विनय बिहारी सिंह
गीता के १२वें अध्याय का नाम भक्तियोग है। इसमें भगवान कृष्ण ने कहा है कि उन्हें कौन से भक्त प्रिय हैं। दूसरे शब्दों में भगवान ने अर्जुन को बताया है कि वे किन भक्तों को प्रेम करते हैं। संक्षेप यह कि भगवान ने कहा है- जो सुख- दुख, गर्मी- सर्दी, शत्रु- मित्र, मान- अपमान, निंदा- स्तुति आदि में समभाव में रहे, मुझे वह भक्त अत्यंत प्रिय है। जिसके कारण किसी को उद्वेग न हो और जिसे कोई उद्वेग का शिकार न बना सके, वह भक्त मुझे अत्यंत प्रिय है। भगवान ने कहा है कि जो भक्त संपूर्ण समर्पण के साथ सदा मेरी भक्ति करता है, वह मुझे अत्यंत प्रिय है। उन्होंने अर्जुन से कहा है कि तुम इंद्रिय, मन, बुद्धि पर नियंत्रण करो। यदि यह नहीं कर सकते तो इसका अभ्यास करो। अगर यह भी नहीं कर सकते तो संपूर्ण काम मेरे लिए करो। इसके पहले अर्जुन ने पूछा है कि जो भक्त आपकी साकार पूजा करते हैं वे श्रेष्ठ हैं या फिर वे जो आपकी निराकार पूजा करते हैं? भगवान ने कहा है कि दोनों भक्त मुझे अत्यंत प्रिय हैं। लेकिन चूंकि निराकार भक्ति में परिश्रम विशेष है और देह धारण करने के कारण अनेक भक्त भगवान को भी देहधारी के रूप में पूजना चाहते हैं, इसलिए उसमें परिश्रम कम है। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- साकार भक्ति भी अंततः भगवान के निराकार रूप की ओर ही ले जाती है। लेकिन शुरू में साकार भक्ति से आसानी हो जाती है। परमहंस जी ने सच ही कहा है। भगवान की साकार मूर्ति की पूजा- अर्चना में आसानी हो जाती है। फिर जिस मूर्ति की हम पूजा करते हैं वह अदृश्य हो जाती है और शेष बचता अनंत प्रकाश। भगवान का आनंदमय अनंत प्रकाश।
2 comments:
बहुत सुन्दर निरुपण किया है।
जय श्रीकृष्ण ।संपूर्ण गीता जी ।आज के युग मेँ भी नेक विचारवान इंसानो की कमी नही हैँ।कृपया इसे फेसबुक से जोडे ताकि ये विचार ज्यादा से ज्यादा लोगो तक पहुच सकेँ ।साधु साधु ।
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