विनय बिहारी सिंह
भाई अनुकेष पांडे जी,
आपने लिखा है- आपका लेख पढ़ा तो कुछ प्रश्न मन में उभरे | शिव का श्मशान वह नहीं जिसे हम आम तौर पर समझते हैं, यानी की वह श्मशान जहाँ शवो का दाह संस्कार होता हैं | लेकिन ग्रंथो में तो शिव को औघड़ बताया गया जो कपाल (नर-मुंड का भाग) धारण किये रहते हैं | उसी तरह तंत्र शास्त्र में भी उन्हें महाकाल, भैरव की संज्ञा दी गयी हैं और श्मशान को शिव का क्रीड़ा-स्थल बताया हैं | श्मशान वह जगह हैं जहाँ आत्मा का उसके निर्जीव शरीर (माया) से बंधन टूट जाता हैं | एक तरह से श्रृष्टि के छोटे से भाग का संहार हो जाता हैं | शिव की विनाश-लीला, जो की एक सकारात्मक प्राकृतिक नियम हैं, नवीन सृजन का मार्ग प्रशस्त करता हैं, यह सब उन लोगों को स्मरण दिलाने के लिए हैं जो शव के साथ श्मशान आते हैं | इसीलिए अघोरी भी श्मशान में रह कर अपनी साधना करते हैं | उसी प्रकार , मणिकर्णिका घाट, जिसे महाश्मशान माना जाता हैं, वह भी विश्वनाथ की नगरी काशी (वाराणसी) में स्थित हैं | अगर शिव का शमशान स्थूल शमशान नहीं हैं, तो काशी एवं अन्य श्मशानो को शिव का निवास स्थान क्यों माना जाता हैं | भूत पिशाच, चुड़ैल, राक्षस इत्यादि उनके गण माने जाते हैं | उपरोक्त का यह मतलब कतई नहीं हैं हैं की आपकी शिव के श्मशान की व्याख्या अनुचित हैं | तात्पर्य केवल यह हैं की जिस तरह की व्याख्या आपने की हैं उस तरह शिव का श्मशान से सम्बन्ध की व्याख्या ग्रंथो में कहाँ हैं?
इस प्रश्न के लिए मैं आपका बहुत आभारी हूं। अच्छा प्रश्न किया है आपने। आपका प्रश्न है- श्मशान संबंधी मेरी व्याख्या ग्रंथों में कहां है? भगवद गीता को आप सीधे- सीधे पढ़ेंगे तो लगेगा यह किसी युद्ध भूमि में खड़े अर्जुन और भगवान कृष्ण का संवाद है। लेकिन जब आप गीता का यह श्लोक पढ़ेंगे-
स्थितप्रग्यस्य का भाषा, समाधिस्थ केशव।
स्थितधिः किम प्रभाषेत, किम आसीत ब्रजेत किम।।
( अर्जुन भगवान से पूछते हैं- स्थितप्रग्य की भाषा कैसी होती है, और समाधि प्राप्त व्यक्ति की भाषा कैसी होती है? स्थिर मन बुद्धि वाला व्यक्ति कैसे बोलता है? कैसे बैठता है और कैसे चलता है?)
अब आप देखिए कि युद्ध भूमि में दोनों सेनाओं के बीच खड़े होकर अर्जुन पूछते हैं कि समाधि प्राप्त मनुष्य की कैसी स्थिति होती है? कैसे बोलता- चलता है? इसकी व्याख्या महान संन्यासियों ने की है। उन्होंने कहा है कि यह मन को जीतने और जीवन को ईश्वरोन्मुखी बनाने की शिक्षा है। जिन कौरवों और पांडवों की बात की गई है वे हमारे शरीर के भीतर ही हैं। हमारा इंद्रियमुखी मन कौरव है और ईश्वरोन्मुखी मन पांडव। ठीक इसी तरह श्मशान की जो व्याख्या मैंने लिखी है वह एक संन्यासी के मुंह से ही सुन कर लिखी है। उन्होंने कहा कि भगवान शंकर हमारे भीतर तभी आसन जमाएंगे जब हम अपने अंतःकरण को श्मशाननुमा बनाएंगे। ऋषि पातंजलि ने कहा है- योग्श्चित्तवृत्ति निरोधः।। चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। जब हम चित्त की वृत्तियों को समाप्त कर देंगे तो वह श्मशाननुमा हो जाएगा।
अब आइए एक और पक्ष पर बात करें। लोगों के जीवन पर जब खतरा मंडराने लगता है तो वे महामृत्युंजय का जाप करते या करवाते हैं। यह महामृत्युंजय का जाप क्या है? यह भगवान शिव की ही स्तुति है। यानी भगवान शिव जिन्हें आमतौर पर संहार का देवता माना जाता है, उन्हें प्रसन्न किया जाता है ताकि व्यक्ति की मृत्यु न हो। हालांकि भगवान शिव को मैं व्यक्तिगत रूप से संहार का देवता नहीं मानता। मैं मानता हूं कि भगवान शिव हमारे भीतर की कुवृत्तियों का संहार करते हैं और वे अत्यंत शुभ देवता हैं। स्वयं उनके पुत्र गजानन यानी गणेश जी की किसी भी शुभ कार्य में सबसे पहले पूजा होती है। भगवान शिव की पत्नी मां पार्वती (या काली या दुर्गा) विघ्न विनाशिनी मानी जाती हैं।
आपने प्रश्न किया है कि भूत, पिशाच आदि को शंकर जी का गण बताया गया है। मैं एक बार फिर संतों से सुनी हुई ही बात आपके सामने रखना चाहता हूं। हमारे धर्म ग्रंथों में प्रतीकों का बहुत इस्तेमाल हुआ है। भूत, पिशाच भगवान शिव के गण हैं, यानी भगवान शिव के भक्तों को भूत- पिशाचों से डरने की जरूरत नहीं है। वे भक्तों का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। उनके भक्त निर्भय रहें। अभी इसी ब्लाग पर कुछ दिन पहले मैंने संत वामाखेपा के बारे में लिखा है। वे श्मशान में ही रहते थे। वे भगवान शिव और मां काली के अनन्य भक्त थे। लेकिन वे जिसको आशीर्वाद देते थे, वह निहाल हो जाता था। उन्होंने न जाने कितने लोगों के रोग ठीक किए, न जाने कितनों को चिंतामुक्त किया। उनके संपर्क में जो आता था, वह आध्यात्मिक रूप से अत्यधिक संपन्न हो जाता था। प्रतीक के रूप में हमारे भीतर अगर श्मशान रूपी शांति आ जाए तो बस ईश्वरोप्लब्धि जैसे अनुभव हो सकते हैं। संतों ने ऐसा ही कहा है।
1 comment:
अति उत्तम व्याख्या……………इससे सरल शब्दो मे तो कोई बता भी नही सकता……………बेहद शानदार अर्थ बताये हैं।
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