Friday, January 28, 2011

जिनका हृदय शुद्ध नहीं है



विनय बिहारी सिंह


रामकृष्ण परमहंस कहते थे- जिनका हृदय शुद्ध नहीं है, उन्हें विश्वास ही नहीं होता कि भगवान हैं। भगवान के होने का अनुभव तो वही कर सकता है जिसका हृदय निर्मल हो। एक सच्चा भक्त सूर्योदय की घटना को भी भगवान की उपस्थिति मानता है। चांद- तारों को ईश्वर की अद्भुत सृष्टि मानता है। हम कुछ वर्षों के लिए इस पृथ्वी पर आए हैं। हमें किसने भेजा है? ईश्वर ने। क्यों? क्योंकि हमारे भीतर की सांसारिक कामनाएं धधक रही थीं। हम फिर पृथ्वी पर आने को बेचैन थे। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है- यह संसार दुख का समुद्र है। अर्जुन तुम इससे बाहर निकलो। कैसे? भगवान ने गीता में इसी को बताया है। रामकृष्ण परमहंस कहते थे- संसार में रहना है तो वैराग्य का तेल लगा कर रहो। जैसे कटहल काटने के पहले मनुष्य हाथ में तेल लगा लेता है ताकि उसको काटने से निकला चिपचिपा द्रव हाथ में न चिपके। वे कहते थे यह चिपचिपा द्रव ही मायाजाल है। संसार में रहना है तो यह हमेशा याद रखना होगा कि इस संसार में हमें सावधान रहना बहुत जरूरी है। संसार में आनंद का कोई स्थान नहीं है। आनंद सिर्फ ईश्वर में ही है। बाकी आनंद मिथ्या है। धोखा देने वाला। ईश्वर हमें हर पल देख रहे हैं। वे हमारी समीक्षा कर रहे हैं। हमारे कर्म संचित हो रहे हैं। क्यों न हम ईश्वर से प्रार्थना करते रहें कि प्रभु, हमें रास्ता दिखाइए। हमें शुभ काम ही करने की प्रेरणा दीजिए। हम जैसी आदत बना लेंगे, वैसे ही बन जाएंगे। हमेशा ईश्वर में जीने का अर्थ है सदा आनंद में रहना। ईश्वरीय सुरक्षा में रहना।

Wednesday, January 26, 2011

शरीर से अतिरिक्त मोह




विनय बिहारी सिंह

सभी ऋषियों ने कहा है कि शरीर और इंद्रियों से मोह माया जाल में फंसाता है। कैसे? जिस चेहरे को हम शीशे में देख कर अच्छा महसूस करते हैं, वह एक दिन बूढ़ा हो जाएगा। झुर्रियां पड़ जाएंगी और एक दिन यह शरीर छोड़ कर जाना पड़ेगा। हम चाहें या न चाहें, यह शरीर तो एक न एक दिन छोड़ना ही है। तो फिर इससे अतिरिक्त मोह क्यों? यह बातचीत चल ही रही थी कि एक भक्त बोले- तो क्या शरीर की परवाह ही न करें? तब एक सन्यासी ने कहा- जरूर करें। समय से पौष्टिक खाना खाएं। जलपान करें। बीमार पड़ने पर चिकित्सा करें। शरीर की रक्षा तो बहुत आवश्यक है। यह शरीर भगवान का मंदिर कहा गया है। लेकिन हां, इससे अतिरिक्त मोह न करें। यह भी दिमाग में रखिए कि यह शरीर नश्वर है। एक दिन यह हमारा साथ छोड़ देगा। हमारे चाहने और न चाहने से कुछ नहीं होगा। जो होना है, वही होगा।
सन्यासी ने वहां मौजूद सारे लोगों की आंखें खोल दीं। सच ही तो है। यह शरीर हर रोज पुराना हो रहा है। यह हमारा होकर भी हमारा नहीं है। तो हमारा कौन है? सन्यासी कहते हैं- हमारे अपने भगवान हैं। वे हमें हर परिस्थिति में प्यार करते हैं। हमारी रक्षा करते हैं। उनसे प्यार करने का अर्थ है- सदा के लिए निश्चिंत हो जाना।
क्योंकि वही हमारे माता, पिता, मित्र और सदा के लिए हितैषी हैं। कहा भी गया है- त्वमेव माता च पिता त्वमेव.......
अंत में कहा गया है- त्वमेव सर्वं मम देव देव। यानी हे भगवान, आप ही सबकुछ हैं। फिर भी दुनिया में कई लोग भगवान के लिए दो मिनट का समय नहीं निकाल पाते।

Saturday, January 22, 2011

भक्ति की धारा सूखे नहीं


विनय बिहारी सिंह


कुछ लोगों की शिकायत रहती है कि उन्होंने भगवान के प्रति भक्ति तो बड़े जोर- शोर से की। लेकिन बाद में यह उत्साह कम हो गया। ऐसा इसलिए होता है कि इन लोगों के भीतर भगवान की सर्वव्यापकता का बोध अचानक खत्म हो जाता है। मन में आ जाता है कि पता नहीं भगवान हैं या नहीं और मेरी प्रार्थना सुन भी रहे हैं या नहीं। बस, यह शंका ही भक्ति के पथ की बाधा है। अरे भाई, भगवान तो सर्वव्यापी, सर्व शक्तिमान और सर्व ग्याता हैं। वे नित्य हैं। ऐसा नहीं कि इस पल हैं और अगले पल नहीं हैं। यह संसार ही उन्हीं का है। वे आपके एक- एक क्षण का हिसाब रख रहे हैं। बस वे चुप और शांत हैं। वे संपूर्ण ब्रह्मांड के मालिक हैं। लेकिन चुप और शांत हैं। आपको लगातार देख रहे हैं। आप अगर उनसे संपर्क करना चाहते हैं तो आप भी चुप और शांत हो कर बैठिए और अपने हृदय में उनके लिए गहरा प्रेम पैदा कीजिए। वे आपको महसूस करा देंगे कि वे हैं। वे तो तब भी आपकी देख भाल करते हैं जब आप नींद में होते हैं। आपको अपने शरीर का कोई होश नहीं रहता, लेकिन भगवान आपकी सांसों की देखभाल करते हैं। हालांकि आप नहीं जानते कि आप सोने के बाद अगली सुबह जीवित उठेंगे या नहीं। लेकिन भगवान के पास सारे जीवों का हिसाब है। वे सदा जाग्रत, चौकस और सबका भरण- पोषण कर रहे हैं। लेकिन उनके भीतर तनिक भी अहंकार नहीं है। उनके भीतर बस प्रेम ही प्रेम है। आप भी प्रेम की पेंगे बढ़ाइए और उनसे संपर्क कर लीजिए। हां, अहंकार से आपको दूर रहना पड़ेगा। भगवान उसी को प्रेम करते हैं जो अहंकार शून्य हो। आप उनके प्रति प्रेम से लबालब होइए तो वे आपको अनंत प्रेम के सागर में ले जाएंगे। आप निहाल हो जाएंगे।

Friday, January 21, 2011

ईश्वर का संगीत



विनय बिहारी सिंह


ईश्वर का संगीत सुनने वाले कम लोग हैं। ज्यादातर लोग शोर- गुल वाला संगीत सुन रहे हैं। इनमें से कुछ मजबूरी में सुन रहे हैं क्योंकि कोई विकल्प नहीं है और कुछ शौकिया सुन रहे हैं क्योंकि शोर- गुल उन्हें पसंद है। ईश्वर का संगीत क्या है? ईश्वर का संगीत है- ओउम या ओम। किसी शांत जगह जाइए और गहरे मौन में उतरिए। यह ओम अपने आप सुनाई देगा। ईश्वर हमारे भीतर यह संगीत लगातार उतार रहे हैं लेकिन हमारा चंचल दिमाग इसे ग्रहण नहीं कर पा रहा है। जिस दिन हमारा दिमाग शांत होगा- ईश्वर का यह मधुर ओम संगीत हमें सुनाई देने लगेगा।
गीता में भी भगवान कृष्ण ने कहा है कि जो व्यक्ति इंद्रियातीत हो कर अपने भीतर उतरता है, वह ईश्वर को पाता है। भगवान ने अर्जुन से कहा है- मैं सबके हृदय में रहता हूं। जिनके हृदय में कूड़ा- करकट भरा है, वे भगवान को कष्ट दे रहे हैं। वहां कूड़ा के बजाय श्रद्धा, भक्ति और प्रेम होना चाहिए। कूड़ा- करकट का अर्थ है- ईर्ष्या, काम और अन्य कुप्रवृ्त्तियां। जो २४ घंटे में क्षण भर भी रुक कर भगवान को याद नहीं करता, उसका जीना व्यर्थ का जीना है। जिनकी कृपा से हम सांस ले रहे हैं, उन्हें एक क्षण भी याद न रखना कितनी कृतघ्नता है? ईश्वर हमसे अनन्य प्रेम करते हैं। इसीलिए हमारे हृदय में रहते हैं लेकिन हम हैं कि उन्हें महसूस ही नहीं करते। उन्होंने साफ- साफ कहा है- मैं मनुष्य के हृदय में रहता हूं अर्जुन। उन्होंने यह भी कहा है- तुम मेरी शरण में रहो, मेरा भक्त बनो, मुझे प्रणाम करो। तुम्हारा उद्धार हो जाएगा। भगवान ने इतना साफ- साफ कहा है लेकिन फिर भी हम उनके प्रति आकर्षित नहीं होते तो दोष किसका है?

Wednesday, January 19, 2011

ऋषि दधीचि का त्याग




विनय बिहारी सिंह

ऋषि दधीचि उच्च कोटि के उन ऋषियों में गिने जाते हैं जिन्होंने मानव कल्याण के लिए ही जीवन जीया। कथा है कि एक बार देवताओं के राजा इंद्र को असुर वृत्र ने स्वर्ग से बाहर कर दिया। इंद्र तत्काल भगवान शिव के पास पहुंचे। भगवान शिव ने कहा कि इस समस्या का समाधान भगवान विष्णु ही कर सकते हैं। भगवान शिव, इंद्र को लेकर विष्णु भगवान के पास पहुंचे। तब विष्णु जी ने कहा- पृथ्वी पर एक महान ऋषि है- दधीचि। उनकी हड्डियों से बने वज्र से ही वृत्र का वध हो सकता है क्योंकि उसे वरदान मिला हुआ है कि उसका वध किसी भी धातु, पत्थर या काठ इत्यादि के हथियार से नहीं हो सकता। तब ये देवता ऋषि दधीचि के पास पहुंचे और अपनी व्यथा सुनाई। कहा कि इंद्र जब तक स्वर्ग का राज्य दुबारा नहीं पा लेते, वहां सभी व्याकुल रहेंगे। आप अपनी हड्डियां हमें दे दीजिए ताकि हम उससे वज्र बना सकें। दधीचि अपना शरीर छोड़ने को तैयार हो गए। लेकिन उन्होंने कहा कि वे शरीर छोड़ने से पहले पृथ्वी की सभी पवित्र नदियों में स्नान कर लेना चाहते हैं। इसके लिए मुझे समय दिया जाए। तब इंद्र को लगा कि इसमें तो बहुत समय लगेगा। उन्होंने सारी नदियों को नैमिषारण्य में, जहां दधीचि रहते थे, बुला लिया। वहां सारी नदियां एक साथ मिल कर बहने लगीं। ऋषि दधीचि ने आनंदपूर्वक सभी पवित्र नदियों में स्नान किया और फिर योग के द्वारा अपना शरीर त्याग दिया। देवताओं ने उनकी रीढ़ की हड़्डी से वज्र बनाया और असुर वृत्र का वध किया।
विद्वानों का कहना है कि यह सांकेतिक कथा है। दरअसल रीढ़ की हड्डी में स्थित सुषुम्ना को प्रतीक बना कर संकेत में यह कहानी कही गई है। सुषुम्ना जब जाग्रत होती है तो मनुष्य के जीवन की सारी बाधाएं अपने आप नष्ट हो जाती हैं। और सुषुम्ना ध्यान, जप, प्रार्थना और ईश्वर के प्रति गहरी भक्ति से जाग्रत होती है।

Tuesday, January 18, 2011

अनंत सुख, अनंत शांति।



विनय बिहारी सिंह


एक व्यक्ति ने संत से पूछा- ईश्वर कहां हैं?
संत ने उत्तर दिया- आपके हृदय में।
प्रश्न- वे महसूस क्यों नहीं होते?
उत्तर- क्योंकि आपका दिमाग चंचल है। जब आप शांत हो कर यानी स्थिर चित्त गहरा ध्यान करते हैं तो आप उन्हें महसूस कर सकते हैं।
प्रश्न- मन स्थिर क्यों नहीं होता?
उत्तर- क्योंकि आपको लगता है आनंद कहीं और है। जबकि आनंद सिर्फ और सिर्फ भगवान में है। सिर्फ आनंद ही नहीं भगवान में शांति और सुख भी है। अनंत सुख, अनंत शांति।
प्रश्न- क्या कभी मन स्थिर होगा?
उत्तर- मन तभी स्थिर होगा, जब आपके भीतर ईश्वर के अलावा और किसी चीज की प्रबल चाहत नहीं होगी। ईश्वर से संपूर्ण प्रेम ही मनुष्य का असली लक्ष्य होना चाहिए। तब मन पूर्ण रूप से शांत और सुखी होगा।

Monday, January 17, 2011

हम परदेसी पंछी बाबा



विनय बिहारी सिंह


ऋषियों ने कहा है कि यह संसार हमारा परदेस है। सराय है। धर्मशाला है। हम यहां कुछ दिनों के लिए आए हैं। हमारा असली घर भगवान के पास है। भगवान ही हमारे माता- पिता हैं। हम संसार में अपनी इच्छाओं के कारण आए हैं। जिस दिन हम इच्छा शून्य हो जाएंगे और भगवान को अपनी आंतरिक श्रद्धा से पुकारेंगे, वे हमें अपने धाम का सुख देंगे। आखिर पुत्र या पुत्री की पुकार वे कैसे नहीं सुनेंगे? एक संत ने कहा है- हम परदेसी पंछी बाबा, अणी देस यह नहीं। यानी यह संसार हमारा नहीं हैं। लेकिन हम लोग संसार के माया- मोह में इस कदर फंस जाते हैं कि भगवान को ही भूल जाते हैं। जिसने हमें इस संसार में भेजा, उसे भूल कर हम तरह- तरह के प्रपंच में व्यस्त हो जाते हैं। इसीलिए ऋषियों ने कहा है कि आप घर परिवार करिए। बच्चों और पति या पत्नी से प्रेम करिए लेकिन संसार में आसक्त मत होइए। संसार में रहिए लेकिन संसार का होकर मत रहिए। भगवान का होकर रहिए। एक संत ने तो यहां तक कहा कि आप किसे अपना कह रहे हैं। जिसे आपने सघन रिश्ता बनाया है, वह भी यह संसार छोड़ कर जाएगा। इसलिए भगवान से सघन रिश्ता बनाइए जो कभी नहीं टूटता, कभी नहीं खत्म होता। चाहे मृत्यु ही क्यों न हो जाए, भगवान हमेशा हमारे साथ बने रहते हैं। यही भगवान की लीला है। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- भगवान आपके ऊपर खुद को थोपना नहीं चाहते। वे डिक्टेटर नहीं हैं। वे तो चाहते हैं कि मनुष्य खुद अपनी इच्छा से उन्हें प्रेम करे। वे जबरदस्ती प्रेम क्यों करवाएं? लेकिन हां, जब हमारे हृदय में उनके प्रति प्रेम जागता है और बढ़ने लगता है तो वे हमारे हृदय में खुद को प्रकट करते हैं। वे तो सदा से हमारे हृदय में मौजूद हैं। लेकिन हम उन्हें महसूस नहीं करते। बस एक मात्र प्रेम ही है जो भगवान को भक्त के वश में कर देता है। इसीलिए कबीरदास ने कहा- पोथी पढ़ि- पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का पढ़े से पंडित होय।।

Saturday, January 15, 2011

आपके जीवन में ढेर सारी खुशियां आएं

विनय बिहारी सिंह



आप सबको मकर संक्रांति पर ढेर सारी शुभकामनाएं। आपके जीवन में ढेर सारी खुशियां आएं और आप नित नवीन आनंद का अनुभव करें। मित्रों, मैं उत्तर प्रदेश के अपने गांव में गया था। इसीलिए आपसे नियमित मुलाकात नहीं हो पाती थी। वहीं एक संत की समाधि का दर्शन हुआ। इस समाधि पर मैं बचपन में जाया करता था। आज उन्हीं के बारे में चर्चा हो। समाधि पर एक विराट बरगद का पेड़ उग आया है। इस पेड़ को अत्यंत पवित्र माना जाता है। नाम है- माया बाबा। माया बाबा, सांसारिक माया जाल की बातें करते रहते थे, इसलिए ग्रामीणों ने उनका नाम माया बाबा रख दिया। वे अत्यंत सिद्ध संत थे। आज से पचास साल पहले इस पवित्र पेड़ के बगल से गुजरने वाली सड़क (जो जिला मुख्यालय जाती है) रात को अत्यंत सुनसान हो जाती थी। रात को कोई वाहन उपलब्ध नहीं था। जिनको अर्जेंट काम होता था, वे लोग पैदल जिला मुख्यालय से अपने गांव इसी रास्ते लौटते थे। मैंने स्वयं कुछ लोगों के मुंह से घटनाएं सुनी हैं। उनमें से एक ही घटना की चर्चा यहां पर्याप्त होगी। एक व्यापारी जिला मुख्यालय गया हुआ था। वह भगवान शिव का गहरा भक्त था। वहां रात को उसे खबर मिली कि उसकी पत्नी की तबियत खराब है। व्यापारी तत्क्षण गांव के लिए रवाना हो गया। उसके पास काफी रुपए थे। जब वह आधा रास्ता पार कर चुका तो उसके मन में भूत- प्रेत का डर समा गया। वह डर कर धीरे- धीरे चलने लगा। तभी उसने पीछे से एक बहुत मीठी आवाज सुनी- कहां जा रहे हो बेटा? वह डर से कांपते हुए पीछे मुड़ा। उसने देखा- एक दिव्य संत उसकी ओर चले आ रहे हैं। पता नहीं क्यों, उस संत को देख कर व्यापारी के मन का डर बिल्कुल खत्म हो गया। व्यापारी संत को बताया कि वह अपने घर जा रहा है और उसकी पत्नी बहुत बीमार है। संत ने कहा- चलो मैं तुम्हें पहुंचा देता हूं। तुम चिंता मत करो। तुम्हारी पत्नी सात दिनों तक बीमार रहेगी। आठवें दिन वह बिल्कुल स्वस्थ हो जाएगी। लेकिन इस बीच उसे बहुत पीड़ा होगी। तुम घबराना नहीं। संत ने उस व्यापारी को उसके घर तक पहुंचा दिया। व्यापारी संत का आभार प्रदर्शन करने के लिए पीछे मुड़ा तो देखा कि वे गायब हो चुके हैं। सुबह उसने लोगों को यह घटना सुनाई। लोगों ने कहा- वे माया बाबा थे। तुम शिव जी के अच्छे भक्त हो। इसीलिए तुम्हें उनकी सुरक्षा मिल गई।
ऐसी घटनाएं और भी हैं। लेकिन माया बाबा उन्हीं का मदद करते थे, जो ईश्वर प्रेमी थे। जो प्रपंची लोग थे, उनको वे दर्शन कभी नहीं देते थे। मैं बचपन में जब भी इस बरगद के पेड़ के पास जाता था- मेरे मन में गहरी श्रद्धा होती थी। आज भी वह श्रद्धा जस की तस है। आज भी वहां लोग पूजा- पाठ करने जाते हैं। लेकिन इन घटनाओं को बताने वाले बुजुर्ग अब इस दुनिया में नहीं हैं। लेकिन माया बाबा का स्थान हमेशा की तरह शांति, प्रेम और भक्ति का संदेश दे रहा है।

Saturday, January 8, 2011

आपके भीतर कौन सा रहस्य है?



विनय बिहारी सिंह


कभी आपने सोचा है कि आपके भीतर अनेक रहस्य छुपे हुए हैं? अगर नहीं तो अब भी समय है। महात्माओं ने कहा है- ईश्वर का साम्राज्य आपके भीतर है। कविता है न- कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूंढ़े बन माहिं।। मृग या हिरण की नाभि में कस्तूरी होती है। जब यह कस्तूरी परिपक्व हो जाती है तो इससे एक तीव्र मोहक सुगंध निकलती है। हिरण को लगता है कि यह सुगंध कहीं बाहर से आ रही है। वह वन में जहां- तहां दौड़ लगाता रहता है। लेकिन उसे पता नहीं चलता कि यह मुग्धकारी सुगंध तो उसकी नाभि से ही आ रही है। ऋषियों ने कहा है- हमारे भीतर भी छह चक्र हैं। इनमें से ऊपर के तीन चक्रों को जाग्रत कर दिया जाए तो ईश्वर का रस झरने लगता है। यह मृग या हिरण के कस्तूरी से अनंत गुना प्रभावकारी है। इससे गंध नहीं निकलती। ईश्वर का रस मिलता है। लेकिन अजब बात यह है कि हम सब बाहर की तरफ ज्यादा देखते हैं। बाहर की घटनाओं और लोगों से ज्यादा प्रभावित होते हैं। अपने भीतर क्षण भर के लिए भी झांकना नहीं चाहते। कई संतों ने तो कहा है कि अपनी आंखें बंद कीजिए और हृदय चक्र पर ध्यान कीजिए। वर्षों तक ध्यान करने के बाद आपका ध्यान गहरा होगा। ध्यान गहरा होते ही, आपको ईश्वरानुभूति होगी। लेकिन कई लोग ध्यान के समय नाना प्रकार की बातें सोचने लगते हैं। ध्यान में सोचना कुछ नहीं है। बस, ईश्वर की शऱण में चले जाना है। ईश्वर के चरणों में आत्म समर्पण कर देना है। कहना है- हे प्रभु, यह लो मेरा शरीर, मेरा मन, मेरी बुद्धि और मेरी आत्मा। सब कुछ तुम्हारा ही है। मुझे बस अपना दिव्य प्रेम दे दो। मेरे लिए वही पर्याप्त है।

Friday, January 7, 2011

द्रष्टा बनने का संदेश



विनय बिहारी सिंह

गीता के १४ वें अध्याय में भगवान कृष्ण ने कहा है कि मनुष्य को द्रष्टा होना चाहिए। यानी सारा काम भगवान का है। आप संसार की समस्त घटनाओं को द्रष्टा भाव से देखिए। उसमें शामिल मत होइए। मन अगर उन घटनाओं से जुड़ जाएगा तो आपकी चेतना उसी में रहेगी। तब आप बंधन में रहेंगे। तुलसी दास ने कहा है- राम झरोखा बइठि के, जग का मुजरा लेहिं। यानी राम के झरोखे पर बैठ कर संसार को देखिए। भगवान की शरण में रह कर सब कुछ करना है। भगवान कृष्ण का संदेश भक्तों को बहुत शांति देती है। बहुत चिंता क्यों? बस यह कहना है कि प्रभु, यह लीजिए मेरी जिम्मेदारी। मेरी चिंताएं आपकी, मेरी समस्या आपकी। मेरी अच्छाई भी आपकी। लेकिन किसी बुरे काम के लिए भगवान की मदद नहीं मांगी जा सकती है। क्योंकि ज्योंही आप किसी का बुरा चाहेंगे, वह पलट कर आपके ऊपर आएगा। इसलिए हमेशा अच्छा सोचना चाहिए ताकि प्रभु हमारे ऊपर कृपा बरसाते रहें।

Tuesday, January 4, 2011

लूथर बरबैंक के अद्भुत प्रयोग



विनय बिहारी सिंह


अमेरिका के वनस्पति वैग्यानिक लूथर बरबैंक अपने विलक्षण प्रयोगों के लिए विख्यात रहे। वे महान योगी परमहंस योगानंद जी के शिष्य थे। आमतौर पर अखरोट के वृक्ष पर १२० सालों में फल लगते हैं। यानी अगर आपने अखरोट का पेड़ लगाया तो आप उसका फल नहीं खाएंगे, आपके बेटे या पोते- पोती खाएंगे। लेकिन लूथर बरबैंक ने अखरोट के पेड़ को रोपा और तभी से उसे समझाने लगे कि इतनी देर तक वे फल का इंतजार नहीं कर सकते। उन्हें उसका फल अभी खाना है। वे रोज उस पेड़ से बातें करते। उन्होंने अखरोट के पेड़ से गहरी दोस्ती कर ली। यह सिलसिला १२ साल तक चलता रहा। ठीक १२ साल बाद अखरोट में फल आए। वे अखरोट के फल जब पुष्ट हुए तो अत्यंत स्वादिष्ट थे। ये फल प्रेम के वशीभूत हो कर प्रकट हुए थे। तब से वह अखरोट हर साल फलने लगा। इसी तरह नागफनी के पौधे को समझा कर लूथर बरबैंक ने उन्हें बिना कांटा वाला पौधा बना दिया। उन्होंने इसी विधि से टमाटरों की विभिन्न किस्में पैदा कीं। लूथर बरबैंक कहते थे, जो कुछ भी है वह माइंड पावर है। इससे आप अच्छा से अच्छा काम कर सकते हैं। यही ईश्वर चाहते हैं।

Monday, January 3, 2011

राजा ने कहा कि ओउम शब्द कहां है?


विनय बिहारी सिंह


एक राजा को तर्क करने का शौक था। वह रोज शिव मंदिर में जाता था। भगवान शिव की विधिवत पूजा करता था। इसके बाद जलपान और राज्य का कामकाज। एक दिन उसने मंदिर के पुजारी से पूछा कि ओउम क्या है। पुजारी ने बताया कि ओउम इस सृष्टि की सबसे पवित्र ध्वनि है। यह ईश्वर वाचक है। यानी ईश्वर के यहां से आता है। राजा ने पूछा कि तो यह सुनाई क्यों नहीं देता? पुजारी ने कहा- सुनाई तब देगा जब आप नीरव वातावरण में अत्यंत शांत मन से बैठेंगे। राजा के लिए तो कुछ भी असंभव नहीं था। वह तुरंत एकांत स्थल पर स्थित अपने आराम घर में पहुंचा। लेकिन उसे ओउम ध्वनि सुनाई नहीं पड़ी। उसने पुजारी को वहीं बुला लिया। उसकी जगह थोड़े दिनों के लिए मंदिर में एक अन्य पुजारी को तैनात किया गया। राजा ने पुजारी से पूछा- मुझे ओउम शब्द क्यों नहीं सुनाई पड़ा? पुजारी ने कहा- आपका मन शांत नहीं था प्रभु। राजा थोड़ी देर तक सोचता रहा। फिर बोला- आप ठीक कह रहे हैं। मेरा मन राज्य की बातों में उलझा रहा। लेकिन आज रात फिर मैं मन को शांत रखने की कोशिश करूंगा। राजा ने सचमुच कोशिश की। वह फिर असफल रहा। पुजारी ने कहा- महाराज, आपका मन जब तक पूरी तरह शांत नहीं होगा, आप यह पवित्र ध्वनि सुन नहीं सकते। आप अपने राजमहल में लौट चलें। वहां एक एकांत कमरे में इसका अभ्यास करें। इससे आप राज काज भी देख सकेंगे और गहरा ध्यान भी कर सकेंगे। तब आपका मन राज्य के कामों में नहीं भटकेगा। राजा ने पुरोहित की बात मान ली। राजा ने राजमहल में आकर एक एकांत कमरा चुना और हर रात कुछ घंटे वहीं ध्यान करने लगा। लेकिन फिर वह सफल नहीं हुआ। तब पुजारी ने कहा- महाराज, अपने राज्य में एक बहुत बड़े सन्यासी हैं। वे आपको ध्यान करने की विधि बताएंगे। सन्यासी को बुलाया गया। सन्यासी राजा की समस्या सुन कर हंसे और बोले- जब तक आपको यह महसूस होगा कि आप राजा हैं, आपको ओउम ध्वनि नहीं सुनाई देगी। लेकिन जब आप यह समझेंगे कि आप ईश्वर के अंश हैं तो आप सफल हो जाएंगे। अपने अस्तित्व का भगवान में लय कर दीजिए। इसके लिए बार- बार कोशिश करनी पड़ेगी। एक दिन अचानक आप इसका रहस्य जान जाएंगे। राजा ने वैसा ही किया। एक दिन पुजारी ने पूछा- महाराज। आजकल आप बहुत प्रसन्न हैं। क्या आपने भगवान से संपर्क कर लिया? राजा ने कहा- ईश्वर अव्यक्त हैं। लेकिन महसूस किए जा सकते हैं। लेकिन इस महसूस करने का वर्ण शब्दों में नहीं किया जा सकता। वे शब्दों की व्याख्या से परे हैं।

Saturday, January 1, 2011

आप सबके लिए नया साल मंगलमय हो


विनय बिहारी सिंह

आप सबको नया साल मंगलमय हो। इस साल आपकी ढेर सारी अच्छी कामनाएं पूरी हों। खुशियों के मौके बार- बार आएं और ईश्वर की कृपा बरसे। कल की रात मैंने अपने गुरु परमहंस योगानंद जी के आश्रम में बिताई। यानी नया साल वहीं मनाया। हम लोगों ने ३१ दिसंबर की रात १० बजे से ध्यान शुरू किया और एक जनवरी २०११ के प्रारंभ में खत्म किया। या रात बारह बजे के बाद तक ध्यान चला। फिर हम सोने चले गए। सुबह उठ कर ध्यान और सुस्वादु और पौष्टिक जलपान। आज पूरे दिन लग रहा है कि यह ईश्वर की ही कृपा है कि नए साल का पहला दिन उन्हें याद करते हुए बीत रहा है। यह भी महसूस हो रहा है कि ईश्वर के बिना जीवन कितना सूना रहता। कितना उबाऊ रहता। अगर हम अपने जीवन में ईश्वर की उपस्थिति और उनकी कृपा महसूस करते हैं तो अत्यंत भाग्यशाली हैं। क्योंकि सारा आनंद, सारा सुख ईश्वर में ही है। शारीरिक सुख, ईश्वरीय सुख के सामने फीके जान पड़ते हैं। हमें लगता है कि अच्छा वस्त्र पहन कर, मनपसंद स्वादिष्ट भोजन कर और अलग- अलग जगहों पर घूम कर आनंद मना सकते हैं। यह बुरा नहीं है। लेकिन अगर अच्छा वस्त्र पहन कर, स्वादिष्ठ भोजन कर, ईश्वरीय रस में डूबें तो यह आनंद अनंत गुना बढ़ जाता है। साधु इसे राम रस कहते हैं। वे सारा आनंद ईश्वर को समर्पित करते हुए कहते हैं- आनंद की यह धारा तो आप ही के यहां से आ रही है। तो इस आनंद में मैं कुछ और आनंद जोड़ कर, हे भगवन, मैं आपको दे रहा हूं। तब भगवान कहते हैं- ठीक है, तो यह लो इससे भी दस गुना आनंद। तब भक्त कहता है- इसे भी मैं आपको सौंपता हूं। भक्त उसमें अपना आनंद जोड़ कर भगवान को दे देता है। भगवान फिर उसका दस गुना आनंद दे देते हैं। भक्त और भगवान का यह आनंद रस का खेल चलता रहता है। इसमें दोनों को आनंद रहता है। भगवान को भी और भक्त को भी। और जब आप नींद में होते हैं या गहरे ध्यान में होते हैं तो यह पता नहीं चलता कि आप नए साल में हैं या पुराने साल में। वहां समय की सीमा रेखा खत्म हो जाती है। यह भी भगवान की लीला ही तो है।