विनय बिहारी सिंह
एक भक्त हैं। वे जब शाम को ध्यान में गहरे डूबते हैं तो रात का खाना नहीं खा पाते। शाम को ही कुछ हल्का- फुल्का नाश्ता कर लेते हैं और ध्यान करने बैठ जाते हैं। यह ध्यान रात के १२ बजे तक चलता है। यानी छह बजे से लेकर १२ बजे तक। छह घंटों का ध्यान। रात बारह बजे वे उठे तो देखा कि मंदिर में चढ़ाया गया प्रसाद उनके सामने ढक कर रख दिया गया है। ढक्कन हटाया तो देखा- एक लड्डू है। भगवान का प्रसाद पाकर वे प्रसन्न हो गए। उसे खाया। खूब जी भर कर पानी पीया और हरे कृष्ण, हरे कृष्ण कहते हुए सो गए। फिर सुबह छह बजे उठ कर ध्यान करने बैठ गए। चूंकि उन्हें जल्दी तैयार हो कर अपने आफिस जाना था, इसलिए वे नौ बजे उठे नहाया धोया। कुछ नाश्ता किया और निकल पड़े। उनसे पूछा गया कि आप छह घंटे ध्यान करते हैं तो क्या करते हैं? तो उन्होंने कहा- मैं ईश्वर को लगातार पुकारता रहता हूं। कहता हूं कि प्रभो, जब आपने मनुष्य जीवन दे दिया है तो अब दर्शन दीजिए। मैं आपको देखना चाहता हूं, महसूस करना चाहता हूं। आप ही मेरे जन्मदाता हैं। आप कहां हैं? जब उनसे पूछा गया कि भगवान आपको क्या उत्तर देते हैं? उन्होंने कहा- भगवान चुपचाप सुनते रहते हैं। वे कुछ कहते नहीं। इससे क्या फर्क पड़ता है? वे तो सुन रहे हैं न? यही काफी है। उनको अपनी बातें सुनाना बहुत आनंददायक अनुभव है। उन्होंने ही तो हमारे शरीर में प्राण फूंका है। वे हमारे हृदय में बैठे हुए हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो गीता में वे क्यों कहते कि मैं सबके हृदय में बैठा हूं। इसलिए उनसे मैं अपने दिल की सारी बातें कहता हूं और बातचीत का आनंद लेता हूं। भले ही बातचीत एकतरफा ही क्यों न हो। वे सुन तो रहे हैं न? मैं उनकी भक्ति के नशे में रहता हूं। इस नशा का आनंद वही जानता है जो हृदय से भगवान का भक्त है। इससे बड़ा सुख और कुछ हो ही नहीं सकता। मैं छह घंटे यही करता हूं।
2 comments:
सच यही तो भक्ति है ।भक्ति की पराकाष्ठा।
अच्छा लिखा है आपने
मेरे ब्लॉग पर आकर उत्साहवर्धन करें.
दुनाली
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