विनय बिहारी सिंह
क्या इस साल डिहिका आश्रम में आपने परमहंस योगानंद जी को साक्षात शरीर में देखा? मैंने इकसठ साल के तारापद चट्टराज से चकित होकर पूछा।चट्टराज पास के नगर बर्नपुर के रहने वाले हैं और आश्रम में सेवा कार्य करते रहते हैं। उन्होंने कहा- हां, बिल्कुल शरीर में देखा। आश्चर्य इसलिए कि परमहंस जी ने सन १९५२ में अपनी देह का त्याग कर महासमाधि ले ली थी। जिन्हें मालूम नहीं है उन्हें बता दें- महान योगी परमहंस योगानंद जी की आत्मकथा - आटोबायोग्राफी आफ अ योगी, दुनिया की अनेक भाषाओं में अनूदित हो चुकी है। उर्दू में भी। हिंदी में योगी कथामृत नाम से यह अपार लोकप्रिय है। योगी कथामृत के २७ वें अध्याय में डिहिका के ब्रह्मचर्य विद्यालय का उल्लेख है। चट्टराज जी कह रहे थे कि उन्होंने १३ मई २०१० को उन्हें सशरीर देखा। मैंने उनसे पूछा- किस समय उन्होंने इस देव तुल्य परम योगी को देखा?
उन्होंने कहा- शाम का समय था। मैं योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के डिहिका स्थित आश्रम में बैठा हुआ था। आश्रम में मुझे छोड़ कर कोई नहीं था। लेकिन जरा ठहरिए। यह अत्यंत रोचक घटना बताने से पहले मैं आपको बता दूं कि अपने गुरु स्वामी श्री युक्तेश्वर जी की प्रेरणा से परमहंस जी ने २२ मार्च १९१७ को डिहिका में अपने पहले आश्रम स्कूल की स्थापना की। डिहिका बर्दवान जिले के आसनसोल से १० किलोमीटर दूर दामोदर नदी के पास है। बाद में छात्रों की संख्या में भारी वृद्धि हुई। डिहिका में जगह कम थी। इसलिए यह स्कूल यह रांची स्थानांतरित हो गया। वहीं यानी रांची में उसी स्थान पर आज पवित्र योगदा आश्रम है। डिहिका और रांची की जमीन कासिम बाजार के महाराजा मणिंद्र चंद्र नंदी ने दी थी। इसकी चर्चा इसी लेख में बाद में आएगी।
आइए अब रोमांचकारी घटना की तरफ मुड़ें। चट्टराज जी ने कहा- शाम का समय था। मैं अकेल आश्रम में मुख्य गेट के बगल में एक पेड़ के पास बैठा था। तभी देखा- एक लंबे बालों वाले बलिष्ट सन्यासी तेजी से आश्रम में घुसे और आज जहां ध्यान मंदिर बन रहा है, उसमें थोड़ी देर के लिए रुके। फिर आश्रम में स्थित तालाब के भीतर गए। तब तालाब में पानी नहीं था। वहां तालाब के बीचोबीच गए और वहां चारो तरफ घूम कर देखा। मैं तो खड़ा होकर अवाक् उन्हें देख रहा था। फिर वे वापस आए। जब वे नजदीक आए तब मैंने पहचान लिया- अरे, यह तो साक्षात परमहंस योगानंद जी हैं। वही चेहरा, वही जादुई आंखें और वही बलिष्ट शरीर। गेट से बाहर जाने के पहले उन्होंने तीन बार कहा- माई गॉड इज लव, माई गॉड इज लव, माई गॉड इज लव। ( मेरे ईश्वर प्रेम हैं यानी प्रेम ही ईश्वर हैं ) और वे तेजी से चले गए। तब मैं उनके पीछे भागा। गेट के बाहर गया। लेकिन आश्चर्य। उनका कहीं पता नहीं था। गेट के बाहर लोग आ जा रहे थे। लेकिन गुरु जी नहीं दिखे। यहां गुरु जी परमहंस जी के लिए कहा गया है।
मैंने उनसे पूछा- परमहंस जी ने क्या पहना था? चट्टराज जी ने कहा- उन्होंने भूरे रंग का सन्यासियों का गाउन पहन रखा था। मैंने पूछा- गेरुए रंग का नहीं। उन्होंने कहा- नहीं। उनका वस्त्र भूरा था। वे जिस तेजी से आए आश्रम में घूमे और गए, वह चकित करने वाला था। अब मैं सोचता हूं कि उनके पैर छू लेता तो मेरा जीवन सार्थक हो जाता। लेकिन वे तो मानो हवा की तरह चल रहे थे। मैं उन्हें छू ही कैसे सकता था।
जीवन में पहली बार मैं किसी व्यक्ति से मिला, जिसने एक दिव्य योगी का शरीर छोड़ने के बाद दर्शन किया है। मैंने चट्टराज जी से कई प्रश्न किए। पर वे तो उसी क्षण के बारे में बार- बार बता रहे थे। मानो वह उनके जीवन का केंद्रीय अनुभव बन गया हो। मैं उनके सौभाग्य को महसूस कर सकता हूं।
जब यह आश्रम स्कूल रांची स्थानांतरित हो गया तो यह डिहिका की यह जमीन कई लोगों के हाथों में बिकी। तभी सन १९९२ में योगदा आश्रम के एक भक्त ने अचानक उस जगह की पहचान की। उसने कहा- यही वह जगह है जहां गुरुदेव ने अपना पहला आश्रम स्कूल खोला था। यहीं पर परमहंस जी के संस्कृत अध्यापक स्वामी केवलानंद जी ने बच्चों को पढ़ाया और अपनी साधना भी जारी रखी। यहीं पर स्वामी केवलानंद जी ने सन्यास लेकर गेरुआ वस्त्र धारण किया। वे स्कूल के धर्माचार्य थे। इसी वयोवृद्ध भक्त ने बताया कि किस सेमल के वृक्ष के नीचे बैठ कर परमहंस जी ध्यान करते थे। उसने अब तक मौजूद उस पेड़ को भी दिखाया। संयोग यह कि सन १९३५ में परमहंस योगानंद जब अपने गुरु से मिलने अमेरिका से भारत आए तो डिहिका आए और उसी पेड़ के नीचे बैठ कर गहन ध्यान किया। योगदा सत्संग सोसाइटी (वाईएसएस) और सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप (एसआरएफ) की संघमाता और अध्यक्ष दयामाता भी जब भारत आईं तो उन्होंने इस पवित्र स्थल पर आईं। मूल आश्रम की दो तिहाई जमीन लेकर विभिन्न लोगों ने अपना घर बना लिया है। मार्च १९९७ में सिर्फ एक तिहाई जमीन यानी ६५००० स्क्वायर फीट जमीन आश्रम खरीद सका। डिहिका में यहीं पर है योगदा सत्संग ध्यान केंद्र। तालाब के घाट पर एक तरफ प्राचीन पत्थर की सीढ़ियां हैं। इन पत्थरों पर परमहंस जी ने अपने पैर रखे होंगे, यह सोच कर मैंने उन्हें छू कर अपने माथे पर लगाया। वहां एक सुखद गेस्ट हाउस, ध्यान केंद्र बन गया है। आश्रम के चारो तरफ चारदीवारी बना दी गई है। इस आश्रम के कायाकल्प की तैयारियां चल रही हैं। अभी बहुत काम बाकी है। उस पवित्र सेमल के पेड़ को जहां परमहंस जी बैठते थे, वेस्ट बेंगाल स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड बार- बार काट रहा है। उसका कहना है कि ऊपर से बिजली के जा रहे तारों को यह पेड़ डिस्टर्ब कर रहा है। आश्रम के कर्मचारी आग्रह करते हैं कि इन तारों और खंभों को हटाने की जगह तो है, हटा क्यों नहीं देते। तो वेस्ट बेंगाल स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड कह रहा है- आश्रम रुपए देगा तब हम खंभा और तार हटाएंगे। वेस्ट बेंगाल स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड की यह बात सुन कर ईश्वर परायण लोग चकित हैं. जिस परमहंस योगानंद जी की स्मृति में भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किया था, जिन्होंने अमेरिका और समूचे विश्व में क्रिया योग का प्रचार प्रसार किया ऐसे महान योगी का स्मृति चिन्ह भी बनाए रखने की शालीनता वेस्ट वेस्ट बेंगाल स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड नहीं कर पा रहा है। क्या विडंबना है। ईश्वर करें इस पवित्र पेड़ का महत्व उनकी समझ में आए।
परमहंस योगानंद के इस ब्रह्मचर्य स्कूल में भोर से ही गतिविधियां शुरू हो जाती थीं। बच्चे अपने अध्यापकों के साथ वेदों और पुराणों के श्लोक गाते थे। इसकी गूंज पूरे माहौल को पवित्र बना देती थी। फिर ध्यान। इसके बाद जलपान। स्कूल इसके बाद ही शुरू हो जाता था। विभिन्न विषयों का गहन अध्ययन। एक से एक विद्वान अध्यापक। स्कूल की सफाई, बर्तनों की सफाई खाना इत्यादि सब छात्र करते थे। वे समय पर ध्यान करते थे। योगानंद जी चाहते थे कि स्कूलों में नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा भी दी जाए ताकि स्कूल से पास हो कर निकले बच्चे देश और दुनिया के लिए कुछ करें। एक स्वस्थ राष्ट्र और समाज का निरंतर विकास हो। शनिवार की शाम को योगानंद जी का प्रवचन होता था। पास ही दामोदर रेलवे स्टेशन है। वहां के कुछ कर्मचारी आ जाते थे। आसपास के गांवों के लोग भी आते थे। कभी- कभी आसपास के जंगल और पहाड़ों पर योगानंद जी के साथ अध्यापक और छात्र घूमने जाते थे। वहां उन्हें प्रकृति के असली रूपों का दर्शन होता था। नदी और पहाड़ बच्चों से मौन संवाद करते जान पड़ते थे। परमहंस योगानंद जी तब स्वामी योगानंद जी थे। वे कभी- कभी खुद खाना बनाते थे। देर होने पर कहते- यह देर क्षमा करने योग्य है क्योंकि भोजन पकाना एक कला है। देर हो ही सकती है। वे भोजन बनाने के नए तरीकों पर प्रयोग करते रहते थे। लेकिन बच्चों की संख्या लगातार बढ़ रही थी। योगानंद जी ने कासिम बाजार के महाराजा से कहा कि वे इस स्कूल में और कमरे बनवा दें। लेकिन महाराजा नंदी ने कहा- इससे ज्यादा स्थान रांची में है। कृपया वह जगह आप ले लें। स्कूल के अध्यापक यह मनोरम स्थल छोड़ना नहीं चाहते थे। लेकिन कोई उपाय नहीं था। साल भर बाद उन्हें स्कूल को रांची स्थानांतरित करना पड़ा। कई उत्सुक लोग पूछते हैं कि इस स्कूल की स्थापना का संयोग कैसे बैठा। उनके लिए यह जानकारी जरूरी है कि जब योगानंद जी के मन में एक आदर्श स्कूल की कल्पना चल रही थी तो अपना संक्षिप्त ब्लू प्रिंट लेकर वे कासिम बाजार के महाराजा मणिंद्र चंद्र नंदी से मिले। महाराजा नंदी तो ब्लू प्रिंट देखते ही खुशी से उछल पड़े और कहा- स्वामी जी, क्या अद्भुत संयोग है। मैं भी एक ऐसा ही स्कूल खोलना चाहता था। कृपा कर इस योजना की विस्तृत रूपरेखा बनाएं। योगानंद जी ने वहीं बैठ कर विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत कर दी। महाराजा इस स्कूल को खोलने के लिए तत्पर हो गए। स्कूल खुला और खूब लोकप्रिय हुआ। वेस्ट बेंगाल इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के उच्चाधिकारी इन सारे तथ्यों से शायद परिचित नहीं हैं। उन्होंने कहा- हां, बिल्कुल शरीर में देखा। आश्चर्य इसलिए कि परमहंस जी ने सन १९५२ में अपनी देह का त्याग कर महासमाधि ले ली थी। जिन्हें मालूम नहीं है उन्हें बता दें- महान योगी परमहंस योगानंद जी की आत्मकथा - आटोबायोग्राफी आफ अ योगी, दुनिया की अनेक भाषाओं में अनूदित हो चुकी है। उर्दू में भी। हिंदी में योगी कथामृत नाम से यह अपार लोकप्रिय है। योगी कथामृत के २७ वें अध्याय में डिहिका के ब्रह्मचर्य विद्यालय का उल्लेख है। चट्टराज जी कह रहे थे कि उन्होंने १३ मई २०१० को उन्हें सशरीर देखा। मैंने उनसे पूछा- किस समय उन्होंने इस देव तुल्य परम योगी को देखा। उन्होंने कहा- शाम का समय था। मैं योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के डिहिका स्थित आश्रम में बैठा हुआ था। आश्रम में मुझे छोड़ कर कोई नहीं था। लेकिन जरा ठहरिए। यह अत्यंत रोचक घटना बताने से पहले मैं आपको बता दूं कि अपने गुरु स्वामी श्री युक्तेश्वर जी की प्रेरणा से परमहंस जी ने २२ मार्च १९१७ को डिहिका में अपने पहले आश्रम स्कूल की स्थापना की। डिहिका बर्दवान जिले के आसनसोल से १० किलोमीटर दूर दामोदर नदी के पास है। बाद में छात्रों की संख्या में भारी वृद्धि हुई। डिहिका में जगह कम थी। इसलिए यह स्कूल यह रांची स्थानांतरित हो गया। वहीं यानी रांची में उसी स्थान पर आज पवित्र योगदा आश्रम है। डिहिका और रांची की जमीन कासिम बाजार के महाराजा मणिंद्र चंद्र नंदी ने दी थी। इसकी चर्चा इसी लेख में बाद में आएगी।
आइए अब रोमांचकारी घटना की तरफ मुड़ें। चट्टराज जी ने कहा- शाम का समय था। मैं अकेल आश्रम में मुख्य गेट के बगल में एक पेड़ के पास बैठा था। तभी देखा- एक लंबे बालों वाले बलिष्ट सन्यासी तेजी से आश्रम में घुसे और आज जहां ध्यान मंदिर बन रहा है, उसमें थोड़ी देर के लिए रुके। फिर आश्रम में स्थित तालाब के भीतर गए। तब तालाब में पानी नहीं था। वहां तालाब के बीचोबीच गए और वहां चारो तरफ घूम कर देखा। मैं तो खड़ा होकर अवाक् उन्हें देख रहा था। फिर वे वापस आए। जब वे नजदीक आए तब मैंने पहचान लिया- अरे, यह तो साक्षात परमहंस योगानंद जी हैं। वही चेहरा, वही जादुई आंखें और वही बलिष्ट शरीर। गेट से बाहर जाने के पहले उन्होंने तीन बार कहा- माई गॉड इज लव, माई गॉड इज लव, माई गॉड इज लव। और वे तेजी से चले गए। तब मैं उनके पीछे भागा। गेट के बाहर गया। लेकिन आश्चर्य। उनका कहीं पता नहीं था। गेट के बाहर लोग आ जा रहे थे। लेकिन गुरु जी नहीं दिखे। यहां गुरु जी परमहंस जी के लिए कहा गया है।
मैंने उनसे पूछा- परमहंस जी ने क्या पहना था। चट्टराज जी ने कहा- उन्होंने भूरे रंग का सन्यासियों का गाउन पहन रखा था। मैंने पूछा- गेरुए रंग का नहीं। उन्होंने कहा- नहीं। उनका वस्त्र भूरा था। वे जिस तेजी से आए आश्रम में घूमे और गए, वह चकित करने वाला था। अब मैं सोचता हूं कि उनके पैर छू लेता तो मेरा जीवन सार्थक हो जाता। लेकिन वे तो मानो हवा की तरह चल रहे थे। मैं उन्हें छू ही कैसे सकता था।
जीवन में पहली बार मैं किसी व्यक्ति से मिला, जिसने एक दिव्य योगी का शरीर छोड़ने के बाद दर्शन किया है। मैंने चट्टराज जी से कई प्रश्न किए। पर वे तो उसी क्षण के बारे में बार- बार बता रहे थे। मानो वह उनके जीवन का केंद्रीय अनुभव बन गया हो। मैं उनके सौभाग्य को महसूस कर सकता हूं।
जब यह आश्रम स्कूल रांची स्थानांतरित हो गया तो यह डिहिका की यह जमीन कई लोगों के हाथों में बिकी। तभी सन १९९२ में योगदा आश्रम के एक भक्त ने अचानक उस जगह की पहचान की। उसने कहा- यही वह जगह है जहां गुरुदेव ने अपना पहला आश्रम स्कूल खोला था। यहीं पर परमहंस जी के संस्कृत अध्यापक स्वामी केवलानंद जी ने बच्चों को पढ़ाया और अपनी साधना भी जारी रखी। यहीं पर स्वामी केवलानंद जी ने सन्यास लेकर गेरुआ वस्त्र धारण किया। वे स्कूल के धर्माचार्य थे। इसी वयोवृद्ध भक्त ने बताया कि किस सेमल के वृक्ष के नीचे बैठ कर परमहंस जी ध्यान करते थे। उसने अब तक मौजूद उस पेड़ को भी दिखाया। संयोग यह कि सन १९३५ में परमहंस योगानंद जब अपने गुरु से मिलने अमेरिका से भारत आए तो डिहिका आए और उसी पेड़ के नीचे बैठ कर गहन ध्यान किया। योगदा सत्संग सोसाइटी (वाईएसएस) और सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप (एसआरएफ) की संघमाता और अध्यक्ष दयामाता भी जब भारत आईं तो उन्होंने इस पवित्र स्थल पर आईं। मूल आश्रम की दो तिहाई जमीन लेकर विभिन्न लोगों ने अपना घर बना लिया है। मार्च १९९७ में सिर्फ एक तिहाई जमीन यानी ६५००० स्क्वायर फीट जमीन आश्रम खरीद सका। डिहिका में यहीं पर है योगदा सत्संग ध्यान केंद्र। तालाब के घाट पर एक तरफ प्राचीन पत्थर की सीढ़ियां हैं। इन पत्थरों पर परमहंस जी ने अपने पैर रखे होंगे, यह सोच कर मैंने उन्हें छू कर अपने माथे पर लगाया। वहां एक सुखद गेस्ट हाउस, ध्यान केंद्र बन गया है। आश्रम के चारो तरफ चारदीवारी बना दी गई है। इस आश्रम के कायाकल्प की तैयारियां चल रही हैं। अभी बहुत काम बाकी है। उस पवित्र सेमल का पेड़ जहां परमहंस जी बैठते थे, को बिजली विभाग बार- बार काट रहा है। उसका कहना है कि इस पेड़ के ऊपर से बिजली के जा रहे तारों को यह पेड़ डिस्टर्ब कर रहा है। आश्रम के कर्मचारी आग्रह करते हैं कि इन तारों और खंभों को हटाने की जगह तो है, हटा क्यों नहीं देते। तो बिजली विभाग कह रहा है- आश्रम रुपए देगा तब हम खंभा और तार हटाएंगे। बिजली विभाग यानी वेस्ट बेंगाल इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड। जिस परमहंस योगानंद जी की स्मृति में भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किया था, जिन्होंने अमेरिका और समूचे विश्व में क्रिया योग का प्रचार प्रसार किया ऐसे महान योगी की स्मृति चिन्ह भी बनाए रखने की शालीनता वेस्ट बेंगाल इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड नहीं कर पा रहा है। क्या विडंबना है। बिजली विभाग को समझाने की कोशिशें जारी हैं। ईश्वर करें इस पवित्र पेड़ का महत्व उनकी समझ में आए।
परमहंस योगानंद के इस ब्रह्मचर्य स्कूल में भोर से ही गतिविधियां शुरू हो जाती थीं। बच्चे अपने अध्यापकों के साथ वेदों और पुराणों के श्लोक गाते थे। इसकी गूंज पूरे माहौल को पवित्र बना देती थी। फिर ध्यान। इसके बाद जलपान। स्कूल इसके बाद ही शुरू हो जाता था। विभिन्न विषयों का गहन अध्ययन। एक से एक विद्वान अध्यापक। स्कूल की सफाई, बर्तनों की सफाई खाना इत्यादि सब छात्र करते थे। वे समय पर ध्यान करते थे। योगानंद जी चाहते थे कि स्कूलों में नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा भी दी जाए ताकि स्कूल से पास हो कर निकले बच्चे देश और दुनिया के लिए कुछ करें। एक स्वस्थ राष्ट्र और समाज का निरंतर विकास हो। शनिवार की शाम को योगानंद जी का प्रवचन होता था। पास ही दामोदर रेलवे स्टेशन है। वहां के कुछ कर्मचारी आ जाते थे। आसपास के गांवों के लोग भी आते थे। कभी- कभी आसपास के जंगल और पहाड़ों पर योगानंद जी के साथ अध्यापक और छात्र घूमने जाते थे। वहां उन्हें प्रकृति के असली रूपों का दर्शन होता था। नदी और पहाड़ बच्चों से मौन संवाद करते जान पड़ते थे। परमहंस योगानंद जी तब स्वामी योगानंद जी थे। वे कभी- कभी खुद खाना बनाते थे। देर होने पर कहते- यह देर क्षमा करने योग्य है क्योंकि भोजन पकाना एक कला है। देर हो ही सकती है। वे भोजन बनाने के नए तरीकों पर प्रयोग करते रहते थे। लेकिन बच्चों की संख्या लगातार बढ़ रही थी। योगानंद जी ने कासिम बाजार के महाराजा से कहा कि वे इस स्कूल में और कमरे बनवा दें। लेकिन महाराजा नंदी ने कहा- इससे ज्यादा स्थान रांची में है। कृपया वह जगह आप ले लें। स्कूल के अध्यापक यह मनोरम स्थल छोड़ना नहीं चाहते थे। लेकिन कोई उपाय नहीं था। साल भर बाद उन्हें स्कूल को रांची स्थानांतरित करना पड़ा। कई उत्सुक लोग पूछते हैं कि इस स्कूल की स्थापना का संयोग कैसे बैठा। उनके लिए यह जानकारी जरूरी है कि जब योगानंद जी के मन में एक आदर्श स्कूल की कल्पना चल रही थी तो अपना संक्षिप्त ब्लू प्रिंट लेकर वे कासिम बाजार के महाराजा मणिंद्र चंद्र नंदी से मिले। महाराजा नंदी तो ब्लू प्रिंट देखते ही खुशी से उछल पड़े और कहा- स्वामी जी, क्या अद्भुत संयोग है। मैं भी एक ऐसा ही स्कूल खोलना चाहता था। कृपा कर इस योजना की विस्तृत रूपरेखा बनाएं। योगानंद जी ने वहीं बैठ कर विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत कर दी। महाराजा इस स्कूल को खोलने के लिए तत्पर हो गए। स्कूल खुला और खूब लोकप्रिय हुआ। वेस्ट बेंगाल इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के उच्चाधिकारी इन सारे तथ्यों से शायद परिचित नहीं हैं।
2 comments:
बिल्कुल सही कह् रहे हैं ऐसा भी होता है।
बहुत ही सोभाग्यशाली रहे है ।गुरूजी के दिव्य दर्शन का सुखद संयोग । पढने मात्र से ही मुझे भी सुखद अनुभूति हुई है ।जय परम पुज्य गुरुदेव ।
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