विनय बिहारी सिंह
विदुर नीति के बारे में बहुत भ्रम है। आमतौर पर यह कूट नीति से जुड़ी मानी जाती है। लेकिन इसमें अध्यात्म की शिक्षा भी है। आइए देखें कि इसमें क्या है। धृतराष्ट्र ने सनत- सुजात जैसे श्रेष्ठ ऋषि से प्रश्न किया- कृपया बताएं कि संसार की इच्छाओं से मुक्ति कैसे मिलेगी। सनत- सुजात ने कहा- ईश्वर जल्दी से नहीं मिलते। जब लगातार प्रयत्न करने के बाद मनुष्य की सारी इंद्रियां वश में हो जाती हैं। और जब आपकी सारी इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं। संसार के किसी भी प्रपंच में फंसने की इच्छा नहीं होती। संसार के संबंध में सोचना तक अच्छा नहीं लगता, उस समय लगने लगता है कि ईश्वर के सिवा सब कुछ व्यर्थ है। तब ईश्वर का अनुभव होने लगता है। सिर्फ ब्रह्मनिष्ठ हो कर ही ईश्वर को जाना- समझा और साक्षात्कार किया जा सकता है। तब धृतराष्ट्र ने पूछा- आपने कहा है कि ईश्वर मेरे भीतर ही है और इसके लिए अलग से प्रयास करने की जरूरत नहीं है। सिर्फ महसूस कीजिए कि आप ईश्वर में हैं। इस पर सनत- सुजात ने कहा कि हां, यह सच है कि ईश्वर मनुष्य के भीतर ही है, वह बाहर की दुनिया में नहीं है, लेकिन इसके लिए मन शुद्ध करना होगा। ईश्वर हमारे भीतर रहने के बावजूद खुद को तब तक प्रकट नहीं करते जब तक आप उनके प्रति पूर्ण समर्पित न हो। पूर्ण शरणागति जरूरी है। तब धृतराष्ट्र ने पूछा- ब्रह्मचारी का स्वभाव कैसा होना चाहिए? सनत- सुजान ने कहा किसच्चा ब्रह्मचारी वह है जो अपने गुरु के साथ रहता है और हमेशा ईश्वर का चिंतन करता रहता है। वह ब्रह्म जैसा ही हो जाता है। वह जान लेता है कि वह न शरीर है, न मन, बुद्धि और न अहं। मैं शुद्ध आत्मा हूं और ईश्वर का अंश हूं। शरीर, मन, बुद्धि और अहं की सीमाएं सीमित हैं। मैं सीमाहीन हूं। ब्रह्मचारी का चिंतन यही होता है। इस तरह ब्रह्म से उसका साक्षात्कार होता है। वह ब्रह्मचारी किसी के प्रति हिंसक विचार भी मन में नहीं लाता। वह सबको ईश्वर का अंश ही देखता है। वह क्रोध, भय, घृणा, लज्जा, लोभ, घमंड, वासना और मोह से मुक्त होता है। वेद- पुराणों के प्रति गहरी आस्था होनी जरूरी है। वह गुरु की कही हुई बातों का अक्षरशः पालन करता है। वह मानता है कि भगवान ही गुरु के रूप में अवतरित हुए हैं। वह मन, वचन और कर्म से हमेशा शुद्ध रहता है। तब उसे ईश्वर की प्राप्ति होती है।
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