Tuesday, August 2, 2011

आत्मसमर्पण से मिलता है भगवान का प्रेम

विनय बिहारी सिंह



परमहंस योगानंद जी ने कहा है- भगवान का प्रेम पाने के लिए आत्मसमर्पण आवश्यक है। आत्मसमर्पण। सरेंडर। यानी भगवान में यह विश्वास कि जो कुछ भी हैं आप ही हैं। आप ही मेरे जीवन हैं। आप ही मेरे प्राण हैं। बिना आपके सब कुछ व्यर्थ है। इसीलिए कई संतों ने भगवान को प्राणनाथ कहा है। प्राण किसको प्रिय नहीं होता? और फिर हमारे भीतर प्राण किसने डाला है? उत्तर है- भगवान ने। भगवान इतना कुछ हमारे लिए करते हैं, लेकिन छुपे रहते हैं। आसानी से सामने नहीं आते। वे सर्वव्यापी हैं, सर्वग्याता हैं और सर्वशक्तिमान हैं। फिर भी ज्यादातर अदृश्य रहते हैं। तो दिखाई कब देते हैं? इसका उत्तर है- जब भक्त किसी रूप में उनसे प्रकट होने की उत्कट प्रार्थना करता है। साधारण प्रार्थना करने पर वे प्रकट नहीं होते। उन्हें देखने के लिए अनन्य भक्ति और उत्कट प्रेम चाहिए। वरना वे अदृश्य ही रहते हैं। रामचरितमानस में भगवान शिव ने माता पार्वती से भगवान की इस तरह व्याख्या की है- पग बिनु चलै, सुनै बिनु काना। कर बिनु कर्म करे विधि नाना।। यानी भगवान के पैर नहीं लेकिन वे चलते हैं, कान नहीं लेकिन प्रत्येक जीव की बात सुन लेते हैं। हाथ नहीं हैं लेकिन नाना प्रकार के कार्य करते हैं। उनके पास कोई अंग नहीं है, फिर भी सारे अंग उनके वश में हैं। उनके नियंत्रण में हैं। इसीलिए तो वे भगवान हैं। सबके दिल की बात जानते हैं। इसलिए भक्त जब उनके सामने आत्मसमर्पण करता है तो भगवान के पास और कोई चारा नहीं रह जाता। और कोई उपाय नहीं रह जाता। वे उस भक्त को प्रेम से सराबोर कर देते हैं। वह भक्त भगवान के प्रेम से निहाल हो जाता है।

1 comment:

vandana gupta said...

भक्त जब उनके सामने आत्मसमर्पण करता है तो भगवान के पास और कोई चारा नहीं रह जाता। और कोई उपाय नहीं रह जाता। वे उस भक्त को प्रेम से सराबोर कर देते हैं। वह भक्त भगवान के प्रेम से निहाल हो जाता है।

अब इसके बाद कहने को कुछ बचता ही नहीं।