Saturday, August 27, 2011

गीता का १३वां अध्याय

विनय बिहारी सिंह



गीता का १३वां अध्याय क्षेत्र- क्षेत्रग्य की व्याख्या करता है। क्षेत्र है हमारा शरीर और क्षेत्रग्य है हमारी आत्मा। जो ईश्वर का प्रतिरूप है। इसी तरह यह ब्रह्मांड है क्षेत्र और ईश्वर हैं इसके क्षेत्रग्य। भगवान ने इस अध्याय में कहा है कि जीव इस क्षेत्र में जो भी बोता है, उसी के अनुरूप उसका अगला जन्म तय होता है। हमारी प्रवृत्तियां, हमारे संस्कार इस क्षेत्र में अगर बुरी प्रवृत्तियों के बीज बोएंगे तो हमारा जन्म कष्टकर माहौल में होगा। जीवन में हम वही सब भोगेंगे। लेकिन अगर हम ईश्वरीय नियमों का पालन करेंगे तो आनंद ही आनंद है। ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर बरसती रहेगी। प्रकृति ईश्वर की ही अभिव्यक्ति है। पुरुष स्वयं ईश्वर हैं। जिस तरह ईश्वर अनादि हैं उसी तरह प्रकृति भी अनादि है। उसका कोई प्रारंभ नहीं है। वह सदा से है। हमारे भीतर सारी प्रवृत्तियां प्रकृति के ही गुणों से प्रभावित होती है। भगवान कृष्ण ने कहा है- प्रकृति और पुरुष के संयोग से ही समूची सृष्टि का संचालन हो रहा है। समूची सृष्टि ईश्वर की है, लेकिन ईश्वर इसमें लिप्त नहीं हैं। जैसे आकाश सर्वत्र है लेकिन वह किसी चीज से लिप्त नहीं है। इसीलिए ईश्वर का अनुभव करने के लिए, ईश्वर का लाभ करने के लिए साधन के रूप में मुख्य रूप से तीन योग कहे गए हैं- १. ध्यान योग २. सांख्य योग (या ग्यान योग) औऱ ३. कर्म योग।
परमहंस योगानंद जी ने ऋषि पातंजलि के अष्टांग योग को श्रेष्ठ साधन बताया है। यानी यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।। भगवान कृष्ण ने १३वें अध्याय में स्पष्ट रूप से कहा है- यदि भक्त अपने क्षेत्र को पवित्र रखते हुए, क्षेत्रग्य की उपासना करे। अपनी आत्मा की सुने तो वह जन्म- मरण के झमेले से मुक्त हो जाएगा। इसके लिए लगे रहना पड़ेगा। ईश्वर से लगातार प्रार्थना करनी पड़ेगी। असली क्षेत्रग्य यानी ईश्वर की शरण में जाना पड़ेगा।