्लव बागला को साल 2010 के लिए ‘अमेरिकन जियोफ़िसिकल यूनियन’ की ओर से विज्ञान क्षेत्र का प्रतिष्ठित ‘डेविड पर्लमेन अवार्ड’ मिला.
अपनी रिपोर्ट के ज़रिए पल्लव ने अमरीकी संस्थान आईपीसीसी द्वारा 2035 तक हिमालय के ग्लेशियर पिघलने के दावों की कलई खोली.
आईपीसीसी ने इस संबंध में अपनी गलती को स्वीकार किया और आंतरिक जांच के आदेश दिए.


ब्रिटेन के वैज्ञानिकों का कहना है कि अंडे और मुर्गी में से पहले मुर्गी आई.

बढ़ती उम्र इंसान को कभी रास नहीं आई. शायद यही वजह है कि हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के शोधकर्ताओं ने वृद्ध चूहों को जवान बनाने का प्रयोग शुरु किया.
वृद्ध चूहों के शिथिल अंगों में सुधार ने उनकी उम्र की रफ़्तार को उलट दिया गया और ये चूहे वृद्धावस्था से जवानी की ओर चल पड़े.
शोध कहता है कि ये प्रयोग इंसान पर सफल रहे तो वह दिन भी दूर नहीं जब उम्र नहीं ढलेगी और लोग सदा जवान रहेंगे.
सदियों से ये सवाल हमें उलझाता रहा है कि पहले कौन आया अंडा या मुर्गी, लेकिन इस साल ब्रिटेन के वैज्ञानिकों ने इस उलझन को भी सुलझा लिया.
वैज्ञानिकों ने पाया कि मुर्गी के अंडे ‘ओवोक्लेडिडिन-17’ नामक एक प्रोटीन से बनते हैं जो अंडे का खोल बनाने के लिए बेहद ज़रूरी है और मुर्गी के गर्भाशय में ही पाया जाता है.
यानी अंडा तभी बन सकता है जब मुर्गी का अस्तित्व हो!
इस साल अमरीका के वैज्ञानिकों ने दृष्टिहीनों के लिए कार बनाने का बीड़ा भी उठाया. इस गाड़ी में ऐसी तकनीक लगाई जाएगी कि दृष्टिहीन स्वतंत्र तौर पर गाड़ी चला सकेंगे.
गाड़ी में लगे सेंसर बीच रास्ते में आए मोड़ का अंदाजा लगाएंगे और ऑडियो संकेतों के ज़रिए नेत्रहीन चालक गाड़ी को नियंत्रित कर सकेंगे.
संगीत-प्रेमियों के हमजोली बन चुके ‘वॉकमैन’ को इस साल सोनी कंपनी ने अलविदा कह दिया.
1979 में सोनी ने एक ऐसा कैसेट प्लेयर बाज़ार में उतारा जिसे लोग अपने साथ कहीं भी ले जा सकते थे. ये एक क्रांतिकारी उपकरण था और युवा पीढ़ी के बीच बहुत लोकप्रिय हुआ.
फिर तकनीक ने प्रगति की और बाज़ार में सीडी की धूम मच गई. ऐसे में कंपनी ने अब वॉकमैन को भी अलविदा कर दिया.
(courtesy- BBC Hindi service)

Tuesday, December 28, 2010

आखिरी सांस कब?



विनय बिहारी सिंह


एक साधु से युवक ने पूछा- अच्छा बाबा, आप कोई एक उदाहरण दीजिए जिससे समझ में आए कि भगवान हैं। साधु ने कहा- बेटा, तुम्हें याद है कि तुमने कब सांस लेना शुरू किया? युवक बोला- नहीं। साधु ने पूछा- तुम्हें मालूम है कि तुम्हारी सांस कब तक चलेगी? युवक ने कहा- नहीं बाबा। यह मैं कैसे बता सकता हूं। यह तो निश्चित नहीं है। मेरी सांस अभी भी बंद हो सकती है और बाद में किसी दिन भी। साधु ने कहा- बेटा, यह तुम्हारी सांस या मेरी सांस ईश्वर की दी हुई है। हमारा अधिकार जब अपनी सांस पर नहीं है तो जीवन पर कैसे रहेगा? इसे भगवान नियंत्रित करते हैं। लेकिन हम मान बैठे हैं कि सांस तो चलती ही रहती है। इस पर क्या ध्यान देना। इसीलिए तुम भी पूछ रहे हो कि भगवान के होने का प्रमाण क्या है। इस दुनिया में रात- दिन का होना, चांद- सितारों और ग्रहों का निश्चित समय पर ही तय है। ये ग्रह आपस में टकराते नहीं। रात और दिन ठीक समय पर होते हैं। यह सब कौन नियंत्रित करता है? यह भगवान ही हैं जो पूरी सृष्टि को चला रहे हैं।
सुन कर युवक शांत हो गया। वह गहरे सोच में डूब गया। उसे लगा कि जिन घटनाओं को वह सामान्य समझ रहा है, वे दरअसल सामान्य नहीं हैं।

Monday, December 27, 2010

भगवान की अद्भुत लीला का प्रसंग




विनय बिहारी सिंह


कल ब्रह्मचारी गोकुलानंद जी ने दिल को छू लेने वाली एक कथा सुनाई। एक बार एक भक्त ने भगवान को प्रकट होकर वर देने के लिए मजबूर कर दिया। कैसे? वह भाव विह्वल होकर करुणा के साथ कहता रहता था- हे मेरे नाथ, क्या दर्शन नहीं दोगे? आखिर मैंने क्या गलती की है? मैं अपने मन से तो जन्मा नहीं। आपकी मर्जी से ही जन्म लिया। अब आप दर्शन दीजिए। उसकी पुकार में इतनी गहराई और करुणा थी कि भगवान को उसके सामने प्रकट होना पड़ा। भगवान ने कहा- वर मांगो। भक्त ने कहा- मेरी एक ही इच्छा है। मैं अपने घर पर अपने हाथों से आपको भोजन कराऊं। बस। भगवान ने कहा- ठीक है। कल मैं दिन का भोजन तुम्हारे ही घर करूंगा। तुम मुझे अपने हाथों से खिलाना। भक्त तो खुशी से उछल पड़ा। वह घर गया और अपने घर की खूब सफाई की। घर चमकने लगा। अगले दिन उसने तरह- तरह के पकवान बनवाए और भगवान का इंतजार करने लगा। दोपहरी बीतने लगी। तभी भक्त को बैठे- बैठे नींद आ गई। अचानक उसने शोर गुल सुना। देखा- एक कुत्ता रसोई में घुस कर मालपुए खा रहा है। भक्त ने उसे जोर से डंडा मारा। वह कुत्ता चिल्लाते हुए भागा।
भक्त इंतजार करता रहा। भगवान नहीं आए। अगले दिन फिर वह मंदिर में बैठा और करुण पुकार कर भगवान से दर्शन देने की प्रार्थना करने लगा। उस दिन भगवान रात को उसके स्वप्न में आए। भक्त ने उनसे पूछा- भगवान आप मेरे घर क्यों नहीं आए? भगवान ने कहा- मैं तो आया था, लेकिन तुमने मुझे डंडे से इतनी जोर से मारा कि मैं रोता हुआ चला गया। भक्त ने कहा- तो आपको मैं कैसे पहचानता? भगवान बोले। मैं तो कुत्ते के रूप में ही तुम्हारे दरवाजे पर बहुत देर तक खड़ा रहा। तुम्हारे दरवाजे की तरफ देखता रहा। कोई भी मुझे उस रूप में देख कर समझ सकता था कि मैं कुछ चाहता हूं। लेकिन तुम तो अपने घर के भीतर बैठे थे। अगर बाहर रहते तो तुम्हें साफ पता चलता कि मैं उस रूप में क्या चाहता हूं। अपनी आंखें खोल कर रहो।
बाद में उसके पड़ोस के लोगो ने बताया कि यह कुत्ता विलक्षण था। वह तो भों- भों की आवाज में घर मालिक को देर से बुला रहा था। हम लोगों ने ऐसा कुत्ता आज तक नहीं देखा है। साफ पता चल रहा था कि वह कुछ खाने को मांग रहा है। तुम अगर आधी रोटी भी दे देते तो वह खा कर चला जाता। घंटे भर बाद ही वह तुम्हारे घर में गया। तभी तुमने उसे मार भगाया। भक्त को इस बात पर बहुत अफसोस हुआ।
भक्त को संतों की यह वाणी याद आई - ना जाने किस भेष में मिल जाएं भगवान।


Saturday, December 25, 2010

GITA

My dear friends

Please read some verses of holy book GITA - chapter 6)


श्रीभगवानुवाच

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥६- १॥


कर्म के फल का आश्रय न लेकर जो कर्म करता है, वह संन्यासी भी है और
योगी भी। वह नहीं जो अग्निहीन है, न वह जो अक्रिय है।

यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन॥६- २॥

जिसे सन्यास कहा जाता है उसे ही तुम योग भी जानो हे पाण्डव।
क्योंकि सन्यास अर्थात त्याग के संकल्प के बिना कोई योगी नहीं बनता।

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते॥६- ३॥

एक मुनि के लिये योग में स्थित होने के लिये कर्म साधन कहा जाता है।
योग मे स्थित हो जाने पर शान्ति उस के लिये साधन कही जाती है।

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते॥६- ४॥


जब वह न इन्द्रियों के विषयों की ओर और न कर्मों की ओर आकर्षित होता है,
सभी संकल्पों का त्यागी, तब उसे योग में स्थित कहा जाता है।

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥६- ५॥


स्वयं से अपना उद्धार करो, स्वयं ही अपना पतन नहीं। मनुष्य स्वयं
ही अपना मित्र होता है और स्वयं ही अपना शत्रु

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥६- ६॥


जिसने अपने आप पर जीत पा ली है उसके लिये उसका आत्म उसका मित्र है।
लेकिन स्वयं पर जीत नही प्राप्त की है उसके लिये उसका आत्म ही शत्रु की तरह वर्तता है।


Friday, December 24, 2010

ईश्वर के सच्चे पुत्र थे जीसस क्राइस्ट



विनय बिहारी सिंह

जीसस क्राइस्ट यानी ईसा मसीह ईश्वर को पिता के रूप में देखते और महसूस करते थे। वे कहते थे- माई फादर एंड आई आर वन ( मेरे पिता और मैं एक हैं), लेकिन उन्होंने आगे कहा- बट व्हाट माई फादर नो, आई नो नाट ( लेकिन जो ग्यान मेरे पिता के पास है, वह मेरे पास नहीं है)। निश्चय ही जीसस ईश्वर के अवतार थे। अपने जीवन के १८ वर्ष उन्होंने भारत के उच्च कोटि के ऋषियों के साथ बिताया था। उनके जीवन के इन १८ वर्षों का उल्लेख कहीं नहीं मिलता (१४ वर्ष की उम्र के बाद के वर्ष)। उन्होंने असंख्य लोगों के रोग ठीक किए, मरे हुए कुछ लोगों को जीवित किया। उनका उद्देश्य चमत्कार दिखाना नहीं था। वे लोगों को यह विश्वास दिलाना चाहते थे कि ईश्वर आपके सबसे करीब हैं। सबसे प्रियतम हैं और वे सभी मनुष्यों को बहुत प्यार करते हैं। मनुष्य अपने कर्मों के कारण दुखों और परेशानियों में फंसा हुआ है। इसीलिए उन्होंने कहा- सीक ये द किंगडम आफ गॉड, रेस्ट थिंग्स विल बी एडेड अन टू यू ( पहले भगवान को पाओ, बाकी चीजें तुम्हें अपने आप मिल जाएंगी)। लेकिन मनुष्य को पहले सांसारिक वस्तुएं चाहिए। भगवान नहीं। लेकिन विडंबना यह है कि सांसारिक वस्तुएं आपको सुख नहीं दे सकतीं। और ये वस्तुएं आती कहां से हैं? भगवान के ही पास से तो आती हैं। उनकी इच्छा के बिना क्या कुछ भी संभव है? लेकिन फिर भी मनुष्य भगवान को भूल कर वस्तुओं के पीछे पागल की तरह दौड़ता रहता है। जीसस क्राइस्ट करुणा के अवतार थे। मनुष्य को कोई कुछ कटु बोल देता है तो वह उसका जवाब और कटु ढंग से देता है। लेकिन जीसस क्राइस्ट को जो लोग सूली पर चढ़ा रहे थे, उनके लिए उन्होंने कहा- गॉड फारगिव देम, फार दे नो नॉट, व्हाट दे डू। ( हे भगवान इन्हें माफ कर दें, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं)। अपनी जान लेने वालों पर इस तरह की करुणा बहुत कम देखने को मिलती है। जीसस क्राइस्ट के बारे में मैंने परमहंस योगानंद जी के माध्यम से ही जाना। उन्होंने कहा है- जीसस क्राइस्ट ने मनुष्य को ईश्वर से जुड़ना सिखाया। लेकिन उनकी लोकप्रियता से दुखी शासन ने उन्हें सूली पर चढ़ा दिया। शासन चाहता था कि लोग अंधविश्वासों में डूबे रहें। ईश्वर से भयानक रूप से डरते रहें। लेकिन जीसस क्राइस्ट ने भगवान से प्रेम करना सिखाया। उन्होंने कहा कि भगवान तो सभी जीवों को प्रेम करते हैं। उनसे भय क्यों? वे हमारे करुणामय पिता हैं। ऐसे पिता के पास जाना तो आनंद में डूबना है। लोगों महसूस किया कि उनकी बातें सच हैं। उनका सदियों से चला आ रहा भय खत्म हुआ। जीसस ने बताया कि तुम्हें अगर कोई सबसे अधिक सुरक्षा दे सकता है तो वह है- ईश्वर। तुम उन्हीं के लिए मतवाला होओ। और लोग जीसस के दीवाने हो गए।

Thursday, December 23, 2010

यह है भगवान की कृपा


विनय बिहारी सिंह


लंदन की खबर है। छियालीस साल की महिला डेलिया नाक्स २३ साल तक व्हील चेयर पर अपंग का जीवन बिताने के बाद अचानक उठ खड़ी हुई हैं और आराम से चल फिर रही हैं। कैसे? वे कहती हैं- जब एक दु्र्घटना में मेरी कमर के नीचे का हिस्सा अपंग हो गया तो डाक्टरों ने बहुत कोशिश की लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। डाक्टरों ने कहा- अब आपको पूरा जीवन व्हील चेयर पर बिताना होगा, लेकिन हिम्मत रखिए, बहुत से लोग व्हील चेयर पर रहते हैं। डेलिया ने इसे अपनी किस्मत मान ली और व्हील चेयर पर बिठा दी गईँ। जैसे- तैसे जीवन बीत रहा था। तभी एक मित्र ने एक आध्यात्मिक व्यक्ति का पता बताया। मुझे बताया गया कि ईश्वर कृपालु हैं और वे हमें सजा नहीं देते, बल्कि हम खुद ही अपने कर्मों की सजा भुगतते हैं। कार्य और परिणाम के सिद्धांत के मुताबिक। मुझसे कहा गया कि मैं उस आध्यात्मिक व्यक्ति के पास चलूं। लेकिन मैं खुद को तमाशा नहीं बनाना चाहती थी। इसलिए मैंने वहां जाने से इंकार कर दिया। तब मेरे पति वहां जाने लगे। वे उस आध्यात्मिक व्यक्ति के साथ मिल कर भगवान से प्रार्थना करते। कभी- कभी तो मेरे पति मेरे स्वास्थ्य के लिए कई- कई घंटे तक प्रार्थना करते। इस तरह कई साल बीत गए। एक दिन अचानक ईश्वर ने मेरे कानों में कहा- उठो, उठ कर चलो। तुम स्वस्थ हो गई हो। और मैं सचमुच उठ खड़ी हुई। मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई। अब मैं सामान्य आदमी की तरह चल फिर सकती हूं। हां, इतना जरूर कह सकती हूं कि भगवान में मेरा विश्वास था। मैं मानती रही हूं कि ईश्वर की कृपा मनुष्य के ऊपर बरसती है। बस मनुष्य को ईश्वर के साथ खुद के दिमाग को ट्यून करना पड़ता है। आज तो मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि ईश्वर है और उसकी मर्जी के बिना कुछ नहीं हो सकता। न रात होगी, न दिन होगा और न जीवों की सांस चलेगी।
ईश्वर हम सबका कल्याण करें।
(मित्रों, क्रिसमस का त्यौहार आ गया। इस ब्लाग पर आप जल्दी ही जीसस क्राइस्ट के संबंध में एक छोटा सा भक्तिपूर्ण लेख पढेंगे)

Wednesday, December 22, 2010

शबरी ने ३५ वर्ष इंतजार किया राम का



विनय बिहारी सिंह


शबरी की प्रबल इच्छा थी कि वह भगवान राम को अपने हाथों से खिलाए। वह दिन रात राम का आह्वान करती रहती थी। हमेशा उसके मन में एक ही बात उच्चारित होती थी- राम, राम, राम। जब वह बहुत अधिक व्याकुल होती थी तो गहरे ध्यान में बैठ जाती थी और राम को मौन संदेश भेजती थी- हे मेरे प्रियतम भगवान, आपको अपने हाथों से खिलाने की मेरी इच्छा क्या पूरी नहीं होगी? कहां छुपे हो भगवान। आओ नाथ। ऋषियों का कहना था कि ऐसे करुण संदेश पाकर भगवान राम सूक्ष्म शरीर में शबरी के पास खिंचे चले आते थे। उस समय शबरी भले ही भगवान को नहीं देखती थी, लेकिन वे उसके साथ होते थे। उस समय शबरी दिव्य आनंद में डूब जाती थी। उसे लगता था यह भगवान को प्रेम करने के कारण है। यह सच भी था। क्यंकि जब तक भगवान का स्पर्श नहीं होता, भक्त को दिव्य आनंद का अनुभव नहीं होता। लेकिन शबरी तो भगवान राम को सशरीर चाहती थी। आखिर ३५ वर्षों बाद बनवास के दौरान भगवान ने शबरी की इच्छा पूरी की। शबरी के घर में कुछ ऐसा खाने को नहीं था कि वह भगवान को दे सके। तब उसकी निगाह अपने आंगन के बेर के पेड़ पर गई। बेर पके हुए फलों से लदा था। शबरी ने तुरंत चुने हुए फल तोड़े और एक टोकरी में रखा। फिर राम को पास बिठा कर बेर चख चख कर उन्हें देती। भगवान राम वही जूठे बेर खाते। लेकिन शबरी को इसका होश नहीं था कि वह जूठे बेर खिला रही है। वह तो भगवान के प्रेम में सराबोर थी। और भगवान राम भी बेर खाते रहे। यह वह क्षण था जब भगवान और भक्त एक हो गए थे। प्रेम की धारा बह रही थी। आनंद का उत्कर्ष था। किसको खबर कि बेर जूठे थे या नहीं। भक्त और भगवान का संबंध अनूठा ही है। भक्त के बिना भगवान को अच्छा नहीं लगता और भगवान के बिना भक्त छटपटाता रहता है। कुछ लोग भगवान को पिता के रूप में तो कुछ लोग मां के रूप में देखते हैं। कुछ तो भगवान को वात्सल्य भाव में देखते हैं।कुछ महिलाएं बाल गोपाल को पूजती हैं- पुत्र भाव में। चाहे किसी भाव में पूजें बस अपने हृदय को भक्ति में गहरे डुबो दें तो भगवान से रहा नहीं जाएगा। वे भक्त के वश में आ जाते हैं।

Tuesday, December 21, 2010

मां काली के एक भक्त से भेंट


विनय बिहारी सिंह


कल मां काली के एक भक्त से भेंट हुई। मैंने कहा- ठंड थोड़ी सी बढ़ी है। वे बोले- मां जैसे रखें, वही ठीक है। मैंने पूछा- आजकल आप रात में जाग कर जप इत्यादि कर रहे हैं कि नहीं? वे हंसे और बोले- मैं कहां कुछ करता हूं। करने वाली तो वही हैं। ऐसा आकर्षण है उनमें कि अपने आप मनुष्य जप करने बैठ जाता है। जैसे जैसे आप जप में आगे बढ़ते जाते हैं आपको दिव्य आनंद की अनुभूति होती जाती है। जप जीभ भले कर रही हो लेकिन मेरा हृदय मां के चरणों में अर्पित रहता है। अब मां जाएंगी कहां? मैं कहता हूं कि मां मैं वह सब कुछ सौंप रहा हूं जो मेरे पास है। अपना हृदय, अपना मन और बुद्धि। सारी संपत्ति। लेकिन तुम दर्शन दो। मुझे प्रेम करो। क्योंकि मैं तुम्हारा बेटा हूं। तुम बेटे की पुकार को अनसुना नहीं कर सकती। मैंने पूछा- तो क्या मां आपका जवाब देती हैं? वे बोले- हमेशा नहीं देतीं। लेकिन तो भी मैं जानता हूं कि वे मेरी भक्ति को चुपचाप महसूस कर रही हैं। भले ही छुपी हुई हैं। मैंने पूछा- वे छुप क्यों जाती हैं? उन्हें तो दिखता है कि उनके भक्त उनके लिए तड़प रहे हैं? वे बोले- मां, लीलामयी हैं। सभी लोग अपने बच्चों के साथ खेलते हैं। तो जगन्माता नहीं खेलेंगी। वे इसलिए छुपती हैं कि हम उन्हें खोजें। हमारी आंखों में उनके लिए आंसू आएं। तब वे दौड़ कर हमें अपनी गोद में उठा लेती हैं और हम आनंद में हो जाते हैं। बस तभी अचानक वे गायब हो जाती हैं। लेकिन उनकी नजर हमारे ऊपर हमेशा रहती है। कौन मां होगी जो अपने बच्चे का ख्याल नहीं करेगी? जगन्माता का छुपना भी भक्त के कल्याण के लिए ही है।
उनसे बातें करके बहुत अच्छा लगा।

Saturday, December 11, 2010

वैष्णव देवी की यात्रा में एक चमत्कार


विनय बिहारी सिंह

यह घटना मेरे कार्यालय के एक सहकर्मी ने सुनाई। उनके एक मित्र अपनी पत्नी और मां के साथ वैष्णव देवी के दर्शन करने गए। वहां पहाड़ी रास्ते की चढ़ाई थी। मित्र की मां के घुटने में अचानक तकलीफ बढ़ गई। लेकिन उनके मन में प्रबल इच्छा थी कि माता के पिंड का दर्शन करूं। बेटे ने हालांकि मना किया था कि तुम्हारे घुटने में तकलीफ है। मत जाओ। हम माता का प्रसाद यहीं ला देंगे। लेकिन उनकी मां ने कहा- बचपन से मेरी साध है कि मैं मां वैष्णव देवी के पिंड का दर्शन करूं। चाहे जो हो जाए, मैं जाऊंगी जरूर। लेकिन कुछ दूर चढ़ने के बाद उनका शरीर साथ नहीं दे पा रहा था। वे थक कर बैठ गईं और मन ही मन माता की गुहार लगाने लगीं। तभी उन्होंने देखा कि नीचे थोड़ी दूरी पर कोई महिला बुर्का पहने खड़ी है। उनके मन में डर बैठ गया। पता नहीं कौन है। कोई महिला के वेश में गुंडा- बदमाश तो नहीं । इस डर से वे उठ खड़ी हुईं और मंदिर की तरफ चढ़ने लगीं। बुर्काधारी महिला भी चलने लगी। जब वे लोग रुकते तो वह भी रुक जाती। जब वे लोग चलने लगते तो वह भी चलने लगती। उन लोगों के मन में और शंका और भय गाढ़ा होने लगा। मित्र की मां थोड़ी देर बैठ- बैठ कर चलती रहीं। लेकिन एक समय ऐसा आया कि उन्हें लगा अब वे और नहीं चल सकतीं। उन्होंने कहा- अब और नहीं। माता को अगर यही मंजूर है कि मैं बीच रास्ते से घऱ लौट जाऊं तो यही सही। तभी भीड़ का कोलाहल सुनाई पड़ा। बेटे ने कहा- मां, देखो मंदिर आ गया। यह शोर- गुल मंदिर से ही आ रहा है। थोड़ी सी हिम्मत और कर दो, तुम्हें माता के दर्शन मिल जाएंगे। सचमुच मंदिर पास आ गया था। मित्र की मां के चेहरे पर खुशी छलक आई। वे बोलीं- क्या? माता का मंदिर आ गया? वे झटके से उठीं और चल पड़ीं। आखिर उन्होंने माता वैष्णव देवी का दर्शन किया और प्रसाद पाया। उनके जीवन की साध पूरी हुई। बाहर आकर उन्होंने बुर्काधारी महिला की बहुत खोज की। वह कहीं दिखाई नहीं पड़ी। तभी बेटे ने कहा- मां, वह बुर्काधारी महिला कोई गुंडा- बदमाश नहीं था। मुझे तो लगता है, वह स्वयं माता वैष्णव देवी थीं। तुम्हें मंदिर तक पहुंचा गईं।
उनकी मां ने कहा- ठीक कहते हो बेटा। वह माता ही थीं। मेरी साध पूरी कर गायब हो गईं। उनका मैं सदा ऋणी रहूंगी। वही संसार चला रही हैं। मेरी साध कैसे नहीं पूरी करतीं.।

Friday, December 10, 2010

राम और ओउम


विनय बिहारी सिंह

विभिन्न संतों ने कहा है कि राम में ओउम छिपा हुआ है। ओउम या ओम ही इस सृष्टि का आदि शब्द है। उसी से ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई। वही ब्रह्मांड का पोषण कर रहा है। और सारे जीवों का लय उसी में होगा। उच्च कोटि के संतों ने कहा है- अ, उ और म का अर्थ है- ब्रह्मा, विष्णु और महेश। तो ओउम क्या है? इसका उत्तर है- ओउम ब्रह्म है। ईश्वर है। भगवान है। मंदिरों में घंटे की आवाज भी ओउम का ही द्योतक है। हर शब्द में ओउम छुपा हुआ है। एक संत हैं जो दिन रात ओम नमः शिवाय का जप करते रहते हैं। कभी मुंह से तो कभी मन ही मन। वे कहते हैं- ओम नमः शिवाय के जाप से मुझे असीम आनंद मिलता है। मैं पहले कई आशंकाओं से डरा रहता था। मैं घूमने वाला साधु हूं। किसी ने कुर्ता दे दिया तो पहन लिया। खाना दे दिया तो खा लिया। मैं सोचता था कि मैंने घर क्यों छोड़ा। यह ठीक है कि मैंने शादी नहीं की। मेरे ऊपर कोई जिम्मेदारी नहीं थी। मेरे मां- बाप का देहांत हो गया था। मेरे भाई- बहन अपने अपने संसार में रम गए थे। मुझे घर पर खाना, चाय और जलपान मिल जाता था। लेकिन मैं खुद को बंधन में पड़ा हुआ महसूस करता था। लेकिन जब से मैने ओम नमः शिवाय का जाप करना शुरू किया, मुझे असीम शांति मिली। मेरे मन के भीतर का डर खत्म हो गया। मैं निर्भय हो गया। अब मुझे इसकी चिंता नहीं कि मेरा क्या होगा। जैसे रामजी रखेंगे, रहूंगा। जब तक जीवित रखेंगे, रहूंगा। फिर उन्हीं में लीन हो जाऊंगा। जब वे हैं तो मुझे चिंता किस बात की। मेरा काम है- उनकी अराधना करना। मुझे दान में जो पैसे मिलते हैं, उन्हीं से कभी वृंदावन तो कभी मथुरा तो कभी बद्रीनाथ- केदारनाथ का दर्शन करता रहता हूं। ओम नमः शिवाय मेरे जीवन का आधार है। उनकी बातें सुन कर अच्छा लगा।

Wednesday, December 8, 2010

आदि शंकराचार्य



विनय बिहारी सिंह


आदि शंकराचार्य अवतार थे। बत्तीस साल की कम उम्र में उन्होंने देह त्याग कर दिया और अपने परम प्रिय भगवान में जा मिले। लेकिन इसके पहले ही उन्होंने- भज गोविन्दम्, विवेक चूडामणि, भवान्यष्टकम्
और अन्य अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे। इसी अवधि में उन्होंने अपने देश भारत के चारों कोनों पर चार आश्रम स्थापित किए। सन्यासियों की दशनामी परंपरा उन्हीं की दी हुई है। सिर्फ सात साल की उम्र में उन्होंने भगत्प्राप्ति के लिए घर छोड़ दिया। वे केरल के एक छोटे से गांव कालड़ी के रहने वाले थे। सन्यास की दीक्षा लेने के बाद जब वे धार्मिक कामों में अत्यंत व्यस्त थे तभी उनकी मां का देहांत हो गया। उन्होंने उनका अपने हाथों से अंतिम संस्कार किया। आदि शंकराचार्य के एक शिष्य थे कमलपाद। उनका नाम कमलपाद कैसे पड़ा, इसके पीछे एक अत्यंत रोचक कथा है। शंकराचार्य किसी नदी के किनारे अस्थाई रूप से रह रहे थे। कमलपाद (उनका पूर्व नाम स्मरण नहीं है) किसी काम से उस पार गए। लेकिन उनका मन गुरु में ही लगा रहा। इधर शंकराचार्य ने किसी काम से कमलपाद को पुकारा। कमलपाद तो नदी के उस पार थे। उन्हें गुरु की पुकार वहां भी सुनाई पड़ गई। वजह यह थी कि वे तो गुरु में ही खोए हुए थे। वे दौड़ कर नदी किनारे आए। वहां उन्होंने देखा- कोई भी नाव नहीं है। उनसे और इंतजार नहीं हो पाया। वे पानी पर ही चलने लगे। लेकिन आश्चर्य- वे जहां भी पानी में पांव रखते एक कमल के फूल पर उनका पांव पड़ता। इस तरह अनेक कमल के फूलों पर पांव रखते हुए उन्होंने नदी पार की और गुरु के पास पहुंचे। गुरु ने पूछा- कहां थे? कमलपाद ने सारा किस्सा सुनाया। गुरु हंसे। वे बोले- आज से तुम्हारा नाम कमलपाद होगा। तुम जहां पांव रखते हो कमल के फूल तुम्हारे चरण छूते हैं। कमलपाद गुरु के चरणों में गिर पड़े। वे जानते थे- यह सब गुरु शंकराचार्य की ही कृपा थी। शंकराचार्य जी को शिष्य के साथ कौतुक करने की नहीं सूझी थी। वे तो शिष्य को यह बताना चाहते थे कि जो ईश्वर पर पूर्ण विश्वास करता है और अपने समूचे हृदय से हमेशा उनकी अराधना करता रहता है, उसके लिए वे कोई भी चमत्कार कर सकते हैं। शंकराचार्य का एक शिष्य जरा सुस्त था। उनके सारे शिष्य पढ़ने के लिए आ चुके थे। बस सुस्त शिष्य नहीं आ पाया था। कक्षा में बैठे शिष्यों ने कहा- गुरुवर, आप उसकी प्रतीक्षा न करें। पढ़ाना शुरू करें। शंकराचार्य जी पढ़ाना शुरू कर दिया। विषय था-यजुर्वेद। तभी सुस्त शिष्य आया। शंकराचार्य ने उससे कहा- तुम्हें यजुर्वेद के पहले दस श्लोक याद हैं? सुस्त शिष्य ने हां में सिर हिलाया। वहां बैठे सारे शिष्य चकित हो गए। शंकराचार्य ने कहा- सुनाओ। सुस्त शिष्य ने धाराप्रवाह, स्पष्ट उच्चारण और अर्थ के साथ श्लोक सुना दिए। सभी शिष्यों का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया। तब शंकराचार्य ने कहा- देखो, किसी की उपेक्षा कभी मत करो। वह आज से सुस्त नहीं रहेगा। फिर सबने साथ गुरु के उपदेशों को सुना। यह चमत्कार आदि शंकराचार्य ही कर सकते थे। कहा जाता है- आदि शंकराचार्य, भगवान शंकर के ही अवतार थे।

Monday, December 6, 2010

एक अद्भुत घटना


विनय बिहारी सिंह


यह घटना मेरे कार्यालय में काम करने वाले एक व्यक्ति के साथ घटी। उनकी पत्नी अपनी एक महिला रिश्तेदार के साथ पुरी मंदिर में गई हुई थीं। यह रथयात्रा के चार- पांच दिन पहले की बात है। जो पुरी के जगन्नाथ मंदिर की प्रथाओं को जानते हैं उन्हें मालूम है कि वहां भगवान के दर्शन उन दिनों नहीं होते क्योंकि मंदिर के कपाट रथयात्रा के सात दिन पहले बंद रखे जाते हैं। बोलचाल की भाषा में कहा जाता है कि भगवान जगन्नाथ को बुखार हुआ है। लेकिन विद्वानों का है कि उस समय भगवान अपने भक्तों के कष्टों, दुखों और तनावों को विशेष रूप से अपने ऊपर लेते हैं और कष्टों का नाश करते हैं। वैसे तो भगवान हर समय अपने भक्तों का दुख हरते हैं। लेकिन रथयात्रा के पूर्व वे यह काम विशेष रूप से करते हैं। चूंकि इस काम के लिए एकांत चाहिए इसलिए वहां के भक्त कपाट बंद कर देते हैं। यह मंदिर प्रबंधन के आदेश पर होता है। तो मेरे सहकर्मी की पत्नी अपनी महिला रिश्तेदार के साथ मंदिर में गईं। मुख्य मंदिर के कपाट बंद देख कर उन्होंने पूछा- मंदिर बंद क्यों है? वहां के पंडितों ने जवाब दिया- भगवान जगन्नाथ को बुखार है। तब ये दोनों महिलाएं ठहाका लगा कर हंस पड़ीं। वे इस बात का मजाक उड़ाने लगीं कि भगवान को भी बुखार होता है। चूंकि ये महिलाएं बुखार के अंदर छिपे तत्व को नहीं जानती थीं, इसलिए वे हंसती रहीं। पंडितों इसका बुरा माना और कहा कि आपको ऐसा नहीं कहना चाहिए। ये महिलाएं कुछ देर तक मंदिर परिसर में घूमती रहीं। तभी उन्हें लगा कि उनका शरीर ठीक नहीं है। वे अपने होटल लौट आईं। होटल में लौटते ही उन्हें जोर का बुखार आया। दोनों ही महिलाएं बुखार से तप रही थीं। होटल वालों ने डाक्टर का प्रबंध किया। दवा शुरू हुई। वे लोग जब तक पुरी में रहे, बुखार से पीड़ित रहे। घर लौटे तो स्वस्थ हुए। चूंकि उस महिला के पति मरे कार्यालय में काम करते हैं, इसलिए उन्होंने पूरी गंभीरता से यह घटना सुनाई। इस पर एक व्यक्ति ने कहा- भगवान तो कृपालु हैं। वे प्रेम और दया के सागर हैं। इन महिलाओं को जो बुखार आया तो निश्चित रूप से इस बुखार के बहाने उनका भी कोई कष्ट, पाप या बुरा कर्म कट गया। इससे इन महिलाओं का लाभ ही हुआ। इस घटना को कुछ लोग अंध विश्वास भी कह सकते हैं। लेकिन मैंने इसमें अपनी ओर से कुछ नहीं जोड़ा है। उन्होंने मुझसे जो कुछ कहा, वही मैंने यहां लिख दिया है। यह उनकी आप बीती है। आप इस घटना को जो कुछ भी कहें लेकिन यह सच है।
ईश्वर की लीला कौन जानता है। हो सकता है उन महिलाओं के लाभ के लिए ही ज्वर हुआ हो..

Thursday, December 2, 2010

वे सचमुच दया की मूर्ति थीं



योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया (वाईएसएस) और सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप (एसआरएफ) की संघमाता और अध्यक्ष दया माता ने पिछले एक दिसंबर ( अमेरिकी तिथि के अनुसार ३० नवंबर) को अपनी देह का त्याग कर दिया और महासमाधि ले ली। महासमाधि के समय उनके शरीर की उम्र करीब ९६ वर्ष थी। एक शिष्य ने बताया- एक सप्ताह से वे गहन ध्यान, जप और समाधि में रह रही थीं। वे जब सत्रह वर्ष की थीं तो उन्होंने आश्रम में प्रवेश किया था। ईश्वर प्राप्ति की कामना लेकर। गुरुदेव परमहंस योगानंद जी ने पहचान लिया था कि वे उच्च कोटि की आत्मा हैं। उन्होंने उन्हें सन्यास की दीक्षा दी और जीवन भर योग शिक्षा के जरिए परोपकार का पाठ पढ़ाया। दया मां इन बातों का जीवन भर पालन करती रहीं और पूरे विश्व में फैले गुरुदेव के शिष्यों को प्रेरणा देती रहीं। सेवा भाव और ईश्वर प्रेम की वे सजीव उदाहरण थीं। सभी उन्हें मां कहते थे। मां का अर्थ ही था- दया माता।
आश्रम में आने के कुछ ही वर्षों बाद मां गंभीर रूप से बीमार पड़ी थीं। गुरुदेव को पता था- यह उनकी देह छोड़ने का समय आ गया है। लेकिन तभी एक चमत्कार हो गया। गुरुदेव ने कहा- जगन्माता चाहती हैं कि तुम उनके लिए शरीर में रहो। दया मां कहती थीं कि वे अस्पताल के बिस्तर पर लेटी हुई ध्यान करने लगीं। तभी उनका आध्यात्मिक नेत्र तीव्र और मनोहारी प्रकाश से भर गया। वह बड़ा होता गया और मानों उसने समूचे ब्रह्मांड को अपनी गिरफ्त में ले लिया। वे उस दिव्य प्रकाश में काफी देर तक रहीं। उन्हें संदेश मिल गया था कि जगन्माता ने उन्हें जीवन दान दिया है। लोगों को ईश्वर प्रेम सिखाने के लिए। इसके लिए उन्हें ईश्वर तुल्य गुरु मिले थे- परमहंस योगानंद जी। गुरुदेव ने उन्हें सन्यास की दीक्षा दी थी।
दया मां गुरुदेव से अपनी भेंट का रोचक वर्णन करती थीं। वे कहती थीं कि उनकी मां ने उनसे कहा कि एक अद्भुत सन्यासी आए हैं। उनके प्रवचन मोहक हैं। दया मां अपनी मां के साथ प्रवचन के विशाल कक्ष में पहुंचीं। लेकिन उन्हें देर हो चुकी थी। सारी सीटें भर चुकी थीं। वे दरवाजे पर खड़ी परमहंस योगानंद के प्रवचन सुनने लगीं। मां कहती थीं- मैंने पाया कि प्रवचन सुनते हुए मेरी सांस रुक गई थी। मुझे परमहंस जी के चेहरे के बदले गेरुए वस्त्र पहने एक दिव्य प्रकाश दिख रहा था। मुझे प्रवचन सुन कर अनुभव हुआ कि यह व्यक्ति (गुरुदेव) ईश्वर को जानता है। मैं इसी का अनुसरण करूंगी। इन्हें ही गुरुदेव बनाऊंगी। और तबसे वे आश्रमवासी हो गईं। दया मां की माता जी भी आश्रम में सन्यासिनी बन गईं। उनके भाई और बहन भी। समूचा परिवार सन्यासी हो गया। वे गुरुदेव का संदेश बार- बार दुहराती रहती थीं- इस धरती पर हम मनुष्य के रूप में इसलिए आए हैं कि ईश्वर की तरफ फिर से मुड़ें। लेकिन लोग लोग तरह- तरह के प्रपंचों में फंस जाते हैं। जबकि मूल रूप से हम ईश्वर प्राप्ति के लिए धरती पर भेजे गए हैं। यह पृथ्वी हमारे लिए स्कूल है। हमें अपना सच्चा सबके सीखना चाहिए और अपने मूल स्रोत ईश्वर से मिल जाना चाहिए।
दया माता के बारे में एक बात बहुत प्रसिद्ध है। एक बार वे आश्रम की किसी बैठक को संबोधित करने वाली थीं। बैठक के पहले प्रार्थना का नियम है। दया मां ने ज्योंही प्रार्थना प्रारंभ किया वे गहरी समाधि में चली गईं। बैठक अगले दिन के लिए टाल दी गई। दया मां भोर में उठती थीं और सुबह नौ बजे तक ध्यान में रहती थीं। रात का समय भी वे गहन ध्यान में बिताती थीं। वे हम सभी भक्तों के लिए आदर्श थीं। गुरुदेव जानते थे वे उनकी शिक्षाओं का प्रचार- प्रसार करने में आनंद पाती हैं। दया मां के भीतर बस एक ही तत्व था- ईश्वर, ईश्वर प्रेम और ईश्वरीय आनंद। वे इसे विश्व भर में बांट देना चाहती थीं। देश- विदेश में लगातार फैल रहे वाईएसएस और एसआरएफ के आश्रमों में बढ़ते भक्त इस बात के प्रमाण हैं।
दया माता ३१ जनवरी १९१४ को इस पृथ्वी पर आईं और सन्यास जीवन के ७९ वर्ष उन्होंने पूरी सक्रियता से बिताए। वे कहती थीं- ईश्वर के ध्यान का आनंद इतना अद्भुत है कि कई बार वे रात को उठ जाती हैं और गहरे ध्यान में उतर जाती हैं। उनका कहना था- मैं समझ नहीं पाती कि लोग ईश्वर प्रेम के बिना कैसे रह पाते हैं? मैं तो ईश्वर के साथ नित नया आनंद का अनुभव करती हूं। दया माता कब अचानक समाधि में चली जाएं, यह कोई नहीं जानता था। लेकिन जब आश्रम की योजनाओं पर बातचीत करने की बारी आती थी तो वे पूरी तरह चुस्त और सतर्क फैसले करती थीं। उनकी यह विशेषता देख कर सभी आश्चर्य करते थे। वे कहती थीं- जब लोगों से बात करो तो पूरी तरह तन्मय होकर और जब ध्यान करो तो दुनिया को बिल्कुल भूल जाओ। तुम्हारा हर काम हंड्रेड परसेंट परफेक्ट हो। शत- प्रतिशत ठीक।
दया माता के बारे में एक सच्चा किस्सा बहुत प्रचलित है। एक बार एक बहुत बड़े अखबार के पत्रकार दया माता से इंटरव्यू करने वाले थे। दयामाता से उनकी मुलाकात करवाने के लिए एक ब्रह्मचारी तैनात थे। ब्रह्मचारी परेशान थे कि दयामाता का ड्रेस मुड़ा हुआ था। जूते बहुत साफ सुथरे नहीं थे और बाल भी लगभग बेतरतीब हो चले थे। ब्रह्मचारी बहुत परेशान थे कि दया मां ठीक कपड़े क्यों नहीं पहन लेतीं। वे दया मां से यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाए तो उन्होंने बस इतना ही कहा- मां, मेरे दिमाग में चल रही हलचल आप समझें। दया मां मुस्कराईं और काम में व्यस्त हो गईं। ठीक एक मिनट बाद ही पत्रकार इंटरव्यू लेने आ पहुंचे। उन्होंने मां को इसकी सूचना दी। वे बाहर निकलीं और आश्चर्य- मां के कपड़े बहुत अच्छी तरह इस्तरी किए हुए, बाल ढंग से संवारे हुए और जूते चमकदार थे। ब्रह्मचारी हैरान थे। यह चमत्कार हो कैसे गया? अभी- अभी तो वे मां को देख कर आए हैं। उन्हें तो कपड़े बदलने तक का समय नहीं मिला। वे अवाक थे।
ऐसी थीं हमारी दया मां।