Thursday, December 10, 2009

अपने भीतर की दुनिया कैसी है?

विनय बिहारी सिंह


दो तरह की दुनिया है। एक तो बाहर की दुनिया, जिसे हम रोज देखते, सुनते और अनुभव करते हैं। दूसरी है भीतर की दुनिया। बाहर की दुनिया में शोर- शराबा, भागदौड़ और बेचैनी है तो भीतर की दुनिया में परम शांति और स्थिरता है। यानी पहली दुनिया दूसरी दुनिया से बिल्कुल उलट है। बाहर की दुनिया नित्य परिवर्तनशील और जन्म- मरण और भोगाभोग की है तो भीतर की दुनिया परिवर्तन रहित, स्थाई और सुख शांति वाली है। अब आप कहेंगे कि जो व्यक्ति परेशान है, तनाव झेल रहा है, वह अगर आंख बंद करके ध्यान करेगा और अपने भीतर उतरना चाहेगा तो उसका दिमाग स्थिर होगा ही नहीं। उसके लिए तो जैसे बाहर की दुनिया वैसी ही भीतर की दुनिया। नहीं। एक म्यान में दो तलवारें नहीं रहा करतीं। या तो आप बाहरी दुनिया के ही होकर रह सकते हैं या अंदर की दुनिया के। अब आप सवाल करेंगे कि जो भीतर की दुनिया को जानते हैं, वे भी तो बाहर की दुनिया में बरतते ही हैं। हां, यह ठीक है। लेकिन भीतर की दुनिया को जान कर बाहर की दुनिया के साथ आचार- व्यवहार करना अलग तरह का है। जिस साधक ने तत्व जान लिया वह बाहर की दुनिया में आनंद पूर्वक रह सकेगा। वह तो भगवान का हाथ पकड़े हुए है और भगवान भी उसका हाथ पकड़े हुए हैं। ऐसे में उस साधक को कोई चिंता करने की जरूरत ही नहीं है। भीतर की दुनिया का स्वाद या ईश्वर का स्वाद तब तक नहीं मिल सकता जब तक कि आप उतनी देर के लिए बाहर के संसार से नाता न तोड़ लें। अगर आप आंख बंद कर ईश्वर का ध्यान करने की कोशिश कर रहे हैं और उसके बदले संसार भर के प्रपंचों के बारे में सोच रहे हैं तो आप भीतर गए ही नहीं। बाहर- बाहर ही घूम रहे हैं। आंख बंद करने भर से अंदर की दुनिया में नहीं जाया जा सकता है। जो आपके दिल में होगा वही आप आंखें खुली रख कर भी देखेंगे और आंखें बंद कर भी वही देखेंगे। जो आपके दिलो दिमाग पर हावी रहेगा, वही आप देखेंगे, सुनेंगे और महसूस करेंगे। कहावत है न कि जिस रंग का चश्मा होगा, उसी रंग का दृश्य आपको दिखाई देगा। इसलिए जिसने इस दुनिया में रहते हुए भी अपना गहरा रिश्ता ईश्वर से जोड़ रखा है, वह सबसे सुखी है। उसे ईश्वर का पक्का सहारा मिल गया। और जो बौद्धिक तर्क में पड़े हुए हैं कि ईश्वर है भी कि नहीं, उन्हें कुछ नहीं मिलेगा। ईश्वर देह, मन और बुद्धि से परे है। यह गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है। जिस क्षण आपने संपूर्ण समर्पण कर दिया, ईश्वर आपके हो गए। लेकिन टोटल सरेंडर या पूर्ण समर्पण एकबारगी नहीं होता। यह धीरे- धीरे होता है। आप जैसे जैसे ईश्वर के भीतर गहनतम उतरते जाएंगे, आप उनके प्रेम में आनंदित होते जाएंगे। यह बात अनुभव की है। कबीर दास ने कहा ही है-
पार ब्रह्म के तेज का कैसा है परमान।कहिबे को सोभा नहीं, देखन को परमान।।