Tuesday, August 23, 2011

गीता का ग्यारहवां अध्याय

विनय बिहारी सिंह



गीता के ग्यारहवें अध्याय में अर्जुन भगवान कृष्ण से आग्रह करते हैं कि वे अपना विश्वरूप दिखाएं। भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तुम अपने इन प्राकृत नेत्रों से मेरे दिव्य स्वरूप को नहीं देख सकते। इसलिए मैं तुम्हें दिव्य चक्षु देता हूं। तुम मेरे नाना प्रकार के दिव्य रूपों को देखो। दिव्यता के जो भी पर्याय होते हैं, तुम उन्हें मेरे इस रूप में देख सकोगे। और भगवान अपने विश्वरूप में प्रकट हो जाते हैं। अर्जुन उस रूप को देख कर भयभीत हो जाते हैं। वे कहते हैं कि प्रभो आपका न आदि है और न अंत। आप हर दिशा में व्याप्त हैं। जैसे हजारों सूर्य एक साथ उदित हों और उनका जितना प्रकाश हो, उससे भी ज्यादा प्रकाश इस दिव्य रूप के प्रकट होने पर हो रहा है। अर्जुन कहते हैं कि जैसे नदियां (अपनी पूर्णता प्राप्त करने के लिए) समुद्र में की तरफ बड़े वेग से दौड़ती हैं, ठीक उसी तरह बड़े- बड़े योद्धा आपके मुंह में प्रवेश कर रहे हैं। हे प्रभु, आप ही जगत के नाथ हैं। आप ही सर्वेश्वर हैं। आपको बार- बार प्रणाम है। कृपया आप अपने पुराने चतुर्भुज रूप में- शंख, चक्र, गदा, पद्म के साथ प्रकट होइए। क्योंकि मैं आपका वही शांत, मनोहारी रूप देखना चाहता हूं। तब भगवान अपने उसी रूप में प्रकट होते हैं। उसे देख कर अर्जुन का मन शांत और प्रसन्न होता है। भगवान कहते हैं- अर्जुन, मेरा यह रूप बड़ा ही दुर्लभ है। देवता भी इसके दर्शन के लिए तरसते हैं। मेरा यह रूप न यग्य से, न ही तप से देखा जा सकता है। हां, अनन्य भक्ति से मेरा यह रूप देखा जा सकता है। यानी भगवान ने स्पष्ट कहा है- अनन्य भक्त ही मेरे दिव्य रूप का दर्शन कर सकता है। इसलिए भक्तों के लिए यह राहत की बात है। वे भगवान में दिन रात डूबे रहें। नाम जप, प्रार्थना और ध्यान करें। भगवान का चिंतन- मनन करें। जब भक्ति और भगवान के प्रति छटपटाहट तीव्रतम होगी तो स्वयं भगवान दर्शन देंगे। वे तो अंतर्यामी हैं।

1 comment:

vandana gupta said...

बहुत सुन्दर और सटीक व्याख्यान्।