विनय बिहारी सिंह
रमण महर्षि तमिलनाडु (मदुरै से ३० मील दूर तिरुचुली) में के एक ब्राह्मण परिवार में ३० दिसंबर १८७९ में जन्मे और लगभग ७१ वर्ष की आयु में १४ अप्रैल १९५० को अपना शरीर छोड़ दिया। वे पूरे विश्व के अध्यात्म पुरुष थे। १६ वर्ष की उम्र में उन्होंने घर छोड़ दिया और तिरुवन्नामलइ चले गए। वहीं अरुणाचल में उन्होंने गहन साधना की। एक बच्चा उनकी साधना और कष्ट देख कर रो पड़ा। रमण महर्षि ने पूछा- क्यों रो रहे हो? बच्चे ने कहा- तुम्हें रोज देखता हूं। बहुत दिनों से देख रहा हूं- तुम बिना कुछ खाए- पीए, बिना कुछ पहने (उनके शऱीर पर सिर्फ कौपीन था) इतनी तपस्या कर रहे हो। तुम्हें देख कर मुझे पीड़ा होती है। रमण मुस्करा कर बच्चे से बोले- भगवान के प्रेम में पड़ने पर किसी चीज की परवाह नहीं होती। वहां तो बस आनंद ही आनंद है। भोजन और वस्त्र तो तुच्छ वस्तुएं हैं। तब बच्चे ने रोना बंद किया। रमण महर्षि ने कहा है- खुद से पूछो कि मैं कौन हूं। यानी खुद को जानने का प्रयत्न। मैं कौन हूं? क्या शरीर हूं। नहीं। यह शरीर मेरा है, मैं शरीर नहीं हूं। तो क्या मैं बुद्धि हूं? नहीं, बुद्धि मेरी है। तब क्या हूं? तो उत्तर मिलेगा- मैं शुद्ध सच्चिदानंद हूं। सच्चिदानंद? हां ( तुलसीदास ने भी तो कहा है- ईश्वर अंश जीव अविनाशी)। वे कहते थे मनुष्य जब अपने को भूल जाता है तो नाना प्रकार के कष्ट पाता है। वह भूल जाता है कि मैं ईश्वर का अंश हूं और तरह- तरह के माया के जालों में फंसता रहता है। जैसे प्याज का छिलका उतारते जाने से अंत में कुछ नहीं बचेगा, उसी तरह माया की परतों को हटाने से बचेगा सिर्फ शून्य लेकिन इसी शून्य में छुपे हैं भगवान। रमण महर्षि ने कहा है- ईश्वर के सिवा कुछ भी नहीं है। सर्वं खल्विदं ब्रह्म। सबकुछ ईश्वर है। द्वैत ही भ्रम का कारण है। कहीं कुछ भी नहीं- सिर्फ ईश्वर, ईश्वर औऱ ईश्वर ही हैं चारो तरफ। बस गहरे ध्यान में जाकर महसूस करने की जरूरत है।
1 comment:
jai ho !
bahut gahri aur aantrik baat.........
dhnyavad !
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