विनय बिहारी सिंह
चौरानबे (९४) साल के अपने पिताजी को देखा- चुपचाप लेटे हुए हैं। कुछ पूछने पर सीमित शब्दों में उत्तर देते हैं। कपड़ों और भोजन के प्रति वैराग्य सा है। धोती जैसे- तैसे पहनी है। उसे संभालने का होश नहीं है। एक जमाने में चमाचम सफेद आकर्षक धोती- कुर्ता पहने हुए उन्हें देख चुका हूं। अब कपड़ों को वे महत्व नहीं देते। जो मिला का लिया। जो मिला पहन लिया। भोजन के प्रति कोई आग्रह नहीं। हालांकि हम सब उनकी पसंद जानते हैं और उन्हें वही दिया जाता है। लेकिन उनकी अपनी रुचियां, शौक आदि खत्म हो गए हैं।
उन्हें देख कर लगता है- यही जीवन का सत्य है। वे अक्सर मृत्यु के बारे में बात करते हैं। कहते हैं- इस शरीर में कब तक प्राण रहेगा? अब प्राण छूटता क्यों नहीं? इसका हम सब जवाब नहीं देते। उनसे दूसरी बातें करने लगते हैं। या कह देते हैं कि आप बहुत दिनों जीएंगे। लेकिन सबको पता है- वे ज्यादा दिन नहीं जीएंगे। बस अपनी आयु पूरी कर रहे हैं। एक जमाने में काफी सक्रिय रहने वाले और अपने इलाके में खूब लोकप्रिय पिता जी, आज चुपचाप बिस्तर पर पड़े रहते हैं। बस काम भर ही बातचीत करते हैं। जो उन्हें पानी पिला देता है, खाना खिला देता है, नहला- धुला देता है, उसे खूब आशीर्वाद देते हैं। चाहे वह घर का ही आदमी क्यों न हो। उनके व्यक्तित्व में यह परिवर्तन देख कर मैं काफी देर तक ईश्वर की लीला के बारे में सोचता रहा।
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