विनय बिहारी सिंह
आज एक बुजुर्ग आदमी एक बच्ची को लेकर मेट्रो ट्रेन में चढ़ा। वह मेरे सामने ही बैठ गया क्योंकि एक आदमी ने उसके लिए अपनी सीट छोड़ दी। आमतौर पर कोलकाता में लोग छोटे बच्चों को लिए हुए स्त्री या पुरुषों के लिए सीट छोड़ देते हैं। लेकिन कुछ लोग नहीं भी छोड़ते। वह आदमी बच्ची को लेकर खूब मस्त था। उससे बांग्ला में पूछ रहा था- कहां जा रही हो? हवा नहीं लग रही है क्या? लेकिन वह बच्ची उसकी बातें न सुन कर शून्य में कहीं देख रही थी और सहज ढंग से आंखें इधर- उधर घुमा लेती थी। छोटे बच्चे प्यारे लगते ही हैं। मैं उसकी ओर लगातार देख रहा था तो आकर्षण के नियम के मुताबिक बच्ची ने भी मेरी ओर देखा। जब आप किसी की ओर लगातार देखेंगे तो चाहे वह बच्चा हो बड़ा, बरबस आपकी तरफ उसकी निगाह चली जाएगी। यह आकर्षण का नियम है। उस बच्ची की निरपेक्ष आंखों को देख कर अच्छा लगा। मैंने बच्ची के अभिभावक से पूछा- बच्ची की उम्र कितनी है? वे अपनी पांचों उंगलियां दिखा कर बोले- पांच महीने। वे बच्ची को बार- बार चूम रहे थे। लेकिन बच्ची पर इसका कोई असर नहीं था। कौन उसे चूम रहा है या कौन उसके साथ खेलना चाहता है, इससे लगता था वह पूरी तरह अनजान है। उसकी निस्पृह निगाहें मानों शून्य में देख रही थीं। मैंने सोचा कि पांच महीने पहले यह बच्ची मां के गर्भ में थी और १४ महीने पहले कहां थी? शून्य लोक में या सूक्ष्म लोक में। इस बच्ची को शायद अब भी मां के गर्भ की या उस सूक्ष्म लोक की यादें आ रही हैं। वह अपने को चूमे जाने से अनजान है। शरीर में आई है, फिर भी शरीर से थोड़ी अनजान। पेशाब आने पर अपने आप हो जाएगा। वह बिस्तर पर बैठी है या ट्रेन में किसी सीट पर इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। पाखाना महसूस होने पर वह भी हो जाएगा। चाहे बिस्तर पर या कहीं और। सब कुछ सहज ढंग से। अब यह अभिभावक जाने कि शौच कैसे साफ किया जाएगा। बच्ची हंसती रहेगी, आ... बा.... बोलती रहेगी। बिल्कुल पवित्रता के साथ। आप उसे डांट नहीं सकते कि क्यों तुमने बिस्तर पर शौच किया। बल्कि आप सावधानी के लिए रबर आदि की चादर बिछा देते हैं ताकि बिस्तर गंदा न हो। यही मनुष्य का जीवन है। यही ईश्वरीय लीला है।
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