Tuesday, December 22, 2009

हम कहां से आए?

विनय बिहारी सिंह

ऋषियों ने कहा है कि हमें खुद से सवाल करना चाहिए कि हम कहां से आए? इस दुनिया में किसलिए आए? इसके पहले हम थे कहां? मृत्यु के बाद कहां जाएंगे? भगवद् गीता कहती है कि आत्मा अजर- अमर है। सिर्फ शरीर नश्वर है। शरीर ही जन्मता है, जवान होता है, वृद्ध होता है, रोगी होता है और मरता है। जैसे मनुष्य पुराने कपड़े त्याग कर नए कपड़े पहनता है, ठीक उसी तरह आत्मा नया कपड़ा यानी नया शरीर धारण करती है। जिस घर में बच्चा जन्म लेता है उसकी स्वाभाविक अदाओं पर सभी लोग मोहित होते हैं। बच्चा तेजी से हाथ- पांव फेंक कर खेलता रहता है तो परिजन कितने खुश होते हैं? बच्चा जो भी आवाज निकालता है, घर के लोग उसे सुन कर कितने खुश होते हैं। बच्चा कहता है- बा---। घर के लोग खुश हो कर कहते हैं-- देखो, देखो बा ---- बोल रहा है। यह शास्वत आत्मा का नया शरीर होता है। यह बच्चा बड़ा होता है और तरह- तरह के प्रपंच करने लगता है। हमारा नाम भी तो इस देह को ही मिला है। इस नश्वर नाम को हम स्वर्णाक्षरों में चमकता देखना चाहते हैं। चाहते हैं हमारा खूब नाम हो, हमारे पास खूब पैसा हो, यानी हमारी हजार इच्छाएं हमें नचाती रहती हैं। इन्हीं इच्छाओं के चलते हमारा बार- बार जन्म होता है। शंकराचार्य ने कहा है- पुनरपि जन्मम, पुनरपि मरणम, जननी जठरे पुनरपि शयनम।। तो हम कहां से आए हैं? जन्म से पहले कहां थे? वेदों और ऋषियों ने कहा है- कुछ दिन अदृश्य लोक में विश्राम करने के बाद व्यक्ति का फिर किसी दूसरे घर में जन्म होता है। इसके बाद फिर वही तनाव, लालच, क्रोध और इंद्रिय सुख की लालसाएं। माया अपने जाल में इस तरह फंसाती है कि दुख में रहने के बावजूद मन ईश्वर की तरफ नहीं जाता। ईश्वर के बारे में बात करना भी अच्छा नहीं लगता। हां, संसारी प्रपंच के बारे में बात करने में खूब मन लगता है। लेकिन हमें उबारने वाले भगवान ही हैं। ईश्वर के अलावा हमारा अपना कोई नहीं है। इस संसार में हमारा जो सबसे प्रिय व्यक्ति होगा, उससे भी आत्मीय और उससे भी करीब ईश्वर हैं। उनकी याद या उनका स्मरण हम क्यों न करें?

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