विनय बिहारी सिंह
सिनेमा को ही जीवन बना लेना क्या ठीक है? आज बड़े होते बच्चों के मुंह से सिनेमा के satahi गीत सुनना सामान्य सी घटना है। सिनेमा हमें कौन सा संस्कार सिखाता है? क्या वह हमें धैर्य, शांति, साहस और ईश्वर के प्रति गहरी आस्था का संदेश देता है? या कि फिल्म निर्माता अपनी कमाई के लिए तमाम तरह के मसाले डाल कर लोगों को सतही चीजों के प्रति प्रेरित करता है? मेरा आग्रह है कि यह लेख सिनेमा के खिलाफ नहीं है। लेकिन एकदम से सिनेमा का दीवाना होना भी खतरनाक है। फिल्में व्यवसाय के लिए बनाई जाती हैं। कमाई के लिए। आजकल की फिल्में अच्छे संदेश देने के लिए नहीं होतीं। कोई एक विषय लेकर सस्पेंस और कानों को अधिक प्रिय न लगने वाले गाने दर्शकों को कितना लुभाएंगे? इसीलिए फिल्में खूब फ्लाप भी हो रही हैं। तो बच्चे क्यों फिल्मों के प्रति मोहित हो रहे हैं। क्यों कोई बच्चा रास्ते में प्यार, प्यार गाता है और सच्चे प्यार का अर्थ नहीं जानता? इसकी वजह यह है कि हममें से ज्यादातर लोगों का जीवन फिल्मों और टीवी कार्यक्रमों से इस तरह बंध गया है कि अगर घर में टीवी खराब हो जाए तो हंगामा खड़ा हो जाएगा। कई लोग घर में प्रवेश करते ही सबसे पहले टीवी खोलते हैं। फिर कुछ खाते पीते हैं। उनका सारा काम टीवी देखते देखते ही होता है। पात्रों की चर्चा, लाइव शो में किसने क्या किया, इसकी चर्चा। बस। जीवन मूल्यों की चर्चा कोई नहीं करता। क्या हमारा जीवन एकांगी हो गया है? क्या सिनेमा और टीवी के लोग हमें सिखाएंगे कि हमें कैसे जीना चाहिए और कैसे सोचना चाहिए? तब तो हम बाजार के उत्पादों के बारे में ही दिन रात सोचेंगे या फिर फिजूल के चरित्रों की चर्चा करेंगे। आप कहेंगे कि तब क्या करें? बैठ कर रामनाम जपें? ठीक है आप रामनाम मत जपिए। लेकिन कोई अच्छी प्रेरक किताब पढिए। बच्चों को ऐसे संस्कार दीजिए कि वे महापुरुषों के जीवन की कथा पढ़ने के लिए लालायित हों। अच्छी पुस्तकें बच्चों को ही नहीं बड़ों को भी बहुत कुछ दे जाती हैं। कुछ नहीं तो चिंता छोड़ें, सुख से जीएं नामक किताब ही पढ़ने को दीजिए। या फिर परमहंस योगानंद की योगी कथामृत (आटोबायोग्राफी आफ अ योगी का अनुवाद) पढ़ने को दीजिए। तब वह तोते की तरह प्यार प्यार न गाकर, अपने भीतर को टटोलेगा। चिंतन करेगा। शांत होकर अकेले में हम अपने भीतर कब झांकेंगे? कैसे आत्मविश्लेषण कर पाएंगे कि हमारे भीतर क्या चल रहा है? अगर कोई दिन रात अपने दिमाग को बाहर दौड़ाए रहता है तो वह अपने भीतर झांक ही नहीं सकता। तब फिर वह बाहर की सफाई तो कर सकता है, अंदर की सफाई नहीं कर सकता। अंदर कूड़ा- कचरा जमा होता रहेगा। बाद में भीतर के कूड़े कचरे की जड़ इतनी गहरी हो जाएगी कि आप उसे उखाड़ेंगे और वह फिर नए सिरे से उग आएगा। यह कूड़ा हमारे अनजाने जमा होता रहता है। इसकी सफाई का सबसे बढ़िया उपाय यह है कि आत्मविश्लेषण करें और महापुरुषों की अच्छी पुस्तकें पढ़ें और शास्त्रीय संगीत पर आधारित भजन सुनें। भजन सुनने का नशा नहीं होना चाहिए। वरना ध्यान पूजा छोड़ कर सिर्फ भजन ही सुनते रहेंगे। हर चीज की एक सीमा होनी चाहिए।
1 comment:
हर चीज की एक सीमा होनी चाहिए। -सत्य वचन!!
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