Wednesday, December 9, 2009

मां काली के विख्यात भक्त रामप्रसाद सेन

विनय बिहारी सिंह

पश्चिम बंगाल में १८वीं शताब्दी के काली भक्त रामप्रसाद सेन घर- घर में जाने जाते हैं। आज भी उनके गीत सुन कर लोग मुग्ध हो जाते हैं। उनके गाने को रामप्रसादी संगीत कहा जाता है। वे मां काली के अनन्य भक्त थे और मान्यता है कि मां काली ने उन्हें कई बार दर्शन दिए थे। बल्कि उनका वे पुत्र की तरह ख्याल रखती थीं। वे पश्चिम बंगाल में एक राजा के दरबार में कवि थे। उनका जन्म तांत्रिक परिवार में हुआ था। इसीलिए बचपन से वे काली के भक्त बन गए। धीरे- धीरे उन्हें लगा कि मां काली तो कल्पना की वस्तु नहीं हैं, वे सचमुच मौजूद हैं। उनके भजन इस बात के प्रमाण हैं कि उन्होंने दिव्य अनुभव प्राप्त किए थे। रामप्रसाद सेन आमतौर पर सिर्फ रामप्रसाद के नाम से ज्यादा जाने जाते हैं। उनके लिखे गीत आमतौर पर हजारों की संख्या में हैं। उनकी पुस्तकें विद्या सुंदर, काली कीर्तन और कृष्ण कीर्तन अमर कृतियों की तरह हैं। रामप्रसाद मूलतः बांग्ला में गीत लिखते थे। लेकिन अंग्रेजी में भी उनके गीतों के अनुवाद हुए हैं। उनके एक गीत का अर्थ देना प्रासंगिक होगा- क्या वह दिन आएगा, जब मां तारा (काली) कहते मेरी आंखों से आंसू बहने लगेंगे? मां का नाम लेते लेते मुझे तत्व ग्यान होगा। वेदों का कहना है कि दिव्य मां हर जगह हैं। रामप्रसाद कहता है कि मां हर जगह हैं। अंधे उन्हें हर जगह छुपा हुआ देखते हैं। जबकि वे प्रकट हैं। रामप्रसाद मां काली के गहनतम भक्त थे। वे फूल को भी छूते थे तो कहते थे- मां काली को छू रहा हूं। सांस लेते थे तो कहते थे कि मेरी सांस में मां काली इसमें बसी हुई हैं। वे कहते थे- मां आछे, आमी आछी, आर के आमार, माए दिया खाई पोड़ी, मां निएछे भार आमार ( मां है, मैं हूं बाकी मेरा है ही कौन। मां का दिया ही खाता औऱ पहनता हूं। मां ने मेरी जिम्मेदारी ले रखी है।)। रामप्रसाद के बारे में एक कहानी सुनने को मिलती है। भजन गाते- गाते एक बार वे समाधि में चले गए। यह दोपहर बाद तीन बजे का समय था। उन्होंने दिन का खाना नहीं खाया था। रात हो गई, फिर भोर हुई। रात का खाना भी यूं ही पड़ा रहा। अगले दिन आठ बजे उनकी समाधि टूटी। उनकी सेवा में लगे आदमी ने उन्हें खीर खाने को दी। लेकिन वे तो एक अद्भुत आनंद में डूबे हुए थे। बहुत कहने पर उन्होंने खीर खाई। वे भोजन और वस्त्र का ख्याल नहीं रख पाते थे। भयानक ठंड पड़ रही है और उन्हें होश नहीं है कि एक ऊनी चादर शरीर पर डाल लें। लोग ही उनका ख्याल रखते थे। धोती मैली हो गई है तो लोग ही साफ कर देते थे। अगर उन्हें एक तरह का ही खाना रोज दिया जाता तो भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था। भोजन उनके लिए जीने भर का साधन था। स्वाद से ऊपर उठ चुके थे वे। लेकिन हमेशा वे आनंद में डूबे रहते थे।

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