Saturday, December 26, 2009

कुछ जंतु और वनस्पतियां लुप्त होंगी

विनय बिहारी सिंह

वैग्यानिकों और पर्यावरणविदों ने माना है कि आने वाले दिनों में धरती का तापमान और ज्यादा बढ़ने से (ग्लोबल वार्मिंग) डार्विन का विकासवाद जैसी स्थिति होगी। यानी जो प्रकृति से लड़ पाएगा, वह जीएगा अन्यथा उसका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। तापमान बढ़ने से कुछ जीव- जंतु तो अपने अनुकूल तापमान वाली जगहों पर चले जाएंगे, लेकिन अत्यंत धीमी गति से चलने वाले प्राणी और कुछ वनस्पतियों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। विशेषग्यों का कहना है कि ऐसा पहले भी हुआ है। आखिर डायनासोर और कुछ अन्य जीव पृथ्वी से प्राकृतिक कारणों से ही तो लुप्त हुए। जो वनस्पतियां नष्ट होंगी, उनमें संभवतः कुछ औषधीय गुण वाले पौधे भी हैं। यानी तापमान पृथ्वी के अमृत तत्व को खाता जा रहा है। यह सिर्फ औऱ सिर्फ मनुष्य की अकूत धन कमाने की हवस के कारण हो रहा है। अभी कोपेनहेगन में गरीब देशों ने आरोप लगाया ही है कि सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन धनाढ्य उद्योग प्रधान देश ही कर रहे हैं। यानी पर्यावरण प्रदूषित हो तो हो, हम धन के पीछे ही भागते रहेंगे। पहाड़ काट कर, जंगल काटकर ,नदियों को गंदा कर, जैसे भी हो धन कमाओ। पर्यावरण की चिंता का समय नहीं है। धन को देखते ही अंधा हो चुका मनुष्य अपने भविष्य पर विचार नहीं कर रहा। आने वाली पीढ़ियां इस कारण कितना भोगेंगी, उन्हें इससे कोई सरोकार नहीं। प्रकृति किए का फल सबको देती है। वहां अंधेर नहीं है औऱ न ही किसी की सिफारिश चलती है। आपने तापमान बढ़ाया, इसका फल भोगिए। वहां सीधे सीधे गणित का हिसाब है। यह ईश्वर का नियम है। संतुलित जीवन बिताइए वरना दैहिक, दैविक और भौतिक तापों को झेलिए। इसीलिए बुजुर्गों ने कहा है- जो करोगे, वह भरोगे। एक कवि ने तो कहा ही है- बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाय।। हम गरिष्ठ भोजन रोज ठूंस- ठूंस कर खाते रहेंगे तो नाना प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त होने में कितना समय लगेगा? थोड़ी सी असावधानी हमारे जीवन में मुश्किल खडा कर देती है। ऐसे भी कई उदाहरण हैं कि आपकी जबान से कोई कठोर शब्द निकल गया और वह आदमी जिंदगी भर आपका दुश्मन बन गया। इसलिए सावधानी से क्यों न चलें। (इसके बाद नए साल में ही भेंट होगी- विनय बिहारी सिंह)

Friday, December 25, 2009

प्रेम और करुणा के अवतार जीसस क्राइस्ट



विनय बिहारी सिंह


आज क्रिसमस है। जीसस क्राइस्ट का जन्म दिन। जिस तरह भगवान कृष्ण प्रेम और करुणा के अवतार हैं, ठीक उसी तरह जीसस क्राइस्ट भी हैं। जहां भी उन्होंने पीड़ित और दुखी लोगों को देखा, उनकी मदद की। रोगियों को स्वस्थ किया, विकलांगों को सुंदर शरीर दिया और ईश्वर को चाहने वालों को अपने साथ ले लिया। उन्होंने कहा- सीक दि किंगडम आफ गाड, दि रेस्ट थिंग्स विल बी एडेड अन टू यू। यानी ईश्वर को चाहो, बाकी चीजें तुम्हारे पास अपने आप चली आएंगी। उनकी करुणा का सबसे बड़ा उदाहरण तो यही है कि जो लोग उन्हें सूली पर चढा रहे थे उनके लिए उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की- गाड, फारगीव देम, फार दे नो नाट, ह्वाट दे डू। ( हे भगवान, इन्हें माफ कर दो, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।) जीसस ने जिस समय येरूशलम के नजारेथ में जन्म लिया, वहां रोमन साम्राज्य के शासकों का राज्य था। लोग दमन के शिकार थे। जब स्थानीय राजा हेरोड ने सुना कि जीसस नाम का बच्चा छोटी उम्र से ही ईश्वर की बातें करता है और उसकी बातें उनके पोंगापंथ से बिल्कुल अलग हैं तो वह सतर्क हो गया। उसने जीसस की हत्या कर देनी चाही। इस बात का पता चलते ही जीसस के मां- बाप उन्हें लेकर मिस्र भाग गए। वहां छुप कर उन्होंने बच्चे जीसस को पाला। फिर थोड़े बड़े हुए तो वे वापस इस्राइल में अपने घर आए।


ठीक यही तो भगवान कृष्ण के साथ हुआ था। जब उनके मामा कंस को पता चला कि देवकी के गर्भ से पैदा हुआ बच्चा उसका हत्यारा बनेगा तो उसने अपनी बहन को जेल में बंद कर दिया और उसके सारे बच्चों की हत्या करने लगा। लेकिन जब भगवान कृष्ण पैदा हुए तो जेल के सारे पहरेदार सो गए और जेल का फाटक अपने आप खुल गया। ताला ही नहीं खुला सारे दरवाजे खुल गए। तब वासुदेव नन्हें कृष्ण को चुपके से टोकरी में लेकर यमुना पार किया। उस समय घनघोर अंधेरी रात थी और यमुना में बाढ़ आई हुई थी। लेकिन वासुदेव ने पैदल ही नदी पार किया। एक बार तो यमुना कृष्ण का पैर छूने के लिए उछालें मारने लगी। यह बात वासुदेव की समझ में आ गई। उन्होंने कृष्ण का पैर यमुना को छुआ दिया। बस क्या था। यमुना का जल बिल्कुल घुटने भर का हो गया और वासुदेव आराम से नदी पार कर गए। दूसरी तरफ गोकुल था। वहां यशोदा को पुत्री पैदा हुई थी। कृष्ण को यशोदा की गोद में लिटा कर वासुदेव उस कन्या को अपने साथ ले आए। ज्योंही वे जेल में अपनी कोठरी में घुसे, फिर अपने आप ताला लग गया और बच्ची रोने लगी। कंस खबर पा कर दौड़ा आया। उसने बच्ची को उठा कर पटकने के लिए ज्योंही उठाया, बच्ची हवा में उड़ गई और आकाश में जाकर बोली- मूर्ख तेरा वध करने वाला पैदा हो चुका है। तुम उसे नहीं मार सकते। मान्यता है कि यह कन्या आदि शक्ति थीं।


जीसस क्राइस्ट और भगवान कृष्ण के जीवन में कहीं- कहीं साम्य है। पश्चिमी देशों में जीसस क्राइस्ट प्रेम के सर्वोत्तम प्रतीक हैं। असीसी के सेंट फ्रांसिस ने क्राइस्ट का दर्शन किया था। अन्य संतों ने भी किया था। स्वयं परमहंस योगानंद जी ने उनके दर्शन किए थे। आइए हम कामना करें कि जीसस हमें आशीर्वाद दें ताकि हम सभी आपस में प्रेम और करुणा के साथ रह सकें। हमारे मन में ईश्वर के प्रति प्रेम निरंतर बढ़ता जाए और जैसे ईश्वर अनंत हैं उसी तरह हमारा प्रेम भी अनंत हो।

Thursday, December 24, 2009

एक छोटी सी कथा

विनय बिहारी सिंह

एक आदमी रोज मंदिर में आता था। आंख बंद कर चुपचाप बैठ जाता था। फिर दो घंटे बाद उठ कर चला जाता था। इस तरह दो साल बीत गए। पुजारी इस आदमी को रोज देखते थे। एक दिन पुजारी से रहा नहीं गया। उन्होंने उस आदमी से पूछा- आप रोज आंख बंद कर क्या दो घंटे तक ध्यान करते हैं? उस आदमी ने जवाब दिया- नहीं। मैं ईश्वर से बातें करता हूं। पुजारी ने पूछा- ईश्वर आपसे क्या कहते हैं? उस आदमी ने जवाब दिया- वे मेरी बातें सुनते हैं।

Wednesday, December 23, 2009

रामराज्य या कृष्ण की द्वारकापुरी में यह हाल नहीं था

विनय बिहारी सिंह

राम या कृष्ण के शासनकाल में आम आदमी महंगाई से कराहता नहीं था। बाजार लोगों को जरूरत की चीजें सही दाम पर मुहैया करा देते थे। राजा के मंत्री भी अत्यंत जिम्मेदार थे और वे हमेशा इस कोशिश में लगे रहते थे कि जनहित का काम ज्यादा से ज्यादा कैसे हो। जिनके घर खाने को नहीं था, उनका जिम्मा राजा उठाता था। इसके लिए एक संस्था का गठन कर दिया गया था जो पता लगा लेती थी कि कहां लोग भूखे सो रहे हैं। वहां भोजन का अच्छा प्रबंध कर दिया जाता था। लेकिन जिन्हें मुफ्त का भोजन मिलता था वे अकर्मण्य नहीं रहते थे। उनमें काम करने की ललक रहती थी। हां, आलसी लोग भी होते थे लेकिन उनकी संख्या बहुत कम थी। राजा अपनी जिम्मेदारियों से मुकरता नहीं था। वह बाजार ही नहीं सुरक्षा एजंसियों पर भी कड़ी नजर रखता था। उसके गुप्तचर अत्यंत मेधावी थे। उनकी संख्या बहुत ज्यादा थी। गुप्तचर दरअसल लोगों की आबादी के आधार पर रखे जाते थे ताकि कहीं से सूचना मिलने में चूक नहीं हो। एक सुचारु तंत्र का यही गुण है। पर्यटक और शोधकर्ता ह्वेनसांग ने तो प्राचीन भारत के बारे में बहुत ही प्रशंसा लिखी है। उसने जो कुछ भी देखा, वही लिखा। उसने लिखा है कि घरों में ताला लगाना जरूरी नहीं था। लोग यूं ही कुंडी चढ़ा कर घूमने निकल जाते थे। अगर किसी ने गलती से किसी के पास कुछ धन छोड़ दिया या उसे वापस लेना याद नहीं रहा तो जिसके पास धन रखा है वह ढूंढ़ कर उस आदमी को वापस कर आता था। यह जानकारी कहां से मिली? आप परमहंस योगानंद की आटोबायोग्राफी आफ अ योगी पढ़ लीजिए। उसमें प्राचीन भारत की समृद्धि की दास्तान मिलेगी। लेकिन आज क्या है? क्या आधुनिक भारत जो टेक्नालाजी और ग्यान में खुद को अग्रणी मानता है, नैतिकता में भी आगे है? क्या आज आम आदमी खुद को सुरक्षित और खुश मानता है? क्या उसकी भूख, उसके अभाव और उसकी चिकित्सा की परवाह किसी सरकार को है? यूं तो यह जगह अध्यात्म की है। लेकिन आइए संक्षेप में जानें कि आज इक्कीसवीं सदी में हमारा क्या हाल है। केंद्रीय कृषि मंत्री कह चुके हैं कि महंगाई रोकना असंभव है। केंद्र सरकार भी अपनी चुप्पी से यही बात दुहरा रही है। क्या आप दुनिया के किसी सुव्यवस्थित देश को जानते हैं जिसकी सरकार महंगाई रोकने में विफल हो? नहीं। केंद्र सरकार को इस पर शर्म नहीं आती। यह अति मुनाफाखोरी को महिमामंडित करना है। यानी बाजार केंद्र सरकार के नियंत्रण में नहीं है। यह कैसी सरकार है? क्यों बाजार उसके नियंत्रण में नहीं है? हर सांसद को उसके क्षेत्र के विकास के लिए २ करोड़ रुपये की मोटी रकम मिलती है। अब सांसद इस रकम को ५ करोड़ तक करने की मांग कर रहे हैं। उधर एक राज्य सभा के एक सांसद ने मांग की है की सांसद निधि ही खत्म कर दी जाये। इससे भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। हर सांसद और संसद को कानून बनाने ही नहीं, कानून को लागू करने का भी पूरा अधिकार है। फिर यह ड्रामा क्यों? सारी केंद्र सरकारें एक जैसी हैं। चाहे वे किसी पार्टी की हों। अपने देश में कोई भी पार्टी नहीं है जो जनहित के बारे में सोचे। सब राजनीति में कमाई करने या लूट- खसोट करने गए हैं। न कोई नीति न नैतिकता और न लोकहित। सिर्फ बयान भर दे देना है- हम महंगाई रोकने में नाकाम हैं।

Tuesday, December 22, 2009

हम कहां से आए?

विनय बिहारी सिंह

ऋषियों ने कहा है कि हमें खुद से सवाल करना चाहिए कि हम कहां से आए? इस दुनिया में किसलिए आए? इसके पहले हम थे कहां? मृत्यु के बाद कहां जाएंगे? भगवद् गीता कहती है कि आत्मा अजर- अमर है। सिर्फ शरीर नश्वर है। शरीर ही जन्मता है, जवान होता है, वृद्ध होता है, रोगी होता है और मरता है। जैसे मनुष्य पुराने कपड़े त्याग कर नए कपड़े पहनता है, ठीक उसी तरह आत्मा नया कपड़ा यानी नया शरीर धारण करती है। जिस घर में बच्चा जन्म लेता है उसकी स्वाभाविक अदाओं पर सभी लोग मोहित होते हैं। बच्चा तेजी से हाथ- पांव फेंक कर खेलता रहता है तो परिजन कितने खुश होते हैं? बच्चा जो भी आवाज निकालता है, घर के लोग उसे सुन कर कितने खुश होते हैं। बच्चा कहता है- बा---। घर के लोग खुश हो कर कहते हैं-- देखो, देखो बा ---- बोल रहा है। यह शास्वत आत्मा का नया शरीर होता है। यह बच्चा बड़ा होता है और तरह- तरह के प्रपंच करने लगता है। हमारा नाम भी तो इस देह को ही मिला है। इस नश्वर नाम को हम स्वर्णाक्षरों में चमकता देखना चाहते हैं। चाहते हैं हमारा खूब नाम हो, हमारे पास खूब पैसा हो, यानी हमारी हजार इच्छाएं हमें नचाती रहती हैं। इन्हीं इच्छाओं के चलते हमारा बार- बार जन्म होता है। शंकराचार्य ने कहा है- पुनरपि जन्मम, पुनरपि मरणम, जननी जठरे पुनरपि शयनम।। तो हम कहां से आए हैं? जन्म से पहले कहां थे? वेदों और ऋषियों ने कहा है- कुछ दिन अदृश्य लोक में विश्राम करने के बाद व्यक्ति का फिर किसी दूसरे घर में जन्म होता है। इसके बाद फिर वही तनाव, लालच, क्रोध और इंद्रिय सुख की लालसाएं। माया अपने जाल में इस तरह फंसाती है कि दुख में रहने के बावजूद मन ईश्वर की तरफ नहीं जाता। ईश्वर के बारे में बात करना भी अच्छा नहीं लगता। हां, संसारी प्रपंच के बारे में बात करने में खूब मन लगता है। लेकिन हमें उबारने वाले भगवान ही हैं। ईश्वर के अलावा हमारा अपना कोई नहीं है। इस संसार में हमारा जो सबसे प्रिय व्यक्ति होगा, उससे भी आत्मीय और उससे भी करीब ईश्वर हैं। उनकी याद या उनका स्मरण हम क्यों न करें?

Monday, December 21, 2009

जर्मन डाक्टरों का कमाल़

विनय बिहारी सिंह

सबसे पहले जर्मन डाक्टरों के कमाल की बात करें। एक अंधे आदमी की आंखों की कार्निया में विशेष माइक्रोचिप लगा कर उन्होंने उसे आंखों वाला बना दिया। अब वह आदमी आराम से देख रहा है और खुश है। डाक्टरों ने कहा है कि यह विचार काफी दिनों से चल रहा था कि निष्क्रिय या बेकार हो चुकी आंख को फिर से नई और सक्रिय कैसे बनाया जाए। इस घटना का आध्यात्म से क्या संबंध है? दिव्य प्रकाश तो आध्यात्म का ब्लाग है। आइए जानें। हमारे देश में एक विख्यात संत हुए हैं- योगावतार श्यामा चरण लाहिड़ी। लाहिड़ी महाशय के यहां एक सेवक था- राम। राम की दोनों आंखें बेकार थीं। वह दुनिया को देखना चाहते थे। उन्होंने हाथ जोड़ कर लाहिड़ी महाशय से कहा- आपने अनेक लोगों को ठीक कर दिया। क्या मेरी आंखें ठीक नहीं हो सकतीं। लाहिड़ी महाशय के मन में करुणा उपजी। वे देवता थे। उन्होंने कहा- तुम दिल से भगवान के नाम का जाप करो। पंद्रह दिन बाद तुम्हारी आंखें ठीक हो जाएंगी। राम ने पूछा- भगवन, मैं किस देवता के नाम का जाप करूं? लाहिड़ी महाशय ने कहा- तुम्हारा नाम राम है। तुम राम- राम जपते रहो। फिर क्या था। राम ने तुरंत जाप करना शुरू कर दिया। वह सोते, जागते, काम करते, विश्राम करते यानी हर वक्त राम- राम का जाप करता रहता। और तोते की तरह नहीं। बिल्कुल दिल से जाप करता। मानों भगवान राम सामने बैठे हों या खड़े हों और वह राम- राम कह कर उन्हें पुकार रहा हो। इसका चमत्कारी असर हुआ और राम की आंखें सचमुच १५ दिनों में ठीक हो गईं। उसने पंद्रहवें दिन सूर्योदय देखा। यह चमत्कार कैसे हुआ? लाहिड़ी महाशय के एक शिष्य ने कहा- हमें इस दुनिया में जो कुछ भी प्राप्त होता है वह सीधे ईश्वर से ही। लेकिन जिन्हें विश्वास नहीं है, उन्हें कुछ भी फलित नहीं होता। लेकिन जो गहरे अंतर से समूचे दिल से ईश्वर को पुकारता रहता है, वह उनका उत्तर अवश्य पाता है। वे इतने ही जीवंत और हमारे करीब हैं जितने हम औऱ आप हैं। यह संसार ईश्वर का है। हम यहां अपने कर्मों का फल भोगने आए हैं। लेकिन अगर हम ईश्वर को दिल से पुकारें तो वे हमें अपनी विशेष सुरक्षा घेरे में ले लेते हैं। वे वैसे भी हमारी रक्षा करते हैं क्योंकि वे ही हमारे माता है, पिता हैं। परमहंस योगानंद जी कहते हैं कि ईश्वर के पास एक चीज नहीं है, वह है हमारा प्यार। हर मां- बाप चाहता है कि उसकी संतान उसे प्यार करे। भगवान क्यों नहीं चाहेंगे? वे हमारे प्यार की प्रतीक्षा में हैं। यह कितना अद्भुत है कि इस संसार, इस ब्रह्मांड का स्वामी यानी मालिक हमारे प्यार की राह देख रहा है। हमें यह अद्भुत मौका मिला है। इसे हमें गंवाना नहीं चाहिए।

Wednesday, December 16, 2009

मित्रों अभी मैं अत्यंत व्यस्त हूँ। लेकिन सोमवार से ब्लॉग लिखना शुरू कर दूंगा।
कृपया २१ दिसम्बर २००९ को इस ब्लॉग पर नया लेख अवश्य पढ़ें ।

Saturday, December 12, 2009

रमण महर्षि ने कहा है- खुद से पूछो कि मैं कौन हूं

विनय बिहारी सिंह

रमण महर्षि तमिलनाडु (मदुरै से ३० मील दूर तिरुचुली) में के एक ब्राह्मण परिवार में ३० दिसंबर १८७९ में जन्मे और लगभग ७१ वर्ष की आयु में १४ अप्रैल १९५० को अपना शरीर छोड़ दिया। वे पूरे विश्व के अध्यात्म पुरुष थे। १६ वर्ष की उम्र में उन्होंने घर छोड़ दिया और तिरुवन्नामलइ चले गए। वहीं अरुणाचल में उन्होंने गहन साधना की। एक बच्चा उनकी साधना और कष्ट देख कर रो पड़ा। रमण महर्षि ने पूछा- क्यों रो रहे हो? बच्चे ने कहा- तुम्हें रोज देखता हूं। बहुत दिनों से देख रहा हूं- तुम बिना कुछ खाए- पीए, बिना कुछ पहने (उनके शऱीर पर सिर्फ कौपीन था) इतनी तपस्या कर रहे हो। तुम्हें देख कर मुझे पीड़ा होती है। रमण मुस्करा कर बच्चे से बोले- भगवान के प्रेम में पड़ने पर किसी चीज की परवाह नहीं होती। वहां तो बस आनंद ही आनंद है। भोजन और वस्त्र तो तुच्छ वस्तुएं हैं। तब बच्चे ने रोना बंद किया। रमण महर्षि ने कहा है- खुद से पूछो कि मैं कौन हूं। यानी खुद को जानने का प्रयत्न। मैं कौन हूं? क्या शरीर हूं। नहीं। यह शरीर मेरा है, मैं शरीर नहीं हूं। तो क्या मैं बुद्धि हूं? नहीं, बुद्धि मेरी है। तब क्या हूं? तो उत्तर मिलेगा- मैं शुद्ध सच्चिदानंद हूं। सच्चिदानंद? हां ( तुलसीदास ने भी तो कहा है- ईश्वर अंश जीव अविनाशी)। वे कहते थे मनुष्य जब अपने को भूल जाता है तो नाना प्रकार के कष्ट पाता है। वह भूल जाता है कि मैं ईश्वर का अंश हूं और तरह- तरह के माया के जालों में फंसता रहता है। जैसे प्याज का छिलका उतारते जाने से अंत में कुछ नहीं बचेगा, उसी तरह माया की परतों को हटाने से बचेगा सिर्फ शून्य लेकिन इसी शून्य में छुपे हैं भगवान। रमण महर्षि ने कहा है- ईश्वर के सिवा कुछ भी नहीं है। सर्वं खल्विदं ब्रह्म। सबकुछ ईश्वर है। द्वैत ही भ्रम का कारण है। कहीं कुछ भी नहीं- सिर्फ ईश्वर, ईश्वर औऱ ईश्वर ही हैं चारो तरफ। बस गहरे ध्यान में जाकर महसूस करने की जरूरत है।

Friday, December 11, 2009

चरम वैराग्य की स्थिति

विनय बिहारी सिंह

कई बार प्रश्न आता है कि मन को वश में करना मुश्किल है। कैसे करें? मन को तो चिंताएं घेरे हुए हैं, चंचल विचार घेरे हुए है, वह वश में आए कैसे? तो हमें फिर गीता की तरफ लौटना पड़ रहा है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा है- अभ्यास और वैराग्य से मन वश में आ जाएगा। अभ्यास तो ठीक है। लेकिन वैराग्य कैसे आए? हम कई बार अपनी पूंजी भूल जाते हैं। हमारे पास खजाना है। लेकिन हम भूल गए हैं। याद कीजिए भर्तृहरि को। भर्तृहरि ने एक अत्यंत प्रसिद्ध पुस्तक लिखी है- वैराग्य शतकम। यानी वैराग्य पर सौ पद। यानी सौ कविताएं। वैराग्य के दस उपाय बताते हुए अनेक लोग हांफने लगते हैं। यहां भर्तृहरि ने सौ उपाय बताए हैं। लेकिन इन्हें उपाय कहना ठीक नहीं होगा। ये विचार हैं। इन विचारों को पढ़ कर पाठक का मन उद्वेलित होता है। इनका सार है- इस दुनिया में आप अकेले आए हैं। अकेले ही जाएंगे। कोई किसी का नहीं है। हम अपने स्वार्थों, इच्छाओं और अस्थिरताओं के शिकार हो कर माया के भंवर में फंसे हुए हैं और कष्ट पा रहे हैं। जिस प्रेयसी की देह को आपने इतना आकर्षक माना, वह मृत पड़ी है और आप उसे जल्दी से घर से निकाल कर जला देना चाहते हैं। हम सब अपनी अपनी भूमिकाएं निभाने आए हैं लेकिन माया के जादू में फंस कर कष्ट भोग रहे हैं। सिर्फ और सिर्फ ईश्वर ही इस माया से उबार सकते हैं। यह देह रोज थोड़ा- थोड़ा करके मृत्यु की तरफ बढ़ रही है। एक दिन अचानक आपकी मृत्यु हो जाएगी और आपका धन, मान-सम्मान और घऱ परिवार रखा का रखा रह जाएगा। फिर किसी अन्य परिवार में जन्म होगा और फिर वही माया का जाल। सुख- दुख का भंवर। कष्टों और तनावों का दौर। इसका अंत नहीं। अंत करना है औऱ सुख से रहना है तो ईश्वर की शऱण में जाइए। वगैरह वगैरह। भर्तृहरि ने वैराग्य शतकम चरम वैराग्य की स्थिति में लिखा। उन्हें ईश्वर के सिवा कुछ दिखता ही नहीं था। इस संसार की जिन वस्तुओं के लिए सामान्य लोग तरसते हैं, भर्तृहरि के लिए वे धूल की तरह थीं। रामकृष्ण परमहंस भी कहते थे- रुपया- माटी। माटी- रुपया। यानी मिट्टी औऱ रुपया एक ही है। इसमें आसक्ति कैसी? वैराग्य के सौ उपायों या वैराग्य के सौ विचारों को पढ़ना सुखद अनुभव है। हम एक बार फिर अनुभव करते हैं कि यह संसार हमारे जन्म के पहले भी था और मृत्यु के बाद भी रहेगा। संसार तो आपकी परवाह नहीं करता। लेकिन आप संसार के मायाजाल में बुरी तरह फंसे रहते हैं। इससे मुक्ति के उपायों का ही नाम है- भर्तृहरि शतकम।

Thursday, December 10, 2009

अपने भीतर की दुनिया कैसी है?

विनय बिहारी सिंह


दो तरह की दुनिया है। एक तो बाहर की दुनिया, जिसे हम रोज देखते, सुनते और अनुभव करते हैं। दूसरी है भीतर की दुनिया। बाहर की दुनिया में शोर- शराबा, भागदौड़ और बेचैनी है तो भीतर की दुनिया में परम शांति और स्थिरता है। यानी पहली दुनिया दूसरी दुनिया से बिल्कुल उलट है। बाहर की दुनिया नित्य परिवर्तनशील और जन्म- मरण और भोगाभोग की है तो भीतर की दुनिया परिवर्तन रहित, स्थाई और सुख शांति वाली है। अब आप कहेंगे कि जो व्यक्ति परेशान है, तनाव झेल रहा है, वह अगर आंख बंद करके ध्यान करेगा और अपने भीतर उतरना चाहेगा तो उसका दिमाग स्थिर होगा ही नहीं। उसके लिए तो जैसे बाहर की दुनिया वैसी ही भीतर की दुनिया। नहीं। एक म्यान में दो तलवारें नहीं रहा करतीं। या तो आप बाहरी दुनिया के ही होकर रह सकते हैं या अंदर की दुनिया के। अब आप सवाल करेंगे कि जो भीतर की दुनिया को जानते हैं, वे भी तो बाहर की दुनिया में बरतते ही हैं। हां, यह ठीक है। लेकिन भीतर की दुनिया को जान कर बाहर की दुनिया के साथ आचार- व्यवहार करना अलग तरह का है। जिस साधक ने तत्व जान लिया वह बाहर की दुनिया में आनंद पूर्वक रह सकेगा। वह तो भगवान का हाथ पकड़े हुए है और भगवान भी उसका हाथ पकड़े हुए हैं। ऐसे में उस साधक को कोई चिंता करने की जरूरत ही नहीं है। भीतर की दुनिया का स्वाद या ईश्वर का स्वाद तब तक नहीं मिल सकता जब तक कि आप उतनी देर के लिए बाहर के संसार से नाता न तोड़ लें। अगर आप आंख बंद कर ईश्वर का ध्यान करने की कोशिश कर रहे हैं और उसके बदले संसार भर के प्रपंचों के बारे में सोच रहे हैं तो आप भीतर गए ही नहीं। बाहर- बाहर ही घूम रहे हैं। आंख बंद करने भर से अंदर की दुनिया में नहीं जाया जा सकता है। जो आपके दिल में होगा वही आप आंखें खुली रख कर भी देखेंगे और आंखें बंद कर भी वही देखेंगे। जो आपके दिलो दिमाग पर हावी रहेगा, वही आप देखेंगे, सुनेंगे और महसूस करेंगे। कहावत है न कि जिस रंग का चश्मा होगा, उसी रंग का दृश्य आपको दिखाई देगा। इसलिए जिसने इस दुनिया में रहते हुए भी अपना गहरा रिश्ता ईश्वर से जोड़ रखा है, वह सबसे सुखी है। उसे ईश्वर का पक्का सहारा मिल गया। और जो बौद्धिक तर्क में पड़े हुए हैं कि ईश्वर है भी कि नहीं, उन्हें कुछ नहीं मिलेगा। ईश्वर देह, मन और बुद्धि से परे है। यह गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है। जिस क्षण आपने संपूर्ण समर्पण कर दिया, ईश्वर आपके हो गए। लेकिन टोटल सरेंडर या पूर्ण समर्पण एकबारगी नहीं होता। यह धीरे- धीरे होता है। आप जैसे जैसे ईश्वर के भीतर गहनतम उतरते जाएंगे, आप उनके प्रेम में आनंदित होते जाएंगे। यह बात अनुभव की है। कबीर दास ने कहा ही है-
पार ब्रह्म के तेज का कैसा है परमान।कहिबे को सोभा नहीं, देखन को परमान।।

Wednesday, December 9, 2009

मां काली के विख्यात भक्त रामप्रसाद सेन

विनय बिहारी सिंह

पश्चिम बंगाल में १८वीं शताब्दी के काली भक्त रामप्रसाद सेन घर- घर में जाने जाते हैं। आज भी उनके गीत सुन कर लोग मुग्ध हो जाते हैं। उनके गाने को रामप्रसादी संगीत कहा जाता है। वे मां काली के अनन्य भक्त थे और मान्यता है कि मां काली ने उन्हें कई बार दर्शन दिए थे। बल्कि उनका वे पुत्र की तरह ख्याल रखती थीं। वे पश्चिम बंगाल में एक राजा के दरबार में कवि थे। उनका जन्म तांत्रिक परिवार में हुआ था। इसीलिए बचपन से वे काली के भक्त बन गए। धीरे- धीरे उन्हें लगा कि मां काली तो कल्पना की वस्तु नहीं हैं, वे सचमुच मौजूद हैं। उनके भजन इस बात के प्रमाण हैं कि उन्होंने दिव्य अनुभव प्राप्त किए थे। रामप्रसाद सेन आमतौर पर सिर्फ रामप्रसाद के नाम से ज्यादा जाने जाते हैं। उनके लिखे गीत आमतौर पर हजारों की संख्या में हैं। उनकी पुस्तकें विद्या सुंदर, काली कीर्तन और कृष्ण कीर्तन अमर कृतियों की तरह हैं। रामप्रसाद मूलतः बांग्ला में गीत लिखते थे। लेकिन अंग्रेजी में भी उनके गीतों के अनुवाद हुए हैं। उनके एक गीत का अर्थ देना प्रासंगिक होगा- क्या वह दिन आएगा, जब मां तारा (काली) कहते मेरी आंखों से आंसू बहने लगेंगे? मां का नाम लेते लेते मुझे तत्व ग्यान होगा। वेदों का कहना है कि दिव्य मां हर जगह हैं। रामप्रसाद कहता है कि मां हर जगह हैं। अंधे उन्हें हर जगह छुपा हुआ देखते हैं। जबकि वे प्रकट हैं। रामप्रसाद मां काली के गहनतम भक्त थे। वे फूल को भी छूते थे तो कहते थे- मां काली को छू रहा हूं। सांस लेते थे तो कहते थे कि मेरी सांस में मां काली इसमें बसी हुई हैं। वे कहते थे- मां आछे, आमी आछी, आर के आमार, माए दिया खाई पोड़ी, मां निएछे भार आमार ( मां है, मैं हूं बाकी मेरा है ही कौन। मां का दिया ही खाता औऱ पहनता हूं। मां ने मेरी जिम्मेदारी ले रखी है।)। रामप्रसाद के बारे में एक कहानी सुनने को मिलती है। भजन गाते- गाते एक बार वे समाधि में चले गए। यह दोपहर बाद तीन बजे का समय था। उन्होंने दिन का खाना नहीं खाया था। रात हो गई, फिर भोर हुई। रात का खाना भी यूं ही पड़ा रहा। अगले दिन आठ बजे उनकी समाधि टूटी। उनकी सेवा में लगे आदमी ने उन्हें खीर खाने को दी। लेकिन वे तो एक अद्भुत आनंद में डूबे हुए थे। बहुत कहने पर उन्होंने खीर खाई। वे भोजन और वस्त्र का ख्याल नहीं रख पाते थे। भयानक ठंड पड़ रही है और उन्हें होश नहीं है कि एक ऊनी चादर शरीर पर डाल लें। लोग ही उनका ख्याल रखते थे। धोती मैली हो गई है तो लोग ही साफ कर देते थे। अगर उन्हें एक तरह का ही खाना रोज दिया जाता तो भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था। भोजन उनके लिए जीने भर का साधन था। स्वाद से ऊपर उठ चुके थे वे। लेकिन हमेशा वे आनंद में डूबे रहते थे।

Tuesday, December 8, 2009

कंसंट्रेशन की ताकत

विनय बिहारी सिंह

वैग्यानिकों ने एक ऐसा कंप्यूटर तैयार किया है जो मनुष्य के सोचे हुए शब्दों को लिख देता है। इस कंप्यूटर का संबंध माइंड वाइब्रेशन से है। कैलिफोर्निया के वैग्यानिकों ने यह अद्भुत काम कर दिखाया है। मान लीजिए कि आपने अंग्रेजी का अक्षर वी सोचा। बस कंप्यूटर स्क्रीन पर वी टाइप हो जाएगा। तो ऋषियों ने जो कहा है कि आप जैसा सोचते हैं, वैसे ही बन जाते हैं, वह एक बार फिर साबित हो गया। तुलसीदास के बारे में एक संत ने कहा था- हाथ तुलसीदास के थे लेकिन रामचरितमानस लिखा स्वयं राम ने। यानी तुलसीदास रामचरितमानस लिखते वक्त सुपरकांशसनेस में रहते थे। लेकिन अन्य संतों ने कहा है- तुलसीदास हमेशा ही सुपरकांशसनेस में रहते थे। चाहे रामचरितमानस लिख रहे हों या चुपचाप बैठे हों या किसी से बात कर रहे हों। राम उनकी चेतना में गहरे समाए हुए थे। इसीलिए उनके बारे में कहा जाता है कि वे हनुमान और राम के दर्शन अक्सर किया करते थे। शाम होते ही तुलसीदास अकेलापन चाहते थे। वे अपनी कुटिया बंद कर लेते थे। इसी बंद कुटिया में वे राम और हनुमान से घंटों साक्षात्कार करते रहते थे। जो ब्रह्मांड के मालिक हैं, उनके साथ आनंद करते थे। रामचरितमानस यूं ही अमर कृति नहीं है। तो बात चल रही थी एक अद्भुत कंप्यूटर की। आप जो भी सोचते हैं उसका एक स्पंदन होता है। मान लीजिए आप किसी देवता के बारे में लगातार सोच रहे हैं। मसलन भगवान कृष्ण के बारे में। तो आपके लगातार सोचने का परिणाम यह होगा कि भगवान कृष्ण के स्पंदन आपके भीतर पैदा हो जाएंगे। आपके भीतर एक सुरक्षा कवच बन जाएगा। और भीतर ही क्यों, आपके बाहर भी एक सुरक्षा कवच बन जाएगा जो आपकी लगातार रक्षा करता रहेगा। अगर यकीन न हो तो करके देखिए। दिमाग का वाइब्रेशन बहुत ताकतवर चीज है। इसे ही आधार बना कर वैग्यानिकों ने एक खास सुपर कंप्यूटर तैयार किया है। दरअसल ज्यादातर लोगों का चिंतन इतना बिखरा हुआ होता है कि वे दिमाग को एकाग्रचित्त कर ही नहीं पाते। अन्यथा एकाग्रचित्त से बहुत कुछ संभव है। कंसंट्रेशन की ताकत पर अनेक पुस्तकें लिखी गई हैं। हमारे ऋषि- मुनि तो कहते थे कि ईश्वर की उपस्थिति को महसूस कीजिए। आपकी सांस भी ईश्वर के कारण चल रही है। आपका दिल भी ईश्वर के कारण धड़क रहा है। आपका समूचा अस्तित्व भी ईश्वर के कारण है। आखिरकार कंप्यूटर भी तो आदमी ने ही बनाया है। आदमी को किसने बनाया है? जाहिर है- ईश्वर ने। तो जब कंप्यूटर मनुष्य के सोचे हुए शब्दों को लिख सकता है तो आप ईश्वर के साथ कंसंट्रेशन की स्थिति में क्यों नहीं बात कर सकते? लेकिन इसके लिए गहरी श्रद्धा और विश्वास चाहिए। लगन और अटूट साधना चाहिए। यह लगन, अटूट विश्वास और गहरी भक्ति ही थी कि नचिकेता जैसा बालक यम के पास पहुंच गया औऱ उनसे पूछ बैठा- मृत्यु के बाद आदमी कहां जाता है? यम ने बहुत लालच दिया- सारी पृथ्वी के राजा बन जाओ, लेकिन यह प्रश्न मत पूछो। तुम्हें मैं अजर- अमर होने का वरदान दे दूंगा। लेकिन यह प्रश्न मत पूछो। तुम अभी बच्चे हो। नहीं समझ पाओगे। लेकिन नचिकेता दृढ़ थे। उन्होंने अपने प्रश्न का उत्तर पाने की जिद की। यम समझ गए कि यह साधारण बालक नहीं है। यह बालक के रूप में एक महात्मा है। इसके बाद यम ने जो उत्तर दिया वह कठोपनिषद में दर्ज है। तो गहरी भक्ति के बिना, अटूट विश्वास के बिना कुछ पाने की कल्पना करना व्यर्थ है।

Saturday, December 5, 2009

भोग ही हमें भोग रहे हैं

विनय बिहारी सिंह

ऋषियों ने कहा है- हम इस संसार में अपनी भूमिका निभाने आए हैं। किसकी भूमिका? अपने चरित्र की भूमिका। कैसा चरित्र? पूर्व जन्म की इच्छाओं और वासनाओं ने फिर- फिर हमें इस दुनिया में भेजा है। हम यह भोगना चाहते हैं, वह भोगना चाहते हैं लेकिन चाहे जो कुछ भी भोग लें, मन तृप्त नहीं होता। इसका अर्थ है- भोग को हम नहीं भोग रहे हैं, भोग ही हमें भोग रहे हैं। यानी हम्हीं भोगे जा रहे हैं फिर भी भ्रम है कि हम सुख भोग रहे हैं। क्या विडंबना है? हम भोगों से तृप्त नहीं हो पा रहे हैं। और जिसे हम सुख कह रहे हैं, वह वास्तविक सुख है भी नहीं। वास्तविक सुख तो वह है जो एक बार मिलने पर फिर खत्म नहीं होता। अनंत सुख- जिसका अंत नहीं है। यह कैसे संभव है? हमारे ऋषियों ने इसी का उपाय बताया है। बिना किसी फीस के बिल्कुल मुफ्त में। उन्होंने कहा है- ईश्वर से संपर्क जोड़िए। कैसे संपर्क जोड़ें? इसका भी उपाय उन्होंने बता दिया है। आप दिल से ईश्वर को पुकारिए, वे आपकी बात सुनेंगे। वे अंतर्यामी हैं। भगवान के बारे में ऋषियों ने तीन बातें कही हैं- ईश्वर अंतर्यामी हैं, सर्वव्यापी हैं और सर्वशक्तिमान हैं। लेकिन इसके बावजूद कुछ लोगों के मन में शंका बनी रहती है कि पता नहीं मेरी पुकार भगवान सुन भी रहे हैं या नहीं। क्या आश्चर्य है। उच्चकोटि के ऋषियों ने हमें ईश्वर से संपर्क का रास्ता बताया है, लेकिन हम इंद्रियों के इतने गुलाम हो गए हैं कि उनकी बात पर भी शंका करते हैं। किसी सामान्य व्यक्ति की बात पर फिर भी विश्वास कर लेते हैं लेकिन ऋषियों की बात पर शंका करते हैं। कुछ लोग कहते हैं- क्या पता ईश्वर है भी या नहीं? तो यह है हमारा मन। ऋषियों ने अपना समूचा जीवन लोक कल्याण के लिए बिताया। वे जो कुछ मिलता पहन लेते, जो कुछ मिलता खा लेते थे। उनकी अपनी कोई इच्छा नहीं थी। बस उनका एक ही काम था- लोक कल्याण कैसे हो। वे इसके लिए चुपचाप तपस्या करते रहते थे। वे प्रचार से कोसों दूर रहते थे। क्योंकि वे सच्चे साधक थे। लेकिन हम उनकी बात पर भी शक करते हैं और कहते हैं कि क्या पता ईश्वर है भी कि नहीं। इस तरह तो हम कहीं के नहीं रहेंगे। ईश्वर पर गहरा भरोसा और उससे संपर्क के लिए ही हमें मनुष्य जन्म मिला है। इसे सार्थक करना है तो ईश्वर में डूबना चाहिए। अन्यथा संसार के प्रपंच तो अपने जाल में फंसाने के लिए तैयार खड़े हैं। फैसला करना है कि हमें प्रपंच चाहिए या दिव्य आनंद, अनंत आनंद। दोनों रास्ते खुले हैं। भगवान का रास्ता और माया (शैतान) का रास्ता। ईश्वर के रास्ते पर जाने के लिए अपने दिमाग को सख्त करना पड़ेगा और दृढ़ता से ईश्वर के रास्ते पर आगे बढ़ना होगा। शुरू में थोड़ा कठिन लग सकता है, लेकिन आगे का रास्ता अत्यंत आनंदमय है। लेकिन शैतान के रास्ते पर जाने के लिए किसी तैयारी की जरूरत नहीं है। वह तो यूं ही हमें लुभा रहा है। आप सोए हैं तब भी और जगे हैं तब भी।

Friday, December 4, 2009

पैर बताते हैं कि आपके मन में है क्या

विनय बिहारी सिंह

हमारे ऋषि- मुनि तो मनुष्य के शरीर के स्पंदन से ही बता देते थे कि अमुक आदमी के मन में क्या है। वे शारीरिक हाव भाव से भी जान लेते थे कि किसी व्यक्ति के मन में क्या चल रहा है। ऐसे ऋषि तो निरंतर ईश्वर के संपर्क में रहते थे और पूरे ब्रह्मांड की खबर रखते थे। पश्चिम के वैग्यानिकों ने अब जाकर खोज निकाला है कि स्त्री या पुरुष के हावभाव क्या कुछ कहते हैं। यह अत्यंत रोचक विषय है। जिन बातों पर सामान्य व्यक्ति ध्यान नहीं देता वे भी कितनी महत्वपूर्ण होती हैं यह जानना आवश्यक है। इससे ईश्वर की सृष्टि का रहस्य खुलता है। मनुष्य का मन जब तक परत दर परत अठखेलियां करेगा, वह शांत नहीं रह पाएगा। जिस क्षण वह सारी सोच, सारी चिंताएं दरकिनार कर देगा और ईश्वर में डूब जाएगा, उसे अत्यंत शांति और आनंद का अनुभव होगा। आइए जाने कि रिसर्च क्या है। पश्चिमी वैग्यानिकों ने कहा है कि महिलाओं के पैर बताते हैं कि उनके मन में क्या है। कैसे? अगर महिला बातचीत करते हुए अपने पैर अपने शरीर से दूर रख रही है तो इसका अर्थ है वह आपकी बातचीत पसंद कर रही है और अगर वह पैर सिकोड़े हुए है तो इसका अर्थ है वह आपको और आपकी बातचीत को नापसंद कर रही है। पुरुषों के बारे में कुछ दिन पहले शोध आया था कि अगर पुरुष अपनी मांसपेशियां कड़ी रख कर किसी से बात करता है तो इसका अर्थ है उसके मन में सामने वाले के प्रति कुछ संदेह है। कई पुरुष अपनी मुट्ठियां भींच कर बातें करते हैं। उन्हें इस बात का होश नहीं रहता कि बात करते वक्त उनकी मुट्ठियां किस स्थिति में हैं। इसी तरह लोग अपने पैरों के प्रति अनजान रहते हैं। लेकिन पैर अपना काम करते रहते हैं। वैग्यानिकों ने निष्कर्ष निकाला था कि अगर पुरुष सहज ढंग से बातचीत करता है तो इसका अर्थ है वह बातचीत में रुचि ले रहा है और आपका काम होगा। वैग्यानिकों का कहना है कि स्त्री और पुरुषों में प्रतिक्रिया का अलग- अलग तौर तरीका है। उनका कहना है कि चेहरा और आंखें धोखा दे सकती हैं। लेकिन पैर और मांसपेशियां धोखा नहीं दे सकतीं। इस बीच एक और रिसर्च सामने आया है। वैग्यानिकों ने पाया है कि आपका मन जिस व्यक्ति पर अत्यंत गहराई से टिकेगा, आप भी वैसे ही होते जाएंगे। है न अद्भुत? हालांकि हमारे ऋषि- मुनि इसे पहले ही सिद्ध कर चुके हैं। मान लीजिए आपका मन किसी साधु की ओर खिंच रहा है तो आप जाने- अनजाने उसी जैसा बनते जाएंगे। किसी राजनेता पर या किसी फिल्मी व्यक्ति पर आपका मन गहराई से टिका है तो आप वैसे ही बनते जाएंगे। यह जानने के बाद आप सतर्क हो जाएंगे और हमेशा किसी अच्छे या ऊर्जावान व्यक्ति पर ही मन केंद्रित करेंगे।

Thursday, December 3, 2009

ऊं तो ईश्वर की आवाज है

विनय बिहारी सिंह

ऋषियों ने कहा है- ऊं या ओम ईश्वर वाचक शब्द है। यह अनहत नाद है। कैसे? ऋषि कहते हैं ऊं या ओम तीन शब्दों से बना है- अ, उ और म। अ- यानी सृष्टि, उ- यानी पोषण या सस्टेनेंस और म- यानी लय, जिसे कुछ लोग संहार भी कहते हैं। तो यह ईश्वर वाचक कैसे है? हर आवाज दो वस्तुओं की टकराहट से निकलती है जैसे- ताली या वाद्य यंत्र या अन्य कोई आवाज। अनहत यानी बिना किसी वस्तु के टकराए जो आवाज शास्वत सृष्टि में गूंज रही है वह है ऊं। यह ईश्वरीय सृष्टि की आवाज है। वेद कहते हैं कि अगर ईश्वर से संपर्क करना है तो आप ऊं से संपर्क करें। कैसे? अत्यंत गहरे ध्यान में उतर कर ऊं को सुनें और धीरे- धीरे आपका उसमें लय हो जाए। यानी आप और ऊं एक हो जाएं। तब ईश्वर की अनुभूति होगी। वेद कहते हैं ऊं का उच्चारण संभव नहीं है। ऊं की नकल कर मुंह से उसका उच्चारण संभव नहीं है क्योंकि वह अनहत नाद है। उसकी एकदम कापी नहीं हो सकती। मंदिर में घंटों की आवाज या गिरिजाघरों में घंटों की आवाज ऊं का ही द्योतक है। लेकिन एकदम हू-ब- हू ऊं की नकल नहीं है क्योंकि यह संभव ही नहीं है। ऋषियों ने कहा है कि ऊं अनवरत यानी २४ घंटे सृष्टि में बज रहा है। इसे सुनने से मन को शांति मिलती है। कई लोग तो अपने घरों में या दफ्तर में सुबह शाम ऊं का कैसेट सुनते हैं। इसी में उन्हें बहुत आनंद मिलता है। लेकिन जहां सन्नाटा हो, वहां भी ऊं तो है ही। ऊं से ही यह ब्रह्मांड बना है। बाइबिल में भी कहा है- द वर्ड वाज विथ गॉड एंड वर्ड वाज गॉड। यानी यह शब्द ही ईश्वर है। यह शब्द क्या है? ईसाई धर्म में ऊं आमेन हो जाता है। यह ऊं ही है। यही शब्द सर्वाधिक पवित्र और दिव्य अनुभूतियों का स्रोत है। ऊं के संपर्क से ही पता चलता है कि हम सिर्फ शरीर नहीं हैं। हम मन या चित्त नहीं हैं। हम तो सच्चिदानंद आत्मा हैं। निरंतर आनंद में डूबे हुए। पवित्रता के पर्याय। यह अलग बात है कि हम खुद को भूल गए हैं। हमें हमारी अपनी ही आकांक्षाएं, इच्छाएं और वासनाएं नचा रही हैं। ऐसे में ईश्वर से संपर्क मुश्किल लगता है। लेकिन एक बार ईश्वर की शरण में जाने के बाद हर परिस्थिति आसान हो जाती है। बल्कि सुखद हो जाती है।

Saturday, November 21, 2009

प्रदूषण से कैसे नुकसान होता है हमारा

विनय बिहारी सिंह

कोलकाता महानगर इन दिनों गंभीर रूप से प्रदूषित है। हवा में जो प्रदूषण फैल रहा है उसे विग्यान की भाषा में पार्टीकुलेट मैटर या पीएम कहते हैं। यह पीएम ही शरीर में तमाम तरह की बीमारियां पैदा करता है और मनुष्य की असमय मौत हो जाती है। यह कैसे होता है? आमतौर पर गाड़ियों में इस्तेमाल होने वाले डीजल या पेट्रोल के धुएं से या पावर प्लांट से निकले धुएं वगैरह से। इस पीएम से मनुष्य को कैंसर भी हो सकता है। आखिर पीएम किस चीज का होता है? यह नाइट्रोजन आक्साइड या बेंजीन के खतरनाक कण होते हैं। इससे हड्डी की बीमारी तो होती ही है, हृदय, फेफड़ों, रक्त और मांसपेशियों का रोग भी हो सकता है। कोलकाता में हवा में नाइट्रोजन आक्साइड होना चाहिए ४० माइक्रोग्राम और इस समय वह है ६५ माइक्रोग्राम से भी ज्यादा। इसी तरह बेंजीन की मात्रा होनी चाहिए ५ माइक्रोग्राम लेकिन वह है ३५.६ माइक्रोग्राम। यह आटोमेटिक हाइड्रोकार्बन शरीर को बुरी तरह क्षतिग्रस्त करता है। डाक्टरों का कहना है कि पीएम भी दो तरह का होता है। पीएम १० और पीएम २.५०। तो पीएम १० फेफड़ों को नुकसान पहुंचाता है औऱ इससे प्रभावित व्यक्ति को कफ से परेशान करता है और गले में खराश रहती है। लेकिन पीएम २.५० और घातक है। यह फेफड़ों को बुरी तरह क्षतिग्रस्त करता है। एक डाक्टर का कहना है कि बेंजीन और नाइट्रोजन आक्साइड से हृदय की मांसपेशियां कमजोर हो जाती हैं औऱ हृदय से निकलने वाली इलेक्ट्रिक करेंट कमजोर होने लगती है। ऐसे में व्यक्ति को हृदय रोग का शिकार हो जाता है। ये दोनों खतरनाक तत्व अगर आपके खून में प्रवेश करते हैं और आपको शरीर संबंधी तमाम परेशानियां शुरू हो जाती हैं। जो धूम्रपान नहीं करते उन्हें भी फेफड़ों का रोग धर दबोचता है। इससे बचने का उपाय क्या है? आप अगर महानगर में रहते हैं तो नौकरी या व्यवसाय छोड़ कर अचानक तो जा नहीं सकते। तो जरूरत है पर्यावरण के प्रति सचेत लोगों की जो बार- बार सरकार का ध्यान इधर खींचें। (आज के बाद ३ दिसम्बर को भेट होगी)

इटली की एक रोचक घटना

विनय बिहारी सिंह


यह घटना मुझे एक सन्यासी ने सुनाई। उनका नाम है स्वामी अमरानंद जी। वे दिन- रात ईश्वर में डूबे रहते हैं और अपने नाम के अनुरूप भगवान के अमर आनंद का रस पीते रहते हैं। उन्होंने बताया- इटली में एक घर में बच्चा पैदा हुआ। इस बच्चे की एक १० साल की बहन थी। बच्चा बहुत प्यारा था। कुछ दिनों बाद इस बच्चे की बहन ने अपने मां- बाप से आग्रह किया कि वह अपने भाई को पास जाकर प्यार करना चाहती है। मां- बाप पहले तो डरे कि कहीं सगे भाई- बहनों के बीच प्यार का बंटवारा होने से यह बच्ची नाराज न हो औऱ अपने भाई को कोई नुकसान न पहुंचा दे। बच्ची ने जब कहा कि वह तो अपने भाई को बहुत प्यार करती है। उसके बाल सुलभ आग्रह के आगे मां- बाप पिघल गए और उसे अपने भाई से मिलने दिया। बच्ची अपने नन्हें से भाई के पास गई औऱ दरवाजा बंद कर दिया। मां- बाप बहुत उत्सुक हुए। वे दरवाजे के फांक से अंदर झांकने लगे। बच्ची अपने भाई के कान के पास मुंह ले गई औऱ बोली- मेरे भाई। भगवान देखने में कैसे लगते हैं? तुम तो ताजा ताजा देख कर आ रहे हो। वे क्या कहते हैं? जरा बताओ। मैं तो बड़ी हो कर भूल गई हूं। बस धुंधली सी याद है। प्लीज भाई, बताओ न। यह कह कर बहन बच्चे को दुलारने लगी। मां- बाप उसकी बातें सुन कर स्तब्ध रह गए। (आज के बाद आपसे ३ दिसंबर को भेंट होगी। तब तक के लिए सबको नमस्कार- विनय बिहारी सिंह।

Friday, November 20, 2009

ईश्वर पर अपनी शर्तें मत थोपिए

विनय बिहारी सिंह

हममें से अनेक लोग पूजा- पाठ करते हैं या ध्यान करते हैं तो लगातार भगवान से अपनी मांग पूरी करने के लिए आग्रह करते रहते हैं। यह भी चाहते हैं कि भगवान एक खास ढंग से हमारी मांग पूरी करें। यानी सब कुछ हमारी मर्जी से हो। कई लोग तो मांग पूरी नहीं होने पर कहने लगते हैं कि भगवान है ही नहीं। वे कहते हैं- भगवान इत्यादि कुछ नहीं है। यह सब मन का भ्रम है। कुछ नहीं। यह संसार अपने आप चल रहा है। है न मजेदार बात। लेकिन हम कौन होते हैं भगवान पर अपनी शर्तें लागू करने वाले? यह संसार उसका है। हम उसके हैं। वह चाहे जैसे हमारी मांग पूरी करे या न करे, यह उसकी मर्जी। हम क्यों कहें कि भगवान हमारी मांग आप इस ढंग से पूरी कीजिए? हम बस यही कह सकते हैं कि भगवान, आप कृपा कर मेरा यह काम कर दीजिए। वे कैसे करेंगे, यह वे जानें। बस हो गया। आपका काम यहीं पूरा हो गया। एक महात्मा का कहना है कि अगर आपने अपने दिल से किसी काम के लिए लगातार प्रार्थना की है औऱ वह काम पूरा नहीं हुआ तो यह मान कर चलिए कि उस का उस समय न होना ही अच्छा था। लेकिन इतना तय है कि जब आप प्रार्थना करते हुए आकाश- पाताल एक कर देंगे तो निश्चय जानिए आपका काम होगा। अगर आप किसी का कल्याण चाहते हैं, या आपकी मांग पूरी होने से अगर किसी का नुकसान न हो तो ऐसी मांग भगवान अवश्य पूरी करते हैं।

Wednesday, November 18, 2009

हारिए न हिम्मत, बिसारिए न राम

विनय बिहारी सिंह

कहावत है कि हारिए न हिम्मत, बिसारिए न राम। परमहंस योगानंद ने कहा है- आपका जीवन कैसा बनता है, यह आपकी सोच पर निर्भर करता है। लोग अपने लक्ष्य को पाने के लिए ३० साल ३५ साल तक लगे रहते हैं। वे जितनी बार भी असफल होते हैं, उनमें पिछली बार से दुगुनी ताकत आ जाती है, उत्साह आ जाता है। असफल होने के बाद जो लोग निराश या दुखी होते हैं, वे संघर्ष का मजा नहीं ले सकते। जो आदमी मुसीबतों या तकलीफों में भी चट्टान की तरह डटा रहता है, वही बाद में सफलता का स्वाद चखता है। सहज कुछ भी पा कर आप उसका उतना मजा नहीं ले सकते जितना संघर्ष करने के बाद। इसका अर्थ यह नहीं है कि यहां दुख या तकलीफ को महिमामंडित किया जा रहा है। नहीं, बिल्कुल नहीं। लेकिन ऐसे भी लोग हैं जो जरा सी तकलीफ या कष्ट में बेचैन हो जाते हैं, हारने लगते हैं और उनको लगता है कि यह तो तकलीफों का पहाड़ टूट गया। लेकिन जैसे ही आप अपने से भी ज्यादा तकलीफ झेल रहे लोगों की तरफ देखते हैं तो आपको लगता है कि आपकी तकलीफ तो कुछ भी नहीं है। आप तो आराम से दो वक्त का भोजन कर रहे हैं। नाश्ता कर रहे हैं। ऐसे भी लोग हैं जो आपसे दुगुनी तकलीफ झेल कर भी ठीक से भोजन नहीं कर पाते। नाश्ता की तो बात ही छोड़ दी जाए। मनुष्य का जीवन विभिन्नताओं से भरा हुआ है। हर आदमी का तनाव अलग है औऱ उसे लगता है कि सबसे ज्यादा परेशान या दुखी वही है। बाकी लोग तो मजे में हैं। लेकिन कहावत है न- दूर के ढोल सुहावन। दूसरे को देख कर मन में यह सोचना कि अगला सुखी है, गलतफहमी भी हो सकती है। इसलिए जिसका यह संसार है, क्यों न उसी की याद की जाए। उसने चाहे जो सोच कर यह संसार बनाया, इतना तो तय है कि हम उसकी संतानें हैं। अपनी संतान की वह नहीं सुनेगा तो किसकी सुनेगा? हमने तो कहा नहीं था कि हमें इस नाम से इस रूप में अमुक जगह पैदा करो। भगवान ने खुद ही यह सब किया। हम इसके पहले कहां थे, यह याद भी नही है। तो जो सब जानता है, सर्वग्याता है, उसी की शरण में जाएं। यही तर्कसंगत और आसान भी है। सभी प्राचीन संतों औऱ ऋषि- मुनियों ने कहा है- जो इस ब्रह्मांड का मालिक है, उसी से सीधे संपर्क कीजिए। बस काम बन जाएगा।

Tuesday, November 17, 2009

आखिर बुढ़ापा स्थगित करने का उपाय ढूंढ़ ही निकाला

विनय बिहारी सिंह

इंग्लैंड के अल्बर्ट आइंटाइन कालेज आफ मेडिसिन के शोधकर्ताओं ने आखिर बुढ़ापे को बहुत दिनों तक स्थगित रखने का उपाय ढूंढ़ ही निकाला। उन्होंने कहा है कि जब शरीर की कोशिकाएं मरने लगती हैं तो मनुष्य के शरीर में झुर्रियां पड़ना शुरू हो जाती है। जब शरीर की कोशिकाएं विभाजित होती हैं तो उनमें स्थित टेलोमियर्स नामक तत्व कम पड़ता जाता है। नतीजा यह है कि वह कोशिका विभाजित होते होते मर जाती है। इन शोधकर्ताओं ने डीएनए का परीक्षण बहुत गहराई से करने के बाद पाया है कि अगर टेलोमियर्स को हमेशा के लिए टोन अप रखा जाए तो बुढ़ापा टल जाएगा या नहीं आएगा। तो टेलोमियर्स को टोन कैसे किया जाए? शोधकर्ताओं का कहना है कि इसका भी उपाय है। शरीर में कुछ खास रसायनों के संतुलन से और कुछ रसायनों को शरीर में प्रवेश करा देने से काम बन जाएगा। तब आप ७० साल के व्यक्ति को भी भ्रम से ५० साल का व्यक्ति समझ लेंगे। शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि अगर आदमी खुश रहे तो भी शरीर चमकदार चेहरे वाला रह सकता है। हम सभी च्यवन ऋषि के बारे में जानते हैं। उनका भी कायाकल्प अश्विनी कुमारों ने किया था। वर्षों तक घनघोर तप के कारण उनके शरीर के चारो ओर मिट्टी का घेरा हो गया था। सिर्फ उनकी आंखों वाले स्थान पर दो छेद थे। एक राजा की कन्या अपने पिता के साथ वहां घूमते हुए आई और उत्सुकतावश उसने च्यवन ऋषि की आंखों वाले छेद में एक लकड़ी से खोद दिया। ऋषि की आंखों से धाराधार खून गिरने लगा। उनकी समाधि टूटी। चारो तरफ की मिट्टी अचानक हट गई और ऋषि ने राजा को पुकारा। राजा ने घटना जान कर माफी मांगी। ऋषि ने कहा कि वे इस कन्या से विवाह करेंगे। तेजस्वी ऋषि का प्रताप राजा को मालूम था। उन्होंने अपनी पुत्री को ऋषि से शादी के लिए राजी कर लिया। वयोवृद्ध ऋषि के साथ उसका विवाह हुआ। तब ऋषि ने अश्विनी कुमारों का आह्वान किया। वे आए और ऋषि का कायाकल्प किया। अब ऋषि २० वर्ष के युवा की तरह दिखने लगे। यहां से उनका पारिवारिक जीवन शुरू हो गया। उन्हीं के नाम पर आयुर्वेद की दवा बनाने वाले च्यवनप्राश बनाते हैं। कहने का अर्थ यह कि यह शोध कोई नया नहीं है। हमारे ऋषि- मुनि बहुत पहले से कायाकल्प की कला जानते थे।

Monday, November 16, 2009

भाग्य का नाम गोपाल है

विनय बिहारी सिंह

बांग्ला में एक बहुत ही सुंदर कहावत है। यह कहावत किसी संत के कथन से निकली है। कहावत है- कपालेर नाम गोपाल। इसका अर्थ है- भाग्य का नाम गोपाल (ईश्वर) है। इस संत की पुस्तक की बहुत ही पुरानी फटी हुई पांडुलिपि पढ़ने को मिली। इसलिए उनका नाम और किताब का नाम वह भाई नहीं बता सके जिनकी आलमारी में यह पड़ी हुई थी। लेकिन है गजब की पुस्तक। संत ने कहा है- आप भाग्य को लेकर हमेशा रोते मत रहिए। या अपने भाग्य को कोसते मत रहिए। अपनी नौकरी, अपने परिवेश, अपने पति या पत्नी या दोस्त या पड़ोसी को लेकर कुढ़ते मत रहिए। तो क्या करें? संत ने लिखा है- जो भी चीज आपके पास है या आपको मिली हुई है। उसका एक कारण है। क्या कारण है? ईश्वर आपको कुछ सबक सिखाना चाहते हैं। आपने विगत में जो काम किए हैं, उसका रिएक्शन अभी या महीने, दो महीने, आठ महीने बाद जरूर मिलेगा। हमारे कर्म हमारा पीछा करते रहते हैं। इन्हीं कर्मों के कारण आपको प्यार या घृणा या कटु वाक्य या झगड़ा या मनमुटाव या तनाव है। इनसे सीखिए। ये खराब या अच्छी परिस्थितियां आपको सबक सिखाने के लिए आपको मिली हैं। सभी जानते हैं कि एक न एक दिन सबको मरना है। लेकिन लोग इस सच्चाई को याद नहीं रखते। बार- बार प्रपंच में फंसे रहना चाहते हैं। ५०, ६० ७० या १०० साल बाद मरना ही है हमको। तब फिर? इस पर कुछ लोग सवाल करते हैं कि अगर मरना है तो क्या आनंद लेना छोड़ दें? नहीं कौन कहता है कि आनंद लेना छोड़ दीजिए। लेकिन प्रश्न है कि आप आनंद किसको कहते हैं और असली आनंद कहां छुपा है? अगर आप शराब पीने और जुआ खेलने को आनंद कहते हैं, गप्प हांकने को आनंद कहते हैं तो माफ कीजिए यह आनंद नहीं है। एक भाई ने कहा कि गप्प हांकना भी स्वास्थ्य के लिए जरूरी है। जी नहीं। यह हमारे लिए जहर है। मीठा जहर। ज्यादातर गप्प के बहाने पर निंदा ही होती है। कौन कैसा है, इसी पर चर्चा होती है। या अगर नहीं भी होती है तो समय बरबाद क्यों किया जाए? आप पूछेंगे कि क्या करें? कोई अच्छी किताब पढ़ सकते हैं। किसी रचनात्मक योजना पर सार्थक बातचीत कर सकते हैं। प्रेरणादायी पुस्तक पढ़ सकते हैं। किसी सफल व्यक्ति से उसके जीवन के सबक को सुन सकते हैं। ऐसे सफल व्यक्ति निश्चय ही आपके आसपास होंगे या नहीं तो उनकी पुस्तकें तो हैं ही। कुछ लोग तो खुद को समृद्ध करने के लिए आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ते हैं। तो भाग्य का नाम गोपाल है। यानी अगर आप अपना भाग्य ईश्वर को समर्पित कर देंगे तो वे आपका भाग्य बदल देंगे। इसका क्या अर्थ हुआ? अर्थ यह है कि भाग्य वाग्य कुछ नहीं होता। जो कुछ होता है वह ईश्वर ही है। आप ईश्वर की शरण में जाइए और भाग्य को भूल जाइए। वे तो बिगड़ी बनाने वाले हैं। उनका नाम ही है अनंत ब्रह्मांडों के स्वामी यानी भगवान। भाग्य का नाम भगवान। यानी वे कभी भी आपके ऊपर कृपा कर सकते हैं। बस निरंतर उनका स्मरण कीजिए। उनसे प्यार कीजिए।

Friday, November 13, 2009

ईश्वर के सर्वव्यापी होने का लाभ

विनय बिहारी सिंह

जब राक्षस हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र प्रह्लाद से पूछा- तेरा भगवान कहां है? उसने प्रह्लाद को खंभे में बांध दिया था क्योंकि वह ईश्वर भक्त था। हिरण्यकश्यप कहता था कि वह अपने पिता का नाम जपे, उसकी पूजा करे। कृष्ण, कृष्ण रटना तो पागलपन है। उसने पूछा कहां है तेरा भगवान? और तलवार से उसकी हत्या करनी चाही। तो प्रह्लाद ने कहा- हममें तुममें खड्ग खंभ में घट घट व्यापत राम। यानी वह ईश्वर हममें है, तुममें है, तुम्हारी तलवार में है औऱ जिस खंभे से तुमने मुझे बांधा है, उसमें भी है। हिरण्यकश्यप अट्टाहास करने लगा। उसे वरदान मिला हुआ था कि उसे न कोई मनुष्य मार सकता है न जानवर, न देवता और न राक्षस। उसकी मृत्यु न दिन में हो सकती है न रात में और न दोपहर को। लेकिन भगवान के सामने किसी की कहां चलती है? वह तो सर्वशक्तिमान है। भगवान ने उसे मारने के लिए न दिन चुना और न रात। समय कौन सा चुना? शाम का। और खुद नृसिंह अवतार धारण किया। यानी आधा शरीर मनुष्य का और आधा सिंह का। इस तरह भगवान ने हिरण्यकश्यप का वध किया। तो यह कथा बताती है कि ईश्वर हर जगह है। बस ज्योंही आपका हृदय भगवान के लिए तड़पने लगा। आपका रोम- रोम भगवान को चाहने लगा। बस वे हाजिर हो जाते हैं। वे किसी न किसी रूप में आपकी मदद करते हैं, आपकी रक्षा करते हैं। कई बार यह महसूस कर कितना सुख मिलता है कि ईश्वर सर्वव्यापी है। यानी हर जगह मौजूद है- आम्नीप्रेजेंट। इसका लाभ यह है कि आप जब चाहें तभी ईश्वर से संपर्क कर सकते हैं। चाहे आप सुरंग में हों, हवाई यात्रा कर रहे हों, जमीन पर चल रहे वाहन में हों या कहीं भी हों। आप ईश्वर से कनेक्ट हो जाते हैं, ईश्वर से जुड़ जाते हैं। ईश्वर की धारा आपके भीतर बहने लगती है। इसके लिए ईश्वर के प्रति प्यार होना चाहिए। बिल्कुल स्वाभाविक प्यार। ऐसा नहीं कि हमें ईश्वर से जबर्दस्ती प्यार करना है। हम तो उसी के अंश हैं। हमारे भीतर ही वह बैठा है। और बाहर भी है । हमारे हृदय में है वह। जैसे ही हम ईश्वर को अपना हृदय देंगे, वे हमें अपने आगोश में बिठा लेंगे। वे तो हमारे लिए प्रतीक्षा में बैठे हैं।

Thursday, November 12, 2009

जर्मनी के गोलकीपर ने आत्महत्या क्यों की?

विनय बिहारी सिंह

जर्मनी के धुरंधर फुटबाल खिलाड़ी राबर्ट एनके ने कल आत्महत्या कर ली। उन्हें हमेशा डर लगता रहता था कि वे अपनी स्टार हैसियत खो न दें। कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए। यह एक मानसिक बीमारी है, जिसका इलाज सन २००२ से चल रहा था। लेकिन वे इससे उबर नहीं पा रहे थे। सबको उम्मीद थी कि वे अगले साल होने वाले वर्ल्ड कप में जर्मनी को एक खास जगह दिलाएंगे। आखिर वे स्टार खिलाड़ी थे। भौतिक दृष्टि से एक व्यक्ति के पास जो कुछ होना चाहिए उनके पास था। मेधावी और अत्यंत सुंदर पत्नी टेरेसा थी। चोटी की लोकप्रियता थी। पर्याप्त धन था। खूबसूरत मकान था और सुख के सारे संसाधन थे। फिर भी राबर्ट ने ३५ साल की उम्र में आत्महत्या कर ली क्योंकि उसे बराबर यही लगता था कि लोगों को उसकी बीमारी का पता चलेगा तो उसकी लोकप्रियता मिट्टी में मिल जाएगी। उसने एक बेटी गोद ली हुई थी। यह बेटी भी बहुत प्यारी थी। राबर्ट को डर लगा रहता था कि अगर बेटी के असली मां- बाप को उसकी बीमारी का पता चल जाएगा तो वे अपनी बेटी को वापस बुला लेंगे। कई बार उसे यह भी लगता था कि उसके पास जो इतने ऐशो- आराम की चीजें हैं, वे सब एक दिन नहीं रहेंगी। यानी असुरक्षा और भयंकर डर का शिकार था वह। उसकी पत्नी टेरेसा ने कहा है कि सबकुछ खो जाने का सवाल ही नहीं है। अनेक खिलाड़ी बीमार हुए हैं और उससे उबर कर काफी लोकप्रिय हुए हैं। और हमारा धन क्यों खत्म हो जाएगा? हम काफी सोच- समझ कर खर्च करते हैं औऱ हमेशा बचत के बारे में सोचते रहते हैं। ऐसे में डरते रहने की कोई वजह नहीं थी। इलाज भी चल रहा था। लेकिन कोई भी दवा कारगर साबित नहीं हो पा रही थी। असुरक्षा और भय। यह राबर्ट ही नहीं दुनिया के अनेक लोगों को खा जाता है। या खा रहा है। अन्यथा लाइफ इंश्योरेंस वालों का धंधा नहीं चलता। फिर भी हमारे देश में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जिन्होंने कभी अपना बीमा नहीं कराया यानी लाइफ इंश्योरेंस नहीं कराई। उनकी नियमित आमदनी नहीं है। लेकिन वे भय में नहीं जीते। वे जानते हैं कि भय से आदमी जीते जी मर जाता है। हालांकि अपने देश में भी अभाव से तंग आकर लोग आत्महत्या करते हैं, लेकिन आत्महत्या करने वालों को कायर कहा जाता है। कोई भी आत्महत्या करने वाले की प्रशंसा नहीं करता। जो डर कर हार गया और जिसने जीवन की कठिनाइयों से संघर्ष नहीं किया, वह संतुलित मनुष्य कहलाने लायक नहीं है। वह कायर है। अनेक संतों ने कहा है- आत्महत्या करने वालों को मरने के बाद भी चैन नहीं मिलता । उनकी आत्मा कष्ट पाती है, भटकती है औऱ पीड़ा झेलती रहती है। लेकिन राबर्ट के डर ने यह साबित कर दिया कि सफलता सबको आत्मविश्वास से नहीं भरती। बीमार बीमार ही रहेगा, चाहे वह सोने- चांदी की खाट पर क्यों न सोए। चाहे वह समृद्धि की चरम सीमा पर ही क्यों न पहुंच जाए। इसका एक ही उपाय है- भगवान की शरण में जाना। अगर परेशान, कष्टों से घिरा हुआ व्यक्ति अपने दिल से ईश्वर के शरणागत होता है तो सच मानिए, उसका कल्याण हो जाता है। ऐसी अनेक घटनाएं मैंने देखी है। बस ईश्वर में पक्का विश्वास होना चाहिए।

Wednesday, November 11, 2009

साधक को ‌‌तब लगा- हां, ईश्वर कृपालु हैं

विनय बिहारी सिंह

एक बार एक साधक वाराणसी के विश्वनाथ मंदिर में पूजा करने जा रहे थे। आटोरिक्शा से उतर कर किराया देने की बारी आई तो उन्हें याद आया कि अपना पर्स तो वे होटल के कमरे में ही छोड़ आए हैं। पाकेट टटोलने के बाद उन्होने पाया कि शर्ट के ऊपर के पाकेट में सिर्फ दस रुपए थे। उन्होंने आटोरिक्शा वाले को किराया दे दिया। होटल स्टेशन के पास था और वहां से दूर था। वे लगभग मंदिर के करीब पहुंच चुके थे। उन्हें प्रसाद खरीदना था जिसके लिए उनके पास पैसे नहीं थे। वर्षों बाद वे इस प्रसिद्ध मंदिर में पूजा करने आए थे। कल उन्हें वापस दिल्ली लौट जाना था। प्रसाद चढ़ा कर घर ले जाने की तमन्ना उन्हें कचोट रही थी। आखिर उन्होंने सोचा कि वे होटल लौट जाएं औऱ पर्स लेकर आएं तब प्रसाद वगैरह चढ़ाएं। ज्यादा से ज्यादा घंटे भर की देर होगी। वे मायूस होकर मंदिर के द्वार पर यही सब सोच रहे थे। वहां से हटने का उनका मन भी नहीं कर रहा था। फिर सोचा कि वे पर्स ले आने के पहले एक बार बाबा विश्वनाथ का दर्शन तो कर लें। तब तक देखते क्या हैं कि सामने से उनकी बहन चली आ रही है जिसका ब्याह कलकत्ता में हुआ है। वे चकित और खुश हो गए। बहन भी उन्हें देख काफी खुश हुई। हालचाल पूछा। कहां ठहरे हैं, वगैरह पूछ लेने के बाद साधक ने कहा- मेरा तो पर्स ही होटल में छूट गया है। बहन बोली- तो दिक्कत क्या है। मैं प्रसाद चढ़ाने के पैसे दे देती हूं। कितने चाहिए- सौ, दो सौ। साधक ने कहा- १०१ रुपए का प्रसाद चढ़ाने की इच्छा है। इसके अलावा होटल तक जाने का किराया। बहन हंसने लगी। उसने भाई को यथोचित पैसे दिए। बहनोई भी उनकी इस भूल पर हंस रहे थे। साधक ने आनंद के साथ पूजा किया। प्रसाद दुकानदार से बंधवा लिया ताकि घर ले जा सकें। फिर बहन से पूछा- अचानक आज ही वाराणसी आने का तुम्हारा प्लान कैसे हुआ? बहन बोली- परसों सुबह तक कोई प्लान नहीं था। हम लोग बैठे सुबह की चाय पी रहे थे कि तभी पड़ोस के हमारी एक सहेली आई और बोली कि उसका वाराणसी जाने का प्रोग्राम रद्द हो गया है क्योंकि उसकी लड़की को देखने वाले लोग आ रहे हैं। उसने कहा - तुम चाहो तो मेरे टिकट पर वाराणसी घूम आओ। आज रात ही ट्रेन है। टिकट कैंसिल कराने से भी बहुत कम पैसा मिलेगा। इससे अच्छा है कि तुम लोग घूम आओ। बस उसी के टिकट पर हम लोग चले आए। उसने टिकट के पैसे भी नहीं लिए। हम तो वाराणसी आने की दो साल से सोच रहे थे। मंदिर आई तो देखा आप दरवाजे पर खड़े पता नहीं क्या सोच रहे हैं। तीनों लोगों ने साथ भोजन किया औऱ दिन भर साथ- साथ घूमते रहे। साधक बार- बार कहते रहे- ईश्वर कृपालु हैं, यह एक बार फिर साबित हो गया।

Tuesday, November 10, 2009

मां पीटती रही, बच्चे ने उसकी साड़ी नहीं छोड़ी

विनय बिहारी सिंह

रविवार को एक सन्यासी ने दिल को छूने वाली एक घटना सुनाई और उसे ईश्वर से जोड़ा। उन्होंने कहा- मैं एक जगह जा रहा था। रास्ते में देखा- एक मां अपने बच्चे को पीट रही है। बच्चा चिल्ला रहा है। लेकिन जाए कहां? तो उसने मां की साड़ी जोर से पकड़ी हुई थी और चिल्ला रहा था- मां, मां, मां। मां को जितना पीटना था, पीट लिया। लेकिन बच्चे का तो कोई ठौर नहीं है। वह मां की साड़ी पकड़े रहा और रोता रहा। सन्यासी ने कहा- यही हमें भगवान के साथ करना चाहिए। दुख है, कष्ट है। लेकिन हम जाएं कहां? भगवान तुमको जोर से पकड़े रहेंगे। हम ईश्वर को छोड़ेंगे ही नहीं, भूलेंगे ही नहीं। कई लोगों की एक बहुत अच्छी आदत होती है। वे हर घंटे या आध घंटा पर अपनी आंखें बंद कर कहते हैं- राम, राम। या शिव, शिव। ऋषि कहते हैं- दिल से किया गया ऐसा स्मरण हमें अमृत जैसा फल देता है। कई लोग व्यस्तता के बीच जब भी खाली समय मिलता है, चाहे एक मिनट ही सही- भगवान का स्मरण करते हैं। हममें से कई लोगों को कोई दुख है, कोई कष्ट है, अभाव या तनाव है। हम तो अपने किए का फल भोग रहे हैं। लेकिन भगवान चाहते हैं कि इन कष्टों से हम सीखें और भविष्य मे कुछ भी करने से पहले, कुछ भी बोलने से पहले सावधान होकर सोचें- हम कर क्या रहे हैं, बोल क्या रहे हैं, व्यहार कैसा कर रहे हैं। यह बहुत मुश्किल नहीं है। रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि खानदानी किसान अगर फसल सूख जाए, फसल को पाला मार दे या उपज बिल्कुल कम हो तो भी खेती करना नहीं छोड़ता। उसके पास कोई उपाय ही नहीं है। ठीक उसी तरह भक्त चाहे कोई तनाव हो, दिक्कत हो या कोई भारी परेशानी हो, भगवान को प्रेम करना नहीं छोड़ता। हमेशा उसके दिलोदिमाग पर भगवान ही छाए रहते हैं। मैंने एक अमेरिकी व्यक्ति को देखा है। वह हमेशा कहता रहता है- गाड, माई लार्ड आई लव यू, आई लव यू। रिवील दाईसेल्फ। आई लव यू।

Saturday, November 7, 2009

सीमित कौन करता है मनुष्य को?

विनय बिहारी सिंह

यूनिवर्सिटी आफ कैलीफोर्निया के वैग्यानिकों ने कहा है कि उन्होंने ऐसा कंप्यूटर तैयार कर लिया है जो मनु्ष्य के दिमाग में चल रही बातों का पता लगा सकता है। उन्होंने उम्मीद जताई है कि भविष्य में सपनों को भी रिकार्ड किया जा सकेगा। लेकिन जब कंप्यूटर नहीं था तो हमारे ऋषि- मुनि किसी भी व्यक्ति के दिमाग को स्कैन कर लेते थे। चाहे वह व्यक्ति सामने हो या दूर। उनमें यह क्षमता थी कि वे बैठे कहीं और हैं और अपनी स्पष्ट आवाज में सौ मील दूर किसी व्यक्ति को अपना निर्देश दे रहे हैं। उनका मानना था कि मनुष्य खुद को शरीर मान कर अपने को सीमित कर रहा है। दरअसल मनुष्य को शरीर से ऊपर उठ कर चिंतन करना चाहिए। मनुष्य सच्चिदानंद आत्मा है। उसका स्वरूप विराट है। यानी मनुष्य असीम है। वह अपने ही बनाई सीमाओं में तड़पता रहता है। इसी पाश या बंधन को काटना है। भगवान शिव को इसलिए पशुपति कहते हैं क्योंकि वे हमारे पाशों को काट देते हैं। हमें निर्भय और मुक्त कर देते हैं। तो फिर मनुष्य को सीमित कौन करता है? उसकी इंद्रियां। इंद्रियां हमें अपना गुलाम बनाए रहती हैं। कई लोग भोजन को लेकर इतने आसक्त होते हैं कि बिना खाए रहने की वे कल्पना भी नहीं कर सकते। लेकिन हमारे संतों ने उपवास रखने की सलाह दे रखी है। पूरे दिन औऱ रात उपवास रखिए। भोजन के गुलाम न बनिए। इससे आपके शरीर की सफाई होगी। जीभ पर नियंत्रण रखिए। बोलने में और खाने में भी जीभ पर अंकुश हो। तब हमारा जीवन आनंदमय हो सकता है। नियंत्रण में कष्ट तो है। लेकिन जिन लोगों को सुगर (रक्त शर्करा) की बीमारी है, वे तुरंत मीठी चीजें, आलू और चावल वगैरह छोड़ देते हैं। क्योंकि उन्हें अपने जीवन को बचाना होता है। लेकिन अगर किसी बीमारी के बिना यूं ही जीवन में परहेज के लिए कहा जाए तो ज्यादातर लोग सलाह नहीं मानते। उन्हें लगता है कि ठीक ही तो चल रहा है जीवन। लेकिन शरीर के भीतर सूक्ष्म रूप से क्या चल रहा है, इसे कौन जानता है? ऋषि- मुनि तो फिर भी जानते थे क्योंकि उन्हें दिव्य दृष्टि मिली हुई थी। आज भी ऐसे साधक हैं लेकिन उन्हें गिने- चुने ही लोग जान पाते हैं। ऐसे लोग अपना प्रचार नहीं चाहते क्योंकि उनकी साधना में बाधा आती है। भीड़- भाड़ ऐसे लोगों को पसंद नहीं। तो ऋषि- मुनियों ने हमें संयम सिखाया और कहा कि रोग व्याधि से दूर रहने के लिए अमुक- अमुक कदम उठाने चाहिए। अति किसी चीज में नहीं होना चाहिए। सोने और जागने का भी नियम उन्होंने बना दिया। कहा- मनुष्य को ब्रह्म मुहूर्त में जग जाना चाहिए। आज कितने लोग हैं जो ब्रह्म मुहूर्त में उठते हैं? जो उठते हैं वे भाग्यशाली हैं। कम से कम सूर्योदय के पहले तो उठना अति आवश्यक है। लेकिन अनेक लोग सूर्योदय के बाद भी सोते रहते हैं। इसीलिए ऋषि पातंजलि ने यम और नियम बनाए। हमें यम और नियम से सूत्रों के सहारे चलने में खुशी होनी चाहिए। आखिर फायदा तो हमारा ही है।

Friday, November 6, 2009

मृत्यु तो रूपांतरण है, दुख क्यों?

विनय बिहारी सिंह

बचपन में अपने गांव में शव यात्रा में बैंड बजते देख कर मैंने एक बुजुर्ग से पूछा था- मृत्यु पर खुशी का संगीत क्यों? बुजुर्ग ने कहा था- जब कोई बूढ़ा व्यक्ति मरता है तो माना जाता है कि उसने भरी- पूरी जिंदगी जी और आराम से चला गया। इसी की खुशी में बैंड बजाया जाता है। बड़ा हुआ तो गीता ने इसे और स्पष्ट कर दिया। मृत्यु के बाद जन्म और जन्म के बाद मृत्यु निश्चित है। परमहंस योगानंद कहते थे- योगी इस संसार को एक स्कूल के रूप में देखे। लगातार आत्मविश्लेषण करे कि वह लगातार बेहतर हुआ है या नहीं। उसके जीवन में प्रेम, भक्ति और सेवा की कितनी जगह है। आत्ममंथन जरूरी है। हमसे किसी को कष्ट न हो, इसका ख्याल रहे। सबसे प्रेम से मिलना चाहिए। किसी को नीचा देखना, ईश्वर की कृति का अपमान करना है। खुद को सुधारते हुए ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए- भगवान, अब और इस संसार में न आना पड़े। इसके लिए चाहे जो परीक्षा लेनी हो, ले लीजिए लेकिन मुझे आवागमन से मुक्त कीजिए। जैसे कोई किसी कक्षा में फेल हो गया तो उसे फिर उसी कक्षा में पढ़ना पड़ता है, ठीक वैसे ही अगर हमने खुद को ईश्वर के लायक नहीं बनाया औऱ अपनी इच्छाओं के वश में रहे तो इस संसार में बार- बार आना पड़ेगा। इच्छाएं हमें नचाती हैं। इन इच्छाओं को जब हम वश में कर लेंगे तो फिर हमारी बेचैनी, हमारा तनाव हमारी चंचलता सब खत्म हो जायेंगे। लेकिन मृत्यु से पहले अगर हमने अपने जीवन को भीतर से बेहतर नहीं बनाया। ईश्वरोन्मुखी नहीं बनाया तो मृत्यु के बाद भी हमारी गति वैसी ही रहेगी। हमें फिर से जन्म लेकर उसी प्रपंच में पड़ना पड़ेगा। इसलिए जिसने खुद को ईश्वर के रास्ते पर प्रस्तुत कर दिया है और फिर संसार में नौकरी- चाकरी या व्यापार कर रहा है, उसकी बिगड़ी बन जाएगी। रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- जैसे कटहल काटने के पहले लोग हाथ में तेल लगा लेते हैं ताकि कटहल से निकला चिपचिपा पदार्थ हाथ में न चिपके, उसी तरह संसार का प्रपंच हमारे मन को प्रभावित न करे, इसके लिए ईश्वर की भक्ति रूपी तेल जरूरी है।

Thursday, November 5, 2009

भय में विश्वास है लेकिन ईश्वर में नहीं

विनय बिहारी सिंह

अनेक लोग भय की कथाओं में बहुत रस लेते हैं। या सुनने या टीवी पर इस तरह की फिल्में या सीरियल देखने में बहुत रुचि लेते हैं। लेकिन जैसे ही भगवान की बात चलती है, टीवी बंद कर देते हैं। भगवान में उनको रस नहीं मिलता। यानी कई लोग काल्पनिक भय की कथा में सनसनी पाते हैं, लेकिन भगवान की बात में नहीं। है न आश्चर्य की बात? जिसने अनंत कोटि ब्रह्मांड बनाए हैं, उसमें कोई रुचि नहीं है। लेकिन एक निगेटिव बात में काफी रुचि है। ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि जहां- जहां वे नकारात्मक शक्तियों की कल्पना कर रहे हैं, वहां- वहां भगवान भी है। आप जिसके बारे में सोचेंगे, जिसकी बात करेंगे, जिससे प्रभावित होंगे, वही आपको आकर्षित करेगा। अगर कल्पना भी कर लें कि भूत का अस्तित्व है तो उसकी शक्तियों की एक सीमा है। लेकिन ईश्वर असीम है, अनंत है और सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्व ग्याता है। तब क्यों ईश्वर को छोड़ कर लोग भय और निंदा की बातें करते हैं। सभी संतों ने मनुष्य से कहा है- आप ईश्वर प्रधान व्यक्ति बनिए। आपका मंगल होगा। ईश्वर के राज्य में कोई भय नहीं, कोई चिंता नहीं है। ईश्वर हम सबका है। हम सबके भीतर भी है और बाहर भी। सर्वव्याप्त है वह। हमारा अस्तित्व भी उसी के कारण है। वह हमें प्यार करता है। जो लोग पाप के बारे में पूछते थे उनसे परमहंस योगानंद कहते थे - ईश्वर से नाता तोड़ना ही सबसे पाप है। भक्तों से वे कहते थे- ऐसा नहीं कि आप ही ईश्वर को प्यार करते हैं और उसे चाहते हैं, ईश्वर भी आपको प्यार करता है औऱ चाहता है। लेकिन बस, वह आस लगाए बैठा है कि आपके भीतर उसे प्यार करने की चाहत अपने आप पैदा हो। बिना किसी दबाव के। वह तो हमारे प्यार का भूखा है। बस हमें अपने भीतर उसके प्रति प्यार को बढ़ाते जाना है। ईश्वर के प्रति प्यार ही असली प्यार है। वही टिका रहेगा। मनुष्य का प्यार तो शर्तों पर आधारित है। लेकिन यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि हमें आपस में प्यार से नहीं रहना चाहिए। बेशक हमें प्रेम औऱ सौहार्द से रहना चाहिए। लेकिन ईश्वर के प्यार की तुलना किसी भी प्यार से नहीं हो सकती।

Wednesday, November 4, 2009

साइड एफेक्ट वाली दवाओं का कहर

विनय बिहारी सिंह

नाइस, विक्स एक्शन ५०० जैसी दवाओं पर अब जाकर केंद्र सरकार की नजर पड़ी है। न जाने कितने वर्षों से लोग इन दवाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं। कुछ डाक्टरों की सलाह पर और कुछ बिना सलाह के। विभिन्न अख़बारों से जो सूचनाएं मिली है आज उसी पर चर्चा की जाए। शोध से पता चला है कि साइड एफेक्ट वाली दवाओं से लीवर खराब हो सकता है, पाचन तंत्र गड़बड़ हो सकता है और शरीर में कष्टदायी लक्षण पैदा हो सकते हैं। आज के टाईम्स ऑफ़ इंडिया के अंक में है-- एंटी बायोटिक दवाओं से माताओं के गर्भ पर बहुत बुरा असर पड़ता है। नतीजा यह होता है कि पैदा होने के पहले ही बच्चा विभिन्न जटिलताओं का शिकार हो जाता है। एक अन्य शोध के मुताबिक यह भी पाया गया है कि ऐसे बच्चे बड़े होकर अनावश्यक तनाव में रहते हैं। विशेषग्यों ने आशंका जताई है कि बिक रही कई दवाओं में घातक साइड एफेक्ट वाली भी हो सकती हैं। उनकी गंभीरता से जांच की जानी चाहिए। गांवों और कस्बों में छोटी- मोटी बीमारियों के लिए लोग डाक्टरों से सलाह नहीं लेते। वे जिस- तिस से पूछ कर दवा खरीद लाते हैं और सुबह- शाम खा कर अपने शरीर पर खतरनाक प्रयोग करते रहते हैं। अनेक लोगों का मानना है कि एलोपैथिक दवाएं बगैर साइड एफेक्ट के नहीं होतीं। लेकिन चूंकि उनका तत्काल कुप्रभाव नहीं दिखाई देता, इसलिए लोग उन्हें खाते रहते हैं। लेकिन जब शरीर में इन दवाओं के साइड एफेक्ट के रूप में इकट्ठा विष एक सीमा से ज्यादा हो जाता है तो गंभीर बीमारी बन कर उभरता है। गांव के लोगों का कहना है कि डाक्टरों की फीस इतनी ज्यादा हो गई है कि लोग उनसे सलाह लेने से कांपते हैं। विदेशों की बात अलग है जहां प्रति व्यक्ति आय ज्यादा है। अपने देश में आयुर्वेद की दवाएं प्रचलित थीं। लेकिन एक खास साजिश के तहत उनका प्रचलन कम होता गया औऱ एलोपैथिक दवाओं का बाजार बनाए रखने के लिए उनकी महानता के गुण गाए जाने लगे। अपने यहां जड़ी- बूटियों की भारी संख्या है। जरूरत है उनके जानकारों की और उसके सही उपयोग की। आज भी आदिवासी इलाकों में जड़ी- बूटियों से रोगों को ठीक करने का चलन है। वे लोग पेट इत्यादि के लिए कभी एलोपैथिक दवाएं खाते ही नहीं । यह मैंने अपनी आंखों से देखा है। पेट के लिए तो जडी- बूटियां जादू की तरह असर करती हैं। पेट से ही हजारों रोगों का जन्म होता है। अगर अब भी आयुर्वेद को बढ़ावा मिले तो करोड़ो लोगों को राहत मिलेगी।

Tuesday, November 3, 2009

क्या सचमुच आएगा प्रलय २०१२ में

विनय बिहारी सिंह

भौतिक शास्त्रियों ने आशंका जताई है कि २०१२ में एक ग्रह- प्लैनेट एक्स पृथ्वी से टकराएगा और भयंकर भूकंप, ज्वालामुखी विस्फोट और सुनामी जैसी प्राकृतिक विनाश होगा। इसमें सभी मनुष्य मारे जाएंगे। जर्मनी के वैग्यानिक रोसी औडोनील और विली नेल्सन का कहना है कि पृथ्वी से प्लैनेट एक्स २१ दिसंबर २०१२ को टकराएगा। आपने इसका शोर टीवी चैनलों पर सुना ही होगा। लेकिन समाचार एजंसी भाषा के मुताबिक वैग्यानिक प्रोफेसर यशपाल ने कहा है कि ब्रह्मांड ऐसे हजारो क्षुद्र ग्रहों और आकाशीय पिंड चक्कर लगा रहे हैं, जो किसी भी समय पृथ्वी से काफी करीब से गुजर सकते हैं और पृथ्वी से टकरा सकते हैं। उनके मुताबिक इसकी बहुत कम संभावना है कि प्लैनेट एक्स का पृथ्वी से टक्कर हो। लेकिन उन्होंने कहा है कि अगर टक्कर हुई तो इसकी तीव्रता सबसे बड़े परमाणु विस्फोट से काफी ज्यादा होगी और एक समय जैसे डायनासोर समाप्त हो गए थे, उसी तरह पृथ्वी से मानव जाति समाप्त हो जाएगी। हाल ही आई किताब डार्क रेड प्लैनेट एक्स की पृथ्वी से टक्कर का ब्यौरा पेश किया गया है। ब्रिटिश वैग्यानिक और लेखक जेक्रियाह सिटचीन का कहना है कि प्लैनेट एक्स पृथ्वी की ओर हर ३६०० साल बाद आता है। इसके कारण पृथ्वी के साथ टक्कर की आशंका है। वैग्यानिकों का यह भी कहना है कि इस टक्कर के कारण पृथ्वी अपनी धुरी से आगे की ओर चली जाएगी। इस खबर के बाद कई लोग कह रहे हैं कि यही वह समय है जब प्रलय आयेगा लेकिन वैग्यानिकों के एक तबके का मानना है कि प्लैनेट एक्स आएगा जरूर लेकिन पृथ्वी से बिना टकराए ही चला जाएगा औऱ प्रलय नहीं होगा। लेकिन दुनिया भर वैग्यानिक यह भी मान रहे हैं कि अभी से कुछ भी कहना संभव नहीं है। यह पूरा ब्रह्मांड ईश्वर का है। वे ही इसके मालिक हैं। वे जो कुछ भी करेंगे, सबके हित में होगा। प्रलय हो तब भी और न हो तब भी।

Monday, November 2, 2009

प्रेम में रूपांतरण की ताकत

विनय बिहारी सिंह

यह कथा रामकृष्ण परमहंस सुनाया करते थे। एक शिकारी को पक्षियों का शिकार ही नहीं मिल रहा था। कई दिन बीत गए। एक दिन वह नदी के किनारे से गुजर रहा था। उसने देखा- एक साधु ताली बजा रहे हैं और भजन भी गा रहे हैं। पक्षी उनके कंधे पर बैठ रहे हैं। साधु उन्हें प्यार कर रहे हैं। यह शिकारी के लिए अद्भुत दृश्य था। आखिर इस साधु में क्या आकर्षण है? उसे देख कर तो सारे पक्षी भाग जाते हैं। शिकारी ने भी साधु की तरह दाढ़ी- मूंछें बढ़ानी शुरू कर दी। वह भी साधु की तरह कपड़े पहनने लगा। इस लालच में कि इस वेश में पक्षी आएंगे तो वह उन्हें धोखे से मार डालेगा। जब दाढ़ी पूरी तरह बढ़ गई तो उसने गेरुआ रंग का वस्त्र पहन कर उसी तरह ताली बजाने लगा और भजन भी गाने लगा। सचमुच पक्षी उसके कंधे पर बैठ गए औऱ चोंच से उसके गाल पर प्यार करने लगे। यह शिकारी के लिए नया अनुभव था। ऐसा तो उसके जीवन में कभी हुआ ही नहीं था। पक्षियों से उसका संबंध शिकार और शिकारी का था। प्यार का तो कभी रहा नहीं। पक्षियों का यह प्यार उसे अद्भुत लगा। वह रोज नदी में नहाने आने लगा और पक्षियों को बुलाकर कुछ देर उनके साथ रहने लगा। उसकी आत्मा पक्षियों को मारने से मना कर देती। वह प्यार करने वाले पक्षियों से क्रूरता से पेश ही नहीं आ पा रहा था। रामकृष्ण परमहंस कहते थे- यह है प्रेम के माध्यम से रूपांतरण। यह प्रेम अगर मनुष्यों के बीच हो तो पूरा समाज ही बदल जाए। और अगर यह प्यार ईश्वर के प्रति हो तो फिर आपका जीवन ही बदल जाएगा। कोई चिंता ही नहीं रहेगी। आनंद ही आनंद रहेगा। रामकृष्ण परमहंस कहते थे- सबसे ज्यादा हमसे ईश्वर ही प्रेम करता है। अगर उसके प्रेम का जवाब हम देंगे तो फिर हमारे जीवन में किसी चीज की कमी नहीं रहेगी।

Saturday, October 31, 2009

उच्च रक्तचाप से पीड़ितों की संख्या बढ़ी

विनय बिहारी सिंह

उच्च रक्तचाप (हाई ब्लड प्रेसर ) और ब्लड सुगर के मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है। सिर्फ भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में। लेकिन भारत में तुलनात्मक दृष्टि से इन रोगों के मरीजों की संख्या तीन गुनी है। वजह है- अनियमित खानपान। इन दिनों चाऊमिन, बरगर और पित्जा से लेकर तरह- तरह के पकौड़ों का चलन है। इनमें पोषक तत्व कितने हैं, यह शोध का विषय है। लेकिन जानकारों का मानना है कि फास्ट फूड खाना सेहत को खराब करना है। वैसे भी सदियों से डाक्टर कहते आए हैं कि ज्यादा तला या फ्राई किया हुआ खाना पाचन प्रणाली को बिगाड़ता है। लेकिन आजकल फास्ट फूड ही चलन में आ गया है। फुटपाथों पर चाऊमिन की दुकानों पर भीड़ रहती है। छोटे शहरों में भी चाऊमिन की बहार है। इसमें पोषक तत्व न के बराबर रहता है। सिर्फ पेट भरता है। दूसरी वजह है- ब्रेड के साथ सॉस और जेली खाने आदत। आजकल अक्सर लोग ब्रेड पर ये चीजें लगाते हैं और चाव से खाते हैं। ऐसी चीजें लगातार और खूब खाने से ब्लड सुगर बढ़ता है जिसे हम हिंदी में रक्त शर्करा कहते हैं। कई लोग दिन भर चाय पीते रहते हैं। वे यह सुनना पसंद नहीं करते कि दिन भर में तीन- चार कप से ज्यादा चाय पीना स्वास्थ्य को चौपट करता है। इन दिनों जो भी डिब्बाबंद मीठा खाद्य पदार्थ आ रहा है, उसे लगातार नहीं खाना चाहिए, ऐसा डाक्टरों का मानना है। अपने देश में कुपोषण के शिकार बच्चे या बड़ों को भी कई बार ब्लड सुगर की बीमारी हो जाती है। इसके ठीक उलट विदेशों में मोटे लोगों को ब्लड सुगर से पीड़ित लोगों की संख्या बढ़ रही है। जैसे हमारे यहां कुपोषण के शिकार लोग ज्यादा हैं, ठीक उसी तरह विदेशों में अतिरिक्त पोषक तत्व खाने और मोटे हो जाने वाले लोगों की संख्या ज्यादा है। यूरोपीय देशों में कुपोषण से पीड़ित लोग कम और मोटे लोग ज्यादा हैं। कहीं के भी लोग हों, खानपान में सावधानी बरतना हर जगह जरूरी है। आज भी डायटीशियन कहते हैं- सुबह आठ बजे नाश्ता कीजिए। दोपहर बारह- एक बजे भोजन, शाम को हल्का सा नाश्ता जैसे कि बिस्कुट और चाय या टोस्ट और चाय। फिर रात को भोजन। भोजन में हरी सब्जियों की मात्रा ज्यादा रहे। सब्जी कम से कम तेल में पकी हो और पराठा या पूड़ी हफ्ते में एक बार ही ठीक है। और ज्यादा तो अच्छा यह है कि पूड़ी और पराठा छठे- छमासे ही खाया जाए। हां, जितना ज्यादा फल खा सकें वही अच्छा। यह बात मैं विशेषग्यों के मुंह से सुन कर लिख रहा हूं। मौसमी फल चाहे एक ही क्यों न हों, खाना ठीक है। महंगाई तो हमेशा रहेगी और बढ़ती भी रहेगी। लेकिन स्वास्थ्य को ठीक रखना भी जरूरी है। जो लोग चाय, सिगरेट, पान, गुटखा और अन्य नशीली चीजों के आदी हैं, उन्हें इन विषैले पदार्थों को जितनी जल्दी हो त्याग देना चाहिए। बीमार पड़ने से अच्छा है, पहले ही सावधानी बरत ली जाए। वरना दवाएं जिस तरह महंगी हो रही हैं, बीमार पड़ना एक भारी बोझ की तरह बन जाएगा। तो क्यों न सादा जीवन उच्च विचार वाला अपने पुरखों का जीवन जीएं और सुख से रहें।

Friday, October 30, 2009

एकाग्र कैसे हों

विनय बिहारी सिंह

अक्सर यह प्रश्न पूछा जाता है कि एकाग्र कैसे हों। टोटल कंसंट्रेशन कैसे आए? जब आप कोई मनपसंद चीज पढ़ते हैं तो उसमें पूरी तरह डूब जाते हैं। आपको कोई डिस्टर्ब करता है तो आपको अच्छा नहीं लगता। या कोई भी मनपसंद काम करते हैं तो उसमें लीन हो जाते हैं। यही एकाग्रता है। तब हमें सोचना है कि ईश्वर में एकाग्रता कैसे हो? कई लोग कहते हैं कि ईश्वर तो अनंत है, हम कहां ध्यान लगाएं। संतों ने कहा है और गीता में भी लिखा है कि अपनी रीढ़ की हड्डी सीधी करके बैठ जाइए। आपकी टुड्डी सीधी हो। यानी आप सीधे सामने की ओर देख रहे हों। तब आंख बंद कीजिए और दोनों भृकुटियों के बीच ध्यान कीजिए। पहले पहल आपकी आंखों की पुतली नीचे हो जाएगी क्योंकि ऊपर देखने का अभ्यास नहीं है। लेकिन धीरे- धीरे लगातार अभ्यास से आपको आदत पड़ जाएगी। अगर यह संभव न हो तो बिना सिर झुकाए, ठीक जैसे ऊपर लिखा गया है, वैसे ही बैठ कर हृदय में ध्यान लगाएं। कल्पना कीजिए कि आपके हृदय के बीच एक अत्यंत सुंदर कमल खिला हुआ है। यह कमल ईश्वरीय है। आप इसके बीचोबीच अपने इष्टदेवता या देवी की कल्पना भी कर सकते हैं। शास्त्रों में लिखा है कि थोड़ी देर भी ऐसी एकाग्रता रखने का बड़ा अच्छा फल मिलता है। मन शांत रहता है और तनाव खत्म हो जाते हैं।
लेकिन यह अभ्यास करते हुए मन में सघन भक्ति जरूरी है।

Thursday, October 29, 2009

शून्यवाद क्या है

विनय बिहारी सिंह

आज पता नहीं क्यों शून्यवाद की याद आ रही है। बौद्ध धर्म में भी इससे मिलती- जुलती तत्व व्याख्या मिलती है। आइए सबसे पहले प्रत्यक्ष उदाहरण से समझें। आपकी मेज पर एक गिलास रखा है। वह खाली है। लेकिन वह क्या सचमुच खाली है? मान्यता है कि कभी कोई चीज खाली रह ही नहीं सकती। पानी या दूध या कोई द्रव अगर गिलास में होगा तो दिखेगा। लेकिन हवा तो नहीं दिखेगी? गिलास खाली नहीं है। उसमें हवा है। जब आप उसमें पानी डालेंगे तो वह हवा की जगह ले लेगा। यानी गिलास कभी खाली नहीं है। कुछ नहीं है तो उसमें हवा है। शून्यवाद कहता है कि जब आपके दिलोदिमाग में एक कीमती सूक्ष्म चीज हो तो वह शून्य की स्थिति है। वह एक चीज क्या हो सकती है जो कीमती भी हो, सूक्ष्म भी हो और स्थाई टिक सके? वह है- ईश्वर। भगवान। शून्य का अर्थ यहां कुछ नहीं बिल्कुल नहीं है। शून्य यानी कुछ सार्थक। यह शून्यवाद। तो ईश्वर से कैसे नाता जोड़ें? मेरे पास एक ई मेल आया है। उसमें प्रश्न है- लाख कोशिश करने पर भी मन नहीं लगता। ईश्वर पर मन टिके तो कैसे? इसका उत्तर है- मन वहीं टिकता है जहां आनंद मिलता है। सुख मिलता है या अच्छा लगता है। ईश्वर को अगर आप दूर की चीज मानेंगे तो ऐसे ही होगा। एक अपरिचय वाली सत्ता में ध्यान लग ही नहीं सकता। अपरिचय क्यों? क्योंकि कई लोग समझते हैं कि ईश्वर आसमान में है। या पता नहीं कहां है। वह हमारी सुनता भी है कि नहीं। चलो लोग पूजा कर रहे हैं, हम भी पूजा कर लेते हैं। क्या पता कल्याण हो जाए। लेकिन वहां भी शंका ही रहती है। प्रसाद, फूल और अगरबत्ती आदि प्रस्तुत कर रहे हैं, लेकिन मन में चल रहा है कि पता नहीं क्या होगा। ऐसी पूजा किसी काम की नहीं। इससे अच्छा है कि आप मंदिर जाएं ही नहीं। पूजा करें ही नहीं। अस्थिर दिमाग से किया गया कोई भी काम व्यर्थ होता है। उसका कोई फल नहीं होता। पहले तो आपको विश्वास होना चाहिए कि ईश्वर है। तब आपको कोई लाभ होगा। और यही बात वैग्यानिकों ने भी कही है। उन्होंने कहा है कि अगर आपको डाक्टर में विश्वास नहीं है तो फिर वह सही दवा भी देगा तो आपको उतना फायदा नहीं होगा, जितना होना चाहिए। जो भी सार्थक काम कीजिए पूरे मन से कीजिए। पूरी लगन से कीजिए। वरना छोड़ दीजिए। गीता में कहा है- संशयात्मा विनश्यति। संशय हो तो छोड़ दीजिए। ईश्वर को मत मानिए। प्रपंच में फंसे रहिए। लेकिन अगर आपका ईश्वर में विश्वास है तो पूरे मन, पूरी आत्मा के साथ उसे प्रेम कीजिए। ईश्वर हमारी सांसों में है। इससे ज्यादा प्रमाण क्या चाहिए। क्या आप जीवन में जब तक चाहे सांस ले सकते हैं। नहीं। जिस दिन मृत्यु को आना होगा आकर आपकी सांस बंद कर देगी। यह आपके हाथ में नहीं है। तो ईश्वर आपकी सांस में है। उसे जबसे प्यार करने लगेंगे, आपको सुख मिलने लगेगा। ईश्वर तो इंतजार कर रहा है।

Wednesday, October 28, 2009

प्रेम गली अति सांकरी

विनय बिहारी सिंह

हालांकि यह अद्भुत पंक्ति आपने कई बार पढ़ी होगी। लेकिन जितनी बार पढ़ते हैं, प्रेम का गहरा अर्थ और स्पष्ट होता जाता है। ईश्वर से प्रेम करना हो तो इसी अद्भुत स्थिति में आना पड़ेगा। ईश्वर व्यक्तिगत भी है और सार्वजनिक भी। जैसे जगन्माता मेरी या आपकी व्यक्तिगत माता भी हैं और पूरे जगत की भी माता हैं। क्या यह संभव है? जिन माताओं के छह बच्चे होते हैं। क्या वह उनमें से किसी को कम या ज्यादा प्यार करती है? नहीं। मां तो मां ही होती है। सबको एक जैसा प्यार। और बच्चे भी सिर्फ मां- मां रटते रहते हैं। अध्यात्म की दृष्टि से देखें तो क्या अद्भुत स्थिति है। क्या आनंद है। आइए पहले उन पंक्तियों की बात करें-
हरि है तो मैं नहीं, मैं हूं तो हरि नाहिं।प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय।।
यानी आप शरीर, इंद्रिय, मन या बुद्धि नहीं हैं। आप तो सच्चिदानंद आत्मा हैं। जिस दिन इस बात का भान हो गया, बस काम बन गया। तब हरि औऱ आप एक में मिल जाएंगे। क्योंकि मैं यानी अहंकार। अहंकार के रहते हरि मिलने वाले नहीं हैं। अहंकार तो हमारे और ईश्वर के सामने लोहे की मोटी दीवार खड़ी कर देता है। लेकिन ज्योंही आप अपने अहं को जला कर राख कर देते हैं, वह दीवार अपने आप पिघल जाती है औऱ ईश्वर आपको अपनी गोद में ले लेते हैं। आप सच्चिदानंद में रहने लगते हैं। तब न कोई तनाव है, न कोई चिंता है और न ही कोई कष्ट। दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से दूर आप हर क्षण आनंद में रहते हैं। लेकिन यह अहं दूर कैसे होगा? जब आप समझ जाएंगे कि आप अहं नहीं हैं। सब कुछ तो ईश्वर है। आप तो सिर्फ उसकी कठपुतली हैं। एक बार उससे संपर्क हो जाए तो बस काम बन गया। चाहे ईश्वर को माता के रूप में पा लीजिए चाहे पिता के रूप में, चाहे मित्र के रूप में पा लीजिए चाहे भाई के रूप में। जिस रूप में अराधना करेंगे, उसी रूप में वे आ जाएंगे। लेकिन प्रेम उत्कट होना चाहिए। उत्कट यानी ईश्वर के सिवा कुछ दिखाई ही न दे। जैसे कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका के लिए या जैसे कोई प्रेमिका अपने प्रेमी के लिए, जैसे कंजूस धन के लिए, जैसे पानी में डूबता आदमी सांस लेने के लिए और जैसे कोई माता अपने पुत्र के लिए तड़पती है, उससे सौ गुना तड़पन ईश्वर के लिए होनी चाहिए। यह कैसे होगा? जब आपको यह महसूस हो जाएगा कि ईश्वर के सिवा औऱ कुछ भी आनंददायक नहीं है। और यही सच है। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- हमारा मनुष्य योनि में जन्म इसीलिए हुआ है कि हम ईश्वर को प्राप्त करें। लेकिन क्या अचंभा है कि हम ईश्वर को छोड़ देते हैं और उसके अलावा जितनी चीजें हैं, उन्हीं को पाने के लिए तड़पने लगते हैं। लेकिन अंत में मिलता क्या है? कुछ नहीं। इसलिए क्यों न ईश्वर से अपना संपर्क और गहरा बनाएं। वे तो अनंत हैं। आप उनसे संबंध बनाएंगे तो आप भी अनंत आनंद, अनंत सुख के अधिकारी हो जाएंगे।

Tuesday, October 27, 2009

आदि शंकराचार्य ने क्या कहा था?

विनय बिहारी सिंह़

आदि शंकराचार्य ने कहा था- जगत मिथ्या, ईश्वर सत्य। इसका कुछ लोगों ने गलत अर्थ समझ लिया। वे कहते हैं कि अगर जगत मिथ्या है तो जगत में सांस मत लो। जगत का खाओ- पीयो नहीं। जगत की कोई चीज व्यवहार में मत लाओ। शंकराचार्य का यह अर्थ नहीं था। उन्होंने कहा कि यह जगत माया से ओतप्रोत है। यह संसार स्वप्न की तरह है। आपने एक आदमी से हंस- हंस कर बात की। उसके यहां चाय पी। नाश्ता किया। शाम को पता चला कि उस आदमी की तो मृत्यु हो गई। वह आदमी कहां चला गया? कई लोगों को अनेक वर्ष बाद अपने कई सहपाठियों के चेहरे याद नहीं रहते। वे आमने- सामने खड़े हों तब भी एक दूसरे को नहीं पहचानते। बचपन में जिनकी माताओं की मृत्यु हो जाती है, वे तो अपनी मां का चेहरा भी याद नहीं कर पाते। मान लीजिए उनकी मां का फोटो नहीं है। फिर वे किस चेहरे को अपनी मां के रूप में याद करेंगे? महात्माओं ने कहा है- जगन्माता ही हमारी असली मां हैं। उनके किसी रूप को अपनी मां का रूप मानिए- चाहे मां काली, मां दुर्गा, मां पार्वती या मां सरस्वती। शंकराचार्य ने कहा कि यह जगत मिथ्या है। इस पर भरोसा करके चलोगे तो धोखा खाओगे। यानी जिस मां को हम अपने जीवन की धुरी समझते थे, वह अचानक दुनिया छोड़ कर चली जाती है। पिता भी चले जाते हैं। तो इस दुनिया पर भरोसा मत करो। सबकी सेवा करो। सबसे प्रेम से रहो। यह तो ठीक है। लेकिन भरोसा सिर्फ ईश्वर पर ही करो। इसमें विरोधाभास कहां है? ठीक ही तो कहा शंकराचार्य ने। उन्होंने ही कहा था कि हमारी इच्छाएं ही हमें नियंत्रित करती हैं। वरना हम तो स्वतंत्र हैं। इन इच्छाओं के चंगुल से निकल कर ईश्वर के साम्राज्य में निर्द्वंद्व विचरने के उपाय भी उन्होंने बताए। ईश्वर भक्ति ही वह उपाय है। ईश्वर के अलावा सब कुछ मिथ्या है। यह सच ही तो है। यह हमारा शरीर भी मिथ्या ही है। यह हमारा साथ कब तक देगा? जब यह बूढ़ा या बीमार हो जाएगा, जर्जर हो जाएगा तो इसे छोड़ना पड़ेगा। मृत्यु होगी। फिर नया जन्म और नया शरीर। नए रिश्ते- नाते। शंकाराचार्य ने कहा- पुनरपि जन्मम, पुनरपि मरणम। जननी जठरे, पुनरपि शयनम।। शंकराचार्य ने हमें रास्ता दिखाया। संसार की नश्वरता और ईश्वर की अमरता के बारे में उन्होंने विस्तार से बताया। हम सब उनके ऋणी हैं।

Monday, October 26, 2009

जिसकी जैसी नजर


विनय बिहारी सिंह


एक बार युधिष्ठिर और दुर्योधन को उनको गुरु ने अलग- अलग काम दिया। युधिष्ठिर को कहा गया कि वे शाम तक सबसे बुरे आदमी को खोज कर लाएं। दुर्योधन को कहा गया कि वे शाम तक सबसे अच्छे आदमी को खोज कर लाएं। दोनों अपनी- अपनी खोज में निकल पड़े। शाम हुई तो दोनों गुरु के पास पहुंचे। सबसे पहले दुर्योधन से पूछा गया- कहां है तुम्हारा सबसे अच्छा आदमी? दुर्योधन ने कहा- मुझे तो कोई सबसे अच्छा आदमी दिखा ही नहीं। सबमें कुछ न कुछ बुराई है। इसलिए मैं खाली हाथ लौटा हूं। तब युधिष्ठिर को बुलाया गया और पूछा गया- कहां है सबसे बुरा आदमी? युधिष्ठिर ने कहा- गुरुवर, मुझे तो कोई बुरा आदमी दिखा ही नहीं। मैंने जिस पर नजर डाली, अच्छा आदमी दिखा । इसीलिए मैं खाली हाथ लौटा। उनके गुरु ने कहा- यह तुम्हारे ग्यान के लिए है। जिसकी जैसी नजर होती है, उसे वैसा ही दिखता है। जिसके मन में बुराई रहेगी, वह सबको उसी नजर से देखेगा। जिसके मन में वासना होगी, वह सबको वासना की नजर से ही देखेगा। जिसके मन में पवित्रता रहेगी, वह सबको पवित्र नजर से ही देखेगा। अगर हम ठान लें कि जिस ईश्वर ने हमें पैदा किया, उसे जान कर रहेंगे तो ईश्वर खुद ही हमारी इस कोशिश में मददगार हो जाएंगे। वरना छुपे ही रहेंगे। एक व्यक्ति ने एक महात्मा से प्रश्न किया कि ईश्वर ने इतनी बड़ी सृष्टि की, अनंत प्रकार के सुंदर दृश्य बनाए, हमें पैदा किया और खुद क्यों छुपे रहते हैं? कोई उन्हें देख क्यों नहीं पाता? महात्मा ने उत्तर दिया- यही ईश्वर की महानता है। वरना हम कोई छोटा सा भी पराक्रम करते हैं तो चाहते हैं कि दुनिया को पता चल जाए कि मैंने अमुक काम किया है। किसी की मदद करते हैं तो चाहते हैं कि लोग हमारी प्रशंसा करें कि मैंने अमुक की मदद की। एक समाजसेवक के रूप में ख्याति मिले। लेकिन ईश्वर ने एक सूक्ष्म जीव से लेकर हाथी तक बनाया है। पहाड़, नदियां और आसमान बनाया है लेकिन खुद को छुपा कर रखते हैं। उन्हें सिर्फ वही देख सकता है जो उन्हें दिल से प्यार करता है। यह आसान भी है और कठिन भी। अगर आपका दिल ईश्वर के लिए पिघल गया तो आसान है और अगर आपके मन में शंका पैदा हो गई कि ईश्वर है भी कि नहीं, तो फिर आप खोजते- खोजते पस्त हो जाएंगे तो भी ईश्वर की अनुभूति आपको नहीं होगी। जो लोग रास्ता चलते ईश्वर को पा लेना चाहते हैं, वे निराश होते हैं और अंत में कहते हैं- कहां, ईश्वर तो है ही नहीं। होता तो क्या दिखता नहीं? बस ऐसे लोग भ्रम में ही फंसे हुए पूरा जीवन बिता देते हैं। जैसे हर चीज को पाने का एक तरीका है, पद्धति है, वैसे ही ईश्वर को भी पाने की एक पद्धति है। पातंजलि योग सूत्र इसी की व्याख्या करते हैं।

Friday, October 23, 2009

क्या हमारा जीवन सिनेमा के लोग चलाएंगे?

विनय बिहारी सिंह

सिनेमा को ही जीवन बना लेना क्या ठीक है? आज बड़े होते बच्चों के मुंह से सिनेमा के satahi गीत सुनना सामान्य सी घटना है। सिनेमा हमें कौन सा संस्कार सिखाता है? क्या वह हमें धैर्य, शांति, साहस और ईश्वर के प्रति गहरी आस्था का संदेश देता है? या कि फिल्म निर्माता अपनी कमाई के लिए तमाम तरह के मसाले डाल कर लोगों को सतही चीजों के प्रति प्रेरित करता है? मेरा आग्रह है कि यह लेख सिनेमा के खिलाफ नहीं है। लेकिन एकदम से सिनेमा का दीवाना होना भी खतरनाक है। फिल्में व्यवसाय के लिए बनाई जाती हैं। कमाई के लिए। आजकल की फिल्में अच्छे संदेश देने के लिए नहीं होतीं। कोई एक विषय लेकर सस्पेंस और कानों को अधिक प्रिय न लगने वाले गाने दर्शकों को कितना लुभाएंगे? इसीलिए फिल्में खूब फ्लाप भी हो रही हैं। तो बच्चे क्यों फिल्मों के प्रति मोहित हो रहे हैं। क्यों कोई बच्चा रास्ते में प्यार, प्यार गाता है और सच्चे प्यार का अर्थ नहीं जानता? इसकी वजह यह है कि हममें से ज्यादातर लोगों का जीवन फिल्मों और टीवी कार्यक्रमों से इस तरह बंध गया है कि अगर घर में टीवी खराब हो जाए तो हंगामा खड़ा हो जाएगा। कई लोग घर में प्रवेश करते ही सबसे पहले टीवी खोलते हैं। फिर कुछ खाते पीते हैं। उनका सारा काम टीवी देखते देखते ही होता है। पात्रों की चर्चा, लाइव शो में किसने क्या किया, इसकी चर्चा। बस। जीवन मूल्यों की चर्चा कोई नहीं करता। क्या हमारा जीवन एकांगी हो गया है? क्या सिनेमा और टीवी के लोग हमें सिखाएंगे कि हमें कैसे जीना चाहिए और कैसे सोचना चाहिए? तब तो हम बाजार के उत्पादों के बारे में ही दिन रात सोचेंगे या फिर फिजूल के चरित्रों की चर्चा करेंगे। आप कहेंगे कि तब क्या करें? बैठ कर रामनाम जपें? ठीक है आप रामनाम मत जपिए। लेकिन कोई अच्छी प्रेरक किताब पढिए। बच्चों को ऐसे संस्कार दीजिए कि वे महापुरुषों के जीवन की कथा पढ़ने के लिए लालायित हों। अच्छी पुस्तकें बच्चों को ही नहीं बड़ों को भी बहुत कुछ दे जाती हैं। कुछ नहीं तो चिंता छोड़ें, सुख से जीएं नामक किताब ही पढ़ने को दीजिए। या फिर परमहंस योगानंद की योगी कथामृत (आटोबायोग्राफी आफ अ योगी का अनुवाद) पढ़ने को दीजिए। तब वह तोते की तरह प्यार प्यार न गाकर, अपने भीतर को टटोलेगा। चिंतन करेगा। शांत होकर अकेले में हम अपने भीतर कब झांकेंगे? कैसे आत्मविश्लेषण कर पाएंगे कि हमारे भीतर क्या चल रहा है? अगर कोई दिन रात अपने दिमाग को बाहर दौड़ाए रहता है तो वह अपने भीतर झांक ही नहीं सकता। तब फिर वह बाहर की सफाई तो कर सकता है, अंदर की सफाई नहीं कर सकता। अंदर कूड़ा- कचरा जमा होता रहेगा। बाद में भीतर के कूड़े कचरे की जड़ इतनी गहरी हो जाएगी कि आप उसे उखाड़ेंगे और वह फिर नए सिरे से उग आएगा। यह कूड़ा हमारे अनजाने जमा होता रहता है। इसकी सफाई का सबसे बढ़िया उपाय यह है कि आत्मविश्लेषण करें और महापुरुषों की अच्छी पुस्तकें पढ़ें और शास्त्रीय संगीत पर आधारित भजन सुनें। भजन सुनने का नशा नहीं होना चाहिए। वरना ध्यान पूजा छोड़ कर सिर्फ भजन ही सुनते रहेंगे। हर चीज की एक सीमा होनी चाहिए।

Thursday, October 22, 2009

इस तरह हम भूल जाते हैं अपनी स्थाई पूंजी

विनय बिहारी सिंह

रमन नाम का एक किसान था। उसे पटवारी ने पांच साल के लगान भुगतान की रसीद दी और कहा कि इसे ठीक से रख देना, कभी भी काम आएगी। रमन ने उसे एक जगह रख दिया। उसके बाद कई कागजात आते रहे, वह उन्हें जहां तहां रखता गया। दो साल बाद उसे उन्हीं पांच सालों के लगान की नोटिस मिली जिसका भुगतान वह कर चुका था और जिसकी रसीद उसके पास थी। रमन ने कहा कि यह वसूली की नोटिस तो गलत है। मैं इसका भुगतान कर चुका हूं। तब संबंधित अधिकारी ने कहा कि उसकी रसीद लाओ, हम अपनी गलती सुधार लेंगे। रमन घर आया और रसीद ढूंढ़ी। लेकिन उसे कहीं रसीद नहीं मिली। अधिकारियों ने उसे एक महीने का समय दिया। रमन ने सारा घर छान मारा। कहीं वह रसीद नहीं मिली। हार कर उसे दुबारा लगान देना पड़ा। इसके १० दिन बाद उसे पुरानी वाली रसीद मिल गई। वह दौड़ा- दौड़ा संबंधित अधिकारी के पास आया और पुरानी रसीद दिखाई। फिर लिखा- पढ़ी शुरू हुई। उसे वह पैसा दुबारा मिला कि नहीं मालूम नहीं हो सका। लेकिन इतना मालूम हुआ कि अपनी ओर से लिखा- पढ़ी करने में कई बार रसीद और आवेदन पत्रों की जिराक्स कापी करानी पड़ी। अगर रमन रसीद न भूलता तो यह झमेला होता ही नहीं। कबीरदास ने लिखा है कि भगवान कहते हैं-
मोको कहां ढूंढे रे बंदे। मैं तो तेरे पास में।
यानी ईश्वर हमारे पास ही है। लेकिन हम उन्हें महसूस नहीं कर पाते हैं क्योंकि हमारा दिमाग इतना चंचल है कि क्षण भर एक जगह नहीं ठहरता। इसे एक जगह रोकने से ही हमारा सारा काम बन जाएगा। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- जिसका हृदय निर्मल नहीं है, उसे विश्वास हो ही नहीं सकता कि ईश्वर है। सब जानते हैं कि यह सृष्टि, दिन और रातें, ऋतुएं और मनुष्य ही नहीं सभी जीवों का जीवन जिस तरह उदय और अस्त यानी जन्म और मरण के बीच चल रहा है, वह निश्चय ही कोई चला रहा है। अपने आप कुछ नही हो सकता। बिना किसी शक्ति और इंटेलिजेंस के कुछ भी संभव नहीं है। फिर भी लोग कह देते हैं- कभी कभी लगता है कि भगवान हैं, लेकिन कभी कभी लगता है भगवान नहीं हैं। संत कबीर ने कहा है-
काहे रे नलिनी तू कुम्हलानी।जल में जन्म, जल में वास।जल में नलिनी तोर निवास।।
यानी ईश्वर हम ईश्वर में ही तो हैं। फिर क्यों दुखी रहते हैं? क्योंकि मन स्थिर नहीं कर पाते। इतने चंचल मन से ईश्वर को पकड़ना कैसे संभव है? जब ईश्वर को महसूस करेंग तभी तो शांति और आनंद को जानेंगे। वरना हम अपनी थाती भूले रहेंगे। हमारे हृदय में भगवान है, इसे हम भूल चुके हैं। याद तो तभी आएगी जब मन शांत होगा। मन तब शांत होगा जब लगेगा कि यह जो मन है, वह अनेक अनावश्यक बातों में उलझा रहता है। जरा एक दिन मन की चौकीदारी करके देखिए तो सही। कहां कहां जाता है यह?

Wednesday, October 21, 2009

ठीक हो सकती है भूलने की बीमारी

विनय बिहारी सिंह


हां, कई लोगों को भूलने की बीमारी होती है। अभी आपने उन्हें अपना नाम बताया, लेकिन दो मिनट बाद वे भूल गए और फिर पूछ बैठे- आपका शुभ नाम क्या है? या आपने उन्हें बताया कि आपकी आवेदन पत्र संख्या या शिकायत संख्या यह है। लेकिन घर जाने के रास्ते में ही वे संख्या भूल गए। जिस कागज पर उन्होंने नोट किया था, उसे भी खो दिया। या आपने किसी डाक्टर का नाम बताया और वे आधे घंटे के अंदर डाक्टर का नाम ही भूल गए। सिर्फ इलाके का नाम याद रहा। आपने ऐसे लोगों को जरूर देखा होगा। वैग्यानिकों ने कहा है कि आप ऐसी हालत में कोई पुरानी ऐसी बात याद करने की कोशिश कीजिए जो आप भूल चुके हैं। दूसरा उपाय- कुछ पहेलियों के हल खोजिए। तीसरा उपाय- घरेलू हिसाब- किताब को जबानी जोड़ने- घटाने की कोशिश कीजिए। लेकिन मेसाचुसेट्स के वैग्यानिकों ने एक प्रयोग किया है- उन्होंने उड़ने वाले एक चूहे के दिमाग को एक खास तरह से दीप्त या प्रकाशित कर दिया। देखा गया कि उस चूहे की याददाश्त तेज हो गई। तब वैग्यानिकों को लगा कि अगर रोज कुछ न कुछ याद करने की कोशिश की गई तो यह अभ्यास आपकी मदद कर सकता है। आप कह सकते हैं कि ऐसा तो आम जीवन में रोज ही होता है कि हम कुछ न कुछ याद करने की कोशिश करते हैं। नहीं। आप अभ्यास के तौर पर ऐसा कीजिए और नियमित कीजिए। तब इसका परिणाम आएगा। हड्डियों कैसे मजबूत बनाएं- लगभग ५० साल की उम्र होने के बाद आदमी की ह़ड्डियां कमजोर होने लगती हैं। कुछ लोगों की हड्डियां तो इतनी कमजोर होती हैं कि अगर बाथरूम में गिर गए तो पैर या कूल्हे की हड्डी तक टूट जाती है। वैग्यानिकों ने कहा है कि इसके लिए ५० की उम्र पार कर चुके हर आदमी को बोन मिनरल डेंसिटी टेस्ट करा लेना चाहिए। यानी इस बात की जांच करा लेनी चाहिए कि उनकी हड्डी में सभी मिनरल यानी तत्व संतुलित मात्रा में हैं कि नहीं। क्या कैल्शियम ठीक है? वगैरह वगैरह। लेकिन हड्डी मजबूत रहे इसके लिए नियमित व्यायाम करना चाहिए। यह बात सिद्ध हो चुकी है कि जो लोग नियमित व्यायाम करते हैं, उनकी हड्डियां मजबूत रहती हैं।

Tuesday, October 20, 2009

गन्ने के रस से चल सकती है कार

विनय बिहारी सिंह

एक डच माइक्रोबायलाजिस्ट ने प्रयोग कर दिखा दिया है कि पेट्रोल या डीजल के बदले गन्ने के रस से कार चलाई जा सकती है। यही नहीं, मकई (कार्न) से सुंदर कपड़े बन सकते हैं। इसके बाद से ही यह बहस छिड़ गई है कि यह प्रकृति के साथ छेड़छाड़ है। गन्ने का रस मिठास के लिए है तो उसे वही रहने दिया जाए। इससे कार का ईंधन बनाना अनुचित है। अगर पेट्रोल की जगह गन्ने का रस इस्तेमाल होने लगा तो फिर चीनी की भारी कमी हो जाएगी क्योंकि कारें लगातार बढ़ रही हैं और पेट्रोल की खपत का कोई अंत नहीं दिख रहा है। ऐसे में लोग मिठास के लिए तरसने लगेंगे। इसी तरह मकई का पौधा अगर कपड़े बनाने में इस्तेमाल होने लगा तो लोग कार्न से बनने वाली पौष्टिक चीजों से वंचित रह जाएंगे। यह माइक्रो युग है। यानी सूक्ष्म की तरफ जाने की यात्रा है। हमारे ऋषि- मुनि ध्यान के माध्यम से ही सूक्ष्म की यात्रा करते थे और कणाद ऋषि ने ध्यान के जरिए ही बता दिया था कि हर वस्तु अणुओं से बनी है। कणाद ऋषि जैसे ही पराशर और अगस्त्य ऋषि थे। इन लोगों ने भी जो वैग्यानिक व्याख्याएं की हैं, नक्षत्रों और ग्रहों के बारे में जो विचार प्रकट किए हैं, वह अद्भुत है। ऋषि मार्कंडेय ने भगवान शिव और पार्वती की जो व्याख्या की है, वह अतुलनीय है। कई बार प्राचीन काल के वाहनों की याद आती है। कुछ रथ ऐसे होते थे जो तकनीकी रूप से इतने विकसित होते थे कि घोड़े ने जरा सा जोर लगाया और रथ घोड़े के साथ सरपट दौड़ने लगा। धीरे- धीरे रथों का विकास होता गया। उनकी सजावट, बनावट और पहियों में काफी कुछ परिवर्तन होता गया। बाद में कारें आईं। लेकिन प्राचीन काल में रथों के विकास का जो क्रम है, उससे लगता है कि निरंतर बेहतरी की तरफ यात्रा जारी थी। जहां तक ऋषियों की बात है तो वे लोग सूक्ष्म शरीर से अंतरिक्ष की यात्रा तो करते ही थे, जहां चाहे वहां जा सकते थे। लेकिन वे अनावश्यक रूप से कहीं आते- जाते नहीं थे। कोई भी संत, ऋषि या महात्मा किसी भी काल में घूमने के उद्देश्य से कभी नहीं निकला। वे कहीं जाते थे तो जनकल्याण के लिए जाते थे। किसी अन्य महात्मा से मिलने या किसी तीर्थ या कहीं किसी मंदिर की स्थापना या लोक शिक्षा के लिए। निरूद्देश्य वे कभी कहीं नहीं जाते थे।

Monday, October 19, 2009

हां, यह प्रकाश का त्यौहार था, लेकिन बन गया शोर का त्यौहार

विनय बिहारी सिहं

निश्चय ही दीपावली अपने भीतर प्रकाश को और गहरे उतारने का त्यौहार है और प्रकट रूप से घर और आसपास दीप या विद्युत प्रकाश से जगमगा देने का त्यौहार भी है। दीपावली के दिन लक्ष्मी जी की पूजा तो होती ही है, व्यवसायी अपने बही- खातों को नया करते हैं। हालांकि अब बही- खातों का जमाना खत्म होता जा रहा है। अब तो कंप्यूटर ही बही- खाता हैं। लेकिन तब भी प्रतीकात्मक ढंग से हम दीपावली के दिन पुरानी चीजों को बदल कर नया करते हैं और लक्ष्मी जी से प्रार्थना करते हैं कि वे कृपालु बनी रहें। आध्यात्मिक लोग मां लक्ष्मी से प्रार्थना करते हैं कि उनकी आध्यात्मिक पूंजी लगातार बढ़ती रहे और जल्दी ही वह दिन आए जब ईश्वर और वे एक हो कर अनंत आध्यात्मिक साम्राज्य का आनंद उठाएं। लेकिन जहां तक कोलकाता की बात है, यहां दीपों या प्रकाश का यह त्यौहार शांति और आनंद के बजाय पटाखों और आर्केस्ट्रा पार्टियों के के भारी शोर के बीच बीता। अगले दिन रविवार था, उस दिन भी यही हाल था। मैंने हर रविवार की तरह उस दिन भी अपना समय मठ में बिताया। वहां शांति और आनंद का माहौल था। आखिर क्यों बदल गया है दीपावली का त्यौहार इस तरह? क्यों तेज और बम की तरह के पटाखों ने इस त्यौहार को प्रदूषण से भर दिया है? मेरे एक परिचित ने कहा- लक्ष्मी का स्वागत करने के बजाय पटाखे पर फिजूलखर्ची करना अगर आनंद मनाना है तो फिर दीपावली को पटाखावली क्यों न कहें? देश के अन्य शहरों से भी पटाखों के शोर की खबरें मिल रही हैं। त्यौहारों पर शोर की परंपरा के बजाय, शांति और माधुर्य की परंपरा की ओर लौटना अब भी संभव है, अगर आत्मा की सुनें तो। आप सब लोगों की शुभकामनाओ का ही असर है - मेरी दीपावली बहुत सुखद और प्रेम से पूर्ण बीती।

Saturday, October 17, 2009

आप सबको दीपावली की शुभकामनाएं. आपके घर खुशिया आनंद मनाये

Friday, October 16, 2009

डकैत रत्नाकर ऋषि वाल्मीकि कैसे हुए?

विनय बिहारी सिंह

ऋषि वाल्मीकि को आदि कवि कहा जाता है। अनेक विद्वानों का मत है कि उन्होंने संस्कृत में रामायण लिखने के अलावा योग वशिष्ठ भी लिखा। भगवान राम की कथा को उन्होंने इतने मनोहारी ढंग से लिखा है कि संस्कृत काव्य के विद्वान पढ़ कर बार बार दंग रह जाते हैं। एक तो उनकी भाषा इतनी संगीतमय है और शैली बेजोड़ कि आप उसमें खो जाते हैं। राम के चरित्र में आप रम जाते हैं। बहरहाल, गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि अतिशय दुराचारी भी अगर अपने कुकर्मो को छोड़ कर मेरा अनन्य भक्त हो जाए तो उसको मुक्ति मिल जाती है। वाल्मीकि का बचपन का नाम रत्नाकर था। एक बार वे जंगल में गए और वहां खो गए। एक शिकारी को उन पर दया आई और वह उन्हें अपने घर ले गया। फिर बेटे की तरह रखा। रत्नाकर जब बड़े हुए तो एक सुंदर कन्या से उनकी शादी हुई। परिवार का भरण पोषण करने के लिए वे डकैत बन गए। जंगल में जो मुख्य रास्ते से गुजरता, वे उसका सारा सामान लूट लेते। एक बार नारद मुनि उस रास्ते से गुजर रहे थे। रत्नाकर ने उनको लूटना चाहा। लेकिन उनके पास कुछ था ही नहीं। नारद मुनि वीणा बजा कर मधुर धुन में राम नाम गाने लगे। डकैत रत्नाकर पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने उससे पूछा कि तुम यह जो पाप कर रहे हो, इसमें तुम्हारे परिवार के लोग क्या भागीदार होंगे? रत्नाकर को लगा कि हां, प्रश्न तो ठीक ही है। उसने अपने परिजनों से पूछा- क्या तुम लोग मेरे पाप में भागीदार हो? पत्नी बोली- बिल्कुल नहीं। तुम्हारा काम है, परिवार का भरण पोषण करना। करो। कैसे करते हो, यह तुम जानो। जो करोगे, वही भरोगे। हम उसमें भागीदार क्यों हों? बच्चों ने भी यही जवाब दिया। अब रत्नाकर की आंखें खुलीं। वह दौड़ा नारद मुनि के पास गया और उनके पैरों पर गिर पड़ा। नारद मुनि ने रत्नाकर को मंत्र दीक्षा दी। कहा कि तुम- राम राम कहते रहो। रत्नाकर के मुंह से राम जैसा शब्द भी नहीं निकल पा रहा था। तब नारद मुनि ने कहा- तो ठीक है तुम मरा मरा ही कहो। रत्नाकर तुरंत मरा मरा कहने लगा। नारद मुनि ने कहा- जब तक मरा मरा कहो, भगवान राम का ध्यान करो। वही सबके मालिक हैं। रत्नाकर मरा, मरा कहता रहा। मरा, मरा कहने से मुंह से राम, राम का उच्चारण होने लगा। यही रत्नाकर बाद में ऋषि वाल्मीकि बने। आदि कवि और रामायण के सुप्रसिद्ध रचनाकार। जो ठीक से राम राम नहीं कह सकते थे, वे संस्कृत के विद्वान हो गए। यह ईश्वर की कृपा नहीं तो और क्या है? इसी कथा को तरह तरह से कहा जाता है। कोई कहता है कि नारद मुनि नहीं कोई और साधु थे। उन्हें रत्नाकर ने पेड़ से बांध दिया। फिर घर आकर पूछा। तब जाकर साधु के पैर पर गिरा। कथा जैसे भी कही जाए। इसका मूल उद्देश्य यही है कि ईश्वर की कृपा से मूर्ख औऱ क्रूर व्यक्ति भी परम विद्वान औऱ ईश्वर का जानकार बन सकता है।

जापर कृपा राम के होई।तापर कृपा सबहिं के होई।।

Wednesday, October 14, 2009

ईश्वर के नाम का अद्भुत प्रभाव

विनय बिहारी सिंह

गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार।तुलसी भीतर बाहेरहुं जौं चाहसि उजियार।।
यानी अगर अपने भीतर और बाहर दिव्य ज्योति का प्रकाश चाहते हैं तो रामनाम की मणि को अपनी जीभ पर पर सदा के लिए रख लीजिए।
एक अन्य भक्त कवि ने कहा है-
जबहि नाम हिरदै धर्यो भयो पाप को नास।मानौ चिनगी अग्नि की परी पुराने घास।।
यानी जब मैंने अपने हृदय में ईश्वर का नाम रखा, तो मेरे पाप यानी बुरे कर्म ऐसे जल गए मानो पुरानी सूखी घास में आग लग गई हो। रामचरितमानस में तुलसीदास ने कहा है-
सादर सुमिरन जे नर करहीं।भव बारिधि गोपद इव तरहीं।।
यानी जो अनन्य प्यार से ईश्वर का स्मरण करता है, वह अनंत भवसागर को इस तरह पार कर जाता है, जैसे कोई गाय के खुर से हुए गड्ढे को पार कर जाता है।
ये उदाहरण सिद्ध करते हैं कि दिल से ईश्वर का नाम लेने से कई बाधाएं कट जाती हैं। मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूं जो रात के दो बजे तक राम नाम का जप करता है और ध्यान करता है। चाहे लाख बाधाएं आएं, वह इस कार्यक्रम को जारी रखता है। रात दो बजे उसके चेहरे पर जो आनंद देखने को मिलता है, उसका वर्णन करना मुश्किल है। चेहरे पर गहरी शांति और आनंद। एक वृद्धा भी लगभग ऐसी ही हैं। वे रात को दस बजे सोती हैं और चार घंटे बाद रात के दो बजे उठ जाती हैं। इसके बाद सुबह पांच बजे तक उनका जप और ध्यान चलता रहता है। वे रात को सिर्फ चार घंटे सोती हैं। लेकिन पूरे दिन उनके चेहरे पर जो आनंद देखने को मिलता है, वह अद्भुत है। लेकिन हां, यह जप या ध्यान दिल से हो। यह नहीं कि तोते की तरह रामनाम रट रहे हैं और मन हजार कोठों पर दौड़ रहा है। एक बार परमहंस योगानंद जी से उनकी चाची ने कहा- मैं जीवन भर माला जपती रही। लेकिन आज तक मेरी उन्नति नहीं हुई। तुम मेरी मदद करो। परमहंसजी ने कहा- पूज्यवर चाची जी, आप माला मशीन की तरह जपती हैं। हाथ माला फेरते हैं और दिमाग न जाने कहां- कहां दौड़ता रहता है। आप माला छोड़ दीजिए और ईश्वर में गहरा ध्यान लगाइए। जिससे संपर्क करना है, उसके प्रति गहरी आसक्ति नहीं रहेगी तो फिर काम कैसे बनेगा। चाची ने वैसा ही किया और उन्हें ईश्वर का अनुभव हुआ। संत कबीर ने भी कहा है- कर का मनका छोड़के, मन का मनका फेर।।
यानी हाथ की माला फेरना छोड़िए और मन की माला फेरिए। मन ईश्वर में रम गया तो माला- वाला का क्या काम?

Tuesday, October 13, 2009

क्यों खराब बातें ही आती हैं दिमाग में

विनय बिहारी सिंह

मान लीजिए हमारे घर का कोई व्यक्ति बाहर गया है। रात हो रही है। हम उसका इंतजार कर रहे हैं। मन में तरह तरह की खराब बातें आ रही हैं। कहीं कुछ हो तो नहीं गया? ऐसा क्यों? कोई अच्छी बात भी तो हो सकती है। लेकिन क्यों बुरे ख्याल ही आते हैं? क्योंकि हम हमेशा एक डर में जी रहे हैं। लेकिन संतों ने कहा है कि डर डर कर जीना अपना नुकसान करना है। एक बार एक बस में एक अंधे व्यक्ति ने इतनी सुरीली आवाज में राम राम गाया था कि वह भूलता नहीं है। एक दिन एक ईश्वर भक्त से मुलाकात हुई। वे एक महीने के लिए पत्नी व बच्चों को छोड़ कर दूर जा रहे थे। मैंने कहा- आपके पास तो मोबाइल भी नहीं है। आपके घर में फोन नहीं है। क्या बाहर बेफिक्र होकर रह सकेंगे। वे आनंद में हंसने लगे और कहा- मैं कौन होता हूं रक्षा करने वाला। असली रक्षक तो भगवान है। उसकी कृपा रही तो मेरे परिवार को कुछ नहीं होगा। और मेरे पास अगर दस मोबाइल हों और भगवान की कृपा नहीं है तो मैं और मेरा परिवार परेशान ही रहेंगे। उनका उत्तर बहुत अच्छा लगा। सच है। ईश्वर रक्षा कर रहे हों तो फिर चिंता किस बात की? गीता में है कि अभय वही रहता है जो ईश्वर की शरण में हो। जो ईश्वर की शरण में है उसे और कोई चिंता नहीं। बस वह अपना काम करता जाता है और रक्षा करना प्रभु कहता रहता है। चाहे जैसे भी हो, ईश्वर को याद करना शुभ है। कई लोग जम्हाई लेते हुए राम राम कहते हैं। यह राम राम सुनने में इतना मीठा लगता है कि आप मुग्ध हो जाएं। दमदम रेलवे स्टेशन के पास एक बूढ़ा इतने लय में हरे राम, हरे राम राम राम हरे हरे गा रहा था कि मैं थोड़ी देर के लिए ठिठक गया। कहां से पाया है इस आदमी ने इतना मीठा गला? मुग्ध भाव से उसे सुनता रहा। हालांकि अगले दिन उसके मुंह से यह मीठा शब्द नहीं सुन सका। आज भी उसे देखा। पर वह अब राम राम नहीं कहता। सिर्फ ललाट पर टीका लगाए रहता है। तो हमें अपने दिमाग में खराब चिंतन आने नहीं देना चाहिए। ईश्वर पर भरोसा करना चाहिए और सावधानी बरतते रहना चाहिए।

Monday, October 12, 2009

दो साल का बच्चा अद्भुत रूप से मेधावी

विनय बिहारी सिंह

यह घटना है ब्रिटेन की। दो साल के बच्चे आस्कर रिंगले की तुलना अल्बर्ट आइंस्टाइन और स्टीफेन हाकिंग से की जा रही है। नतीजा यह है कि ब्रिटेन की सोसाइटी आफ हाई आईक्यू पीपुल ने बच्चे आस्कर को अपना सदस्य बना लिया है। यह दुनिया को चौंकाने वाली घटना है। आस्कर के मां- बाप कह रहे हैं कि यह बच्चा आम बच्चों की तरह ही सवाल पूछता रहता है। लेकिन खुद ही वे बातें बताता है जो रिसर्च कर रहे वैग्यानिक बताते हैं। दो साल के बच्चे को इतनी जानकारी है, इस बात की जानकारी मिलते ही, विशेषग्य आस्कर के घर पुहंचे। पूरी जांच के बाद विशेषग्य भी चकित रह गए। दो साल का बच्चा पेंगुइन की प्रजनन प्रणाली के बारे में विस्तार से बात कर रहा है। हर सवाल का जवाब दे रहा है। वैग्यानिक और मनोचिकित्सक हैरान हैं। लेकिन सोसाइटी आफ हाई आईक्यू पीपुल ने तुरंत आस्कर को अपना सदस्य बना लिया। हालांकि इसके सदस्य वही लोग होते हैं जो किसी भी क्षेत्र के अत्यंत मेधावी व्यक्ति हों। सोसाइटी उन्हीं को अपना सदस्य बनाती है। आस्कर को इस सोसाइटी के प्रति कोई रुचि नहीं थी। लेकिन सोसाइटी के लोग आस्कर की मेधा से खासे प्रभावित हैं। कुछ विशेग्यों का कहना है कि आस्कर पूर्व जन्म में कोई अत्यंत मेधावी व्यक्ति रहा होगा। आस्कर को लेकर ब्रिटेन के बुद्धिजीवियों के बीच विचार- विमर्श जारी है।

Saturday, October 10, 2009

उम्र यूं ही तमाम होती है

विनय बिहारी सिंह

किसी ने कहा है-

रोज सुबह से शाम होती है,

उम्र यूं ही तमाम होती है।।


क्या हम लोग सुबह उठने से लेकर रात सोने तक कभी सोचते हैं कि हमारी जिंदगी का मकसद क्या है? क्यों हमने जन्म लिया? क्या यूं ही जिंदगी गुजार देने के लिए? या कि इच्छाओं की पूर्ति करते हुए मर जाने के लिए? नहीं। हममें से ज्यादातर लोग यह नहीं सोचते। वे मशीन की तरह सुबह उठ कर चाय पीते हैं, अखबार पढ़ते हैं, टीवी देखते हैं, गप्पबाजी करते हैं। फिर खाना खाते हैं और कामकाज पर निकल जाते हैं या अगर खाली हैं तो दिन में भी सो जाते हैं। वे कहते हैं कि मन नहीं लग रहा है। बोर हो रहे हैं। जी हां। अगर जीवन में कोई मकसद न हो तो बोरियत होगी ही। लेकिन जो ईश्वर को पाने के लिए जीते हैं और जीवन यापन के लिए कोई रोजगार, व्यवसाय या नौकरी करते हैं वे कभी बोर नहीं होते। उनका दिन और उनकी रातें आनंद में कट जाती हैं। वे ईश्वर के लिए ही जीते हैं। उनके जीवन के केंद्र में ईश्वर ही होते हैं। परमहंस योगानंद ने लिखा है- तू ध्रुवतारा मम जीवन का। यानी ईश्वर ही जीवन के ध्रुवतारा हैं। केंद्रीय लक्ष्य। ऐसा व्यक्ति जो कुछ भी करता है- ईश्वर के लिए ही करता है। वह जानता है कि इस पृथ्वी पर वह कुछ वर्षों के लिए ही आया है। उसे फिर यहां से चले जाना है। अगर इच्छाएं अतृप्त रहीं तो दुबारा इस पृथ्वी पर आना पड़ेगा। किसी और घर में जन्म लेकर। किसी और चेहरे और परिचय के साथ। पुनरपि जन्मम, पुनरपि मरणम। जननी जठरे, पुनरपि शयनम ( आदि शंकराचार्य)। कई लोग कहते हैं कि ईश्वर को कैसे केंद्रीय आकर्षण का तत्व बनाएं। कोई सिनेमा हो, कोई खाने की वस्तु हो, कोई मजे वाली चीज हो तो केंद्रीय तत्व बना सकते हैं। ईश्वर को कैसे केंद्रीय तत्व बनाएं? उन्हें कैसे बताएं कि इस समूची सृष्टि के मालिक ईश्वर ही हैं। जो कुछ भी हो रहा है, उन्हीं के इशारे पर। तब कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर के बारे में बातें करना पिछड़ापन लगता है। हां, सिनेमा वगैरह के बारे में बातें करना उन्हें आधुनिक लगता है। क्या विचित्र स्थिति है। ईश्वर के बारे में बात करना पिछड़ापन है? तो फिर अपने बारे में बातें करना भी पिछड़ापन ही है। क्यों तब कहते हैं कि मैंने ये किया, मैंने वो किया। आप भी ईश्वर से ही हैं। यह पूरा ब्रह्मांड उन्हीं के इशारे पर चल रहा है। कुछ लोग यह कहते नहीं थकते- किस्मत में होगा तो काम हो जाएगा। यानी किस्मत की बात करना आधुनिकता है और ईश्वर की बात करना पिछड़ापन। ईश्वर के खिलाफ बोलना प्रगतिशीलता है और ईश्वर की स्तुति पिछड़ापन। तो ऐसी बुद्धि की बलिहारी है। ऐसे लोग उस परम सुख के बारे में क्या जानेंगे जो ईश्वर के संपर्क में मिलता है। जिसने वह मीठा फल खाया ही नहीं वह स्वाद क्या जानेगा। वह दुनिया भर का प्रपंच जानेगा, लेकिन दिव्य आनंद के बारे में उसे कुछ नहीं मालूम। क्योंकि इस आनंद को पाने के लिए गहरी शांति में जाना जरूरी है। तर्क, मन की चंचलता को विराम देना होता है, तब ईश्वर की तरफ की यात्रा शुरू होती है।

Friday, October 9, 2009

सोने से मढ़ा है ज्वालाजी के मंदिर का गुंबद



विनय बिहारी सिंह


ज्वालाजी के मंदिर का वर्णन अधूरा रह गया था। इसलिए इसे पूरा करना आवश्यक लगा। ज्वाला देवी के मुख्य मंदिर और उनके विश्राम गृह के बड़े गुंबद सोने सेमढ़े गए है। मुख्य मंदिर के दरवाजे चांदी से मढ़े गए हैं। एक वेबसाइट के मुताबिक ज्वाला देवी के मुख्यमंदिर में पहले ९ ज्वालाएं थीं। उनके नाम थे- महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी,हिंगलाज, विंध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अंबिका और अंजी देवी। लेकिन मैंने अपनी आंखों से सिर्फ दो ज्वालाएं ही देखी। इनके नाम भी अलग- अलग नहीं थे। दोनों ज्वालाओं या ज्योतियों को ज्वालादेवी या ज्वालामुखी देवी कहा जाता है। ज्योतियों की मोटाई दो ऊंगलियों के बराबर थी। कहा जाता है कि पांडवों ने इन ज्योतियों के दर्शन किए थे और दर्शन के बाद उन्हें अद्भुत शांति मिली थी। मंदिर को लेकर बादशाह अकबर के आकर्षण के बारे में पहले ही बताया जा चुका है। यह स्थान ५१ शक्तिपीठों में से एक है। एक अन्य कथा है- भगवान शंकर जब पार्वती जी के मृत शरीर को लेकर ब्रह्मांड में घूमने लगे तो पूरे ब्रह्मांड में हलचल मच गई। तब भगवान विष्णु ने पार्वती जी के शरीर को विभिन्न हिस्सों में विभाजित किया जो ५१ जगहों पर गिरे। इन्हें शक्तिपीठ कहा जाता है। ज्वालाजी के मंदिर के स्थान पर पार्वती जी की जीभ गिरी। जीभ गिरते ही ज्वाला या ज्योति के रूप में परिवर्तित हो गई। इस शक्तिपीठ पर साधक पूजा, अर्चना और जप इत्यादि करते हैं। मान्यता है कि किसी भी शक्तिपीठ पर श्रद्धा से पूजा- अर्चना करने से मनुष्य पर जगन्माता की विशेष कृपा होती है। लेकिन यह कृपा उन्हीं पर होती है जो जगन्माता को प्रेम करते हैं और उन्हें अपनी मां मानते हैं। एक बार जाकर फूल, फल मिठाई और अगरबत्ती चढ़ा कर फिर प्रपंच में फंसने से उतना लाभ नहीं होता। हां, कुछ लाभ तो होता है। लेकिन विशेष लाभ उन्हीं को मिलता है जो माता की शरण में रहते हैं। गीता के नौवें अध्याय में भगवान कृष्ण ने कहा है कि वे ही अग्नि हैं, वे ही होम हैं और वे ही हवन की प्रक्रिया भी हैं। अन्य अध्याय में उन्होंने कहा है कि अग्नि का तेज भी मैं ही हूं। यानी भगवान ही अग्नि हैं। इस तरह ज्वाला देवी को अति श्रद्धा से पूजा जाता है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हमारी कार का ड्राइवर ज्वाला देवी का भक्त था। ड्राइवर के मुताबिक उसके कई परिचित जब भी संकट में होते हैं, मंदिर में जाते हैं और माता से प्रार्थना करते हैं। उनकी समस्या हल हो जाती है। यह आस्था हमने कोलकाता के कालीमंदिर के प्रति भी देखी है। आस्था में ताकत होती है, इससे कौन इंकार कर सकता है। हां, लेकिन ऐसी घटनाएं तभी होती हैं जब आदमी में गहरी आस्था हो।