विनय बिहारी सिंह
आज कबीर जयंती है। कुछ दिन पहले ही आप सभी ने इस ब्लाग पर संत कबीर के दोहे पढ़े। आज एक बार फिर उन पर चर्चा की जाए तो अच्छा ही लगेगा। संत कबीर सबके थे। उन्होंने लिखा है-
कर का मनका छाड़ि के, मन का मनका फेर।।
यानी हाथ में माला फेरने से तब तक कोई लाभ नहीं है जब तक कि मन भगवान पर स्थिर न हो। मन की माला यदि भगवान का स्मरण करती है तो वह महत्वपूर्ण है। उन्होंने कुरीतियों और धार्मिक पाखंडों पर लगातार प्रहार किया। उन्होंने लिखा-
पार ब्रह्म के तेज का कैसा है उनमान।
कहिबे को सोभा नहीं, देखिबे को परमान।।
ब्रह्म या ईश्वर कैसे हैं, इसका अनुमान लगाना बहुत कठिन है। इसकी व्याख्या उचित नहीं जान पड़ती। प्रत्यक्ष अनुभव जरूरी है। जिसने प्रत्यक्ष अनुभव किया वही बता सकता है कि ईश्वर कैसे हैं। इस पर व्यर्थ की बहस शोभनीय नहीं है।
उनकी एक और रचना देखें-
काहे रे नलिनी तू कुम्हलानी।
जल में जनम, जल में वास।
जल में नलिनी तोर निवास।
काहे रे नलिनी तू कुम्हलानी।।
वे मनुष्य को कहते हैं- तू क्यों दुखी रहता है। तुम हमेशा ईश्वर में ही हो। ईश्वर में तुम्हारा जन्म हुआ है। उसी रहते हो। वही तुम्हारा स्थायी निवास है। लेकिन फिर भी माया के प्रपंच के कारण तुम्हें लगता है कि तुम ईश्वर से दूर हो और कुम्हलाए रहते हो।
कबीर दास पृथ्वी पर विलक्षण संत के रूप में आए। उनका एक मात्र जोर इसी पर था कि ईश्वर ही एक मात्र सच्चाई है। बाकी सब भ्रम है। लेकिन मनुष्य ईश्वर के अलावा सब कुछ चाहता और खोजता है। बस ईश्वर को नहीं चाहता। उनका कहना था- पहले ईश्वर को खोजो। वे तुम्हारे भीतर ही हैं। उन्हें पा कर तुम सब कुछ पा लोगे।
2 comments:
कबीर जयंती पर उनका स्मरण करने और उनकी रचना प्रस्तुत करने के लिए आभार
कबीर जयंती की शुभकामनाएँ.
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