विनय बिहारी सिंह
भगवान कृष्ण ने भगवत गीता के १८वें अध्याय में कहा है-
ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशेअर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया।।
हे अर्जुन, ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में रहते हैं। जीव माया के भ्रमजाल में फंसा रहता है और अपने कर्मों के अनुरूप, भिन्न- भिन्न रूपों में जन्म लेता रहता है। वह कर्मों से बंधा यंत्रवत काम करता है। यानी आप नहीं चाहते कि अमुक काम करें, लेकिन अचानक अपनी आदत के वशीभूत हो कर वह काम कर देंगे। यह है संस्कार।
तो भगवान ने खुद ही अपना ठिकाना बता दिया। वे कहते हैं- मैं सबके हृदय में रहता हूं। यही है मेरा पता। यानी उन्हें कहीं दूसरी जगह खोजने की जरूरत नहीं है। बस शांत चित्त बैठ कर ईश्वर का ध्यान करना है। वे हमारे हृदय में ही बैठे हैं। भगवान ने स्वयं बता दिया है। फिर भी मनुष्य का मन शांत नहीं होता। वह ईश्वर को न याद कर न जाने कहां- कहां भटकता रहता है। ईश्वर ने कितनी अच्छी जगह चुनी है अपने रहने के लिए? ठीक हमारे हृदय में। अब अगर फिर भी हम उनसे दूर रहें और उन्हें आत्मीयता से न पुकारें, उनका आलिंगन न करें तो यह हमारी गलती है। उन्होंने तो कह ही दिया है- मेरे भक्त चाहे जैसे भी भजें, वे मेरी नजरों से ओझल नहीं होते।
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साढ़े छह सौ कर रहे, चर्चा का अनुसरण |
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