Tuesday, May 24, 2011

यह संसार कैसा है?

विनय बिहारी सिंह



भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है- हे अर्जुन, इस दुख के समुद्र रूपी संसार से बाहर निकलो। भगवान की बातों से स्पष्ट है कि इस संसार से सच्चे सुख की आशा रखना व्यर्थ है। आप यदि स्वादिष्ट भोजन को ही सुख मानते हैं तो जब तक आपने भोजन किया, आनंद है, सुख है। लेकिन जैसे ही भोजन खत्म हुआ- आपका सुख भी खत्म हो जाएगा। यदि आप अच्छे वस्त्र धारण करने को सुख मानते हैं तो जब तक उस वस्त्र को धारण करते हैं सुख है। उसके बाद सुख खत्म। यदि आप अपने आदर को, सम्मान को सुख मानते हैं तो जब तक आपका आदर होता है, आप सुखी हैं। उसके बाद सुख खत्म। यानी जो शुरू होता है, वह खत्म भी हो जाता है। तो फिर कौन सा सुख अनंत है। सभी धर्म ग्रंथों का कहना है कि एक भगवान में लय होने का सुख ही सर्वोत्तम सुख है। भगवान ही सर्वोच्च, अमर सुख के स्रोत हैं। उनसे जुड़ने के बाद अनंत सुख, निरंतर बढ़ता जाने वाला सुख है। यानी कभी खत्म न होने वाला सुख है भगवान में।
भगवान ने गीता में कहा ही है कि जो भक्त दिन- रात मुझमें ही रहता है, उसे मैं प्राप्त हो जाता हूं। लेकिन क्या वि़डंबना है कि जिस सुख में हमें हमेशा डूबे रहना चाहिए, उसके पास बहुत कम जाते हैं और सांसारिक भ्रम पैदा करने वाले आभासी सुख के पीछे- पीछे भागते हैं। मृगमरीचिका की भांति। कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूढ़े वन माहिं। ईश्वर हमारे भीतर है। आंखें बंद कर ईश्वर का ध्यान ज्यादा फायदेमंद है। लेकिन हम आंखें खोल कर संसार में सुख तलाशते हैं। वह संसार जो अपूर्ण है। जहां सुख का सिर्फ आभास है। सच्चा सुख नहीं है। पूर्ण सुख, पूर्ण आनंद तो सिर्फ भगवान में है। यही संसार की असलियत है। तो क्या हम संसार में न रहें? जरूर रहिए। रहना ही चाहिए क्योंकि संसार में हमें स्वयं भगवान ने भेजा है। किसलिए? शिक्षा लेने के लिए। किस बात की शिक्षा? यह कि यह संसार आपका नहीं है। इसमें आप सबक सीखने आए हैं। यह सबक कि भगवान ही सब कुछ हैं। बाकी सब मायाजाल है। इसलिए इस मायाजाल में सावधानी से रहते हुए, अपने असली लक्ष्य भगवान की ओर दृढ़ता के साथ बढ़ते रहें। चुपचाप। प्रेमपूर्वक। भगवान बाहें फैला कर खड़े हैं।

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