विनय बिहारी सिंह
एक बहन ने पूछा है कि भगवान अगर माता, पिता और मित्र है तो क्यों दुख देता है। क्यों पीड़ा देता है। सभी धर्मग्रंथों में लिखा है। गीता में तो साफ- साफ है कि हम अपने ही कर्मों के कारण एक खास परिवार में जन्म लेते हैं, एक खास परिवेश में रहने को बाध्य होते हैं और कुछ खास तकलीफों को भोगते हैं। भगवान कृष्ण ने अर्जुन से गीता में कहा है- अर्जुन, संसार रूपी दुखों के समुद्र से बाहर निकलो। स्वयं भगवान ही कह रहे हैं कि यह संसार दुखों का समुद्र है। उपनिषदों में कहा है- मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयो।। मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है। तो फिर हम भगवान को क्यों दोष दें। कोई कर्म करने के पहले हम भगवान से नहीं पूछते। लेकिन जब उसका परिणाम आता है तो हम भगवान को दोष देते हैं। विंबलडन का एक विख्यात खिलाड़ी (नाम भूल रहा हूं) जब एड्स से मर रहा था तो उसके फैन ने उससे पूछा- भगवान ने आपको ही इस कष्ट के लिए क्यों चुना? उस खिलाड़ी ने कहा- जब भगवान ने मुझे दुनिया भर में सम्मान दिलाया, विंबलडन का विश्वविजयी कप मेरे हाथों में थमाया, मुझे खुशियों से सराबोर कर दिया तब तो मैंने एक बार भी भगवान से नहीं पूछा- भगवान मेरे साथ ही ऐसा क्यों? लेकिन जब दुख आया है तो मैं भगवान से क्यों पूछूं? जरूर यह भी मेरे कर्मो का फल है। चाहे इस जन्म के कर्मों का या चाहे पिछले जन्म के कर्मों का। डिवाइन लॉ, ईश्वरीय नियमों में कोई गलती नहीं होती। दुखों से छुटकारा पाने का एकमात्र रास्ता है- ईश्वर की शरण में जाना। ईश्वर ही हमारे माता और पिता हैं। एक बार उनकी शरण में जाने पर, एक बार उनके लिए आंसू बहाने पर वे बाध्य होकर हमें अपने आगोश में ले लेंगे। हमें प्यार करेंगे। कष्टों से उबारने वाले वही हैं।
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