Thursday, April 30, 2009

मौन की भी अपनी ताकत है



विनय बिहारी सिंह


रमण महर्षि कहते थे- बोलने से ज्यादा ताकत मौन की है। एक संत से किसी ने पूछा- मौन रहने से क्या लाभ होता है? संत ने उत्तर दिया- मौन से आत्मनिरीक्षण का मौका मिलता है। मौन से अपने भीतर झांकने की प्रवृत्ति जागती है। तब हम अपनी कमियों और अच्छाइयों पर गौर कर सकते हैं। चुप रहने या मौन रहने से आपकी जो ऊर्जा बचती है, उसे अगर ईश्वर की तरफ मोड़ दें तो उसका अद्भुत परिणाम मिलता है। मौन आपको खुद से साक्षात्कार कराता है। एक बार एक ऋषि अपनी कुटिया में बैठे थे। वहां उस राज्य के राजा आए और ऋषि से पूछा- आप बिना धन के कैसे अपना जीवन चला पाते हैं? ऋषि का उस दिन मौन व्रत था। वे मुस्कराए और चुप हो गए। राजा को लगा- वे उन्हें मुस्करा कर आशीर्वाद दे रहे हैं। उन्होंने ऋषि की कुटिया का कायाकल्प करवा दिया और ऋषि के लिए वहां वे सारी सुविधाएं मुहैया करा दीं जिससे वे और बेहतर ढंग से साधना कर सकें। हालांकि ऋषि ने ऐसी कोई इच्छा नहीं जाहिर की थी। वे तो सद्भाव से मुस्कराए थे। अगर हम अपने रोजमर्रा जीवन का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि कई बार हम अनावश्यक बोलते हैं। वे लोग जो ज्यादातर गप लड़ाते हैं, वे तो और भी अनावश्यक बोलते हैं। आप कह सकते हैं कि बिना बोले तो जीवन में काम नहीं चलेगा। हां, यह सच है। लेकिन अगर हम तौल कर बोलने का अभ्यास करें तो हमारे जीवन में सार्थक मौन का प्रवेश हो जाएगा। सिर्फ हां कहने से या मुस्करा कर सिर हिला देने से जो काम हो सकता है, उस पर देर तक बोलने का बहाना ढूंढ़ना मौन की अवहेलना ही है। कई लोगों को अनावश्यक रूप से देर तक बोलने के अभ्यस्त होते हैं। वे उस सीमा से कम बोलेंगे तो उन्हें बेचैनी हो जाती है। वे बोलने का कोई न कोई बहाना ढूंढ़ ही लेते हैं। कुछ नहीं तो वे मौसम पर ही घंटा भर बोल सकते हैं। इसका कोई अर्थ नहीं है। कई लोग हफ्ते में एक दिन का मौन रखते हैं। लेकिन अगर मौन रख कर दिमाग को शांत न रखा जाए, तो फिर मौन का कोई अर्थ नहीं है। अगर दिमाग मौन रखने पर भी आंधी- तूफान की तरह दौड़ रहा हो तो मौन का क्या लाभ? मौन के साथ दिमाग और चिंताओं को ईश्वर के हवाले कर दिया जाए तो मौन सार्थक है।

Wednesday, April 29, 2009

जरूरी नहीं कि प्रार्थना रटी रटाई हो


विनय बिहारी सिंह

जरूरी नहीं कि प्रार्थना रटे- रटाए शब्दों में हो। आप मुंह से एक शब्द न बोलें और दिल से ईश्वर से लगातार प्रार्थना करते रहें तो वह ज्यादा प्रभावशाली होगी। अनेक लोगों ने कहा है- प्रार्थना शब्दों से परे है। बस आपके दिल से सच्ची पुकार निकलनी चाहिए। वह सीधे भगवान तक पहुंचती है। भगवान दिल की पुकार सुनते हैं। टालस्टाय की एक बहुत सुंदर कहानी है। एक द्वीप पर तीन संत रहते थे। वे एक ही प्रार्थना जानते थे- हे प्रभु हम तीन हैं और तुम भी तीन हो। हम पर कृपा करो। बस यही उनकी सुबह शाम की प्रार्थना थी। एक विशप ने सुना तो उनके मन में आया कि क्यों न इन संतो को अच्छी सी प्रार्थना सिखा दी जाए। वे उस द्वीप में गए और संतों को एक पुरानी प्रार्थना सिखा दी। फिर वे नाव से लौटने लगे। जब विशप बीच नदी में पहुंचे थे तभी उन्होंने देखा- उनकी ओर प्रकाश का एक गोला आ रहा है। यह गोला जब नजदीक आया तो उन्होंने देखा- ये तो वही तीनों संत थे जिन्हें उन्होंने प्रार्थना सिखाई थी। वे पानी पर दौड़ रहे थे। विशप तो चकित हो गए। निश्चय ही इन संतों के पास दिव्य शक्ति थी। पास आकर ये संत बोले- फादर, हम वह प्रार्थना भूल गए जो आप सिखा कर आए। विशप ने कहा- महान संतों, तुम्हें प्रार्थना सिखाने की कोई जरूरत ही नहीं है। तुम अपनी पुरानी प्रार्थना ही जारी रखो।

Tuesday, April 28, 2009

कृष्ण में सराबोर रहती थीं मीराबाई



विनय बिहारी सिंह


मीराबाई भक्ति धारा की प्रमुख साध्वियों में से एक थीं। हालांकि उनका विवाह चित्तौड़ के राणा सांगा के सबसे बड़े बेटे राजकुमार भोजराज से हुआ था, लेकिन वे सांसारिक कामकाज से पूरी तरह अलग थीं। वैसे तो वे अपने पति की सेवा करती थीं । लेकिन सोते, जागते, खाते- पीते, सांस लेते और भजन गाते हुए वे भगवान कृष्ण में ही मग्न रहती थीं। इसके कारण उनकी ससुराल में उनकी निंदा हुई। प्रताड़ना सहनी पड़ी। लेकिन वह प्रसंग थोड़ी देर बाद में। मीराबाई का जीवन काल १४९८ से लेकर १५४७ ईस्वी तक था। उनके गुरु संत रविदास थे। उन्होंने लगभग १३०० भजन तैयार किए थे। राजस्थान के पाली जिले के मेढ़ता के पास कुडकी गांव में मीराबाई जन्मी थीं। पिता रतन सिंह उस इलाके के धाकड़ आदमी थे। कहा जाता है कि उन्होंने ही जोधपुर की स्थापना की थी। वे राव राठौर राजपूत थे। जब मीराबाई ३ साल की थीं तो एक घुमंतू साधु उनके यहां घूमते हुए आया। उसने उनके पिता रतन सिंह को कृष्ण भगवान की एक छोटी सी मूर्ति दी। पिता ने इसे साधु का आशीर्वाद माना। मीराबाई को वह छोटी सी मूर्ति इतनी प्यारी लगी वे उस पर मुग्ध ही हो गईँ। हालत यह हो गई कि उन्होंने तब तक खाना नहीं खाया, जब तक पिता ने उन्हें वह मूर्ति दे नहीं दी। इसके बाद तो मीराबाई की सारी दुनिया उस मूर्ति में ही बस गई। वे कृष्ण भगवान को खिलातीं- पिलातीं, उनके साथ बातें करतीं और खेलतीं- कूदतीं। जरा बड़ी हुईं तो उन्होंने खुद के भजन बनाए और कृष्ण भगवान की भक्ति में डूब कर भजन गातीं। आखिर वह समय आया जिसका वे इंतजार कर रही थीं। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें दर्शन दिया। मीराबाई इससे संतुष्ट होने वाली नहीं थीं। उन्होंने भगवान से वादा कराया- वे जब चाहेंगी, उन्हें दर्शन देना पड़ेगा। भक्त के सामने भगवान झुक जाते हैं। श्रीकृष्ण भगवान ने मीराबाई की यह शर्त मंजूर कर ली। वे जब चाहे उनका दर्शन कर सकती थीं। बस अब क्या था। वे दिन- रात भगवान में मग्न रहने लगीं। उन्हें और किसी की परवाह नहीं थी। एक बार उनकी एक ननद ( पति की बहन) ने झूठा आरोप लगा दिया कि मीराबाई ने एक व्यक्ति को अपने शयन कक्ष में बैठाया है। क्रोधित हो कर उनके पति तुरंत मीराबाई के कमरे में गए। लेकिन ननद की बात झूठ निकली। मीराबाई तो भगवान कृष्ण की मूर्ति के साथ बातचीत कर रही थीं। वे इस बातचीत में इतनी तन्मय थीं कि उन्हें यह भी होश नहीं था कि कमरे में उनके पति आए हुए हैं। पति को अपनी गलती का अहसास हुआ। ऐसे ही कई मौकों पर उनकी ननद ने झूठ बोला और उसका झूठ बार- बार पकड़ में आया। बादशाह अकबर ने मीराबाई की चर्चा सुनी तो इस साध्वी से मिलने की उनकी इच्छा हुई। लेकिन मीराबाई के परिवार और अकबर में खांटी दुश्मनी थी। अकबर ने भेष बदल कर मीराबाई से मुलाकात की और इतने प्रभावित हुए कि उनके पैरों पर हार चढ़ा दिया। जब उनके पति को मालूम हुआ कि उनके कट्टर दुश्मन ने उन्हें उपहार में हार दिया है तो उन्होंने उन्हें कहा कि वे नदी में चली जाएं और अपने जीवन का अंत कर लें। पति की बात मान कर उन्होंने नदी में प्रवेश किया और बीच नदी की तरफ चलने लगीं। जब कमर तक पानी में गईं तभी भगवान कृष्ण ने प्रकट हो कर कहा कि उनकी जगह तो वृंदावन में है। मीराबाई वृंदावन में रहने लगीं औऱ भगवान कृष्ण की भक्ति में दिन रात बिताने लगीं। एक बार एक साधु ने उनसे मिलने से इसलिए इंकार कर दिया कि वे स्त्री हैं। तब मीराबाई ने उस साधु के शिष्य से कहा- जाकर महात्मा जी से कहो कि मीराबाई ने कहा है कि इस ब्रह्मांड में तो एक ही पुरुष है- भगवान कृष्ण। यह दूसरा पुरुष कहां से आ गया। तब साधु को अपनी गलती का अहसास हुआ। उन्होंने क्षमा मांगी और मीराबाई से प्रेम से मिले। उनके पति को अपनी गलती का एहसास हुआ। वे वृंदावन जाकर मीराबाई को फिर घर ले आए। लेकिन इसके कुछ ही दिनों बाद वे एक लड़ाई में मारे गए। इसके बाद ससुराल में मीराबाई को तरह- तरह के कष्ट दिए जाने लगे। लेकिन मीराबाई ने अपने शरीर के कष्ट को कष्ट माना ही नहीं। वे तो दिन- रात भगवान कृष्ण के प्रेम में विभोर रहती थीं। धीरे- धीरे उनकी ख्याति पूरे देश में फैल गई। जब पूरा देश उन्हें साध्वी मानने लगा तो घर वालों को लगा- मीराबाई तो उच्चकोटि की साध्वी हैं।

Monday, April 27, 2009

आदि शंकराचार्य


आदि शंकराचार्य सनातन सांस्कृतिक धारा के प्रमाण पुरुषों में गिने जाते हैं। उन्होंने गुरु वन्दना करते हुए लिखा है-
उस गुरु को नमस्कार है, जो सदा गायत्री रूप में स्थित होते हैं, जिनकी अमृत वाणी संसार रूपी विष को नष्ट कर देती है।
यह बडी सारगर्भित वन्दना है, जिसमें गुरुतत्वके प्रति श्रद्धा के साथ ही उसके स्वरूप एवं प्रभाव को भी बडी सुन्दरता के साथ व्यक्त किया गया है। इस श्लोक में चार चरण हैं-गुरु को नमन, गुरु का गायत्री रूप में स्थित होना, गुरु-वाणी अमृत स्वरूप होना, उससे संसार रूपी निन्दा का शमन होना। क्रमश:प्रत्येक चरण के भावों का समीक्षात्मक अध्ययन करें।
गुरु को नमन-गुरु अपने विषय के विशेषज्ञ होते हैं। उनसे अनुदान पाने के लिए श्रद्धा भाव आवश्यक है। गुरु केवल विधि ही नहीं बतलाते, अपनी शक्ति का, अपने प्राणों का एक अंश भी देने में समर्थ होते हैं। जिस प्रकर पानी का प्रवाह ऊपरी सतह से निचली सतह की ओर होता है, उसी प्रकार चेतना-ज्ञान का प्रवाह श्रद्धास्पद व्यक्तित्व की ओर से नमनशीलव्यक्तित्व की ओर होता है। यह सनातन नियम है। व्यक्ति में पात्रता हो, लेकिन वह नमनशीलन हो, अहंकारी हो, तो उसे कल्याणकारी ज्ञान प्राप्त होना और फलित होना असंभव हो जाता है।
यहां नमस्कार केवल शिष्टाचार वाला हो, तो काम नहीं चलेगा। उसे श्रद्धा से प्रेरित होना चाहिए। किंतु समस्या यह आ जाती है कि श्रद्धा हर जगह नहीं झुकती। गुरु में श्रद्धा को आकर्षित करने की शक्ति होनी चाहिए। यदि पाने वाले में श्रद्धा न हो, तो भी बात नहीं बनती और गुरु में श्रद्धास्पद बनने की क्षमता न हो तो भी नमन की स्थिति नहीं बन पाती। शिष्य को नमनशीलश्रद्धालु होना चाहिए, तो गुरु को भी श्रद्धास्पद होना चाहिए। गुरु कैसे होते हैं, यह बात आगे के चरणों में स्पष्ट की गयी है।
गुरु सदा गायत्री रूप हो-भारतीय संस्कृति के अनुसार गुरु तत्व को व्यक्ति रूप में भी पाया जा सकता है और शक्ति रूप में भी। दोनों ही स्थितियों में उसे गायत्री रूप में प्रतिष्ठित होना चाहिए, ऐसा आचार्य शंकर का मत है। गायत्री का अर्थ है, गय-प्राण,त्री-त्रायते,त्रण-उद्धारकरने वाली शक्ति। प्राण तत्व जब ईश्वरीय अनुशासन में बंधकर व्यक्त होता है, तो सृष्टि के विभिन्न घटक बनते हैं। सृष्टि के उद्भव का, उसे प्रकट करने का यह कार्य ईश्वर का- नियन्ता का है। जो प्राण पदार्थ के साथ संयुक्त होकर प्राणी के रूप में स्थापित हो गए, उन्हें प्राण की मुख्यधारा से जोडे रखना ही प्राणों का त्राण करना है।
जीवन की सारी क्रियाएं प्राण से ही संचालित होती हैं। प्राण में विकार आ जाने से जीवन की सभी क्रियाएं, सारा जीवन विकार ग्रस्त हो जाता है। शारीरिक-मानसिक रोग, तनाव, पाप-वृत्तियां सब इसी प्राण के विकारों की ही उपज हैं। प्राण के प्रकटीकरण का कार्य ईश-तत्व का है और उसके त्राण का कार्य गुरु तत्व का है। इसीलिए गुरु को गायत्री रूप में-प्राणों का त्राण करने वाली साम‌र्थ्य के रूप में सदैव प्रतिष्ठित रहना आवश्यक है। भारतीय संस्कृति में ऋषियों ने इसीलिए यह व्यवस्था बनाई है कि यदि व्यक्ति रूप में गुरु की प्राप्ति न हो सके, तो मन्त्र रूप-शक्ति रूप में गायत्री विद्या को गुरु मानकर आत्म-लाभ किया जा सकता है। इसीलिए अनादि काल से गायत्री मंत्र को गुरु मंत्र के रूप में ऋषियों ने प्रतिष्ठित रखा है।
संसार का विष और गुरु वचनों का अमृत- प्राणी संसार में ही रहता है। यह संसार सत् एवं असत्, अमृत तथा मरणशील तत्वों के संयोग से बना है। जीवन की कलाकारिता इसी में है कि संसार में संव्याप्तविष से बचते हुए व अमृत का उपयोग करते हुए आगे बढा जाए। विष के संसर्ग से प्राण पीडित होते हैं और अमृत के संसर्ग से वे आनंदित होते हैं। प्राणों के विषों की ओर आकर्षित होने से रोक कर उसे अमृत की ओर प्रेरित करने की जीवन कला सिखाने का कार्य गुरु का है। यदि प्राण में विष को नकारने की या अमृत की ओर गतिशील होने की क्षमता नहीं रह गयी है, तो उचित उपचार द्वारा दुर्बल प्राणों को पुन:तेजस्वी बनाना भी गुरु अपने परिष्कृत और प्रखर प्राणों के संयोग से करते हैं।
सही दिशा की प्रेरणा का प्राथमिक प्रवाह वाणी से ही प्रकट होता है। गुरु उस अमृत तत्वयुक्तवाणी को प्रगट करता है और शिष्य उसे धारण करता है। वाणी के साथ समाविष्ट अमृत रूप प्राण शिष्य में स्थित होकर उसकी साधना से परिपक्व होता है। वही परिपक्व प्राण उसे अमृतत्व की दिशा में प्रेरित करता है, गति देकर सद्गति का अधिकारी बनाता है। गायत्री महामंत्र में भी यही चार चरण हैं, भूर्भुव:स्व: में व्याप्त उस महाप्राण को गुरु रूप में नमन्, उसके वरणीय देवत्व युक्त भर्गतेज प्राण को सविता सर्वप्रेरकरूप में स्वीकार करना, उस अमृत प्राण प्रवाह को अपने अंत:करण में धारण करना तथा उस महाप्राण द्वारा जीवन को संचालित किया जाना। आदि शंकाराचार्य द्रष्टा थे, शिव रूप में थे।

Saturday, April 25, 2009

कैसे त्रस्त करता है हमें अनावश्यक तनाव


विनय बिहारी सिंह

एक पुरानी कथा है- एक राजा को योग्य प्रधानमंत्री नहीं मिल रहा था। उसने तमाम तरह की परीक्षाएं लीं। चुनते- चुनते तीन लोग बच गए। इनमें से एक को प्रधानमंत्री चुना जाना था। इनसे कहा गया कि राजा के पास एक रहस्यमय ताला है। जो इस ताले को खोलेगा, वही इस राज्य का प्रधानमंत्री बना दिया जाएगा। इन तीनों में से दो ने रात भर ताले की तकनीक वाली किताबें पढ़ीं। काफी खोजबीन की। लेकिन तीसरा व्यक्ति निश्चिंत था। वह आराम से सो रहा था। सुबह हुई। इन तीनों को एक कमरे में लगे बंद ताले के पास ले जाया गया। फिर कहा गया- जो इस ताले को खोल देगा, उसे प्रधानमंत्री बनाने की घोषणा अभी कर दी जाएगी। जिन दो ने रात भर ताले की तकनीक पर शोध किया था, वे तुरंत अपनी किताबों में उलझ गए और कहा कि तीन घंटे का उन्हें समय दिया जाए। लेकिन तीसरा व्यक्ति चुपचाप ताले के पास गया औऱ उसे जोर से खींच कर देखा- ताला खुल गया। राजा ने उसे ही प्रधानमंत्री बनाने का एलान कर दिया। फिर राजा ने उन दो लोगों को बुलाया औऱ कहा- सबसे पहले चेक कर लें कि समस्या दरअसल है भी या नहीं। आप लोग तो प्रश्न सुनते ही किताबों के पन्ने पर पन्ने पलटने लगे। ये भी नहीं देखा कि आखिर ताले में कोई समस्या है भी या नहीं। हम मनुष्य भी लगभग इसी तरह के स्वभाव वाले हैं। भविष्य की अनावश्यक चिंताओं में इस तरह घिरे रहते हैं कि सच्चाई की तरफ देखने की फुरसत ही नहीं मिलती। ऐसा अनेक बार होता है कि जिस आशंका से हम मरे जा रहे हैं, वह चीज होती ही नहीं। तब हमें लगता है- मैं तो बेकार ही इस आशंका को सिर पर लादे तनाव में मर रहा था। संतों ने इसीलिए कहा है- वर्तमान में जीओ। जो बीत गया उसे भूल जाओ। पुरानी गलतियां न हों, बस इसी का खयाल रखना चाहिए। वर्तमान अगर सुधर गया तो भविष्य अपने आप सुधर जाएगा। लेकिन मनुष्य ने अपने मन को इतना जटिल बना लिया है कि सहज उपाय भी है, यह सोच नहीं पाता। संतों ने कहा है- सिर्फ ईश्वर की शरण में रहो, वह तुम्हारा ख्याल खुद करेगा। रामकृष्ण परमहंस कहते थे- बिल्ली का बच्चा बनो, बंदर का बच्चा नहीं। बिल्ली अपने बच्चे को मुंह में दबाए रहती है। जहां बच्चे को रखती है, वहां वह मस्ती से म्याऊं, म्याऊं करता रहता है। लेकिन बंदर का बच्चा खुद अपनी मां का पेट पकड़े रहता है कि कहीं गिर न जाए। भगवान जब हमें खुद पकड़ लेंगे तो फिर डर किस बात का? हम क्यों न ऐसा करें कि भगवान खुद हमें पकड़ लें। हम भगवान को न पकड़ें। लेकिन भगवान तभी पकड़ेंगे जब हम उनकी पूर्ण शरणागति में जाएंगे।

Friday, April 24, 2009

शिव की महिमा


शिव की महिमा अनंत है। उनके रूप, रंग और गुण अनन्य हैं। समस्त सृष्टि शिवमयहै। सृष्टि से पूर्व शिव हैं और सृष्टि के विनाश के बाद केवल शिव ही शेष रहते हैं। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की, परंतु जब सृष्टि का विस्तार संभव न हुआ तब ब्रह्मा ने शिव का ध्यान किया और घोर तपस्या की। शिव अ‌र्द्धनारीश्वर रूप में प्रकट हुए। उन्होंने अपने शरीर के अ‌र्द्धभागसे शिवा (शक्ति या देवी) को अलग कर दिया। शिवा को प्रकृति, गुणमयीमाया तथा निर्विकार बुद्धि के नाम से भी जाना जाता है। इसे अंबिका, सर्वलोकेश्वरी,त्रिदेव जननी, नित्य तथा मूल प्रकृति भी कहते हैं। इनकी आठ भुजाएं तथा विचित्र मुख हैं। अचिंत्य तेजोयुक्तयह माया संयोग से अनेक रूपों वाली हो जाती है। इस प्रकार सृष्टि की रचना के लिए शिव दो भागों में विभक्त हो गए, क्योंकि दो के बिना सृष्टि की रचना असंभव है। शिव सिर पर गंगा और ललाट पर चंद्रमा धारण किए हैं। उनके पांच मुख पूर्वा, पश्चिमा, उत्तरा,दक्षिणा तथा ऊध्र्वाजो क्रमश:हरित,रक्त,धूम्र,नील और पीत वर्ण के माने जाते हैं। उनकी दस भुजाएं हैं और दसों हाथों में अभय, शूल, बज्र,टंक, पाश, अंकुश, खड्ग, घंटा, नाद और अग्नि आयुध हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वह त्रिशूल धारी, प्रसन्नचित,कर्पूर गौर भस्मासिक्तकालस्वरूपभगवान हैं। उनकी भुजाओं में तमोगुण नाशक सर्प लिपटे हैं। शिव पांच तरह के कार्य करते हैं जो ज्ञानमय हैं। सृष्टि की रचना करना, सृष्टि का भरण-पोषण करना, सृष्टि का विनाश करना, सृष्टि में परिवर्तनशीलतारखना और सृष्टि से मुक्ति प्रदान करना। कहा जाता है कि सृष्टि संचालन के लिए शिव आठ रूप धारण किए हुए हैं। चराचर विश्व को पृथ्वी रूप धारण करते हुए वह शर्वअथवा सर्व हैं। सृष्टि को संजीवन रूप प्रदान करने वाले जलमयरूप में वह भव हैं। सृष्टि के भीतर और बाहर रहकर सृष्टि स्पंदित करने वाला उनका रूप उग्र है। सबको अवकाश देने वाला, नृपोंके समूह का भेदक सर्वव्यापी उनका आकाशात्मकरूप भीम कहलाता है। संपूर्ण आत्माओं का अधिष्ठाता, संपूर्ण क्षेत्रवासी, पशुओं के पाश को काटने वाला शिव का एक रूप पशुपति है। सूर्य रूप से आकाश में व्याप्त समग्र सृष्टि में प्रकाश करने वाले शिव स्वरूप को ईशान कहते हैं। रात्रि में चंद्रमा स्वरूप में अपनी किरणों से सृष्टि पर अमृत वर्षा करता हुआ सृष्टि को प्रकाश और तृप्ति प्रदान करने वाला उनका रूप महादेव है। शिव का जीवात्मा रूप रुद्र कहलाता है। सृष्टि के आरंभ और विनाश के समय रुद्र ही शेष रहते हैं। सृष्टि और प्रलय, प्रलय और सृष्टि के मध्य नृत्य करते हैं। जब सूर्य डूब जाता है, प्रकाश समाप्त हो जाता है, छाया मिट जाती है और जल नीरव हो जाता है उस समय यह नृत्य आरंभ होता है। तब अंधकार समाप्त हो जाता है और ऐसा माना जाता है कि उस नृत्य से जो आनंद उत्पन्न होता है वही ईश्वरीय आनंद है। शिव,महेश्वर, रुद्र, पितामह, विष्णु, संसार वैद्य, सर्वज्ञ और परमात्मा उनके मुख्य आठ नाम हैं। तेईस तत्वों से बाहर प्रकृति,प्रकृति से बाहर पुरुष और पुरुष से बाहर होने से वह महेश्वर हैं। प्रकृति और पुरुष शिव के वशीभूत हैं। दु:ख तथा दु:ख के कारणों को दूर करने के कारण वह रुद्र कहलाते हैं। जगत के मूर्तिमान पितर होने के कारण वह पितामह, सर्वव्यापी होने के कारण विष्णु, मानव के भव रोग दूर करने के कारण संसार वैद्य और संसार के समस्त कार्य जानने के कारण सर्वज्ञ हैं। अपने से अलग किसी अन्य आत्मा के अभाव के कारण वह परमात्मा हैं। कहा जाता है कि सृष्टि के आदि में महाशिवरात्रि को मध्य रात्रि में शिव का ब्रह्म से रुद्र रूप में अवतरण हुआ, इसी दिन प्रलय के समय प्रदोष स्थिति में शिव ने ताण्डव नृत्य करते हुए संपूर्ण ब्रह्माण्ड अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से नष्ट कर दिया।

Thursday, April 23, 2009

कोई मधुर संगीत, कोई सुंदर दृश्य


विनय बिहारी सिंह
आप एक खूबसूरत फूल देखते हैं और आपको बहुत अच्छा लगता है। आप कोई अच्छा सा प्राकृतिक दृश्य देखते हैं, और वह आपके दिल को भा जाता है। आप कोई मधुर संगीत सुनते हैं और वह आपके दिल में उतर जाता है। आप कोई सुंदर सी चिड़िया देखते हैं और वह आपको अच्छी लगती है। कोयल की कूक आपको कई सुंदर चीजों की याद दिला देती है। यह सब क्या ईश्वर की याद नहीं दिलाते? क्या मोहक चीजें ईश्वर की याद नहीं दिलातीं? यह भी कितना दिलचस्प है कि ईश्वर अदृश्य रह कर भी हमेशा हमारे भीतर और बाहर रहता है। जरा सा तमाम चिंताओं और परेशानियों से मुक्त हो कर शांति में ईश्वर की प्रार्थना हमें कितना सुकून देती है। कई लोग तो दिन शुरू होते ही सबसे पहले ईश्वर की प्रार्थना या पूजा- पाठ या ध्यान करते हैं औऱ दिन भर तरोताजा रहते हैं। हमारी एकाग्रचित्त पुकार सुन कर ईश्वर भी हमारे साथ बातचीत करते हैं, लेकिन हमारा दिमाग इतना चंचल होता है कि हम उस परमपिता की आवाज सुन नहीं पाते। एक संत ने कहा है- हे ईश्वर, तुम मुझे जैसे चाहो रखो, लेकिन अपना प्यार देते रहो। बस उसी में आनंद है। तुम मुझे कहां रखते हो, कैसे रखते हो, इससे कोई मतलब नहीं मुझे। बस मुझे तुम्हारा प्यार चाहिए। उसी में मेरा सर्वोच्च सुख है। जो लोग अपनी भारी व्यस्तता के बीच भी ईश्वर को याद करते हैं, ईश्वर को प्यार करते हैं, वे कितने भाग्यशाली हैं।

रंगनाथजी का मंदिर

डेढ सौ वर्ष पुराना श्री रंगनाथ मंदिर वृंदावन का विशालतम और दक्षिण भारतीय शैली का एकमात्र प्रमुख मंदिर है। विस्तृत भूभाग में फैले मंदिर परिसर में पांच तो परिक्रमाएंही हैं।
मुख्य द्वार के ठीक सामने 50फुट ऊंचा गरूडस्वर्ण मंदिर स्तंभ है। ऊंचे-ऊंचे पत्थरों से विभक्त परिक्रमओंमें से भीतरी परिक्रमा में हनुमानजी, गोपालजीऔर नृसिंह भगवान के श्री विग्रह हैं। इस मंदिर में वर्ष के 365दिनों में कुल 384उत्सव मनाए जाते हैं। इस प्रकार प्रति दिन कोई न कोई उत्सव यहां चलता ही रहता है।
दस दिन का प्रमुख उत्सव ब्रह्मोत्सवचैत्र मास में मनाया जाता है। ब्रह्मोत्सवके अंतिम दिन में जगन्नाथपुरीकी तरह यहां भी विशाल सुसज्जित रथ में रंगनाथ जी की सवारी निकलती है जिसे भक्त गण ही रस्से से खींचते हैं। इस उत्सव को रथ मेला भी कहा जाता है।
मंदिर का निर्माण सेठ लक्ष्मीचंद ने अपने गुरु आचार्य रंगदेशिकस्वामी की प्रेरणा से कराया था और निर्माण कार्य सन् 1849में पूरा हुआ था।
किवदंतीके अनुसार मंदिर का निर्माण पूरा होने और उसमें सामान्य पूजा दर्शन प्रारंभ होने के कुछ ही दिन बाद एक बालक तथा एक बालिका ने रात में स्वामीजीसे स्वप्न में कहा कि आपने सब कुछ तो किया परन्तु हमारे लिए लड्डुओं के भोग की व्यवस्था तो की ही नहीं। बालक-बालिका ने अपना परिचय देते हुए कहा कि हम गोदा रंगनाथ हैं। प्रात:जागने के बाद स्वामीजीने तुरंत बेसन के लड्डुओं की व्यवस्था कर दी जो आज भी चल रही है।
उत्तरप्रदेश पर्यटन विभाग ने इस मंदिर के बाहर लगाए गए प्रस्तर पट्ट में लिखा है श्री रंगनाथजी का मंदिर
दक्षिण भारतीय शैली पर निर्मित वृंदावन का विशाल मंदिर है जिसके मुख्य द्वार का निर्माण राजस्थानी शैली पर आधारित है। मंदिर प्रांगण में लगभग 50फुट ऊंचा स्वर्ण गरूडस्तंभ है। इस मंदिर में पूजा सेवा पारंपरिक वेशभूषा में दक्षिणी ब्राह्मणोंद्वारा की जाती है। प्रत्येक वर्ष चैत्र मास में प्रसिद्ध रथ का मेला यहां का मुख्य आकर्षण है।

Wednesday, April 22, 2009

भैरव के रूप


भैरव के कई रूप प्रसिद्ध हैं। उनमें विशेषत:दो अत्यंत ख्यात हैं-काल भैरव एवं बटुकभैरव या आनंद भैरव। काल के सदृश भीषण होने के कारण इन्हें कालभैरवनाम मिला। ये कालों के काल हैं। हर प्रकार के संकट से रक्षा करने में यह सक्षम हैं। काशी का कालभैरवमंदिर सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। काशी विश्वनाथ मंदिर से कोई डेढ-दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस मंदिर का स्थापत्य ही इसकी प्राचीनताको प्रमाणित करता है। गर्भ-गृह के अंदर काल भैरव की मूर्ति स्थापित है, जिसे सदा वस्त्र से आवेष्टित रखा जाता है। मूर्ति के मूल रूप के दर्शन किसी-किसी को ही होते हैं। गर्भ-गृह से पहले बरामदे के दाहिनी ओर दोनों तरफ कुछ तांत्रिक अपने-अपने आसन पर विराजमान रहते हैं। दर्शनार्थियोंके हाथों में ये उनके रक्षार्थकाले डोरे बांधते हैं और उन्हें विशेष झाडू से आपादमस्तकझाडते हैं। काशी के कालभैरवकी महत्ता इतनी अधिक है कि जो काशी विश्वनाथ के दर्शनोपरान्तकालभैरवके दर्शन नहीं करता उसको भगवान विश्वनाथ के दर्शन का सुफल नहीं मिलता। नई दिल्ली के विनय मार्ग पर नेहरू पार्क में बटुकभैरव का पांडवकालीनमंदिर अत्यंत प्रसिद्ध है। यह सर्वकामनापूरकसर्वआपदानाशकहै। रविवार भैरव का दिन है। इस दिन यहां सामान्य और विशिष्ट जनों की अपार भीड होती है। मंदिर के सामने की लम्बी सडक पर कारों की लम्बी पंक्तियां लग जाती हैं। संध्या से शाम अपितु देर रात तक पुजारी इन दर्शनार्थियोंसे निपटते रहते हैं। ऐसी भीड देश के किसी भैरव मंदिर में नहीं लगती। यह प्राचीन मूर्ति इस तरह ऊर्जावान है कि भक्तों की यहां हर सम्भव इच्छा पूर्ण होती है। इस भीड का कारण यही है। इस मूर्ति की एक विशेषता है कि यह एक कुएं के ऊपर स्थापित है। न जाने कब से, एक क्षिद्रके माध्यम से पूजा-पाठ एवं भैरव स्नान का सारा जल कुएं में जाता रहा है पर कुंआ अभी तक नहीं भरा। पुराणों के अनुसार भैरव की मिट्टी की मूर्ति बनाकर भी किसी कुएं के पास उसकी पूजा की जाय तो वह बहुत फलदायीहोती है। यही कारण है कि कुएं पर स्थापित यह भैरव उतने ऊर्जावान हैं। इन्हें भीमसेन द्वारा स्थापित बताया जाता है। नीलम की आंखों वाली यह मूर्ति जिसके पा‌र्श्व में त्रिशूल और सिर के ऊपर सत्र सुशोभित है, उतनी भारी है कि साधारण व्यक्ति उसे उठा भी नहीं सकता। पांडव-किला की रक्षा के लिए भीमसेन इस मूर्ति को काशी से ला रहे थे। भैरव ने शर्त लगा दी कि जहां जमीन पर रखे कि मैं वहां से उठूंगा ही नहीं एवं वहीं मेरा मंदिर बना कर मेरी स्थापना करनी होगी। इस स्थान पर आते-आते भीमसेन ने थक कर मूर्ति जमीन पर रख दी और फिर वह लाख प्रयासों के बावजूद उठी ही नहीं। अत:बटुकभैरव को यहीं स्थापित करना पडा। पांडव-किला (नई दिल्ली) के भैरव भी बहुत प्रसिद्ध हैं। यहां भी खूब भीड लगती है। माना जाता है कि भैरव जब नेहरू पार्क में ही रह गए तो पांडवों की चिंता देख उन्होंने अपनी दो जटाएं दे दी। उन्हीं के ऊपर पांडव किला की भैरव मूर्ति स्थापित हुई जो आज तक वहां पूजित है।
नैनीताल के समीप घोडा खाड का बटुकभैरव मंदिर भी अत्यंत प्रसिद्ध है। यहां गोलू देवता के नाम से भैरव की प्रसिद्धि है। पहाडी पर स्थित एक विस्तृत प्रांगण में एक मंदिर में स्थापित इस सफेद गोल मूर्ति की पूजा के लिए नित्य अनेक भक्त आते हैं। यहां महाकाली का भी मंदिर है। भक्तों की मनोकामनाओंके साक्षी, मंदिर की लम्बी सीढियों एवं मंदिर प्रांगण में यत्र-तत्र लटके पीतल के छोटे-बडे घंटे हैं जिनकी गणना कठिन है। मंदिर के नीचे और सीढियों की बगल में पूजा-पाठ की सामग्रियां और घंटों की अनेक दुकानें हैं। बटुकभैरव की ताम्बे की अश्वारोही, छोटी-बडी मूर्तियां भी बिकती हैं जिनकी पूजा भक्त अपने घरों में करते हैं। उज्जैनके प्रसिद्ध भैरव मंदिर की चर्चा आवश्यक है। यह मनोवांक्षापूरक हैं और दूर-दूर से लोग इनके पूजन को आते हैं। उनकी एक विशेषता उल्लेखनीय है। मनोकामना पूर्ति के पश्चात् भक्त इन्हें शराब की बोतल चढाते हैं। पुजारी बोतल खोल कर उनके मुख से लगाता है और बात की बात में भक्त के समीप ही मूर्ति बोतल को खाली कर देती है। यह चमत्कार है। हरिद्वार में भगवती मायादेवी के निकट आनंद भैरव का प्रसिद्ध मंदिर है।

Tuesday, April 21, 2009

भगवान वेंकटेश्वर

तिरुपतिमंदिर में भगवान वेंकटेश्वरके चरणों में भक्तगण हीरे की थैली भी भेंट करते हैं। यहां सभी धर्मो के लोग बडी संख्या में पहुंचते हैं। ऐसी मान्यता है कि यहां आप भगवान से जो कुछ मांगते हैं, वह मिल जाता है। सात पहाडों वाला मंदिर सात पहाडों से मिलकर बना है तिरुमाला पहाड और इस पर स्थित है तिरुपतिमंदिर। सातों पहाड को शेषाचलमया वेंकटाचलमभी कहते हैं। तिरुमाला पहाड की चट्टानें पूरे विश्व में दूसरी सबसे पुरानी चट्टानें हैं। तिरुपतिमंदिर में निवास करते हैं भगवान वेंकटेश्वर।
भगवान वेंकटेश्वरको विष्णु का अवतार भी माना जाता है। यह मंदिर समुद्र से 28सौ फीट की ऊंचाई पर स्थित है। तिरुपतिएक महत्वपूर्ण तीर्थस्थान है, जहां भक्त अपने भगवान की एक झलक पाने के लिए घंटों लाइन में खडे रहते हैं। यह मंदिर तिरुपतिबालाजीमंदिर भी कहलाता है। अद्भुत वास्तुकला यह मंदिर आंध्रप्रदेश के चित्तूरजिले में स्थित है। इसे तमिल राजा थोंडेईमानने बनाया था। बाद के समय में चोल और तेलुगू राजाओं ने इसे और विकसित किया। यही वजह है कि इस पर द्रविडियन[तमिल] कला की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है।
वास्तव में, मंदिर की वास्तुकला अद्भुत है। विजयनगरके राजा कृष्णदेवराय ने इस मंदिर में सोना, हीरे-जवाहरात आदि का दान दिया था। उसी समय से भक्तगण इस मंदिर को खूब दान देते आ रहे हैं। इस मंदिर का गोपुरम आकर्षण का मुख्य केंद्र है। मंदिर के गर्भगृह के ऊपर स्थित है आनंद निलयम,जो पूरी तरह सोने के प्लेटों से बना है। मंदिर को तीन भागों में बांटा जा सकता है। बाहरी प्रांगण को ध्वजास्तंभकहते हैं। मंदिर स्थल पर विजयनगरके राजा कृष्णदेवराय और उनकी पत्नी की मूर्ति भी स्थापित है। इसके अलावा, अकबर के एक मंत्री टोडरमलकी मूर्ति भी लगी हुई है। मुख्य मंदिर में भगवान की मूर्ति रखी हुई है, जिसमें भगवान विष्णु और शिव दोनों का रूप समाया हुआ है। kkkतिरुपतिमंदिर में प्रतिदिन भगवान वेंकटेश्वरकी पूजा होती है। दिन की शुरुआतसुबह तीन बजे सुप्रभातम, यानी भगवान को जगाने से होती है। सबसे अंत में एकांत सेवा, यानी भगवान को सुलाया जाता है। यह सेवा रात के एक बजे तक संपन्न होती है।
भगवान की प्रार्थना-स्तुति प्रतिदिन, साप्ताहिक और पक्षीय रूपों में आयोजित की जाती है, जिसे सेवा और उत्सव कहते हैं। देवता को दिया जाने वाला चढावा या दान हुंडी कहलाती है। हर वर्ष सितंबर महीने में यहां ब्रह्मोत्सवमनाया जाता है।

Monday, April 20, 2009

ईश्वर में विश्वास को पिछड़ापन कहते हैं वे



विनय बिहारी सिंह


ईश्वर को मानना या न मानना व्यक्तिगत मामला है। जो मानता है उसका भी और जो नहीं मानता उसका भी आदर करना चाहिए। लेकिन कुछ लोग ज्यादा प्रगतिशील बनने के चक्कर में ईश्वर में विश्वास करने वालों की खिल्ली उड़ाते हैं। या उन्हें कमतर बताते हैं। उनका कहना है कि ईश्वर- फीश्वर कुछ नहीं होता। अपना कर्म करते रहो, उसका फल अवश्य मिलेगा। यह कह कर वे खुद को इस ब्रह्मांड का जानकार मानते हैं और ईश्वर में भरोसा रखने वालों को लगभग मूर्ख की संग्या देते हैं। दुनिया भर में ईश्वर को मानने वाले लोग हैं औऱ उनकी अपनी आस्थाएं हैं। लेकिन वे लोग ईश्वर को गाली देने वालों के बारे में कुछ नहीं कहते। वे चुपचाप अपनी दिनचर्या में मस्त रहते हैं। यह पूरा ब्रह्मांड ही ईश्वर का प्रमाण है। खुद मनुष्य और सारा जीव- जगत और निर्जीव जगत ईश्वर के होने का प्रमाण है। और ईश्वर में गहरी आस्था रखने वाले का मजाक क्यों उड़ाया जाना चाहिए? पूजा- पाठ करने वाले को हीन दृष्टि से क्यों देखा जाना चाहिए? यह तो विचित्र मनःस्थिति का परिचायक है। कोई व्यक्ति क्या खुद ही पैदा हो गया? और क्या खुद ही उसने अपने माता- पिता को चुना? क्या जन्म लेने का समय उसने खुद चुना? अगर नहीं तो फिर ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल क्यों? अगर जन्म औऱ मरण का दिन तय है तो यह किसी व्यक्ति ने तो नहीं तय किया है? निश्चय ही किसी बड़ी शक्ति ने तय किया है औऱ उसी का नाम ईश्वर, परमात्मा या भगवान है। जन्म के पहले हम कहां थे? और मरने के बाद कहां चले जाते हैं? है किसी के पास इसका जवाब?

महाकाली



जब सम्पूर्ण जगत् जलमग्न था और भगवान् विष्णु शेषनाग की शय्या बिछाकर योगनिद्रा का आश्रय ले सो रहे थे, उस समय उनके कानों के मैल से मधु और कैटभ दो भयंकर असुर उत्पन्न हुए। वे दोनों ब्रह्माजी का वध करने को तैयार हो गये। भगवान् विष्णु के नाभिकमल में विराजमान प्रजापति ब्रह्माजी ने जब उन दोनों भयानक असुरों को अपने पास आया और भगवान् को सोया हुआ देखा, तब एकाग्रचित्त होकर उन्होंने भगवान् विष्णु को जगाने के लिये उनके नेत्रों में निवास करनेवाली योगनिद्रा का स्तवन आरम्भ किया। जो इस विश्व की अधीश्वरी, जगत् को धारण करनेवाली, संसार का पालन और संहार करने वाली तथा तेज:स्वरूप भगवान् विष्णु की अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रादेवी की भगवान् ब्रह्मा स्तुति करने लगे।
ब्रह्माजी ने कहा- देवि! तुम्हीं इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेवाली हो। तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो। देवि! तुम्हीं संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो। तुम्हीं इस विश्व-ब्रह्माण्ड को धारण करती हो। तुमसे ही इस जगत् की सृष्टि होती है। तुम्हीं से इसका पालन होता है और सदा तुम्हीं कल्प के अन्त में सबको अपना ग्रास बना लेती हो। जगन्मयी देवि! इस जगत् की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालन-काल में स्थितिरूपा हो तथा कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करनेवाली हो। तुम्हीं महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहरूपा, महादेवी और महासुरी हो। तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करनेवाली सबकी प्रकृति हो। भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो। तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ह्री और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो। लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो। तुम खड्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शङ्ख और धनुष धारण करनेवाली हो। बाण, भुशुण्डी और परिघ- ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं। तुम सौम्य और सौम्यतर हो-इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्यधिक सुन्दरी हो। पर और अपर-सबके परे रहनेवाली परमेश्वरी तुम्हीं हो। सर्वस्वरूपे देवि! कहीं भी सत्-असत्रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हीं हो। ऐसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? जो इस जगत् की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन भगवान् को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ हो सकता है? मुझको, भगवान् शङ्कर को तथा भगवान् विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है; अत: तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है? देवि! ये जो दोनों दुर्धर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इनको मोह में डाल दो और जगदीश्वर भगवान् विष्णु को शीघ्र ही जगा दो। साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान् असुरों को मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो।
इस प्रकार स्तुति करने पर तमोगुण की अधिष्ठात्री देवी योगनिद्रा भगवान् के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हृदय और वक्ष:स्थल से निकलकर ब्रह्माजी के समक्ष उपस्थित हो गयीं। योगनिद्रा से मुक्त होने पर भगवान् जनार्दन उस एकार्णव के जल में शेषनाग की शय्या से जाग उठे। उन्होंने दोनों पराक्रमी असुरों को देखा जो लाल आँखें किये ब्रह्माजी को खा जाने का उद्योग कर रहे थे। तब भगवान् श्रीहरि ने दोनों के साथ पाँच हजार वर्षो तक केवल बाहुयुद्ध किया। इसके बाद महामाया ने जब दोनों असुरों को मोह में डाल दिया तो वे बलोन्मत्त होकर भगवान् से ही वर माँगने को कहा। भगवान् ने कहा कि यदि मुझ पर प्रसन्न हो तो मेरे हाथों मारे जाओ। असुरों ने कहा जहाँ पृथ्वी जल में डूबी न हो, वहीं हमारा वध करो। तब भगवान् ने तथास्तु कहकर दोनों के मस्तकों को अपनी जाँघ पर रख लिया तथा चक्र से काट डाला। इस प्रकार देवी महामाया (महाकाली) ब्रह्माजी की स्तुति करने पर प्रकट हुई। कमलजन्मा ब्रह्माजी द्वारा स्तवित महाकाली अपने दस हाथों में खड्ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ, शूल, भुशुण्डि, मस्तक और शङ्ख धारण करती हैं। त्रिनेत्रा भगवती के समस्त अङ्ग दिव्य आभूषणों से विभूषित हैं।

Saturday, April 18, 2009

नारद मुनि



विनय बिहारी सिंह


नारद मुनि को हमारी भारतीय फिल्मों और टेलीविजन सीरियलों में बहुत ही हास्यास्पद ढंग से दिखाया जाता है। सच्चाई यह है कि वे एक सिद्ध महात्मा हैं और उन्हें ब्रह्मा का मानस पुत्र कहा गया है। नारद मुनि इच्छाधारी मुनि भी कहे जाते हैं- यानी वे जब चाहे किसी भी लोक में जा सकते हैं। किसी भी देवता से मिल सकते हैं। शिव से पार्वती के विवाह के पहले हिमालय से उन्होंने प्रणय बंधन संबंधी भविष्यवाणियां कर दी थीं। वे ब्रह्मा के मानस पुत्र यानी परम विद्वान हैं। स्वयं ब्रह्मा विष्णु की नाभि से निकले कमल से पैदा हुए हैं। जब ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई तो उन्हें एक अत्यंत विद्वान और सिद्ध मानस पुत्र की जरूरत महसूस हुई। तब उन्होंने इसके लिए नारद को ही चुना क्योंकि नारद जी मंत्रों को इस तरह उच्चारित करते थे कि लगता था वे स्वयं ही मंत्र हैं। नारदमुनि के हाथ में हमेशा वीणा रहती है। इसका अर्थ यह है कि वे संगीत विशारद भी हैं। यानी किस राग और सुर को कब प्रयोग में लाना है, उन्हें अच्छी तरह मालूम है। नारदमुनि लोकहित के लिए पृथ्वी पर भ्रमण करते रहते हैं। जिसकी कोई मदद करने वाला नहीं है, उसे सहारा देते हैं। एक बार दो संत १२ साल से तपस्या कर रहे थे। नारद जी को देखते ही उन संतों ने कहा- महाराज आप भगवान से पूछ कर आइएगा कि वे मुझे कब दर्शन देंगे। नारद जी ने कहा- ठीक है। एक वर्ष बाद जब नारदजी फिर उन संतों के पास से गुजर रहे थे तो उन्होंने नारदजी को घेर लिया और पूछा- भगवान ने क्या कहा? नारद जी ने कहा- भगवान सुई की नोंक से लाखों हाथियों को गुजार रहे हैं। जब यह काम वे खत्म कर लेंगे तो तुम लोगों के पास आएंगे। पहले संत ने कहा- तब तो इस जन्म में उनसे भेंट नहीं होगी। लेकिन दूसरा संत आनंद से नाचने लगा। उसने कहा- भगवान आएंगे, यह आश्वासन ही क्या कम है। जो करोड़ो ब्रह्मांडों को क्षण भर में सुई के छेद से पार करा सकते हैं वे लाखों हाथियों को पार कराने में कितना समय लेंगे। वे तो बस आ ही रहे होंगे। वह आनंद से झूम रहा था। भगवान की प्रशंसा में गीत गा रहा था। पहला संत बोला- यह सच नही है। मैं जा रहा हूं। अब संसार में भोग करूंगा। लेकिन दूसरा संत बोला- जाओ। जब तुम्हें ईश्वर का ही ग्यान नहीं है तो तुम्हारा मन डोलेगा ही। लेकिन मैं तो यहीं रहूंगा। यह कह कर दूसरा संत नाचने लगा और खुशियां मनाने लगा। नारद जी भी उसके साथ नाचने लगे। तभी भगवान वहां प्रकट हुए। और वे भी उस संत का हाथ पकड़ कर उसके साथ नृत्य करने लगे।

Saturday, April 11, 2009

दिव्य योगी आनंदमयी मां



विनय बिहारी सिंह


आनंदमयी मां कहती थीं कि सांस के साथ ईश्वर का नाम जपते रहो। सांस अंदर आए तो भी और बाहर जाए तो भी। उनके कुछ अनुयायी सांस के आने- जाने के साथ राम- राम का जाप करते थे और बताते थे कि इससे बहुत लाभ हो रहा है। सन १८९६ में पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) में जन्मी आनंदमयी मां बचपन से ही ईश्वर के प्रति आकर्षित थीं। उनके पिता विपिन बिहारी भट्टाचार्य भोर में ही उठ जाते थे और वैष्णीव गीत गाते हुए गांव में निकल पड़ते थे। वे गीत गाते हुए इतने मस्त हो जाते थे कि उन्हें खाने- पीने का होश भी नहीं रहता था। उनकी पत्नी यानी आनंदमयी मां की माता मोक्षदा सुंदरी देवी अपने पति को ढूंढ़ कर लाती थीं और उन्हें खाना खिलाती थीं। एक बार जोर की आंधी में उनके घर की टीन की छत उड़ गई लेकिन विपिन बिहारी भट्टाचार्य बारिश में भींगते हुए ही भजन गाते रहे। उन्हें घर के छत की परवाह नहीं थी। बाद में गांव के लोगों ने मिलजुल कर घर की छत को और मजबूत बनवा दिया। ऐसे माता- पिता के घर में मां आनंदमयी ने जब होश संभाला तो उन्होंने पाया कि वे ईश्वर के अलावा और किसी से प्रेम कर ही नहीं सकतीं। मुश्किल से वे १३ साल की हुई होंगी कि उनकी शादी रमणी मोहन चक्रवर्ती उर्फ भोलानाथ से कर दी गई। भोलानाथ के मन में जब भी काम भाव उठते थे, आनंदमयी मां बेहोश हो कर गिर पड़ती थीं। जब भोलानाथ उनके बेहोश शरीर को छूते थे तो उन्हें बिजली का करेंट जैसा लगता था। वे डर जाते थे। वे आनंदमयी मां को डाक्टर से दिखाने ले गए। डाक्टर ने कहा- आपकी पत्नी को कोई रोग नहीं है। वे तो दूसरों के रोग ठीक कर सकती हैं। आनंदमयी मां को कुछ मौकों पर देवताओं की मूर्तियों से जीवंत देवता निकलते दिखे थे। जब उनके पति भोलानाथ को मालूम हुआ कि उनकी पत्नी विलक्षण साध्वी हैं तो उन्होंने अपनी पत्नी से दीक्षा ली। उनके पति उनके शिष्य बने। आनंदमयी मां का कहना था कि उनके शरीर में भले परिवर्तन हुआ (बचपन, युवा अवस्था, प्रोढ़ अवस्था) , लेकिन भीतर से वे हमेशा एक जैसा ही रहीं। उनका कहना था- जन्म के पहले जो मैं थी, वही जन्म के बाद भी हूं और हमेशा वही रहूंगी। मनुष्य का जन्म सिर्फ ईश्वर को पाने के लिए हुआ है। अगर वह इसे गप हांकने या समय बरबाद करने में खर्च करता है तो उसका भला कैसे हो सकता है? आनंदमयी मां के पास जो भी जिग्यासु जाता था, उसे ईश्वर प्राप्ति के साधन मिल जाते थे। वे कहती थीं- चमत्कारों के चक्कर में मत पड़ो। जो लोग चमत्कार दिखाते हैं, जरूरी नहीं कि ईश्वर उनसे प्रसन्न हों। लेकिन आनंदमयी मां ने न जाने कितने रोगियों, पीड़ितों को स्वस्थ किया। यह भी तो एक तरह का चमत्कार ही था। हालांकि मां इसे जन सेवा कहती थीं। लेकिन उनकी पद्धति कि- सांस के साथ राम या भगवान का नाम लेना चाहिए, लोग आज भी याद करते हैं।

Thursday, April 9, 2009

संत मलूक दास

विनय बिहारी सिंह

सभी जाति और धर्मों के लोगों को समान रूप से आकर्षित करने वाले संत मलूक दास का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद के पास हुआ था। जन्म- १५७४ और देहांत १६८२ में। बादशाह औरंगजेब ने उन्हें सम्मान स्वरूप दो गांवों की जागीर सौंप दी थी। मलूक दास ने भक्ति धारा में उन्हीं तत्वों को आगे बढ़ाया जिन्हें मीराबाई, चैतन्य महाप्रभु और संत कबीर ने पुष्ट किया था। एक बार औरंगजेब के दरबार का एक मुसलिम अधिकारी उनसे दीक्षा लेने की कामना से आया। मलूक दास ने उसकी जांच की कि क्या वह सचमुच ईश्वर के लिए व्याकुल है। जब परीक्षा में वह पास हो गया तो उसे उन्होंने सम्मान के साथ दीक्षा दे दी। दीक्षा के बाद उसका नाम रखा- मीर माधव। यानी मुसलिम नाम- मीर औऱ हिंदू नाम माधव। मीर माधव की समाधि संत मलूक दास के पास ही है। मलूक दास के बारे में कहा जाता है कि वे चमत्कार दिखाने में विश्वास नहीं करते थे। लेकिन एक बार वे बरसात के दिनों में नाव से यात्रा कर रहे थे। उनकी नाव जब बीच नदी में पहुंची तो जोर का तूफान आया और स्थिति यह हो गई कि नाव अब डूबी कि तब डूबी। मलूक दास के साथ उनके कई शिष्य और भक्त थे। अचानक सबने देखा कि नाव तुरंत किनारे आ लगी। यह चकित करने वाली घटना थी। बीच नदी में भयानक ढंग से हिचकोले खा रही नाव सेकेंड भर में किनारे कैसे आ लगी? लेकिन मलूक दास नाव से उतर कर हंसते हुए बोले- भगवान की कृपा से हम लोग बच गए। वरना डूब ही जाते। तब एक भक्त ने कहा- आप कैसे डूब सकते हैं महात्मन? तो संत मलूक दास ने कहा- हम तो पहले से ही ईश्वर में डूबे हुए हैं। अब और क्या डूबेंगे।

Wednesday, April 8, 2009

रामकृष्ण परमहंस के गुरु तोतापुरी जी



विनय बिहारी सिंह


तोतापुरी जी रामकृष्ण परमहंस के वेदांत के गुरु थे। उनकी तंत्र की गुरु थीं साध्वी ब्राह्मणी। तोतापुरी जी को न्यांगटा भी कहा जाता था। न्यांगटा यानी नंगा। इसकी वजह यह थी कि वे कोई वस्त्र नहीं पहनते थे। वे तीन दिन से ज्यादा किसी जगह पर टिकते नहीं थे। ऐसा वैरागी संत रामकृष्ण परमहंस जैसा दिव्य शिष्य पाकर कोलकाता के पास दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में कैसे एक साल तक रह गया आज भी लोग आश्चर्य करते हैं।तोतापुरी जी के बारे में एक रोचक कथा कही जाती है। एक बार आधी रात के करीब दक्षिणेश्वर में तोतापुरी जी एक वट वृक्ष के नीचे ध्यान कर रहे थे। अचानक एक दिव्य देहधारी संत पेड़ से धप्प से नीचे उतरे। उन्होंने तोतापुरी जी से पूछा- जानते हो मैं कौन हूं? तोतापुरी जी ने कहा- नहीं। दिव्य संत ने कहा- मैं इसी पेड़ पर रहता हूं और मंदिर क्षेत्र की रखवाली करता हूं। तोतापुरी जी ने कहा- तुम भी वही हो जो मैं हूं। आओ बैठ कर ध्यान करें। तोतापुरी जी की बात सुन कर वे दिव्य संत समझ गए कि इस वैरागी संत का ईश्वर से संपर्क है। जब यह घटना रामकृष्ण परमहंस से बताई गई तो उन्होंने कहा- हां, वे उसी पेड़ पर रहते हैं। एक बार जब कंपनी (ईस्ट इंडिया कंपनी) ने मंदिर की जमीन ले लेनी चाही थी। तब उसका विरोध हुआ। उस समय भी ये दिव्य संत प्रकट हुए और मुझसे (रामकृष्ण परमहंस से) कहा कि जमीन कंपनी नहीं ले पाएगी। यहां मंदिर ही रहेगा। तोतापुरी जी का जन्म पंजाब में हुआ था। उनका जन्म १७८० में हुआ था और देहांत १८६६ में। उनका एक आश्रम पुरी में भी है जहां उन्होंने कुछ शिष्यों को दीक्षा दी थी। तोतापुरी जी का कहना था कि ईश्वर ही सच है। उसकी शरण में जो भी आ गया, उसे अब किसी चीज की चिंता करने की जरूरत नहीं है। मन में जरा सा भी अहंकार रहने पर ईश्वर नहीं मिलते। लगातार प्रार्थना करनी चाहिए। वे हमारी प्रार्थनाएं अवश्य सुनते हैं। इसमें तनिक भी शंका नहीं करनी चाहिए।

Tuesday, April 7, 2009

विदुर नीति क्या है



विनय बिहारी सिंह


विदुर नीति के बारे में बहुत भ्रम है। आमतौर पर यह कूट नीति से जुड़ी मानी जाती है। लेकिन इसमें अध्यात्म की शिक्षा भी है। आइए देखें कि इसमें क्या है। धृतराष्ट्र ने सनत- सुजात जैसे श्रेष्ठ ऋषि से प्रश्न किया- कृपया बताएं कि संसार की इच्छाओं से मुक्ति कैसे मिलेगी। सनत- सुजात ने कहा- ईश्वर जल्दी से नहीं मिलते। जब लगातार प्रयत्न करने के बाद मनुष्य की सारी इंद्रियां वश में हो जाती हैं। और जब आपकी सारी इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं। संसार के किसी भी प्रपंच में फंसने की इच्छा नहीं होती। संसार के संबंध में सोचना तक अच्छा नहीं लगता, उस समय लगने लगता है कि ईश्वर के सिवा सब कुछ व्यर्थ है। तब ईश्वर का अनुभव होने लगता है। सिर्फ ब्रह्मनिष्ठ हो कर ही ईश्वर को जाना- समझा और साक्षात्कार किया जा सकता है। तब धृतराष्ट्र ने पूछा- आपने कहा है कि ईश्वर मेरे भीतर ही है और इसके लिए अलग से प्रयास करने की जरूरत नहीं है। सिर्फ महसूस कीजिए कि आप ईश्वर में हैं। इस पर सनत- सुजात ने कहा कि हां, यह सच है कि ईश्वर मनुष्य के भीतर ही है, वह बाहर की दुनिया में नहीं है, लेकिन इसके लिए मन शुद्ध करना होगा। ईश्वर हमारे भीतर रहने के बावजूद खुद को तब तक प्रकट नहीं करते जब तक आप उनके प्रति पूर्ण समर्पित न हो। पूर्ण शरणागति जरूरी है। तब धृतराष्ट्र ने पूछा- ब्रह्मचारी का स्वभाव कैसा होना चाहिए? सनत- सुजान ने कहा किसच्चा ब्रह्मचारी वह है जो अपने गुरु के साथ रहता है और हमेशा ईश्वर का चिंतन करता रहता है। वह ब्रह्म जैसा ही हो जाता है। वह जान लेता है कि वह न शरीर है, न मन, बुद्धि और न अहं। मैं शुद्ध आत्मा हूं और ईश्वर का अंश हूं। शरीर, मन, बुद्धि और अहं की सीमाएं सीमित हैं। मैं सीमाहीन हूं। ब्रह्मचारी का चिंतन यही होता है। इस तरह ब्रह्म से उसका साक्षात्कार होता है। वह ब्रह्मचारी किसी के प्रति हिंसक विचार भी मन में नहीं लाता। वह सबको ईश्वर का अंश ही देखता है। वह क्रोध, भय, घृणा, लज्जा, लोभ, घमंड, वासना और मोह से मुक्त होता है। वेद- पुराणों के प्रति गहरी आस्था होनी जरूरी है। वह गुरु की कही हुई बातों का अक्षरशः पालन करता है। वह मानता है कि भगवान ही गुरु के रूप में अवतरित हुए हैं। वह मन, वचन और कर्म से हमेशा शुद्ध रहता है। तब उसे ईश्वर की प्राप्ति होती है।

Monday, April 6, 2009

योग वशिष्ठ क्या है



विनय बिहारी सिंह


योग वशिष्ठ को अद्वैतवाद का प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। यह वेदांत की ही व्याख्या है। भगवान राम जब पूरे देश में घूम कर लौट रहे थे तो लोगों की विभिन्न परिस्थितियां देख कर उनके भीतर तीव्र वैराग्य पैदा हो गया। उनके पिता राजा दशरथ इसे देख कर चिंतित हो गए। उन्होंने भगवान राम के गुरु वशिष्ठ मुनि से यह बात कही और आग्रह किया कि वे ही राम को समझाएं। गुरु वशिष्ठ अयोध्या राजा दशरथ के दरबार में आए और भगवान राम को बुला कर कहा कि वे अपने मन की बात उनसे खुल कर कहें। भगवान राम तो तीव्र वैराग्य से भरे हुए थे। वे तैयार हो गए। उन्होंने अपने गुरु से अत्यंत महत्वपूर्ण सवाल पूछे। उसका जो उत्तर गुरु वशिष्ठ ने दिया उसे ही योग वशिष्ठ के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि यह पुस्तक पढ़ कर अगर ध्यान से पढ़ा जाए और उस पर अमल किया जाए तो मनुष्य को मुक्ति मिल जाती है। उसे बार- बार संसार में आना- जाना नहीं पड़ता। कुछ विद्वानों का कहना है कि यह उपनिषदों, विग्यानवाद और कश्मीर के शैव तंत्र का समुच्चय है। योग वशिष्ठ को छह भागों में बांटा गया है। १- वैराग्य २- भक्त की योग्यता ३- सृष्टि ४- अस्तित्व ५- विसर्जन ६- मुक्ति। योग वशिष्ठ का मुख्य तत्व है कि अगर हम लगातार खुद से यह पूछें- मैं कौन हूं। तो खोज करते करते मनुष्य ईश्वर तक पहुंच सकता है। मैं क्या हूं? क्या मैं शरीर हूं? नहीं मैं शरीर नहीं, यह शरीर मेरा है। तो क्या मैं मन हूं? यह मन मेरा है। मैं मन नहीं हूं। तो क्या मैं बुद्धि हूं? नहीं यह बुद्धि मेरी है, मैं बुद्धि कैसे हो सकता हूं। तो क्या मैं अहंकार हूं? नहीं मैं अहंकार नहीं हूं। यह अहंकार मेरा है। ये सब जड़ चीजें हैं। इनके परे है ईश्वर। यही असली ग्यान है।यानी नेति नेति करते करते असली तत्व तक पहुंचने का रास्ता है योग वशिष्ठ।

Saturday, April 4, 2009

अष्टपाश क्या हैं

विनय बिहारी सिंह

अब अष्टपाशों की बात करते हैं। अष्टपाश क्या हैं- जो मनुष्य को बांधे रहते हैं। मुक्त नहीं होने देते? ये हैं- घृणा, भय, लज्जा, शंका, आसक्ति, वंश, जाति और शुचिता। संतों ने कहा है कि अगर आप इनमें से किसी से बंधे हुए हैं तो आप बेचैन रहेंगे। तो ऐसा कौन व्यक्ति होगा जो इन अष्टपाशों से मुक्त हो? पारिवारिक लोगों में तो कोई नहीं। हर आदमी को किसी न किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थान से आसक्ति है। उसके मन में किसी न किसी चीज के प्रति शंका है, किसी न किसी चीज या व्यक्ति से घृणा है, किसी चीज से भय है, कुछ लोगों के मन में लज्जा भी है। ज्यादातर लोग अपने वंश और जाति के प्रति आसक्त हैं। इन पाशों से धीरे- धीरे ही मुक्त हुआ जा सकता है। अवधूत बाबा कीनाराम ने अष्टपाशों से मुक्त होने के लिए कहा था-करता रहे सब कामफिर भी न करता काम हैआकाश सम निर्लेप हैअवधूत उसका नाम है।अवधूत स्थित क्या है? सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने लिखा है- का अर्थ है अमर का अर्थ है परम पवित्रता। धू का अर्थ है सभी सांसारिक बंधनों से मुक्ति। का अर्थ है- तत्वमसि यानी है ईश्वर तू ही मैं हूं अर्थात तू और मैं एक ही हैं। अवधूत लोग इसी स्थित में रहते हैं। वे सब कुछ ईश्वरमय देखते हैं। उनको कोई सांसारिक बंधन छू ही नहीं सकता। बांधना तो दूर की बात है। एक अन्य प्रसंग में कहा गया है- जीवः शिवः शिवो जीवः सः जीवः केवल शिवः पाश बद्ध स्मृतो जीवः पाश मुक्त सदाशिवः।।यानी जीव जब पाश यानी बंधनों से मुक्त हो जाता है तो वह शिव बन जाता है। संतो ने कहा है कि मनुष्य को धीरे धीरे ही सही, अष्टपाशों से मुक्त होना चाहिए। वरना ये अष्टपाश बहुत तड़पाते हैं। कष्ट देते हैं। इनसे मुक्ति ही ईश्वर से मिलन की तरफ ले जाता है। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है अष्टपाश कैसे कटेंगे? सिर्फ भगवान का स्मरण, जाप और उनके लिए व्याकुल होने से।

कहीं यह रिसर्च चाकलेट का प्रचार तो नहीं


विनय बिहारी सिंह

लंदन से एक रिपोर्ट आई है। वहां के नार्थम्ब्रिया यूनिवर्सिटी के डेविड केनेडी ने शोध किया है कि चाकलेट खाने वालों का दिमाग तेज होता है। कैसे? चाकलेट में फ्लैवोनाल्स और पालीफिनाल्स रसायनों के तत्व पाए जाते हैं। इन रसायनों से दिमाग में खून का बहाव बढ़ जाता है और व्यक्ति की दिमागी क्षमता बढ़ जाती है। इसे ३० वालंटियरों पर आजमाया भी गया है। जो लोग अपना मनपसंद चाकलेट खा चुके थे वे चाकलेट न खाने वालों की तुलना में जल्दी से गणित के सवाल हल कर देते थे। तो कहा गया है कि अगर आप सुस्त महसूस कर रहे हैं तो या आपका बच्चा सुस्त है तो उसे चाकलेट खिलाएं। उसका दिमाग तेज हो जाएगा। कहीं यह रिसर्च चाकलेट का प्रचार तो नहीं है? यह रिसर्च हमारे यहां भी लगभग सभी अखबारों में आ चुका है। भारत में कितने प्रतिशत लोग या बच्चे बड़ी कंपनियों के चाकलेट खाते हैं? जिस देश में आजादी के ६० साल बाद भी शुद्ध पीने का पानी न हो, जहां के लोग सामान्य आवश्यक आवश्यकताओं के लिए भी एंड़िया घिस रहे हों, वहां चाकलेट की जै जै क्या शर्मनाक नहीं है।
इसके अलावा एक और खबर है। दिल्ली में एक शराब की बोतल लांच की गई है। मैं इसे फिर लिख रहा हूं- इसकी कीमत २० लाख रुपए। एक बोतल शराब की कीमत २० लाख रुपए। इधर कोलकाता में एक खास किस्म का मशरूम १९००० रुपए किलो बिक रहा है। आर्थिक मंदी के दौर में इतना महंगा सामान लांच हो रहा है। इसे आप क्या कहेंगे?

Friday, April 3, 2009

ईश्वर की इंजीनियरिंग और हमारी इंजीनियरिंग में फर्क



विनय बिहारी सिंह


आज विग्यान का एक विषय। क्या कंप्यूटर मनुष्य के दिमाग का विकल्प बन सकता है? हमारे दिमाग की वायरिंग कंप्यूटर से ज्यादा सघन और बारीक होती है। मनुष्य के दिमाग के एक क्यूबिक सेंटीमीटर हिस्से में ५० मिलियन न्यूरान होते हैं। कई सौ मील तक फैल सकने वाले एक्सान भी हमारे दिमाग में होते है। एक्सान यानी वह सूक्ष्म तार जिसके जरिए न्यूरान अपना सिग्नल भेजते हैं। इसके अलावा एक ट्रिलियन सिनैप्स होते हैं। ये सिनैप्सेज ही दो न्यूरांनों को एक दूसरे से जोड़ते हैं। इसीलिए कई लोगों की याददाश्त बहुत जबर्दस्त होती है। दुनिया भर के वैग्यानिक इस कोशिश में लगे हुए हैं कि २०३० तक एक ऐसा कंप्यूटर बना लिया जाए जो मनुष्य के दिमाग की तरह काम करने लगे। लेकिन मुश्किल यह है कि कंप्यूटर कहां से भावनाएं लाएगा? मन यानी माइंड की चार अवस्थाएं होती हैं- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। अगर आपके मन में नकारात्मक सोच बार- बार उभर रहा है तो इसका सीधा असर आपके भविष्य और पूरे शरीर पर पड़ रहा होता है। लेकिन ठीक इसके उलट अगर आपके मन में सकारात्मक विचार उठ रहे हैं तो अच्छे विचार उठ रहे हैं तो यह आपके लिए अति शुभ है। इसीलिए ऋषि मुनियों ने कहा है- अपने बारे में तो अच्छा सोचना ही चाहिए, दूसरों के बारे में भी अच्छा सोचना चाहिए। कंप्यूटर के साथ ऐसी कोई सुविधा नहीं है। यह है ईश्वर की इंजीनियरिंग। एक मनुष्य अपने बेटे या बेटी से जिस गहरे प्यार से बोलता है उन्हें स्पर्श करता है, उन्हें मानसिक संरक्षण देता है, क्या कंप्यूटर वह काम कर पाएगा? हां, आदमी के क्लोन बन सकते हैं। लेकिन यह साबित हो गया है कि क्लोन का दिमाग भी मूल व्यक्ति की तरह नहीं हो सकता। इस तरह किसी दिमाग का मूल्यांकन आप इससे नहीं लगा सकते कि वह कोई सूचना किस तरह प्रासेस करता है। बल्कि आप इससे उसकी क्षमता का अंदाजा लगा सकते हैं कि वह समस्याओं का हल किस तरह निकाल रहा है। इसलिए हमारी इंजीनियरिंग औऱ ईश्वर की इंजीनियरिंग में फर्क है। मनुष्य के दिमाग की एक सीमा है लेकिन भगवान के दिमाग की कोई सीमा नहीं है, उनका दिमाग अनंत है. जिसने (भगवान ने) हमारा दिमाग बनाया है उसी ने इस पूरे ब्रह्मांड को बनाया है। उसी के बनाए दिमाग ने कंप्यूटर बनाया है। फिर यह कैसे संभव है कि कंप्यूटर मनुष्य के दिमाग का विकल्प हो जाए? अब आइए हार्ड वेयर की बात करें। कंप्यूटर का मदर बोर्ड खराब हो जाता है तो सब कुछ ठप। जितनी जल्दी कंप्यूटर खराब होता है, मनुष्य का दिमाग खराब नहीं होता (इस पर बहस हो सकती हीऔर आप असहमत हो सकते hain), अगर मनुष्य बहुत नशा न करता हो या बहुत अल्लम- गल्लम न सोचता हो। कंप्यूटर में अचानक कोई भी वायरस कभी भी घुस सकता है। लेकिन आपके दिमाग को इतनी जल्दी वायरस नहीं दबोचता। आप अपने दिमाग को ध्यान या मेडिटेशन से स्वस्थ कर सकते हैं, लेकिन कंप्यूटर क्या मेडिटेशन कर सकता है?

Thursday, April 2, 2009

पातंजलि योग सूत्र

विनय बिहारी सिंह

आइए आज पातंजलि योग सूत्र की बात करें। इस ग्रंथ का पहला ही सूत्र है- चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। यानी अगर चित्त निवृत्त हो जाए, उसमें कोई वृत्ति ही न रहे, तो वह योग की स्थिति है। किससे योग? ईश्वर से। मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य है- ईश्वर को प्राप्त करना। पातंजलि ने मन को नियंत्रण में रखने का बहुत ही वैग्यानिक तरीका बताया है। चित्त की वृत्तियों का निरोध यानी मन को इस तरह साध लिया जाए कि उसमें कोई वृत्ति ही न उठे। आमतौर पर मन हमारा कहना नहीं मानता। आप मन से कहेंगे कि शांत रहो, ईश्वर का ध्यान करो। तो वह आपका कहना न मान कर न जाने कहां- कहां फालतू में भटकता है। बेमतलब। तो उसे नियंत्रित करना है। कैसे? आइए देखें- पातंजलि ने योग के आठ अंग बताए हैं। उसे अष्टांग योग कहा जाता है। वे क्या हैं? १- यम २- नियम ३- आसन ४- प्राणायाम ५- प्रत्याहार ६- धारणा ७- ध्यान ८- समाधि। यम क्या है? अहिंसा,- यानी किसी को मन, वाणी या कर्म से कष्ट न देना, खुद को भी नहीं। इसका अर्थ यह भी है कि किसी के नुकसान की बात सोचना भी नहीं चाहिए। दूसरा यम है- सत्य- वाणी और चिंतन से सत्य पर खड़े रहना। तीसरा यम है आस्तेय- लालच और चोरी से दूर रहना। चौथा यम है ब्रह्मचर्य- अविवाहित युवक के लिए ब्रह्मचर्य। विवाहित व्यक्ति के लिए एक पत्नी व्रत। अश्लील विचार मन में न लाना। ब्रह्मचर्य का एक अर्थ है- ब्रह्म यानी ईश्वर का निरंतर चिंतन करना। पांचवां यम है अपरिग्रह- किसी अन्य चीज को पकड़े न रहना। सिर्फ ईश्वर को ही पकडे रहना है। .अब आइए नियम पर। नियम क्या है? पहला है शौच- शरीर और मन शुद्ध रखें। दूसरा है संतोष- जो कुछ भी मिले उसमें संतोष रहे। हाय- हाय न लगा रहे। तीसरा है तपस- यानी शरीर को साध लेना। यह नहीं कि जरा सी सर्दी लगी या गर्मी लगी तो खाट पकड़ लिया। व्यायाम इत्यादि कर शरीर को स्वस्थ रखें। चौथा है स्वाध्याय- वेद- पुराणों का अध्ययन। अगर घर में वेद- पुराण नहीं है तो गीता पढें, रामायण पढ़ें। या अन्य धार्मिक पुस्तकें पढ़ें जिसमें ईश्वर, आत्मा और योग की बातें हों। पांचवा नियम है- ईश्वर प्राणिधान- यानी ईश्वर के प्रति पूर्ण सममर्पण। यानी ईश्वर ही मेरे मालिक हैं। उन्हीं से हमें ताकत मिलती है। वही हमारे जीवन को चलाते हैं। प्राणायाम क्या है? सांस पर नियंत्रण। सांस पर नियंत्रण से क्या होता है? आपका मन शांत होता है। धारणा क्या है? कंसंट्रेशन। यानी मन को किसी एक विचार पर फोकस करना। किस पर फोकस करना? ईश्वर पर। इसके बाद ध्यान- यानी ईश्वर के रूप और गुणों पर ध्यान करना। समाधि- इसमें मन का ईश्वर में लय हो जाता है। पातंजलि योग सूत्र में 195 सूत्र हैं जो चार अध्यायों में विभाजित है। पातंजलि ने इस ग्रंथ में भारत में अनंत काल से प्रचलित तपस्या और ध्यान-क्रियाओं का एक स्थान पर संकलन किया और उसका तर्क सम्मत सैद्धांतिक आधार प्रस्तुत किया। यही संपूर्ण धर्म का सुव्यवस्थित केटेग्राइजेशन है।
राजयोग : पातंजलि की इस अतुल्य नीधि को मूलत: राजयोग कहा जाता है। इस पर अनेक टिकाएँ एवं भाष्य लिखे जा चुके है। इस ‍ग्रंथ का महत्व इसलिए अधिक है क्योंकि इसमें हठयोग सहित योग के सभी अंगों तथा धर्म की समस्त नीति, नियम, रहस्य और ज्ञान की बातों को क्रमबद्ध सिमेट दिया गया है।
इस ग्रंथ के चार अध्याय है- (1) समाधिपाद (2) साधनापाद (3) विभूतिपाद (4) कैवल्यपाद।
(1)समाधिपाद : योगसूत्र के प्रथम अध्याय 'समाधिपाद' में पातंजली ने योग की परिभाषा इस प्रकार दी है- 'योगश्चितवृत्तिर्निरोध'- अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध करना ही योग है। मन में उठने वाली विचारों और भावों की श्रृंखला को चित्तवृत्ति अथवा विचार-शक्ति कहते xहै। अभ्यास द्वारा इस श्रृंखला को रोकना ही योग कहलाता है। इस अध्याय में समाधि के रूप और भेदों, चित्त तथा उसकी वृत्तियों का वर्णन है।
(2)साधनापाद : योगसूत्र के दूसरे अध्याय- 'साधनापाद' में योग के व्यावहारिक पक्ष को रखा है। इसमें अविद्यादि पाँच क्लेशों को सभी दुखों का कारण मानते हुए इसमें दु:ख शमन के विभिन्न उपाय बताए गए है। योग के आठ अंगों और साधना विधि का अनुशासन बताया गया है।
(3)विभूतिपाद : योग सूत्र के अध्याय तीन 'विभूतिपाद' में धारणा, ध्यान और समाधि के संयम और सिद्धियों का वर्णन कर कहा गया है कि साधक को भूलकर भी सिद्धियों के प्रलोभन में नहीं पड़ना चाहिए।
(4) कैवल्यपाद : योगसूत्र के चतुर्थ अध्याय 'कैवल्यपाद' में समाधि के प्रकार और वर्णन को बताया गया है। अध्याय में कैवल्य प्राप्त करने योग्य चित्त का स्वरूप बताया गया है साथ ही कैवल्य अवस्था कैसी होती है इसका भी जिक्र किया गया है। यहीं पर योग सूत्र की समाप्ति होती है।

Wednesday, April 1, 2009

भुजंगासन



इस आसन में शरीर की आकृति फन उठाए हुए भुजंग अर्थात सर्प जैसी बनती है इसीलिए इसको भुजंगासन या सर्पासन कहा जाता है। विधि : उल्टे होकर पेट के बल लेट जाए। ऐड़ी-पंजे मिले हुए रखें। ठोड़ी फर्श पर रखी हुई। कोहनियाँ कमर से सटि हुई और हथेलियाँ उपर की ओर।
अब धीरे-धीरे हाथ को कोहनियों से मोड़ते हुए लाए और हथेलियों को बाजूओं के नीचे रख दें। फिर ठोड़ी को गरदन में दबाते हुए माथा भूमि पर रखे। पुन: नाक को हल्का-सा भूमि पर स्पर्श करते हुए सिर को आकाश की ओर उठाए। जितना सिर और छाती को पीछे ले जा सकते है ले जाए किंतु नाभि भूमि से लगी रहे।20 सेकंड तक यह स्थिति रखें। बाद में श्वास छोड़ते हुए धीरे-धीरे सिर को नीचे लाकर माथा भूमि पर रखें। छाती भी भूमि पर रखें। पुन: ठोड़ी को भूमि पर रखें।सावधानी : इस आसन को करते समय अकस्मात् पीछे की तरफ बहुत अधिक न झुकें। इससे आपकी छाती या पीठ की माँस-‍पेशियों में खिंचाव आ सकता है तथा बाँहों और कंधों की पेशियों में भी बल पड़ सकता है जिससे दर्द पैदा होने की संभावना बढ़ती है। पेट में कोई रोग या पीठ में अत्यधिक दर्द हो तो यह आसन न करें। इसके लाभ : इस आसन से रीढ़ की हड्डी सशक्त होती है। और पीठ में लचीलापन आता है। यह आसन फेफड़ों की शुद्धि के लिए भी बहुत अच्छा है और जिन लोगों का गला खराब रहने की, दमे की, पुरानी खाँसी अथवा फेंफड़ों संबंधी अन्य कोई बीमारी हो, उनको यह आसन करना चाहिए। इस आसन से पित्ताशय की क्रियाशीलता बढ़ती है और पाचन-प्रणाली की कोमल पेशियाँ मजबूत बनती है। इससे पेट की चर्बी घटाने में भी मदद मिलती है और आयु बढ़ने के कारण से पेट के नीचे के हिस्से की पेशियों को ढीला होने से रोकने में सहायता मिलती है। इससे बाजुओं में शक्ति मिलती है। पीठ में स्थित इड़ा और पिंगला नाडि़यों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। विशेषकर, मस्तिष्क से निकलने वाले ज्ञानतंतु बलवान बनते है। पीठ की हड्डियों में रहने वाली तमाम खराबियाँ दूर होती है। कब्ज दूर होता है।