विनय बिहारी सिंह
एक व्यक्ति ने प्रश्न किया कि भगवान को दीनानाथ, दीनबंधु और दीनहितकारी क्यों कहा गया है? उसे एक सन्यासी ने कहा- दीन का अर्थ बेचारा नहीं होता। दीन का अर्थ है जिसने ईश्वर के सामने खुद को नगण्य महसूस कर लिया है। वह समझ चुका है कि कर्ता मैं नहीं, ईश्वर है। इसलिए उसे दीन कहा गया है। दीन का अर्थ ही है शरीर, मन और इंद्रिय के पार चले जाना। अब ऐसे साधक का कोई नहीं है। सिर्फ भगवान ही हैं। वह और किसी को जानता ही नहीं। उसके केंद्र में भगवान हैं। वह उन पर पूरी तरह आश्रित है। हर क्षण वह हा भगवान, हा भगवान कहता रहता है। वह दरअसल भगवान के लिए दीन है। उसके हृदय में हाहाकार उठता रहता है- कब मिलेंगे भगवान? और उसे कोई चीज आकर्षित नहीं करती। चाहे आप उसे छप्पन प्रकार के व्यंजन दे दें। उच्च कोटि के वस्त्र दे दें। अकूत संपत्ति दे दें, लेकिन उसके प्राण छटपटाते रहेंगे- हा प्रभु, कहां हैं? कभी वह भगवान को पा लेने के अहसास में हंसता और आनंद मनाता है तो कभी उनके लुप्त हो जाने के गम में रोता है। कभी उनके लिए रोता है तो कभी उनसे प्यार करता है। तो ऐसे भक्त को भगवान अपने हृदय में रखते हैं। ऐसे ही भक्त भगवान के प्राण होते हैं। कहा भी गया है- भगवान को किस चीज की चाहत है? उत्तर में कहा गया गया है- मनुष्य के प्रेम की चाहत है। जो मनुष्य भगवान को हृदय से पुकारता रहता है, उनके लिए जीता है, सोता है, जागता है, उठता है, बैठता है, वह भगवान के हृदय में अपना स्थान बना लेता है। ऐसा भक्त सदा सुख और भगवान की सुरक्षा में रहता है। उसका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता।
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