विनय बिहारी सिंह
महर्षि याग्यवल्क्य (माफ कीजिए तकनीकी वजहों से ग्य शब्द इसी तरह लिख पा रहा हूं) ग्यान के असीम भंडार थे। उनकी दो पत्नियां थीं। ग्यान के बल पर ही वे अकूत संपत्ति के मालिक बन गए। जब उम्र ढलने लगी तो उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों को बुला कर कहा- अब मैं सन्यासी बनना चाहता हूं। मेरे पास अकूत संपत्ति है। तुम दोनों इसे बांट कर आराम से रहना। मैं दूर जंगल में जा रहा हूं। वहां तपस्या करूंगा। उनकी बड़ी पत्नी मैत्रैयी ने उनसे पूछा- महाराज, इससे आपको क्या मिलेगा? महर्षि ने कहा- परमानंद। तब मैत्रेयी ने कहा- यदि यह अकूत संपत्ति भी आपको वह परमानंद नहीं दे पा रही है जिसके लिए आप उत्सुक हैं तो फिर वह आनंद मैं भी लेना चाहती हूं। यह पूरी संपत्ति आप अपनी छोटी पत्नी को दे दीजिए और मुझे अपने साथ ले चलिए। मैं भी आपके साथ तपस्या करूंगी। मैं भी सन्यासिनी बनना चाहती हूं। आपकी शिष्या बन कर दीक्षा प्राप्त करना चाहती हूं। अपनी पत्नी की वैराग्य से भरी बातें सुन कर महर्षि को अच्छा लगा। उन्होंने मैत्रेयी से कहा- प्रिये, इस संसार में मनुष्य इसलिए आता है ताकि संसार के दुखों से सबक ले और ईश्वर की ओर मुड़े। ईश्वर ही हमें वह आनंद दे सकते हैं जिसकी हमें तलाश है। संसार के लोग भ्रम में पड़ कर जहां-तहां सुख खोजते फिरते हैं और बदले में उन्हें दुख, तनाव और असंतोष मिलता है। आओ चलें, घनघोर तपस्या करें और ईश्वरीय आनंद में सराबोर हो जाएं। यह शरीर साधना करने के लिए बना है। संसार के लोग समझते हैं कि यह शरीर भोग के लिए बना है। यही भ्रम है। यही माया है। इसे जो समझ लेता है, वह ईश्वर को पा लेता है।
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