Friday, May 27, 2011

विलक्षण संत वामाखेपा


विनय बिहारी सिंह


वामाखेपा पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले के रहने वाले थे। यहीं है तारा पीठ (मां काली का ही एक नाम है तारा, वे श्मशानवासिनी मानी जाती हैं)। वामाखेपा के गांव और तारापीठ के बीच बस एक नदी का अंतर था। इस नदी का नाम है द्वारका। सन १८३७ में वामाखेपा का जन्म हुआ। पिता सर्वानंद चटर्जी प्रकांड विद्वान थे। लेकिन वामाखेपा जब बच्चे थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। पिता विद्वान थे लेकिन आय का साधन कम था। पिता की मृत्यु के बाद मां ने उन्हें उनके चाचा के पास भेज दिया ताकि वे जीविका की खोज कर सकें। वामाखेपा का तो काम में मन ही नहीं लगता था। चाचा ने उन्हें गायों की रखवाली का जिम्मा दिया। वे यह काम भी नहीं कर पाए। दिन रात वे मां तारा, मां तारा कहते रहते थे और ध्यान या भजन में लीन रहते थे। परेशान हो कर चाचा ने उन्हें वापस मां के पास भेज दिया। एक दिन वे तारापीठ के लिए निकले। कोई नाव नहीं थी। इसलिए वे तैर कर ही उस पार पहुंचे। वहां कैलाशपति बाबा नाम के एक प्रसिद्ध संत हुआ करते थे। उनकी कुटिया में जब वे गए तो कैलाशपति बाबा समझ गए कि यह युवक चरम भक्ति का प्रतीक है। वामा खेपा का नाम सिर्फ वामा था। लेकिन उनकी चरम भक्ति के कारण लोग उन्हें बांग्ला भाषा में पागल यानी खेपा (क्षिप्त) कहने लगे। खेपा शब्द आदर के साथ बोला जाता है। यह संबोधन उसे ही दिया जाता है जो सार्थक उद्देश्य के लिए पागल हो। कैलाशपति बाबा चोटी के तांत्रिक थे। उन्होंने वामाखेपा को भी तंत्र की शिक्षा दी। जब वामाखेपा सिद्ध हो गए तो उन्हें तारापीठ मंदिर का इंचार्ज बना दिया। लेकिन वामाखेपा को यह जिम्मेदारी मंजूर नहीं थी। वे मंदिर के नियमों को नहीं मानते थे। वे मंदिर के नजदीक ही श्मशान में रहते थे और ध्यान करते थे। बीच- बीच में मंदिर में आया करते थे। एक दिन वे मां तारा को भोग लगने के पहले भोग को खाने लगे। पुजारी ने उन्हें मारा- पीटा और उस दिन से खाना देना बंद कर दिया। उस रात उस इलाके की रानी (उस जमाने में राजा लोग हुआ करते थे) को मां तारा ने स्वप्न में कहा- वामाखेपा मेरा बेटा है। मुझे भोग लगाने के पहले उसे खिला दिया करो। बेटा अगर नहीं खाएगा तो मां कैसे खा सकती है? रानी ने यह सपना अगले दिन भी देखा। उन्होंने पुजारियों को निर्देश दिया- मां तारा को भोग लगाने के पहले वामाखेपा को खिलाया जाए। तब तक वामाखेपा की प्रसिद्धि दूर- दूर तक फैल गई। लोग उनके पास रोग दूर कराने, आशीर्वाद लेने आने लगे। वे हमेशा नंगे रहते थे। एक दिन उनसे किसी ने पूछा- आप नंगे क्यों रहते हैं? वामाखेपा ने जवाब दिया- क्योंकि मेरे पिता (भगवान शिव) नंगे रहते हैं। मेरी मां (मां काली) नंगी रहती है। तो मैं उनका बेटा हूं, नंगा क्यों नहीं रहूं? और मैं तो श्मशान में रहता हूं। मुझे किस बात की चिंता या किस बात का डर है? वामाखेपा मां तारा को जिस करुणा से पुकारते थे उसे सुन कर लोगों का दिल पिघल जाता था।

1 comment:

vandana gupta said...

ये तो बहुत बढिया प्रसंग सुनाया…………आभार्।