वे सचमुच दया की मूर्ति थीं
योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया (वाईएसएस) और सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप (एसआरएफ) की संघमाता और अध्यक्ष दया माता ने पिछले एक दिसंबर ( अमेरिकी तिथि के अनुसार ३० नवंबर) को अपनी देह का त्याग कर दिया और महासमाधि ले ली। महासमाधि के समय उनके शरीर की उम्र करीब ९६ वर्ष थी। एक शिष्य ने बताया- एक सप्ताह से वे गहन ध्यान, जप और समाधि में रह रही थीं। वे जब सत्रह वर्ष की थीं तो उन्होंने आश्रम में प्रवेश किया था। ईश्वर प्राप्ति की कामना लेकर। गुरुदेव परमहंस योगानंद जी ने पहचान लिया था कि वे उच्च कोटि की आत्मा हैं। उन्होंने उन्हें सन्यास की दीक्षा दी और जीवन भर योग शिक्षा के जरिए परोपकार का पाठ पढ़ाया। दया मां इन बातों का जीवन भर पालन करती रहीं और पूरे विश्व में फैले गुरुदेव के शिष्यों को प्रेरणा देती रहीं। सेवा भाव और ईश्वर प्रेम की वे सजीव उदाहरण थीं। सभी उन्हें मां कहते थे। मां का अर्थ ही था- दया माता।
आश्रम में आने के कुछ ही वर्षों बाद मां गंभीर रूप से बीमार पड़ी थीं। गुरुदेव को पता था- यह उनकी देह छोड़ने का समय आ गया है। लेकिन तभी एक चमत्कार हो गया। गुरुदेव ने कहा- जगन्माता चाहती हैं कि तुम उनके लिए शरीर में रहो। दया मां कहती थीं कि वे अस्पताल के बिस्तर पर लेटी हुई ध्यान करने लगीं। तभी उनका आध्यात्मिक नेत्र तीव्र और मनोहारी प्रकाश से भर गया। वह बड़ा होता गया और मानों उसने समूचे ब्रह्मांड को अपनी गिरफ्त में ले लिया। वे उस दिव्य प्रकाश में काफी देर तक रहीं। उन्हें संदेश मिल गया था कि जगन्माता ने उन्हें जीवन दान दिया है। लोगों को ईश्वर प्रेम सिखाने के लिए। इसके लिए उन्हें ईश्वर तुल्य गुरु मिले थे- परमहंस योगानंद जी। गुरुदेव ने उन्हें सन्यास की दीक्षा दी थी।
दया मां गुरुदेव से अपनी भेंट का रोचक वर्णन करती थीं। वे कहती थीं कि उनकी मां ने उनसे कहा कि एक अद्भुत सन्यासी आए हैं। उनके प्रवचन मोहक हैं। दया मां अपनी मां के साथ प्रवचन के विशाल कक्ष में पहुंचीं। लेकिन उन्हें देर हो चुकी थी। सारी सीटें भर चुकी थीं। वे दरवाजे पर खड़ी परमहंस योगानंद के प्रवचन सुनने लगीं। मां कहती थीं- मैंने पाया कि प्रवचन सुनते हुए मेरी सांस रुक गई थी। मुझे परमहंस जी के चेहरे के बदले गेरुए वस्त्र पहने एक दिव्य प्रकाश दिख रहा था। मुझे प्रवचन सुन कर अनुभव हुआ कि यह व्यक्ति (गुरुदेव) ईश्वर को जानता है। मैं इसी का अनुसरण करूंगी। इन्हें ही गुरुदेव बनाऊंगी। और तबसे वे आश्रमवासी हो गईं। दया मां की माता जी भी आश्रम में सन्यासिनी बन गईं। उनके भाई और बहन भी। समूचा परिवार सन्यासी हो गया। वे गुरुदेव का संदेश बार- बार दुहराती रहती थीं- इस धरती पर हम मनुष्य के रूप में इसलिए आए हैं कि ईश्वर की तरफ फिर से मुड़ें। लेकिन लोग लोग तरह- तरह के प्रपंचों में फंस जाते हैं। जबकि मूल रूप से हम ईश्वर प्राप्ति के लिए धरती पर भेजे गए हैं। यह पृथ्वी हमारे लिए स्कूल है। हमें अपना सच्चा सबके सीखना चाहिए और अपने मूल स्रोत ईश्वर से मिल जाना चाहिए।
दया माता के बारे में एक बात बहुत प्रसिद्ध है। एक बार वे आश्रम की किसी बैठक को संबोधित करने वाली थीं। बैठक के पहले प्रार्थना का नियम है। दया मां ने ज्योंही प्रार्थना प्रारंभ किया वे गहरी समाधि में चली गईं। बैठक अगले दिन के लिए टाल दी गई। दया मां भोर में उठती थीं और सुबह नौ बजे तक ध्यान में रहती थीं। रात का समय भी वे गहन ध्यान में बिताती थीं। वे हम सभी भक्तों के लिए आदर्श थीं। गुरुदेव जानते थे वे उनकी शिक्षाओं का प्रचार- प्रसार करने में आनंद पाती हैं। दया मां के भीतर बस एक ही तत्व था- ईश्वर, ईश्वर प्रेम और ईश्वरीय आनंद। वे इसे विश्व भर में बांट देना चाहती थीं। देश- विदेश में लगातार फैल रहे वाईएसएस और एसआरएफ के आश्रमों में बढ़ते भक्त इस बात के प्रमाण हैं।
दया माता ३१ जनवरी १९१४ को इस पृथ्वी पर आईं और सन्यास जीवन के ७९ वर्ष उन्होंने पूरी सक्रियता से बिताए। वे कहती थीं- ईश्वर के ध्यान का आनंद इतना अद्भुत है कि कई बार वे रात को उठ जाती हैं और गहरे ध्यान में उतर जाती हैं। उनका कहना था- मैं समझ नहीं पाती कि लोग ईश्वर प्रेम के बिना कैसे रह पाते हैं? मैं तो ईश्वर के साथ नित नया आनंद का अनुभव करती हूं। दया माता कब अचानक समाधि में चली जाएं, यह कोई नहीं जानता था। लेकिन जब आश्रम की योजनाओं पर बातचीत करने की बारी आती थी तो वे पूरी तरह चुस्त और सतर्क फैसले करती थीं। उनकी यह विशेषता देख कर सभी आश्चर्य करते थे। वे कहती थीं- जब लोगों से बात करो तो पूरी तरह तन्मय होकर और जब ध्यान करो तो दुनिया को बिल्कुल भूल जाओ। तुम्हारा हर काम हंड्रेड परसेंट परफेक्ट हो। शत- प्रतिशत ठीक।
दया माता के बारे में एक सच्चा किस्सा बहुत प्रचलित है। एक बार एक बहुत बड़े अखबार के पत्रकार दया माता से इंटरव्यू करने वाले थे। दयामाता से उनकी मुलाकात करवाने के लिए एक ब्रह्मचारी तैनात थे। ब्रह्मचारी परेशान थे कि दयामाता का ड्रेस मुड़ा हुआ था। जूते बहुत साफ सुथरे नहीं थे और बाल भी लगभग बेतरतीब हो चले थे। ब्रह्मचारी बहुत परेशान थे कि दया मां ठीक कपड़े क्यों नहीं पहन लेतीं। वे दया मां से यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाए तो उन्होंने बस इतना ही कहा- मां, मेरे दिमाग में चल रही हलचल आप समझें। दया मां मुस्कराईं और काम में व्यस्त हो गईं। ठीक एक मिनट बाद ही पत्रकार इंटरव्यू लेने आ पहुंचे। उन्होंने मां को इसकी सूचना दी। वे बाहर निकलीं और आश्चर्य- मां के कपड़े बहुत अच्छी तरह इस्तरी किए हुए, बाल ढंग से संवारे हुए और जूते चमकदार थे। ब्रह्मचारी हैरान थे। यह चमत्कार हो कैसे गया? अभी- अभी तो वे मां को देख कर आए हैं। उन्हें तो कपड़े बदलने तक का समय नहीं मिला। वे अवाक थे।
ऐसी थीं हमारी दया मां।
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