Thursday, April 2, 2009

पातंजलि योग सूत्र

विनय बिहारी सिंह

आइए आज पातंजलि योग सूत्र की बात करें। इस ग्रंथ का पहला ही सूत्र है- चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। यानी अगर चित्त निवृत्त हो जाए, उसमें कोई वृत्ति ही न रहे, तो वह योग की स्थिति है। किससे योग? ईश्वर से। मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य है- ईश्वर को प्राप्त करना। पातंजलि ने मन को नियंत्रण में रखने का बहुत ही वैग्यानिक तरीका बताया है। चित्त की वृत्तियों का निरोध यानी मन को इस तरह साध लिया जाए कि उसमें कोई वृत्ति ही न उठे। आमतौर पर मन हमारा कहना नहीं मानता। आप मन से कहेंगे कि शांत रहो, ईश्वर का ध्यान करो। तो वह आपका कहना न मान कर न जाने कहां- कहां फालतू में भटकता है। बेमतलब। तो उसे नियंत्रित करना है। कैसे? आइए देखें- पातंजलि ने योग के आठ अंग बताए हैं। उसे अष्टांग योग कहा जाता है। वे क्या हैं? १- यम २- नियम ३- आसन ४- प्राणायाम ५- प्रत्याहार ६- धारणा ७- ध्यान ८- समाधि। यम क्या है? अहिंसा,- यानी किसी को मन, वाणी या कर्म से कष्ट न देना, खुद को भी नहीं। इसका अर्थ यह भी है कि किसी के नुकसान की बात सोचना भी नहीं चाहिए। दूसरा यम है- सत्य- वाणी और चिंतन से सत्य पर खड़े रहना। तीसरा यम है आस्तेय- लालच और चोरी से दूर रहना। चौथा यम है ब्रह्मचर्य- अविवाहित युवक के लिए ब्रह्मचर्य। विवाहित व्यक्ति के लिए एक पत्नी व्रत। अश्लील विचार मन में न लाना। ब्रह्मचर्य का एक अर्थ है- ब्रह्म यानी ईश्वर का निरंतर चिंतन करना। पांचवां यम है अपरिग्रह- किसी अन्य चीज को पकड़े न रहना। सिर्फ ईश्वर को ही पकडे रहना है। .अब आइए नियम पर। नियम क्या है? पहला है शौच- शरीर और मन शुद्ध रखें। दूसरा है संतोष- जो कुछ भी मिले उसमें संतोष रहे। हाय- हाय न लगा रहे। तीसरा है तपस- यानी शरीर को साध लेना। यह नहीं कि जरा सी सर्दी लगी या गर्मी लगी तो खाट पकड़ लिया। व्यायाम इत्यादि कर शरीर को स्वस्थ रखें। चौथा है स्वाध्याय- वेद- पुराणों का अध्ययन। अगर घर में वेद- पुराण नहीं है तो गीता पढें, रामायण पढ़ें। या अन्य धार्मिक पुस्तकें पढ़ें जिसमें ईश्वर, आत्मा और योग की बातें हों। पांचवा नियम है- ईश्वर प्राणिधान- यानी ईश्वर के प्रति पूर्ण सममर्पण। यानी ईश्वर ही मेरे मालिक हैं। उन्हीं से हमें ताकत मिलती है। वही हमारे जीवन को चलाते हैं। प्राणायाम क्या है? सांस पर नियंत्रण। सांस पर नियंत्रण से क्या होता है? आपका मन शांत होता है। धारणा क्या है? कंसंट्रेशन। यानी मन को किसी एक विचार पर फोकस करना। किस पर फोकस करना? ईश्वर पर। इसके बाद ध्यान- यानी ईश्वर के रूप और गुणों पर ध्यान करना। समाधि- इसमें मन का ईश्वर में लय हो जाता है। पातंजलि योग सूत्र में 195 सूत्र हैं जो चार अध्यायों में विभाजित है। पातंजलि ने इस ग्रंथ में भारत में अनंत काल से प्रचलित तपस्या और ध्यान-क्रियाओं का एक स्थान पर संकलन किया और उसका तर्क सम्मत सैद्धांतिक आधार प्रस्तुत किया। यही संपूर्ण धर्म का सुव्यवस्थित केटेग्राइजेशन है।
राजयोग : पातंजलि की इस अतुल्य नीधि को मूलत: राजयोग कहा जाता है। इस पर अनेक टिकाएँ एवं भाष्य लिखे जा चुके है। इस ‍ग्रंथ का महत्व इसलिए अधिक है क्योंकि इसमें हठयोग सहित योग के सभी अंगों तथा धर्म की समस्त नीति, नियम, रहस्य और ज्ञान की बातों को क्रमबद्ध सिमेट दिया गया है।
इस ग्रंथ के चार अध्याय है- (1) समाधिपाद (2) साधनापाद (3) विभूतिपाद (4) कैवल्यपाद।
(1)समाधिपाद : योगसूत्र के प्रथम अध्याय 'समाधिपाद' में पातंजली ने योग की परिभाषा इस प्रकार दी है- 'योगश्चितवृत्तिर्निरोध'- अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध करना ही योग है। मन में उठने वाली विचारों और भावों की श्रृंखला को चित्तवृत्ति अथवा विचार-शक्ति कहते xहै। अभ्यास द्वारा इस श्रृंखला को रोकना ही योग कहलाता है। इस अध्याय में समाधि के रूप और भेदों, चित्त तथा उसकी वृत्तियों का वर्णन है।
(2)साधनापाद : योगसूत्र के दूसरे अध्याय- 'साधनापाद' में योग के व्यावहारिक पक्ष को रखा है। इसमें अविद्यादि पाँच क्लेशों को सभी दुखों का कारण मानते हुए इसमें दु:ख शमन के विभिन्न उपाय बताए गए है। योग के आठ अंगों और साधना विधि का अनुशासन बताया गया है।
(3)विभूतिपाद : योग सूत्र के अध्याय तीन 'विभूतिपाद' में धारणा, ध्यान और समाधि के संयम और सिद्धियों का वर्णन कर कहा गया है कि साधक को भूलकर भी सिद्धियों के प्रलोभन में नहीं पड़ना चाहिए।
(4) कैवल्यपाद : योगसूत्र के चतुर्थ अध्याय 'कैवल्यपाद' में समाधि के प्रकार और वर्णन को बताया गया है। अध्याय में कैवल्य प्राप्त करने योग्य चित्त का स्वरूप बताया गया है साथ ही कैवल्य अवस्था कैसी होती है इसका भी जिक्र किया गया है। यहीं पर योग सूत्र की समाप्ति होती है।