Wednesday, October 31, 2012

सूरदास की एक और सुंदर रचना


हे गोविंद हे गोपाल।
हे गोविंद राखु शरण अब तो जीवन हारे।
हे गोविंद हे गोपाल।
नीर पीवन हेतु गए सिंधु के किनारे।
सिंधु बीच बसत ग्राह चरण धरि पछारे।।
चार प्रहर युद्ध भयो ले गयो मझधारे।
नाक कान बूड़न लागे कृष्ण को पुकारे।।
द्वारका में शब्द भयो, शोर भयो भारे।
शंख, चक्र, गदा, पदम गरुड़ लै सिधारे।।
सूर कहै श्याम सुनो शरण हम तिहारे।
अबकी बार पार करो नंद के दुलारे।।

Tuesday, October 30, 2012

नजीर की एक रचना



इस दुनिया या संसार के बारे में समय समय पर विभिन्न साधु- संतों ने अपने विचार प्रकट किए हैं। शायर नजीर ने दुनिया के बारे में जो कुछ लिखा है, उसे आप भी पढ़ना चाहेंगे। नजीर की यह रचना मैंने बार- बार पढ़ी और अच्छा लगा। आप भी पढ़ें-

है बहारे बाग दुनिया चंद रोज।
देख लो इसका तमाशा चंद रोज।।

ऐ मुसाफिर कूच का सामान कर।
इस जहां में है बसेरा चंद रोज।।

फिर कहां तुम और मैं ऐ दोस्तों।
साथ है मेरा तुम्हारा चंद रोज।।

क्या सताते हो दिले बेजुर्म को।
जालिमों है यह जमाना चंद रोज।।

याद कर तू ऐ `नजीर' कब्रों के रोज।
जिंदगी का है भरोसा चंद रोज।।

 कैसी लगी नजीर की यह रचना?

Monday, October 29, 2012

लक्ष्मी पूजा



आज लक्ष्मी पूजा है। लक्ष्मी जी भगवान विष्णु की पत्नी मानी जाती हैं। वे सदा उनके चरण पर हाथ रखे सेवा भाव में चित्रित की जाती हैं। दरअसल यह प्रतीक है। कहने की जरूरत नहीं कि लक्ष्मी जी धन की देवी हैं। भगवान विष्णु पुरुषार्थ के प्रतीक हैं। तो अर्थ यह हुआ कि यदि मनुष्य पुरुषार्थ करेगा तो लक्ष्मी आएंगी। अन्यथा नहीं। मां लक्ष्मी के बारे में बचपन में हम लोग एक कहावत सुनते थे। कहावत थी- लक्ष्मी जी चंचला हैं। यदि उन्हें संभाल कर नहीं रखा जाए तो वे दूसरे के पास चली जाती हैं। जब समझने लायक हुए तो इसका अर्थ जाना। कहावत सावधान करती है कि लक्ष्मी यानी धन के साथ लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए। सावधान हो कर खर्च करना चाहिए। लेन- देन में अत्यंत सावधान रहना चाहिए। वरना संबंध खराब हो सकते हैं और आपकी पूंजी भी डूब सकती है। किसके साथ पार्टनरशिप करें और किसके साथ नहीं यह भी जांच लेना आवश्यक है। फिर पार्टनरशिप करें भी कि नहीं। क्या अकेले व्यवसाय करें। यह सब समझ बूझ कर ही आगे बढ़ना उचित है। तो प्रतीक हमें बहुत कुछ बताते हैं। आज के दिन ज्यादातर हिंदू परिवारों में लक्ष्मी पूजा होती है। मां लक्ष्मी की विधिवत पूजा के बाद उन्हें भोग चढ़ाया जाता है। आज के दिन अनेक स्वादिष्ट पकवान बनाए जाते हैं। जिसकी जैसी सामर्थ्य है, अपने घर में वैसा पकवान बनाता है। तरह- तरह की मिठाइयां, फल और विभिन्न तरह की खीर का विशेष प्रचलन है। कुछ घरों में लक्ष्मी जी की मूर्ति ला कर उसका पूजन किया जाता है। इसके लिए किसी पंडित जी से पहले से ही समय तय कर लिया जाता है। पूजा  के बाद ही घर के लोग भोजन करते हैं।

Friday, October 26, 2012

SAMADHI


"Vanished the veils of light and shade,
Lifted every vapor of sorrow,
Sailed away all dawns of fleeting joy,
Gone the dim sensory mirage.
Love, hate, health, disease, life, death,
Perished these false shadows on the screen of duality.
Waves of laughter, scyllas of sarcasm, melancholic whirlpools,
Melting in the vast sea of bliss.
The storm of maya stilled
By magic wand of intuition deep.
The universe, forgotten dream, subconsciously lurks,
Ready to invade my newly wakened memory divine.
I live without the cosmic shadow,
But it is not, bereft of me;
As the sea exists without the waves,
But they breathe not without the sea.
Dreams, wakings, states of deep turiya sleep,
Present, past, future, no more for me,
But ever-present, all-flowing I, I, everywhere.
Planets, stars, stardust, earth,
Volcanic bursts of doomsday cataclysms,
Creation's molding furnace,
Glaciers of silent x-rays, burning electron floods,
Thoughts of all men, past, present, to come,
Every blade of grass, myself, mankind,
Each particle of universal dust,
Anger, greed, good, bad, salvation, lust,
I swallowed, transmuted all
Into a vast ocean of blood of my own one Being!
Smoldering joy, oft-puffed by meditation
Blinding my tearful eyes,
Burst into immortal flames of bliss,
Consumed my tears, my frame, my all.
Thou art I, I am Thou,
Knowing, Knower, Known, as One!
Tranquilled, unbroken thrill, eternally living, ever new peace!
Enjoyable beyond imagination of expectancy, samadhi bliss!
Not a mental chloroform
Or unconscious state without wilful return,
Samadhi but extends my conscious realm
Beyond the limits of the mortal frame
To farthest boundary of eternity
Where I, the Cosmic Sea,
Watch the little ego floating in me.
The sparrow, each grain of sand, fall not without my sight.
All space like an iceberg floats within my mental sea.
Colossal Container, I, of all things made.
By deeper, longer, thirsty, guru-given meditation
Comes this celestial samadhi
Mobile murmurs of atoms are heard,
The dark earth, mountains, vales, lo! molten liquid!
Flowing seas change into vapors of nebulae!
Aum blows upon the vapors, opening wondrously their veils,
Oceans stand revealed, shining electrons,
Till, at last sound of the cosmic drum,
Vanish the grosser lights into eternal rays
Of all-pervading bliss.
From joy I came, for joy I live, in sacred joy I melt.
Ocean of mind, I drink all creation's waves.
Four veils of solid, liquid, vapor, light,
Lift aright.
Myself, in everything, enters the Great Myself.
Gone forever, fitful, flickering shadows of mortal memory.
Spotless is my mental sky, below, ahead, and high above.
Eternity and I, one united ray.
A tiny bubble of laughter, I
Am become the Sea of Mirth Itself." 

-Paramahansa Yoganandaji

Thursday, October 25, 2012

मां दुर्गा के दस हाथ



मां दुर्गा के दस हाथ हमारी दस इंद्रियों के प्रतीक हैं। मां के नौ हाथों में अस्त्र- शस्त्र हैं और एक हाथ आशीर्वाद दे रहा है। तो नौ हाथों में अस्त्र क्यों हैं? ये इंद्रियों के वश में करने का संदेश देते हैं। मां दुर्गा का संदेश है कि जब तक हम इंद्रियों को वश में नहीं कर लेते और उनका इस्तेमाल साधना के लिए नहीं करने लगते, मां के दर्शन दुर्लभ ही रहेंगे। एक बार यह ज्ञान हो गया कि हम इंद्रिय, मन या शरीर नहीं हैं। माइंड नहीं हैं। इंटेलेक्ट नहीं हैं। हम तो सिर्फ शुद्ध आत्मा हैं। बस यह अनुभव होना ही इंद्रिय नियंत्रण का रास्ता खोल देता है। इसके अलावा संतों ने कुछ प्राणायाम बताए हैं। उनसे इसमें और मदद मिलती है। इस तरह साधक धीरे- धीरे आगे बढ़ता रहता है और मां की कृपा का पात्र होता जाता है। आखिर मां भी चाहती ही हैं कि उनका बच्चा उनकी ओर आकर्षित हो। उन्हें मां कह कर पुकारे। उनसे प्यार करे। कौन मां नहीं चाहेगी? और जगन्माता की तो बात ही कुछ और है। वे तो लगातार हमारी बाट जोहती रहती हैं। कब हम गहरे हृदय से उनकी करुणा के लिए पुकारें और कब वे हमारे पास आएं।

Monday, October 22, 2012

हार्दिक शुभकामना



आप सब कृपया दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएं स्वीकार करें। मां दुर्गा आप सबके जीवन में ढेर सारी खुशियां लाएं। आपका जीवन सुखमय और उल्लास से भरा रहे।

Saturday, October 20, 2012

कब्ज तोड़ना है तो क्या करें


विनय बिहारी सिंह

मित्रों, कब्ज होना आम बात है। कुछ लोग तो मजाक में कहते हैं कि पश्चिम बंगाल के पानी में ही कब्ज पैदा करने वाले तत्व हैं। लेकिन मैं इस रोग से लगातार लड़ता रहता हूं। इसलिए यह मुझे अपने वश में नहीं कर पाता। पिछले दिनों मैंने आटोमेटिक मशीन की बनी चाय खूब पी। काफी भी पी। अचानक मैंने पाया कि मुझे भारी कब्ज हो गया है। मैंने गहराई से विश्लेषण किया तो शक हुआ कि इसका कारण कहीं मशीन वाली चाय और काफी ही तो नहीं है। प्रयोग के तौर पर मैंने मशीन की चाय पीनी बंद कर दी। दफ्तर में मैं दुकानों पर बनी चाय पीने लगा। इसके अलावा एक प्रयोग और किया। भूख से काफी कम खाना खाया और खूब पानी पीया। इसके अलावा बची भूख को मिटाने के लिए भोजन के साथ ही पानी पीने लगा। जबकि मैं भोजन के साथ पानी नहीं पीता था। डाक्टर भी कहते हैं कि भोजन के साथ पानी पीने से पचने में सहायक रसायन  पतले हो जाते हैं। फिर भी मैंने यह प्रयोग किया और इससे मेरा कब्ज खत्म हो गया। लेकिन हां, सबसे पहले मैंने एक दिन (नवरात्रि के पहले दिन) उपवास रखा। इसका बहुत फायदा मिला। कब्ज से मैं हमेशा दो दो हाथ करता रहता हूं। और जीत जाता हूं। आपको भी कभी कब्ज हो तो भोजन के साथ पानी वाला प्रयोग आप आजमा कर देख सकते हैं। क्या पता आपको भी फायदा करे।

Thursday, October 18, 2012

दुर्गा शप्तसती




विनय बिहारी सिंह



दुर्गा शप्तसती में मार्कंडेय पुराण के १३ अध्यायों के ७०० श्लोक हैं। इसमें मां दुर्गा के महत्व को रेखांकित किया गया है। मां दुर्गा किस तरह संकट, विघ्न और चिंताओं को दूर करती हैं और किस तरह उनकी कृपा प्राप्त की जा सकती है, यह समय समय पर अनेक संतों ने बताया है। ऋषि मार्कंडेय ने मां दुर्गा को विभिन्न आयामों में व्याख्यायित किया है। दुर्गा शप्तसती का पाठ बहुत विधि- विधान के साथ करना होता है। इसका एक अंश यहां दिया जा रहा है-

मार्कण्डेय उवाच 

ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह ।। १।।

ब्रह्मोवाच
अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम् ।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने ।। २।।

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी ।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।। ३।।

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च ।
सप्तमं कालरात्रिति महागौरीति चाष्टमम् ।। ४।।

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः ।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ।। ५।।

अग्निना दह्यमानास्तु शत्रुमध्यगता रणे ।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः ।। ६।

न तेषां जायते किञ्चिदशुभं रणसङ्कटे ।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि ।। ७।।

यह सिर्फ एक संक्षिप्त अंश भर है ।सिर्फ आपको बताने के लिए। इसके आगे और पीछे कई श्लोक हैं और शुद्धि संबंधी कई विधि विधान हैं।  कृपया इसका इस्तेमाल न करें।  दुर्गा शप्तसती का प्रभाव इसके पढ़ने से ही समझ में आता है। इसमें जो ताकत है, उसे इसे समझने वाला ही जान सकता है।

Wednesday, October 17, 2012

आदि शक्ति की नवरात्रि


 विनय बिहारी सिंह

नवरात्रि आदि शक्ति की अराधना का समय है। पश्चिम बंगाल में पंडालों में मां दुर्गा की प्रतिमा के साथ माता लक्ष्मी और सरस्वती की भी मूर्तियां रखी होती हैं। मां दुर्गा महिषासुर का वध कर रही होती हैं और उनकी बगल में लक्ष्मी जी और सरस्वती जी शांत भाव में विराजमान होती हैं। इसका अर्थ है यदि हम अपने भीतर के महिषासुर का वध कर दें यानी अपने भीतर की बुरी प्रवृत्तियों का नाश कर दें तो लक्ष्मी यानी धन- धान्य से संपन्न होंगे और सरस्वती यानी ज्ञान से पूर्ण होंगे। नवरात्रि इसी का स्मरण कराने आता है। आदि शक्ति यानी मातृ शक्ति। इसीलिए दुर्गा पाठ में कहा जाता है- या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः।। बिना शक्ति के हम हैं क्या? शक्ति के बिना तो हम मुर्दे के समान हो जाएंगे। यह शक्ति आती कहां से है? निश्चय ही ईश्वर के पास से। वही शक्ति हैं, वही शिव हैं। यानी शिव-शक्ति वही हैं। माता पार्वती ही दुर्गा, काली और अन्य शक्ति रूपों में हैं। माता पार्वती के पति यानी भगवान शिव सदा ध्यान में मनोहारी मुस्कान बिखरते हुए अपने भक्तों को आशीर्वाद देते रहते हैं। आइए इस नवरात्रि में हम शिव- शक्ति की विशेष अराधना करें।

Tuesday, October 16, 2012

श्री रुद्राष्टकम्


नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् |
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेहम् ||१||

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम् |
करालं महाकालकालं कृपालं गुणागारसंसारपारं नतोहम् ||२||

तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरं मनोभूतकोटि प्रभाश्रीशरीरम् |
स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगंगा लसदभालबालेन्दुकण्ठे भुजंगा ||३||

चलत्कुण्डलं भ्रुसुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् |
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ||४||

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् |
त्रयः शूलनिर्मूलनं शूलपाणिं भजेहं भावानीपतिं भावगम्यम् ||५||

कलातीतकल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनानंददाता पुरारी |
चिदानंदसंदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ||६||

न यावद उमानाथपादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् |
न तावत्सुखं शान्ति संतापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ||७||

न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम् |
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ||८||


रुद्रष्टकमिदं प्रोक्तं विपेण हरतुष्टये |
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ||
|| इति श्री गोस्वामी तुलसीदास कृतं श्री रुद्राष्टकम् संपूर्णं ||

Monday, October 15, 2012

तुलसीदास की एक सुंदर रचना


काहे ते हरि मोहिं बिसारो।
जानत निज महिमा मेरे अघ, तदपि न नाथ सँभारो॥१॥
पतित-पुनीत दीन हित असुरन सरन कहत स्त्रुति चारो।
हौं नहिं अधम सभीत दीन ? किधौं बेदन मृषा पुकारो॥२॥
खग-गनिका-अज ब्याध-पाँति जहँ तहँ हौहूँ बैठारो।
अब केहि लाज कृपानिधान! परसत पनवारो फारो॥३॥
जो कलिकाल प्रबल अति हो तो तुव निदेस तें न्यारो।
तौ हरि रोष सरोस दोष गुन तेहि भजते तजि मारो॥४॥
मसक बिरंचि बिरंचि मसक सम, करहु प्रभाउ तुम्हारो।
यह सामरथ अछत मोहि त्यागहु, नाथ तहाँ कछु चारो॥५॥
नाहिन नरक परत मो कहँ डर जद्यपि हौं अति हारो।
यह बड़ि त्रास दास तुलसी प्रभु नामहु पाप न जारो॥६॥

Thursday, October 11, 2012

गीता का दसवां अध्याय


भगवान कृष्ण ने भगवत गीता के दसवें अध्याय में अपनी विभूतियां बताई हैं। अर्जुन ने प्रश्न किया है कि प्रभु, आपको मैं किन- किन रूपों में स्मरण कर सकता हूं, आपका ध्यान कर सकता हूं। भगवान ने सबसे पहले कहा है- मैं सबकी आत्मा हूं। फिर उन्होंने कहा है कि मैं सूर्य हूं। नक्षत्रों में चंद्रमा हूं। सिद्धों में कपिल मुनि हूं। संतों में नारद ऋषि, और पांडवों में अर्जुन यानी तुम, पर्वतों में सुमेरु पर्वत, वृक्षों में पीपल....आदि।  अध्याय के अंत में भगवान ने कहा है- जितनी भी विभूतियां तुम देखते हो, उनमें मैं ही हूं। लेकिन इन बहुत से वर्णनों से तुम्हें क्या। तुम तो बस मुझे ही स्मरण करो और तुम्हारा काम बन जाएगा। भगवान संकेत देते हैं कि उनके प्रति अनन्यता के साथ जुड़ने से ही भक्त का काम बन जाएगा। उसे कहीं और भटकने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन मैं इन-इन रूपों में भी हूं। यहां भगवान यह स्पष्ट संकेत देते हैं कि संपूर्ण ब्रह्मांड के कर्ता और ब्रह्मांड को धारण करने वाले वही हैं। वही इसके मालिक हैं, वही इसे चला रहे हैं। जो  उनकी शरण में जाएगा, उसे ब्रह्मांड का रहस्य मालूम हो जाएगा। यही नहीं, उसे भगवान की कृपा भी प्राप्त हो जाएगी।

Tuesday, October 9, 2012

भगवान के वचन




भगवान श्रीकृष्ण ने भगवत गीता में कहा है- जो मुझे अनन्य प्रेम से भजते हैं। जो मुझे कभी नहीं भूलते, उन्हें मैं भी कभी नहीं भूलता। वे मुझमें और मैं उनमें हूं। कितना सांत्वनादाई वादा है यह। हम अपने हृदय से भगवान के नाम का उच्चारण करते हैं और यह पुकार तत्क्षण उन तक पहुंच जाती है। भगवान कहते हैं- मेरे भक्त कभी नष्ट नहीं होते। यानी भगवान अपने भक्तों की सदा रक्षा करते हैं। रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- भक्ति, भक्त और भगवान- एक हो जाएं तो फिर कहना ही क्या। यही चरम स्थिति तो पाने के लिए भक्त छटपटाता रहता है। वह भीतर से पुकारता रहता है- कहां हैं भगवान। दर्शन दीजिए। वह भगवान को महसूस करता रहता है लेकिन जब उनके दर्शन नहीं होते, सिर्फ अनुभूति होती है तो वह कहता- दर्शन दीजिए प्रभु। दर्शन दीजिए। भगवान यह सुन कर मुस्कराते हैं। वे भक्त की व्याकुलता को और परखना चाहते हैं। यह भक्त और भगवान के बीच चलता रहता है। यह भगवान को भी अच्छा लगता है और भक्त को भी।

Saturday, October 6, 2012

आत्मचिंतन


परमहंस योगानंद जी ने लिखा है कि यदि आप किसी आध्यात्मिक विषय पर एक घंटे पढ़ते हैं तो दो घंटे लिखिए, तीन घंटे उस पर सोचिए और बाकी बचे समय में जब फुरसत मिले ध्यान कीजिए। सचमुच आध्यात्मिक चीजें सिर्फ पढ़ना और पढ़ते जाना ही हमें ज्यादा फायदा नहीं पहुंचाता। जो पढ़ते हैं उसे लिखने से वह ज्यादा अच्छी तरह आत्मसात होता है। और जो आत्मसात किया उस पर गहरा चिंतन करने से वह हमारे भीतर गहरे बैठ जाता है। इसके बाद यदि उस पर ध्यान करें तो ज्यादा फायदा पहुंचता है। हम ईश्वर को अपने करीब ज्यादा पाते हैं। संतों ने तो कहा ही है- ईश्वर तो हमारे भीतर, बाहर, सर्वत्र हैं। हम्हीं उन्हें अपनी अज्ञानता के कारण जान- समझ नहीं पाते। सर्वं खल्विदं ब्रह्म। सबकुछ ब्रह्म ही है। यह ज्ञान भीतर तक जब तक नहीं जड़ जमा लेता, हम यही कहते रहेंगे कि भगवान हमसे दूर हो गए हैं। जबकि सच्चाई यह है कि हमारे सबसे करीब भगवान ही हैं।

Thursday, October 4, 2012

रहीम के दोहे



जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय।
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय॥
अर्थ: ओछे लोग जब प्रगति करते हैं तो बहुत ही इतराते हैं। वैसे ही जैसे शतरंज के खेल में जब प्यादा फरजी बन जाता है तो वह टेढ़ी चाल चलने लगता है।

बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन बिगरे दूध को, मथे न माखन होय॥
अर्थ: जब बात बिगड़ जाती है तो किसी के लाख कोशिश करने पर भी बनती नहीं है। उसी तरह जैसे कि दूध को मथने से मक्खन नहीं निकलता।

आब गई आदर गया, नैनन गया सनेहि।
ये तीनों तब ही गये, जबहि कहा कछु देहि॥
अर्थ: ज्यों ही कोई किसी से कुछ मांगता है त्यों ही आबरू, आदर और आंख से प्रेम चला जाता है।

खीरा सिर ते काटिये, मलियत नमक लगाय।
रहिमन करुये मुखन को, चहियत इहै सजाय॥
अर्थ: खीरे को सिर से काटना चाहिए और उस पर नमक लगाना चाहिए। यदि किसी के मुंह से कटु वाणी निकले तो उसे भी यही सजा होनी चाहिए।

चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछु नहि चाहिये, वे साहन के साह॥
अर्थ: जिन्हें कुछ नहीं चाहिए वो राजाओं के राजा हैं। क्योंकि उन्हें ना तो किसी चीज की चाह है, ना ही चिंता और मन तो बिल्कुल बेपरवाह है।

Wednesday, October 3, 2012

जड़ प्रकृति और प्रेम



भगवत गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार ये आठ तो जड़ प्रकृति है। इससे परे जो है वह आत्मा है। यानी मन और बुद्धि से भी परे है आत्मा। हम मन या बुद्धि से ईश्वर को कैसे पकड़ सकते हैं? संभव ही नहीं है। तो ध्यान कैसे करें? जब मन और बुद्धि से ईश्वर को जाना ही नहीं जा सकता तो इन्हें ईश्वर के चरणों में अर्पित कर देना ही उचित है। कबीरदास ने इसीलिए कहा है-

कबीर यहु घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।
सीस उतारे हाथि करि, सो पैसे घर माहिं।।

सीस उतारे हाथि करि यानी अपने मन, अपनी बुद्धि और अपने अहंकार को नष्ट करने के बाद ही ईश्वरीय प्रेम के घर में प्रवेश किया जा सकता है। जब तक मैं, मैं, मैं लगा रहेगा, हम ईश्वर से दूर रहेंगे। जब तू, तू, तू यानी ईश्वर, ईश्वर, ईश्वर की रट हमारे अंतरमन में आ जाएगी तो बस काम बन जाएगा।
 ईश्वर सच्चे प्रेम के लिए लालायित रहते हैं। वे वहीं आकर्षित होते हैं जहां भक्त का सच्चा हृदय उन्हें पुकारता है।


Monday, October 1, 2012

अदृश्य आत्मा




हमारा शरीर तो दिखाई देता है। लेकिन आत्मा नहीं। आत्मा दिखाई नहीं दे सकती। भगवत् गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि इंद्रियों से सूक्ष्म मन है, मन से सूक्ष्म बुद्धि है और बुद्धि से भी सूक्ष्म आत्मा है। यानी आत्मा सूक्ष्मतम है। क्योंकि आत्मा ईश्वर का अंश है। मनुष्य ज्यादातर इंद्रियों, मन और बुद्धि के चक्कर में ही पड़ा रहता है। इसलिए वह आत्मा को नहीं जान पाता। संत कहते हैं कि आत्मा का आनंद या आत्मानंद अवर्णनीय है। आत्म साक्षात्कार करने से ईश्वर तक पहुंचा जा सकता है। यह कैसे संभव है? जब इंद्रियों, मन और बुद्धि को स्थिर रख कर ईश्वर में लय किया जाए। यह गहन ध्यान से संभव है। संत कहते हैं- धार्मिक ग्रंथ कहते हैं- गहन ध्यान मे ईश्वर से संपर्क ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। वे पुकार रहे हैं- आओ, आओ, लेकिन हम गहन ध्यान में उतर कर उनसे संपर्क नहीं करना चाहते। यदि जीते जी ध्यान के जरिए ईश्वर से संपर्क नहीं हो पाया तो मृत्यु के बाद तो और नहीं होगा। इंद्रियों, मन और बुद्धि पर नियंत्रण ही तो असली उद्देश्य है मनुष्य जीवन का।