मित्रों आइए आज कबीरदास के दोहे पढ़ें।
माया मरी ना मन मरा, मर मर गये शरीर,
आशा तृष्णा ना मरी, कह गये दास कबीर.
दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे ना कोये,
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे होये.
ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोये,
अपना तन शीतल करे, औरन को सुख होये.
धीरे धीरे रे मना धीरे सब कुछ होये,
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आये फ़ल होये.
जाति ना पूछो साधु की, पूछ लीजिये ग्यान,
मोल करो तलवार की पड़ी रेहेन जो मयान.
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय,
राजा परजा जेहि रुचै, सीस देइ ले जाय.
जिन ढूंढा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ.
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
4 comments:
बहुत सुन्दर दोहे प्रस्तुत किये…………आभार्।
great article!
Swachchh Sandesh
संत कबीर का संदेश आप जन-कल्याण हेतु प्रस्तुत कर रहे हैं -मेरा साधुवाद स्वीकार करें !
एक है निवेदन -यह सही है कि कबीर ने यहाँ 'दोहा' नामक छंद का प्रयोग किया है .लेकिन इन्हें तभी से 'साखी ' नाम से प्रचलित किया गया था ,जिसका तात्पर्य है -जिस सत्य का साक्षात्कार किया गया .उनकी रचनाएँ तीन रूपों में हैं ,साखी (साक्षी),सबदी(पद,जिन्हें बाद के संतो ने सबद के रूप में स्वीकारा और गुरु ग्रंथ साहब के 'सबद'उन्हीं का संचित रूप हैं )और रमैनी (दोहा और चौपाइयों में ,जिस शैली में बाद में तुलसी ने रामचरितमानस की रचना की ).
यदि आप अन्यथा न समझें तो इन्हें 'साखी '(कबीर के अनुसार)साखी भी कह सकते हैं .
सुन्दगर
http://navkislaya.blogspot.com/
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