Wednesday, August 31, 2011

फ्री रेडिकल्स

विनय बिहारी सिंह




फ्री रेडिकल्स वे रसायन हैं जो हमारे शरीर के सेल्स को नुकसान पहुंचाते हैं। आमतौर पर ये रेडिएशन, प्रदूषण, धूम्रपान आदि के कारण शरीर में बढ़ जाते हैं। हाल में एक वैग्यानिक विचार यह आया है कि बाजारों में खराब तेल व घी में तली- भुनी चीजें भी फ्री रेडिकल्स को जन्म देती हैं। खासतौर पर भारतीय बाजारों में। ऐसी तली- भुनी चीजें खाने से शरीर के सेल क्षतिग्रस्त होते हैं और मनुष्य जल्दी बूढ़ा और बीमार होता है। तो इससे बचने के उपाय क्या हैं? इसके उत्तर में बताया गया है कि विटामिन बी और सी का सेवन किया जाना चाहिए। तली भुनी चीजों से परहेज करना चाहिए, धूम्रपान और तंबाकू से दूर रहना चाहिए और गरिष्ठ भोजन से बचना चाहिए। यानी हल्का- फुल्का भोजन करना चाहिए। आइए कुछ विटामिनों के बारे में जानें- विटामिन ए- दूध, मक्खन, गहरे हरे रंग की सब्जियों में पाया जाता है। हमारा शरीर, पीले और हरे रंग के फल व सब्जियों में मौजूद पिग्मैंट कैरोटीन को भी विटामिन ‘ए’ में बदल देता है। विटामिन बी- साबुत अनाज, आटा और दालें, मेवा, मटर फ़लियों में पाया जाता है। इसके अलावा दूध, पनीर में भी विटामिन बी पाया जाता है। विटामिन सी कहां से पाएं? यह सभी रसदार फ़लों., टमाटर, कच्ची बंदगोभी, आलू, स्ट्रॉबेरी और कुछ डाक्टरों के मुताबिक नींबू का रस, मोसम्मी और हरे मिर्च में भी पाया जाता है। विटामिन सी को एसकोरबिक ऐसिड के नाम से भी जान जाता है। यह शरीर की कोशिकाओं को बांध के रखता है। इससे शरीर के विभिन्न अंग को आकार बनाने में मदद मिलत है। यह शरीर की खून के नसों (रक्त वाहिकाओं) को मजबूत बनाता है। इसके एंटीहिस्टामीन गुणवत्ता के कारण, यह सामान्य सर्दी-जुकाम में दवा का काम कर सकता है।इसके अभाव में मसूडों से खून बहता है, दांत दर्द हो सकता है, दांद ढीले हो सकते हैं या निकल सकते हैं। स्किन में भी चोट लगने पर अधिक खून बह सकता है। आपको भूख कम लगेगी।
विटामिन सी के अच्छे स्रोत हैं – नारंगी जैसे फल या सिटरस फ्रूट्स, खरबूज। विटामिन ई- फलों और सब्जियों में पाया जाता है। यह शरीर को ओक्सिजन के एक नुकसानदायक रूप से बचाता है, जिसे ओक्सिजन रेडिकल्स कहते हैं। इस गुण को एंटीओक्सिडेंट कहा जाता है। विटामिन इ, सेल के अस्तित्व बनाय रखने के लिये, उनके बाहरी कवच या सेल मेमब्रेन को बनाय रखता है। विटामिन इ, शरीर के फैटी एसिड को भी संतुलन में रखता है।

Tuesday, August 30, 2011

ब्रह्मांड की चेतना

विनय बिहारी सिंह



एक अंतरिक्ष यात्री एडगर मिचेल का लेख पढ़ रहा था। उसमें एडगर ने लिखा है कि जब वे चंद्रमा की यात्रा से लौट रहे थे तो उन्हें पृथ्वी, तारे और चंद्रमा आदि अपनी अंतरात्मा के हिस्से लगे। लगा कि उनका अपोलो- १४ अंतरिक्ष यान, स्वयं वे और उनके साथी उन्हीं तत्वों से बने हैं जिनसे ये चांद- तारे बने हैं। उन्हें उस शोध की याद आई जिसमें कहा गया है कि मनुष्य का निर्माण अंतरिक्ष के तत्वों से हुआ है। और सिर्फ मनुष्य का ही क्यों, संपूर्ण ब्रह्माड, सभी जीव उन्हीं तत्वों से बने हैं। हमारे कणादि ऋषि ने तो कह ही दिया है कि सूक्ष्मतम अणु से ही यह सृष्टि बनी। उस अणु को भगवान ने बनाया। लेकिन खुद भगवान छुपे रहते हैं और जीवों की गतिविधियां देखते रहते हैं। भगवान तो सर्वत्र हैं। वे हर क्षण, हर जीव के मन की बात जानते हैं।
एडगर का लेख पढ़ते हुए अच्छा लगा। उन्होंने लिखा है कि तारों का प्रकाश उन्हें अपना प्रकाश लगा। लगा कि तारों का प्रकाश उनके भीतर भी है। तारे और एडगर एक हैं। यह अनुभव उन्हें तीन दिन तक हुआ। वहां से आने के बाद उन्होंने कहा कि विग्यान पर तो अध्ययन होना ही चाहिए लेकिन मनुष्य की चेतना पर भी अध्ययन जारी रहना चाहिए।
हमारे ऋषियों ने तो प्राचीन काल में ही कह दिया कि यह पूरा जगत ही ब्रह्म से पैदा हुआ है और अंत में ब्रह्म में ही लीन होता है। प्रत्येक जीव ईश्वर से ही आया है और उसी में लीन होगा।

Monday, August 29, 2011

ईश्वरीय चेतना में रहना

विनय बिहारी सिंह




ऋषियों ने कहा है- मनुष्य को ईश्वरीय चेतना में रहना चाहिए। यह समझना चाहिए कि हम इस संसार में अपनी कामनाओं के कारण आए हैं। यह संसार द्वंद्वों से भरा हुआ है। इसलिए यहां दुख ही दुख है। जिन सांसारिक कामों को हम सुख समझते हैं, वे अपने भीतर दुख, तनाव और कष्ट छुपाए रहते हैं। हमारे संसार में सबको अपनी पड़ी रहती है। कुछ ही ऐसे लोग हैं जो अपनी छोड़ दूसरों के बारे में सोचते हैं। भगवत गीता को बार- बार पढ़ने पर भी मन नहीं भरता। आप उसे रोज पढ़ें तो भी लगता है, कुछ बाकी रह गया। कहते हैं गीता को व्यास जी ने ईश्वर से संवाद करके लिखा था। व्यास जी को इसीलिए कुछ विद्वान ईश्वर का अवतार कहते हैं। दो पंक्तियों के श्लोकों में ग्यान का सागर भरा हुआ है (माफ कीजिए तकनीकी कारणों से मैं ग्य ऐसे ही लिख रहा हूं।) ।
ऋषियों ने विस्तार से कहा है- यह संसार भ्रम है। यह माया से ओतप्रोत है। स्वप्न की तरह है। यहां, मनुष्य अपने कर्मों को भोगने आता है, अपनी कामनाओं को भोगने आता है और अनेक दुख भोग कर भी उसका मोह इस संसार से नहीं छूटता। जैसे कुत्ता कहीं पड़ी हुई सूखी हड्डी चबाता है तो उसके ही दांतों से खून निकलता है। लेकिन वह समझता है कि यह खून उस हड्डी से निकल रहा है जिसे वह चबा रहा है। इसलिए वह अपना ही खून बड़े चाव से पीता है। इस संसार के सुखों को हम समझते हैं कि अमुक कारण से यह सुख मिला। जबकि सुख का असली स्रोत तो भगवान हैं। वे सुख के केंद्र हैं। सुख के अनंत सागर हैं। उनके पास हर चीज अनंत मात्रा में है। इसीलिए उन्हें अनंत भगवान कहते हैं।

Saturday, August 27, 2011

गीता का १३वां अध्याय

विनय बिहारी सिंह



गीता का १३वां अध्याय क्षेत्र- क्षेत्रग्य की व्याख्या करता है। क्षेत्र है हमारा शरीर और क्षेत्रग्य है हमारी आत्मा। जो ईश्वर का प्रतिरूप है। इसी तरह यह ब्रह्मांड है क्षेत्र और ईश्वर हैं इसके क्षेत्रग्य। भगवान ने इस अध्याय में कहा है कि जीव इस क्षेत्र में जो भी बोता है, उसी के अनुरूप उसका अगला जन्म तय होता है। हमारी प्रवृत्तियां, हमारे संस्कार इस क्षेत्र में अगर बुरी प्रवृत्तियों के बीज बोएंगे तो हमारा जन्म कष्टकर माहौल में होगा। जीवन में हम वही सब भोगेंगे। लेकिन अगर हम ईश्वरीय नियमों का पालन करेंगे तो आनंद ही आनंद है। ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर बरसती रहेगी। प्रकृति ईश्वर की ही अभिव्यक्ति है। पुरुष स्वयं ईश्वर हैं। जिस तरह ईश्वर अनादि हैं उसी तरह प्रकृति भी अनादि है। उसका कोई प्रारंभ नहीं है। वह सदा से है। हमारे भीतर सारी प्रवृत्तियां प्रकृति के ही गुणों से प्रभावित होती है। भगवान कृष्ण ने कहा है- प्रकृति और पुरुष के संयोग से ही समूची सृष्टि का संचालन हो रहा है। समूची सृष्टि ईश्वर की है, लेकिन ईश्वर इसमें लिप्त नहीं हैं। जैसे आकाश सर्वत्र है लेकिन वह किसी चीज से लिप्त नहीं है। इसीलिए ईश्वर का अनुभव करने के लिए, ईश्वर का लाभ करने के लिए साधन के रूप में मुख्य रूप से तीन योग कहे गए हैं- १. ध्यान योग २. सांख्य योग (या ग्यान योग) औऱ ३. कर्म योग।
परमहंस योगानंद जी ने ऋषि पातंजलि के अष्टांग योग को श्रेष्ठ साधन बताया है। यानी यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।। भगवान कृष्ण ने १३वें अध्याय में स्पष्ट रूप से कहा है- यदि भक्त अपने क्षेत्र को पवित्र रखते हुए, क्षेत्रग्य की उपासना करे। अपनी आत्मा की सुने तो वह जन्म- मरण के झमेले से मुक्त हो जाएगा। इसके लिए लगे रहना पड़ेगा। ईश्वर से लगातार प्रार्थना करनी पड़ेगी। असली क्षेत्रग्य यानी ईश्वर की शरण में जाना पड़ेगा।

Friday, August 26, 2011

अतीत तो अतीत ही है

विनय बिहारी सिंह



अठारह साल पहले तक मेरे एक परिचित के सिर पर बहुत सुंदर बाल थे। घुंघराले, चमकीले और खूब आकर्षक। आज उनके बाल झड़ कर बहुत कम रह गए हैं। उनमें भी आधे पक कर सफेद हो गए हैं। मैंने उनसे कहा- आपके खूबसूरत बाल मुझे अब भी याद हैं। वे हंस पड़े। बोले- यह तो बीती हुई बात है। अतीत है। अब वैसे बाल फिर नहीं होंगे। जो बीत गई सो बात गई। उनकी आवाज में वैराग्य की ध्वनि थी। मैंने कहा- जिन बालों और कपड़ों से हम इतना मोह करते हैं, वे नश्वर हैं। जबकि ईश्वर शास्वत और सत्य हैं। लेकिन मनुष्य की विडंबना तो देखिए कि वह बालों, कपड़ों और पकवानों के प्रति तो मोहित रहता है लेकिन ईश्वर के प्रति बहुत कम लोगों की ललक होती है। उन्होंने कहा- आप बिल्कुल ठीक कहते हैं। सामान्य मनुष्य की पीठ ईश्वर की ओर रहती है। उसे संसार की चीजें मोहक लगती हैं। जबकि वास्तव में मोहक भगवान ही हैं- सबकुछ वही हैं। मैंने कहा- आपके बालों से शुरू हो कर बात कहां तक पहुंच गई। वे बोले- बाल ही क्यों, सबकुछ तो ईश्वर ही हैं। आज मेरे बाल ही बहाना हो गए। इस बात की मुझे खुशी है।
निश्चय ही आपने कभी न कभी यह जरूर सोचा होगा- हमारा शरीर निरंतर बदल रहा है। हमारी उम्र लगातार बढ़ रही है। जिस रफ्तार से हमारी उम्र बढ़ रही है, क्या उसी रफ्तार से हम ईश्वर की तरफ बढ़ रहे हैं? सब कुछ बदल रहा है। सिर्फ ईश्वर को छोड़ कर। क्योंकि वे अनंत हैं। शांति, प्रेम और आनंद के पर्याय हैं। वे ही पूर्ण हैं। आनंदमय हैं। अनंत हैं। इसीलिए उनकी शरण में रहने में सदा आनंद है।

Thursday, August 25, 2011

गीता का १२वां अध्याय

विनय बिहारी सिंह



गीता के १२वें अध्याय का नाम भक्तियोग है। इसमें भगवान कृष्ण ने कहा है कि उन्हें कौन से भक्त प्रिय हैं। दूसरे शब्दों में भगवान ने अर्जुन को बताया है कि वे किन भक्तों को प्रेम करते हैं। संक्षेप यह कि भगवान ने कहा है- जो सुख- दुख, गर्मी- सर्दी, शत्रु- मित्र, मान- अपमान, निंदा- स्तुति आदि में समभाव में रहे, मुझे वह भक्त अत्यंत प्रिय है। जिसके कारण किसी को उद्वेग न हो और जिसे कोई उद्वेग का शिकार न बना सके, वह भक्त मुझे अत्यंत प्रिय है। भगवान ने कहा है कि जो भक्त संपूर्ण समर्पण के साथ सदा मेरी भक्ति करता है, वह मुझे अत्यंत प्रिय है। उन्होंने अर्जुन से कहा है कि तुम इंद्रिय, मन, बुद्धि पर नियंत्रण करो। यदि यह नहीं कर सकते तो इसका अभ्यास करो। अगर यह भी नहीं कर सकते तो संपूर्ण काम मेरे लिए करो। इसके पहले अर्जुन ने पूछा है कि जो भक्त आपकी साकार पूजा करते हैं वे श्रेष्ठ हैं या फिर वे जो आपकी निराकार पूजा करते हैं? भगवान ने कहा है कि दोनों भक्त मुझे अत्यंत प्रिय हैं। लेकिन चूंकि निराकार भक्ति में परिश्रम विशेष है और देह धारण करने के कारण अनेक भक्त भगवान को भी देहधारी के रूप में पूजना चाहते हैं, इसलिए उसमें परिश्रम कम है। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- साकार भक्ति भी अंततः भगवान के निराकार रूप की ओर ही ले जाती है। लेकिन शुरू में साकार भक्ति से आसानी हो जाती है। परमहंस जी ने सच ही कहा है। भगवान की साकार मूर्ति की पूजा- अर्चना में आसानी हो जाती है। फिर जिस मूर्ति की हम पूजा करते हैं वह अदृश्य हो जाती है और शेष बचता अनंत प्रकाश। भगवान का आनंदमय अनंत प्रकाश।

Wednesday, August 24, 2011

भय यानी भगवान से दूर

विनय बिहारी सिंह



परमहंस योगानंद जी ने कहा है- डर को डरा दीजिए। भय को भयभीत कर दीजिए। जो व्यक्ति रोज- रोज डरता रहता है, वह निश्चित रूप से भगवान से दूर है। क्योंकि कोई व्यक्ति एक समय में डर के साथ हो सकता है या फिर डर के साथ। भय और भगवान एक दूसरे के विपरीत हैं। अगर आपने भगवान के चरण पकड़ रखे हैं तो भय वहां हो ही नहीं सकता। भय वहीं होता है जहां भगवान का अहसास नहीं होता। इसीलिए भक्त हमेशा भगवान के साथ रहते हैं। उन्हें कोई डर नहीं होता। मेरे एक परिचित ने कहा- मैं चिंतित हूं कि रिटायर होने के बाद क्या होगा? पेंशन का तो कोई प्रावधान है नहीं। जीवन किस तरह चलेगा। रिटायरमेंट के समय जो राशि मिलेगी, वह भी पर्याप्त नहीं होगी। मैंने कहा- आप रिटायरमेंट के बाद आमदनी का कोई अन्य उपाय कीजिए या कहीं अन्यत्र नौकरी कर लीजिए। लेकिन चिंतित होने या डरने से तो कोई लाभ नहीं। उल्टे हानि होगी। आप अपने प्रयास करते रहिए और भगवान से भी प्रार्थना करते रहिए। उनकी शऱण में रहने से आप चिंतामुक्त हो जाएंगे। भगवान का दूसरा नाम है- चिंतामणि। यानी जो चिंता का हरण कर लेते हैं। जो भय का हऱण कर लेते हैं। उनकी प्रार्थना में कहा जाता है- भव भय हरणम।। इसलिए आपने जब संपूर्ण हृदय से संपूर्ण शक्ति से भगवान के चरणों में समर्पण किया है और अपने प्रयास जारी रखे हैं तो आपका कल्याण होना निश्चित है। भगवान अंतर्यामी हैं। वे आपका मन देखते हैं। आपका भाव देखते हैं। वे अकारण करुण हैं। उनका काम ही है कृपा बरसाना। फिर चिंता किस बात की?

Tuesday, August 23, 2011

गीता का ग्यारहवां अध्याय

विनय बिहारी सिंह



गीता के ग्यारहवें अध्याय में अर्जुन भगवान कृष्ण से आग्रह करते हैं कि वे अपना विश्वरूप दिखाएं। भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तुम अपने इन प्राकृत नेत्रों से मेरे दिव्य स्वरूप को नहीं देख सकते। इसलिए मैं तुम्हें दिव्य चक्षु देता हूं। तुम मेरे नाना प्रकार के दिव्य रूपों को देखो। दिव्यता के जो भी पर्याय होते हैं, तुम उन्हें मेरे इस रूप में देख सकोगे। और भगवान अपने विश्वरूप में प्रकट हो जाते हैं। अर्जुन उस रूप को देख कर भयभीत हो जाते हैं। वे कहते हैं कि प्रभो आपका न आदि है और न अंत। आप हर दिशा में व्याप्त हैं। जैसे हजारों सूर्य एक साथ उदित हों और उनका जितना प्रकाश हो, उससे भी ज्यादा प्रकाश इस दिव्य रूप के प्रकट होने पर हो रहा है। अर्जुन कहते हैं कि जैसे नदियां (अपनी पूर्णता प्राप्त करने के लिए) समुद्र में की तरफ बड़े वेग से दौड़ती हैं, ठीक उसी तरह बड़े- बड़े योद्धा आपके मुंह में प्रवेश कर रहे हैं। हे प्रभु, आप ही जगत के नाथ हैं। आप ही सर्वेश्वर हैं। आपको बार- बार प्रणाम है। कृपया आप अपने पुराने चतुर्भुज रूप में- शंख, चक्र, गदा, पद्म के साथ प्रकट होइए। क्योंकि मैं आपका वही शांत, मनोहारी रूप देखना चाहता हूं। तब भगवान अपने उसी रूप में प्रकट होते हैं। उसे देख कर अर्जुन का मन शांत और प्रसन्न होता है। भगवान कहते हैं- अर्जुन, मेरा यह रूप बड़ा ही दुर्लभ है। देवता भी इसके दर्शन के लिए तरसते हैं। मेरा यह रूप न यग्य से, न ही तप से देखा जा सकता है। हां, अनन्य भक्ति से मेरा यह रूप देखा जा सकता है। यानी भगवान ने स्पष्ट कहा है- अनन्य भक्त ही मेरे दिव्य रूप का दर्शन कर सकता है। इसलिए भक्तों के लिए यह राहत की बात है। वे भगवान में दिन रात डूबे रहें। नाम जप, प्रार्थना और ध्यान करें। भगवान का चिंतन- मनन करें। जब भक्ति और भगवान के प्रति छटपटाहट तीव्रतम होगी तो स्वयं भगवान दर्शन देंगे। वे तो अंतर्यामी हैं।

Monday, August 22, 2011

कृष्ण जन्माष्टमी


विनय बिहारी सिंह



आप सबको कृष्ण जन्माष्टमी पर ढेरों शुभकामनाएं। सचमुच भगवान कृष्ण का जन्मदिन मनाना सुख के सागर में हिलोरें लगाना है। कृष्ण भगवान के पूर्ण अवतार हैं। कहा गया है कि जिस अवतार में सोलह कलाएं हों या सोलह विशिष्ट गुण हों वह पूर्ण अवतार होते हैं। मुझे उन सोलह गुणों की जानकारी नहीं है। लेकिन धर्म ग्रंथों से यह स्पष्ट है कि कृष्ण पूर्ण अवतार थे। वे प्रेम के उच्चतम प्रतीक हैं। राधा भी प्रेम की उच्चतम अभिव्यक्ति हैं। इसीलिए राधाकृष्ण एक साथ कहा जाता है। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- यदि आपको भगवान के प्रेम का एक लघु अंश भी मिल जाए तो आप पूरी तरह रूपांतरित हो जाएंगे। फिर उन्होंने कहा है- लेकिन यह प्रेम आपको मिला हुआ है। बस उसे महसूस करना है। जिस क्षण आपने भगवान के प्रेम का आस्वादन कर लिया फिर तो आपको कुछ भी अच्छा नहीं लगेगा। भगवान के प्रेम का पहला उदाहरण देखिए। कंस ने माता देवकी को जेल में डाल दिया था। कंस देवकी के हर बच्चे की हत्या कर देता था। माता के सामने ही। लेकिन अपने जन्म के पहले माता देवकी को भगवान कृष्ण ने चतुर्भुज रूप में दर्शन दिया। चतुर्भुज- एक- एक हाथ में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए हुए। जब भगवान का जन्म हुआ तो सारे पहरेदार या कहें सिक्यूरिटी गार्डों को गहरी नींद आ गई। वे ड्यूटी नहीं कर सके। जहां ड्यूटी कर रहे थे, वहीं सो गए। बहुत कड़ा पहरा था, लेकिन सभी पहरेदार गहरी नींद में सो गए। पहरेदारों की पहरेदारी करने वाला भी सो गया। जेल के सभी द्वारों के ताले अपने आप खुल गए। और भगवान को सुरक्षित यमुना के उस पार माता यशोदा की गोद में पहुंचा दिया गया। भगवान ने योगमाया से बाधा डालने वालों को नींद की गोद में सुला दिया। ताला अपने आप खुल गए।
हमारे भीतर भी जब भगवान कृष्ण जन्म लेंगे तो हमारे बंधन रूपी ताले अपने आप खुल जाएंगे। हमारे कष्ट, हमारे दुख और तनाव या परेशानियां अपने आप दूर हो जाएंगी। यह भगवान कृष्ण का वादा है- लेकिन एक ही शर्त है। शर्त है- भगवान कृष्ण को अनन्य भाव से प्रेम करना होगा। उनकी भक्ति करनी होगी। गीता में उन्होंने कहा ही है- मैं अपने भक्तों का योग, क्षेम खुद वहन करता हूं। उनके सारे कष्टों को दूर करता हूं। उनसे प्रेम करता हूं। जिनके भीतर भगवान का जन्म हो चुका है, वे इस बात को महसूस करते हैं और इसकी गवाही देते हैं।

Thursday, August 18, 2011

बुरा जो देखन मैं चला

विनय बिहारी सिंह



कबीरदास ने लिखा है-
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिल्या कोय। जो मन खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोय।।
यह है महान व्यक्ति का आत्मविश्लेषण। कई लोग अपनी बुराइयों की तरफ ध्यान न देकर दूसरों की निंदा में खूब रस लेते हैं। यह उनका स्वभाव बन जाता है। जब तक किसी की बुराई न कर लें, निंदा न कर लें, हंसी न उड़ा लें, उनको शांति नहीं मिलती। कबीरदास ने अपने बहाने ऐसे लोगों को सुझाया है कि पहले खुद को सुधारो। खुद की हजार- हजार कमियां हैं। उन्हें ढूंढ़ निकालो। भगवत गीता में भगवान ने कहा है- मनुष्य खुद का ही शत्रु है और खुद का ही मित्र। यदि वह ईश्वरीय नियमों के खिलाफ जाता है। दिन रात संसारी प्रपंच में लिपटा रहता है और उसी में रस लेता है तो वह अपना शत्रु है। यदि वह संसार में रह कर अपनी ड्यूटी को भगवान की ड्यूटी समझता है और मन को संसार के बदले भगवान में केंद्रित करता है तो वह अपना मित्र है। भगवान कृष्ण ने कहा है- अर्जुन, तुम अपना मित्र बनो। अपने अंधकार पक्ष को खत्म करो। कैसे? भगवान का स्मरण कर। गीता में भगवान ने कहा है- यग्यों में जप यग्य मैं हूं। जप। हमेशा- भगवान के नाम का जप करना। चाहे- हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण हरे, हरे हो या ओम शिव, ओम शिव हो या ओम नमः शिवाय हो। बस जप मन ही मन जप चलता रहे और बाहर की ड्यूटी होती रहे। यही है अपना मित्र होना।

Wednesday, August 17, 2011

असली भक्त कभी निराश नहीं होता

विनय बिहारी सिंह



सिद्ध संतों ने कहा है- असली भक्त कभी निराश नहीं होता। वह यह मान ही नहीं सकता कि भगवान उससे बातें नहीं करेंगे। उसे प्यार नहीं करते या वे उसकी रक्षा नहीं कर रहे हैं। सबसे बड़ी बात है भगवान में विश्वास। यह आध्यात्मिक रास्ते पर चलने के लिए आधार है। यदि भगवान में आपको विश्वास नहीं है तो कृपया अंधेरे में मत चलिए। यह पूरा ब्रह्मांड भगवान का ही है। हम उन्हीं की कृपा से सांस ले रहे हैं। बस वे छुपे हुए हैं। क्यों? यह उनका नियम है। हम छोटा सा काम भी करके उसका श्रेय लेना चाहते हैं- यह काम मैंने किया। यह मैं हूं। सिर्फ मैं, मैं और मैं। लेकिन भगवान पूरी सृष्टि चला रहे हैं और फिर भी छुपे हुए हैं। हां, वे प्रकट होते हैं। किसके सामने प्रकट होते हैं? अपने अनन्य भक्तों के सामने। कब? जब उनकी मर्जी। वे अकारण करुण हैं। बिना किसी कारण के भी करुणा करते हैं, कृपा करते हैं। बस हमारा काम है कि हम भक्ति करते जाएं। जितनी गहरी भक्ति संभव हो उतनी। परमहंस योगानंद ने कहा है- पूरा जीवन भगवान से प्रार्थना का पर्याय बन जाए तो कितना आनंद है। यह सच है। अच्छी चीजों के लिए प्रार्थना करना सुखद है। पूरा जीवन भगवानमय हो जाए। बस आनंद ही आनंद है।

Tuesday, August 16, 2011

राम रमैया राम

विनय बिहारी सिंह



ऋषियों ने कहा है- भगवान ही, सब कुछ हुए हैं। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- भगवान ही सब कुछ हुए हैं। वही चौबीस तत्व हुए हैं और वही आत्मा के रूप में सबके भीतर मौजूद हैं। एक संत से पूछा गया- आप किस मंत्र का जाप करते हैं? उन्होंने जवाब दिया- राम रमैया राम। उनसे पूछा गया- इस मंत्र का रहस्य क्या है? उन्होंने कहा- सब कुछ राम ही हैं। राम रमैया राम। सब कुछ राममय। एक भक्त ने पूछा- कैसे? उन्होंने कहा- आप सुबह उठते हैं तो सबसे पहले शौच जाते हैं। क्यों? शुद्ध होने के लिए। यानी राम के लिए। फिर ब्रश करते हैं और नहाते हैं। क्यों? फ्रेश होने के लिए। क्यों फ्रेश होते हैं? राम के लायक बनने के लिए। फिर पूजा- पाठ करते हैं। वहां भी राम। फिर जलपान। वह भी राम। उसके बाद काम करते हैं। वह भी राम के लिए। इसके बाद भोजन। भोजन भी राम ही हैं। वही हवन हैं। वही अग्नि हैं और वही हवन की प्रक्रिया हैं। वही भोजन हैं। वही पाचन की प्रक्रिया हैं और वही भोजन के पोषक तत्व हैं। जब रात को सोते हैं तो वह भी राम। कैसे? हम अपनी सुध- बुध खो देते हैं। किसमें? नींद में। तब जाकर फ्रेश होते हैं। सुबह कहते हैं कि बहुत अच्छी नींद आई। वहां भी हम भगवान में ही लीन होते हैं लेकिन इसका ग्यान नहीं रहता। ध्यान में भी हम भगवान में सुध- बुध खो देते हैं। लेकिन वहां ग्यान रहता है। तो सब कुछ राम ही हैं। राम रमैया राम।

Friday, August 12, 2011

पृथ्वी पर कैसे उत्पन्न हुआ जीव?

विनय बिहारी सिंह



वैग्यानिकों ने यह बात बार- बार कही है कि अंतरिक्ष से गिरे उल्का पिंडों में जीव पैदा करने वाले तत्व पाए गए हैं। जब पृथ्वी पर कोई जीव नहीं था तो एक दिन अचानक एक उल्का पिंड पृथ्वी पर गिरा। उसकी सतह पर मौजूद रसायनों से जीवों की उत्पत्ति हुई। मनुष्य की उत्पत्ति भी इसी तरह हुई। पिछले हफ्ते स्वामी अभेदानंद नामक लेखक की एक पुस्तक फुटपाथ पर बिकती देखी। पुस्तक का शीर्षक था- लाइफ आफ्टर डेथ। उसमें कहा गया था कि जो लोग मरते हैं वे सूक्ष्म जगत में चले जाते हैं। यदि उनका आह्वान किया जाए तो वे मैटिरियलाइज हो कर हमारे सामने आते हैं। पुस्तक में ऐसी ही कुछ आत्माओं के फोटो और उनकी हैंड राइटिंग दी गई थी। लेखक ने इसमें अपने कुछ अनुभव भी दिए थे। लेकिन उन्होंने कहा था कि उच्च कोटि का आह्वान तो भगवान का है। उन्हें ही पुकारना चाहिए। मैंने वह पुस्तक जस की तस रख दी। क्योंकि आटोबायोग्राफी आफ अ योगी पढ़ने के बाद मुझे मृत्यु के बाद क्या होता है, इसे लेकर अब उत्सुकता नहीं है। परमहंस योगानंद जी की लिखी विख्यात पुस्तक- आटोबायोग्राफी आफ अ योगी विलक्षण पुस्तक है। उसमें एक चैप्टर है- रिसरेक्शन आफ माई गुरु श्री युक्तेश्वर। उसमें विस्तार से मृत्यु के बाद क्या होता है, इसका वर्णन है। यह पुस्तक- योगी कथामृत- के नाम से हिंदी में अनूदित है। खूब बिकने वाली अत्यंत रोचक पुस्तक है यह। योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया ने इसे प्रकाशित किया है। जैको पब्लिकेशन भी इसकी बिक्री करता है।
यह सच है कि अंतरिक्ष में विभिन्न तरह की आवाजें और सूक्ष्म शक्तियां मौजूद हैं। हमारे पास अगर रेडियो है तो इनमें से कुछ आवाजें, गाने या अन्य प्रोग्राम और मोबाइल फोन है तो अपने मोबाइल नंबर पर आने वाले फोन सुन सकते हैं। लेकिन कई सूक्ष्म आवाजें होती हैं जिन्हें हम नहीं सुन सकते। ऋषियों ने कहा है कि इन्हीं सूक्ष्म आवाजों में एक आवाज ओम की भी है।

Thursday, August 11, 2011

सबसे चकित करने वाला प्राणी मनुष्य?

विनय बिहारी सिंह



एक बार एक संत से पूछा गया- आपको सबसे आश्यर्यजनक प्राणी कौन लगता है? संत ने उत्तर दिया- मनुष्य। वह अपने स्वास्थ्य की परवाह किए बिना पैसा कमाता है। फिर स्वास्थ्य को ठीक करने के लिए पैसा खर्च करता है। इसके बाद वह भविष्य की चिंता से पीड़ित रहता है। एक दिन उसकी मृत्यु हो जाती है। इस तरह वह वर्तमान को इंज्वाय नहीं कर पाता। वह या तो भविष्य की चिंता करता है या भूत काल या बीते दिनों का स्मरण या बीती घटनाओं का अनावश्यक स्मरण करता है। जबकि मनुष्य को अपने अनुभवों से सीख कर वर्तमान को बेहतर बनाना चाहिए। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- वर्तमान में जीओ। बेहतर काम करो। भविष्य खुद अपनी चिंता करेगा। हममें से अनेक लोगों की यह आदत होती है। वे बीती घटनाओं को बार- बार सोचते हैं। एक तरह से वे भूत काल में ही जीते रहते हैं। इस तरह वर्तमान काल बीतता जाता है। संतों ने वर्तमान को संवारने, बेहतर बनाने की सलाह दी है। भूत काल बाउंस चेक है। भविष्य अभी आएगा। लेकिन वर्तमान हमारे हाथ में है। अगर हम अपना वर्तमान संवारें तो भविष्य अपने आप संवर जाएगा। हमारा एक- एक क्षण भूत काल बनता जा रहा है।

Wednesday, August 10, 2011

नासा अब गुरु की ओर

Courtesy- BBC Hindi

गुरु ग्रह

मंगल ग्रह के बाद नासा ने अपनी निगाहें सौरमंडल के सबसे बड़े ग्रह गुरु या जुपिटर पर टिका दी हैं और उसने एक मानवरहित अभियान शुरू किया है.

जूनो नाम के यह अभियान 2016 में जा कर गुरु की कक्षा में स्थापित हो जाएगा. शुक्रवार को अमरीका के केप कानावेराल से अंतरिक्ष में छोड़ा गया यह अभियान पूरी तरह से सौर ऊर्जा से चलेगा. यह अपनी क़िस्म का पहला यान होगा जो सूरज से इतनी दूर सौर ऊर्जा पर चलेगा.

नासा के प्रशासक चार्ल्स बोल्डन ने इस मौके पर कहा "जूनो को अंतरिक्ष में छोड़ने के साथ नासा ने एक नए क्षितिज की तरफ यात्रा शुरू कर दी है. इस अत्याधुनिक अभूतपूर्व तकनीक से लैस अभियान से हमें अपने सौर मंडल को समझने में और अधिक मदद मिलेगी."

अभूतपूर्व तकनीक

गुरु ग्रह पर रोशनी, पृथ्वी पर पहुँचने वाली सूरज की रौशनी का 1 /25 वां हिस्सा होती है. जूनो एक तीन पंखों वाला यान है जिसके पंखों पर 18000 सोलर सेल लगे हैं.

इस अभियान के प्रमुख स्कॉट बोल्टन ने बीबीसी को बताया," चूंकि ये सौर ऊर्जा से चलने वाला यान है इसलिए इसके पंख हमेशा सूरज की तरफ ही देखते रहेगें और यह यान कभी भी गुरु ग्रह की छाया में नहीं जाएगा."

जूनो अपने अभियान के दौरान सौरमंडल के सबसे बड़े ग्रह के चारों तरफ़ मौजूद गैसों की परतों में झाँक कर इस ग्रह के वायुमंडल में क्या हाल है.

अनसुलझी गुत्थियां

वैज्ञानिक यह उम्मीद लगाए बैठे हैं कि इस अभियान से गुरु के चारों तरफ़ मौजूद रंगीन पट्टियों के बारे में और अधिक जानकारी जुटाने में मदद मिलेगी. वैज्ञानिक यह भी जानना चाहते हैं कि इस ग्रह पर पानी कैसी और कितनी मात्रा में मौजूद है.

इस अभियान से एक पुराने विवाद भी सुलझ सकता है कि इस ग्रह पर पर एक पथरीली सतह है या फिर इसमें मौजूद गैसें बहुत संघनित हो कर इसके केंद्र की ओर ठोस आकार में मौजूद हैं.

यह अभियान यह भी पता लगाने की कोशिश करेगा कि क्या वाकई गुरु की सतह पर तरल हाइड्रोज़न के समुद्र हिलोरें मार रहे हैं. कई लोग मानते हैं कि तरल हाइड्रोजन का यह समुद्र ही गुरु को उसका शक्तिशाली चुम्बकीय आवरण देता है.

जूनो नासा का दूसरा न्यू फ्रंटियर क्लास अभियान है. इसी तरह का पहला अभियान " नए क्षितिज" साल 2006 में प्लूटो के लिए छोड़ा गया था. इस यान के वर्ष 2015 तक अपने निशाने पर पहुँच जाने की उम्मीद है.

Tuesday, August 9, 2011

जहां-जहां शक्ति, वहां- वहां भगवान

विनय बिहारी सिंह



भगवत गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- हे अर्जुन, अग्नि में तेज मैं हूं, सूर्य और चंद्रमा का प्रकाश मैं हूं, पृथ्वी का गंध मैं हूं। रस मैं हूं। यानी जहां- जहां शक्ति है, वहां- वहां भगवान हैं। इसीलिए ऋषियों ने कहा है- भगवान की शक्तियां सर्वत्र प्रकट हो रही हैं। लेकिन तब भी अनेक व्यक्ति कहते हैं कि भगवान कहां हैं? भगवान की शक्तियां तो प्रकट होती हैं लेकिन स्वयं भगवान इन शक्तियों के पीछे छुपे रहते हैं। इसीलिए दिखाई नहीं देते। इसका अर्थ यह है कि भगवान सबसे पहले अपनी शक्तियों के माध्यम से प्रकट होते हैं। लेकिन वे साक्षात भी प्रकट होते हैं। किसके सामने? जो उनके अनन्य भक्त हैं। गहरे भक्त हैं। बाकी लोगों को सिर्फ भगवान की शक्तियां दिखाई देती हैं। लेकिन जो सिर्फ सांसारिक प्रपंचों में व्यस्त हैं, उन्हें भगवान की शक्तियां भी दिखाई नहीं देतीं। फूल खिलता है। रात के बाद दिन और दिन के बाद रात का होना उन्हें साधारण घटना लगती है। फूलों का खिलना, हवा की शीतलता या लू जैसी गर्माहट आदि किसके कारण है? सिर्फ और सिर्फ भगवान के कारण। हमारा हृदय कैसे धड़कता है? हमारे शरीर में रक्त का संचार कैसे होता है? सबसे बड़ी बात कि हमारे शरीर में प्राण कैसे है? सिर्फ और सिर्फ भगवान के कारण। सारी शक्तियों का केंद्र भगवान ही हैं। इस संसार में जहां- जहां भी शक्ति के अंश हैं, सब भगवान के पास से आते हैं। इसीलिए भगवान को सर्वशक्तिमान कहा जाता है। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- हमारे सदचिंतन, हमारी अच्छी सोच के पीछे भगवान हैं। सचमुच भगवान के चिंतन में कितना सुख है। आप सारी चीजों से ऊब सकते हैं, थक सकते हैं, लेकिन भगवान का चिंतन जितना करेंगे, उतना ही आनंद आएगा।

Monday, August 8, 2011

भरोसा सिर्फ भगवान का

विनय बिहारी सिंह


यह एक सच्ची घटना है। हमारे एक परिचित होमियोपैथ डाक्टर द्वारहाट (अल्मोड़ा के पास) गए थे। वे पहाड़ों में घूमते- घूमते अचानक खो गए। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि जिस योगदा आश्रम में वे ठहरे हैं, वहां जाएं कैसे? जिधर भी जाते जंगल और पहाड़। वे द्वारहाट के आश्रम में फ्री मेडिकल कैंप में हिस्सा लेने गए थे। काफी देर हो गई, डाक्टर साहब को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। वे एक जगह रास्ते पर खड़े हो गए और अपने गुरु परमहंस योगानंद का स्मरण करने लगे। उनके हृदय से आवाज निकल रही थी- हे गुरुदेव मुझे सही रास्ता दिखाइए। हे भगवान मुझे रास्ता बताइए ताकि मैं आश्रम में पहुंच जाऊं। पांच मिनट बाद एक लड़की गाय हांकते हुए आई और उनसे बोली- अरे डाक्टर साब, आप यहां? यह लड़की मेडिकल कैंप में दवा के लिए आई थी। इसलिए डाक्टर साब को पहचान गई। डाक्टर ने बताया कि वे भूल गए हैं। लड़की हंसने लगी। बोली- हम तो रोज ही इस रास्ते से आते जाते हैं। आप चिंता न कीजिए। मेरे साथ चलिए। डाक्टर उस लड़की के साथ गए और अपने गंतव्य स्थान पर पहुंच कर राहत की सांस ली। डाक्टर ने मुझे यह संस्मरण सुनाते हुए कहा- ऐसे कठिन क्षणों में जिस तरह भगवान की याद आती है, अगर सामान्य स्थिति में भी उसी तरह हम उन्हें तड़पते हुए पुकारें तो कितना अच्छा हो। हम संकट में जिस तरह भगवान को याद करते हैं, ठीक उसी तरह यदि सामान्य स्थितियों में भी याद करें, प्रार्थना करें तो हमारा जीवन ही बदल जाएगा।

Saturday, August 6, 2011

नागपंचमी

विनय बिहारी सिंह



पिछली चार अगस्त को नागपंचमी थी। इस ब्लाग पर इसकी चर्चा होनी चाहिए थी। देर से ही सही- नागपंचमी को याद करें। माना जाता है कि नागपंचमी के दिन ही भगवान कृष्ण ने कालिया नाग को परास्त कर उसका मान मर्दन किया था। आठ महान नागों के संस्कृत नाम हैं- अनंत, वासुकी, पद्मनाभ, कंबल, धार्तराष्ट्र, तक्षक, शंखपाल और कालिया। कथा है कि ब्रह्मा के पुत्र थे- कश्यप। कश्यप की चार पत्नियां थीं। पहली पत्नी से देव, दूसरी से गरुण, तीसरी से नाग और चौथी से दैत्य पैदा हुए। नागपंचमी के दिन नवविवाहिता स्त्रियां नाग देवता की पूजा करती हैं। आमतौर पर नाग के फोटो की ही पूजा की जाती है। लेकिन कई जगहों पर संपेरों की मदद से जीवित नागों की भी पूजा होती है। हालांकि हिंदू धर्म में सांप, मनुष्य के भीतर कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक है। जीवित नागों की पूजा कब से शुरू हुई, इसकी ठीक- ठीक जानकारी अब तक नहीं मिल पाई है। इस मौके पर कुछ खास किस्म की मिठाइयां घर में बनाई जाती हैं। लेकिन महंगाई के चलते वे परंपरागत मिठाइयां अब अनेक घरों में बननी बंद हो गई हैं। आमतौर पर लोग दुकानों से ही मिठाइयां खरीद लाते हैं। नागपंचमी के दिन चूंकि भगवान कृष्ण ने कालिया नाग को वश में किया था, इसलिए इस पर्व का खास महत्व है। भगवान के भक्त नागपंचमी को यह प्रार्थना करते हैं कि उनके भीतर का विष खत्म हो और अमृत की धारा बहे। सभी विषैले जीव- जंतु उनसे दूर रहें ताकि जीवन चैन से बीते।

Friday, August 5, 2011

जाके प्रिय न राम वैदेही

विनय बिहारी सिंह



रामचरितमानस में कहा है- जाके प्रिय न राम वैदेही। तजिए ताहि कोटि बैरी सम, यद्यपि परम सनेही।। तुलसीदास सिद्ध संत थे। उनका रोम- रोम भगवान राम की स्तुति करता रहता था। कहते हैं कि भगवान स्वयं उनकी कुटिया पर पहरा देते रहते थे। हालांकि यह प्रतीक रूप में कहा गया है। उनका लिखा रामचरितमानस जितनी बार पढ़ेंगे, उतनी बार नए अर्थ खुलते जाते हैं। ऊपर लिखे दोहे में तुलसीदास ने स्पष्ट कहा है- जिसे राम प्रिय नहीं हैं। यानी जो भगवान का भक्त नहीं, उससे दूर ही रहना चाहिए, भले ही वह आपको अत्यंत स्नेह करता हो। क्योंकि वह भगवान के अलावा बाकी सब बातें प्रपंच हैं। व्यर्थ हैं। तो बकवास सुनने से क्या फायदा। इसलिए तुलसीदास ने कहा है- तजिए ताहि कोटि बैरी सम, यद्यपि परम सनेही।। उस व्यक्ति को वैरी मानिए। वह घोर सांसारिक बातें करेगा, जिसमें कामना, वासना और अनंत इच्छाएं होंगी। इच्छाएं न पूरी होने का दुख होगा। जबकि भगवान की याद में सदा आनंद है। सारे दुखों का अंत है। एक संत ने तो यहां तक कहा है- एक बार गहरी भावना से भगवान का नाम लेने से मनुष्य पर अपार कृपा होती है। परम पूज्य परमहंस योगानंद जी ने कहा है- संसार में रहो, लेकिन संसार को होकर मत रहो। इस तरह रहने से आनंद ही आनंद है। दिल से प्रार्थना करिए- प्रभु, मैं आपके बिना अब रह नहीं सकता। आइए। मुझसे बातें कीजिए। मेरा स्पर्श कीजिए। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- प्रभु, यह हवा जो मेरे शरीर का स्पर्श कर रही है, वह आप ही हैं। फूलों की सुगंध के पीछे आप ही छुपे हैं। हर तरफ सिर्फ आप और आप ही हैं प्रभु।।

Thursday, August 4, 2011

ऊपर बैठा पक्षी सब देखता है

विनय बिहारी सिंह



यह कथा आप सभी जानते हैं। लेकिन इसे दुबारा पढ़ना- सुनना भी सुखद है। ऋषियों ने कहा है- एक पेड़ पर दो पक्षी बैठे हैं। एक ऊपर की डाल पर और एक नीचे वाली डाल पर। नीचे की डाल पर बैठा पक्षी सब कुछ खाता है। मीठे, खट्टे या कड़वे फल। ऊपर का पक्षी सिर्फ देखता है। मौन, शांत और स्थिर हो कर। वह आनंद में है। लेकिन नीचे बैठा पक्षी तरह- तरह के स्वाद लेकर भी दुखी है। उसे सुख नहीं मिल रहा। वह न जाने कितने तरह से कोशिश करता है कि आनंद मिले। देश- विदेश के उपवनों में घूमा। दुर्लभ फल भी खाए। तरह- तरह के पक्षियों से दोस्ती की। लेकिन फिर भी लगता है कि आनंद नहीं है। कुछ कमी है। लेकिन ऊपर बैठा पक्षी सदा आनंद में रहता है। ऊपर का पक्षी साक्षी है। इस कथा का क्या मतलब है? ऊपर का पक्षी आत्मा है। वह किसी चीज में लिप्त नहीं होता। सदा पवित्र रहता है। नीचे का पक्षी हमारा मन है। न जाने कहां- कहां भागता रहता है। बंदर की तरह कूदता रहता है- इस डाल से उस डाल पर। अनावश्यक। लेकिन आनंद कहीं नहीं मिलता। मिलेगा कैसे? हम लोग भगवान को छोड़ कर भले ही सारे संसार की श्रेष्ठतम जगहों पर चले जाएं, क्षणिक आनंद ही मिलेगा। असली आनंद, दिव्य आनंद, अनंत आनंद तो तभी मिलेगा जब हम अपने स्रोत से मिलेंगे। अपनी उत्पत्ति के स्रोत यानी जगन्माता से मिलेंगे। परमपिता से मिलेंगे। वही है हमारा असली धाम। असली घर। वहां इस शरीर में रहते हुए भी जाया जा सकता है।

Wednesday, August 3, 2011

अंतरिक्ष में आक्सीजन !

(courtesy- BBC Hindi service)
अंतरिक्ष

हर्शेल स्पेस टेलिस्कोप ने इस अणु की तारामंडल के क्षेत्र में खोज की है

खगोल वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष में आक्सीजन के अणु की खोज की है.

इस खोज के लिए लंबे अरसे से अंतरिक्ष में खोजबीन कर रहे खगोलवैज्ञानिकों ने अपनी खोज में पाया है कि जहां आक्सीजन का एक अकेला अणु मिला है वहीं उसके अन्य अणुओं के साथ भी होने की बात सामने आ रही है.

इससे पहले यही आक्सीजन जिससे हम सांस लेते हैं वह अंतरिक्ष में कभी यहां नहीं पाया गया था.

हर्शेल स्पेस टेलिस्कोप ने इस अणु की तारामंडल के क्षेत्र में खोज की है.

ये शोध विज्ञान की पत्रिका एस्ट्रोफिजिकल जर्नल में छपेगा.

हाइड़्रोजन और हीलियम के बाद आक्सीजन तीसरा बड़ा तत्व है जो ब्रह्मांड में मौजूद है.

जब हाइड्रोजन और आक्सीजन मिल जाते है तो कुछ विशेष परिस्थितियों में पानी का रुप ले लेते हैं और इसी की वज़ह से पृथ्वी पर जीवन संभव है.

लेकिन इन दोनों अणुओं का मिश्रण अंतरिक्ष में अब तक नहीं पाया गया है.

इससे पहले भी स्वीडिश ओडिन टेलिस्कोप के ज़रिए साल 2007 में भी एस्ट्रोफिजिकल में लेख छपा था जिसमें तारामंडल के आस-पास आक्सीजन होने का दावा किया गया था. लेकिन ये ख़ोज स्वतंत्र तौर पर पुष्ट नहीं हो पाई थी.

आक्सीजन के पूर्ण रुप से ना मिल पाने के कारण उसके धूल के कणों और बर्फ़ के पानी में छिपा होना बताया जा रहा है.

Tuesday, August 2, 2011

आत्मसमर्पण से मिलता है भगवान का प्रेम

विनय बिहारी सिंह



परमहंस योगानंद जी ने कहा है- भगवान का प्रेम पाने के लिए आत्मसमर्पण आवश्यक है। आत्मसमर्पण। सरेंडर। यानी भगवान में यह विश्वास कि जो कुछ भी हैं आप ही हैं। आप ही मेरे जीवन हैं। आप ही मेरे प्राण हैं। बिना आपके सब कुछ व्यर्थ है। इसीलिए कई संतों ने भगवान को प्राणनाथ कहा है। प्राण किसको प्रिय नहीं होता? और फिर हमारे भीतर प्राण किसने डाला है? उत्तर है- भगवान ने। भगवान इतना कुछ हमारे लिए करते हैं, लेकिन छुपे रहते हैं। आसानी से सामने नहीं आते। वे सर्वव्यापी हैं, सर्वग्याता हैं और सर्वशक्तिमान हैं। फिर भी ज्यादातर अदृश्य रहते हैं। तो दिखाई कब देते हैं? इसका उत्तर है- जब भक्त किसी रूप में उनसे प्रकट होने की उत्कट प्रार्थना करता है। साधारण प्रार्थना करने पर वे प्रकट नहीं होते। उन्हें देखने के लिए अनन्य भक्ति और उत्कट प्रेम चाहिए। वरना वे अदृश्य ही रहते हैं। रामचरितमानस में भगवान शिव ने माता पार्वती से भगवान की इस तरह व्याख्या की है- पग बिनु चलै, सुनै बिनु काना। कर बिनु कर्म करे विधि नाना।। यानी भगवान के पैर नहीं लेकिन वे चलते हैं, कान नहीं लेकिन प्रत्येक जीव की बात सुन लेते हैं। हाथ नहीं हैं लेकिन नाना प्रकार के कार्य करते हैं। उनके पास कोई अंग नहीं है, फिर भी सारे अंग उनके वश में हैं। उनके नियंत्रण में हैं। इसीलिए तो वे भगवान हैं। सबके दिल की बात जानते हैं। इसलिए भक्त जब उनके सामने आत्मसमर्पण करता है तो भगवान के पास और कोई चारा नहीं रह जाता। और कोई उपाय नहीं रह जाता। वे उस भक्त को प्रेम से सराबोर कर देते हैं। वह भक्त भगवान के प्रेम से निहाल हो जाता है।

Monday, August 1, 2011

भगवान से प्रेम कैसे करें?

विनय बिहारी सिंह


रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- जैसे किसी मां का अपने बच्चे से प्रेम होता है, किसी प्रेमी या प्रेमिका को अपनी प्रेमिका या प्रेमी के प्रति आकर्षण होता है उसके सौ गुना यदि मनुष्य को भगवान से प्रेम हो जाए तो समझिए उसे भगवान मिल गए। कितनी सुंदर बात है यह। सचमुच भगवान से प्रेम आवश्यक तत्व है। कबीरदास ने कहा है- पोथी पढ़ि- पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।। सार यह कि भगवान से प्रेम अत्यंत आवश्यक है। कई लोग कहते हैं कि भगवान से प्रेम कैसे करें? उन्हें तो देखा नहीं है। प्रेम तो उससे होता है जिसे देखा हो, सुना हो, जिससे निकटता हो। भगवान तो अदृश्य हैं। उनके लिए ऋषियों ने कहा है- भगवान कण- कण में विराजमान हैं। आपका हृदय उन्हीं की ताकत से धड़कता है। आपकी धमनियों में खून उन्हीं की कृपा से बहता है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- अर्जुन, मैं सबके हृदय में रहता हूं। प्राचीन संत कह गए हैं- ईश्वर का कोई रूप मन में रखिए। जैसे- राम या कृष्ण या भगवान शिव या दुर्गा या काली या हनुमान जी। बस उनसे प्रेम शुरू कर दीजिए। दिन रात उन्हें मन में पुकारते रहिए। उनसे बातें करते रहिए। धीरे- धीरे उनसे प्रेम गहरा होता जाएगा। भगवान उनके लिए दूर हैं जो उन्हें दूर समझते हैं। जो उन्हें अपने दिल में महसूस करते हैं, उनके लिए तो भगवान से करीब कोई नहीं है। संसार में हम जो प्रेम देखते हैं, उसका मूल स्रोत तो ईश्वर ही हैं। जो स्वयं प्रेम का अनंत भंडार है, उस भगवान से प्रेम करना कितना आनंददायक है, यह वही समझता है जो उनके प्रेम में मतवाला है। इसलिए ईश्वर से प्रेम ही वह कदम है जो हमें आनंद दिला सकता है।