Thursday, June 30, 2011

टेरेसा न्यूमन

विनय बिहारी सिंह



टेरेसा न्यूमन जर्मनी की विख्यात संत थीं। उनका जिक्र परमहंस योगानंद जी की पुस्तक- आटोबायोग्राफी आफ अ योगी में है। कल उनका चित्र एक भक्त के यहां देखा। यह चित्र इतना प्रभावकारी था कि इस जीवन में भूल पाना असंभव है। टेरेसा, जीसस क्राइस्ट की अनन्य भक्त थीं। उन्हें अक्सर जीसस दर्शन देते थे। सप्ताह में एक दिन उनके शरीर के उन उन जगहों से खून गिरने लगता था जहां-जहां सूली पर जीसस को कील ठोक कर लटकाया गया था। दोनों हाथों में, दोनों आंखों के छोर से छाती के बीचो बीच से। धाराधार खून। यही वह चित्र था जो मैंने देखा। मैंने खुद को भाग्यशाली महसूस किया। लेकिन भीतर तक हिल गया। यह फोटो इतना जीवंत था कि मैं टेरेसा न्यूमन के चेहरे पर देर तक देखता रहा। इस फोटो के नीचे लिखा था- टेरेसा न्यूमन इन हर एक्सटेसी। अगले दिन यह घाव अपने आप ठीक हो जाता था। कोई दर्द नहीं, कोई घाव का चिन्ह नहीं। टेरेसा कुछ खाती- पीती नहीं थीं।फिर भी उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ता था। वे आनंद में रहती थीं। बल्कि कहें बहुत खुश और ऊर्जा से भरी रहती थीं। उनके जीवन काल में ही उन्हें संत घोषित कर दिया गया था। मैं देर तक सोचता रहा- क्या टेरेसा को दर्द का बिल्कुल अहसास नहीं होता होगा? चेहरे को देख कर तो नहीं लग रहा है। वे तो अत्यंत आनंद से विभोर लग रही हैं। घावों से खून गिर रहा है और वे आनंद में हैं। जीसस के साथ हैं। कई बार लगा कि वे जीसस और वे एक ही हैं। भक्त और भगवान एक हैं। इसके पहले मैंने असीसी (इटली) के संत फ्रांसिस के बारे में ही जानता था। अचानक मेरी मित्र और बहन इंग्रिड हेंजलर से मुलाकात हो गई। वे इटली के असीसी में ही रहती हैं और संत फ्रांसिस जिन जिन जगहों पर साधना किया करते थे, वहां-वहां वे भी जाती हैं। ध्यान मग्न होती हैं। वे भाग्यशाली हैं। उनसे संत फ्रांसिस के बारे में और ज्यादा जानकारी मिली। संत फ्रांसिस को भी जीसस अक्सर दर्शन देते थे। मैंने टेरेसा न्यूमन का चित्र यहां देना चाहता था। लेकिन कुछ अपरिहार्य कारणों से नहीं दे पा रहा हूं।

Wednesday, June 29, 2011

सेंट्रीपीटल और सेंट्रीफुगल फोर्स

विनय बिहारी सिंह


आप सभी जानते हैं कि साइंस ने हमें दो ताकतो के बारे में बताया है-१. सेंट्रीपीटल और २.सेंट्रीफ्यूगल फोर्स। सेंट्रीपीटल फोर्स यानी किसी वृत्त में केंद्र की तरफ खिंचाव या आकर्षण (ईश्वर की ओर आकर्षण) औऱ सेंट्रीफ्यूगल फोर्स यानी केंद्र से बाहर की ओर खिंचाव (ईश्वर से दूर भागना, संसार में बुरी तरह लिप्त रहना)। योगदा सत्संग के ब्रह्मचारी निगमानंद जी कहते हैं कि जब भक्त ईश्वर की ओर आकर्षित होता है तो माया की विपरीत शक्ति उसे ईश्वर से दूर करने लगती है। कहती है कि इस संसार में इतना सब आकर्षण है। इतने आनंद हैं, कहां भगवान की ओर जा रहे हो। आओ, संसार में आनंद है। भगवान में नहीं। लेकिन दृढ़ इच्छा शक्ति वाला भक्त जानता है- माया महाठगिनि हम जानी। भक्त कहता है- मैं तो सिर्फ भगवान को जानता हूं। उन्हीं को लेकर रहूंगा। संसार के कर्तव्य करने के बाद भगवान की भक्ति में ही मस्त रहूंगा। लेकिन तब भी माया उस पर लगातार हमले करती रहती है। कभी किसी बात का प्रलोभन तो कभी किसी बात का। यही भक्त की परीक्षा है। अगर उसमें धैर्य है, शक्ति है तो वह इस परीक्षा में सर्वोच्च अंक पाता है। धैर्य और शक्ति कहां से आती है? एक ही उत्तर है- भगवान के यहां से। गीता में भगवान ने कहा ही है- अर्जुन, मेरी माया बड़ी दुस्तर है (भ्रमजाल वाली है)। लेकिन मेरे अनन्य भक्त इससे बच जाता है। भगवान ही हमारे केंद्र हैं। उनकी भक्ति ही सेंट्रीपीटल फोर्स है।

Tuesday, June 28, 2011

विश्वास

विनय बिहारी सिंह


भगवत गीता में भगवान ने कहा है- श्रद्धावान लभते ग्यानम। परमहंस योगानंद जी ने कहा है कि ईश्वर में विश्वास को गहरा करने के लिए ध्यान जरूरी है। ध्यान कैसे गहरा होगा? श्रद्धा से। श्रद्धा कैसे आएगी? विश्वास से। विश्वास ही आध्यात्मिक जीवन का आधार है। जिसमें ईश्वर के प्रति विश्वास नहीं है उसमें श्रद्धा आ ही नहीं सकती। यह गहन विश्वास होना चाहिए- मैं ईश्वर से प्रार्थना कर रहा हूं, वे अच्छी तरह सुन रहे हैं। वे अवश्य कृपा करेंगे। लेकिन अगर मन में तनिक भी शंका आई- पता नहीं भगवान सुन भी रहे हैं कि नहीं, बस गड़बड़ हो गया। गीता में ही कहा है- संशयात्मा विनश्यति।। ईश्वर के प्रति संशय वाला मनुष्य नष्ट होता रहता है। गहरा विश्वास ही वह उपाय है जिसकी मनुष्य को जरूरत है। यदि कोई बहुत चालाक बन रहा है और समझता है कि दूसरों को धोखा देकर पैसा कमाना ही असली मंत्र है तो वह एक न एक दिन खाई में अवश्य गिरेगा। यह ईश्वरीय नियम है। सारे नियमों में चूक हो सकती है। लेकिन ईश्वरीय नियम में चूक नहीं है। एक्शन ऐंड एफेक्ट का नियम भगवान ने इस तरह बनाया है कि उसका परिणाम मिलना ही है। लेकिन जो व्यक्ति ईश्वर में गहरी आस्था के साथ संसार में अपने कर्तव्यों को पूरा कर रहा है। उसके लिए आनंद के क्षण वही हैं जितनी देर वह ईश्वर के संपर्क में रहता है। उसी से वह जीवन की ऊर्जा पाता है और सुखी रहता है। वरना संसार में आसक्ति, दुखों में आसक्ति का पर्यायवाची बन जाता है।

Monday, June 27, 2011

हरि कथाई कथा

विनय बिहारी सिंह




योगदा मठ के सिद्ध सन्यासी स्वामी शुद्धानंद जी ने एक बहुत ही प्रेरक घटना सुनाई। एक व्यक्ति के आग्रह पर स्वामी जी उन्हें लेकर मां आनंदमयी के आश्रम गए। वहां एक अत्यंत वृद्ध व्यक्ति बिस्तर पर पड़े रहते हैं। उनके शरीर में कई प्रकार के कष्ट हैं। लेकिन चेहरा बच्चों की तरह प्रसन्नता से ओतप्रोत। चमकता हुआ। वे मां आनंदमयी से उनके जीवन काल में अनेक बार मिल चुके हैं। स्वामी जी ने उनसे कुछ बोलने का आग्रह किया। उन्होंने बांग्ला भाषा में कहा- हरि कथाई कथा। अन्य सब व्यथा कथा।।
यानी भगवान की बातें करना, उनके बारे चिंतन और उन्हीं के लिए जीना ही असली कर्म है। बाकी सब व्यथा यानी कष्टदायी कर्म हैं। स्वामी जी ने रविवार के सत्संग में यह बात सुनाई। उन्होंने कहा- वे वृद्ध व्यक्ति बहुत कष्ट में हैं। लेकिन वे स्वयं को शरीर नहीं मानते, मन नहीं मानते। वे स्वयं को सिर्फ परमानंद मानते हैं। ईश्वर का अंश (ईश्वर अंश जीव अविनाशी)। इसीलिए उनके चेहरे पर हमेशा प्रसन्नता झलकती है। तुरंत मैंने मां आनंदमयी आश्रम का पता लिया। अब इच्छा है कि किसी दिन जाऊं और इस वृद्ध साधु पुरुष से मिलूं। जिस दिन उनसे मुलाकात होगी, मैं आप सबको बताऊंगा कि क्या बातचीत हुई। बस, मां आनंदमयी आश्रम में जाने भर की देर है। कितनी गहरी बात है- हरि कथाई कथा, अन्य सब व्यथा कथा।।

Saturday, June 25, 2011

धन्यवाद वंदना जी

विनय बिहारी सिंह


वंदना जी की बात सही है। इस बात की पुष्टि आज एक साधु से हुई। उन्होंने कहा- रमता योगी का अर्थ है- वह योगी जो ईश्वर में रमा हो। कोई साधु जब एक जगह पर स्थिर बैठ कर धूनी जलाता है तो कहा जाता है- साधु ने धूनी रमाई। योगी को रमता इसलिए कहा गया है क्योंकि वह सहस्रार चक्र में रमा रहता है। साधु ने कहा- बहता पानी का अर्थ है- करंट वाला पानी। कैसा करंट? ऊर्जा से भरा करंट। बहता पानी का अर्थ है ऊर्जा। रमता योगी का अर्थ है- ईश्वर में रमा हुआ।
साधु ने एक किस्सा सुनाया- एक बार एक साधु ध्यान कर रहे थे। उन्हें गहरी समाधि लग गई। चौबीस घंटे बाद उनकी समाधि छूटी। ठीक उसी समय जिस समय उन्होंने समाधि में प्रवेश किया था। साधु से कहा गया- भगवन, आप तो २४ घंटे समाधि में रहे। उन्होंने कहा- अरे नहीं। मैं तो अभी ध्यान कर रहा था। थोड़ी देर बाद भोजन करूंगा। लोगों ने कहा- नहीं बाबा, आप कल समाधि में चले गए थे और आज आपकी समाधि छूटी है। साधु चकित थे। उन्होंने कहा- मुझे बिल्कुल नहीं लग रहा है। मैं चकित हूं। जो समाधि में रम गया है उसे टाइम और स्पेस का कोई आभास नहीं होता। कोई रिलेटिविटी नहीं। बस ईश्वरानंद। ईश्वर की गोद में बैठे हैं।
इस तरह रमता योगी का अर्थ हुआ- जो ईश्वर में रम गया है।

Friday, June 24, 2011

रमता योगी या स्थिर योगी?

विनय बिहारी सिंह


कल एक व्यक्ति ने प्रश्न किया- योगी को रमता कहना क्या उचित है? वह तो योग में स्थिर रहता है। मैंने कहा- हां, आपका कहना तो बिल्कुल सच है। भगवत गीता में भगवान ने स्वयं कहा है कि योगी भगवान में इस तरह स्थिर हो जाए जैसे स्थिर दीपक की लौ। रमता योगी, बहता पानी की कहावत की पृष्ठभूमि मुझे नहीं पता है। लेकिन अनुमान से लगता है कि योगी मोह- माया से दूर रहते हैं। इसलिए वे कहीं एक जगह टिक कर रहना नहीं चाहते। संभवतः इसीलिए उनके लिए बहता पानी की उपमा दी गई है। लेकिन सच्चाई यह है कि वे भगवान में गहराई से स्थित रहते हैं। भगवान ही उनके जीवन का केंद्र होते हैं। वे संसार में भगवान के लिए ही रहते हैं। वे मानते हैं कि यह संसार उनके लिए सबक है। यहां वे सबक सीखने आए हैं। यह देखने आए हैं कि यह संसार किसी को निस्वार्थ प्रेम नहीं करता। प्रेम के साथ एक गुप्त शर्त जुड़ी होती है। यह संसार द्वंद्वों (डुअलिटीज) से भरा हुआ है। यहां पूर्ण सुख तब तक नहीं मिल सकता जब तक व्यक्ति भगवान से न जुड़े। प्रश्न करने वाले व्यक्ति ने कहा- हो सकता है, जिसने यह कहावत बनाई हो, वह सांसारिक आदमी रहा हो। क्योंकि योगी संसार में रहते हुए भी संसार से नहीं जुड़ता। वह संसार में रहता है लेकिन संसार में उसकी आसक्ति नहीं होती। वह ईश्वर में आसक्त रहता है। उसकी देह, मन, बुद्धि और आत्मा ईश्वर से ओत- प्रोत रहती है। उसके जीवन का मुख्य ध्येय होता है- केवल और केवल ईश्वर से प्रेम। जित देखूं तित लाल। यानी जहां भी योगी देखता है- ईश्वर ही ईश्वर दिखते हैं। घट- घट व्यापत राम।

Thursday, June 23, 2011

काम, क्रोध, लोभ


विनय बिहारी सिंह




गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- काम, क्रोध और लोभ मनुष्य को पतन की ओर ले जाते हैं। इनसे जो मुक्त है, वही ईश्वर के पथ पर आसानी से चल सकता है। इसी को परमहंस योगानंद जी ने लिखा है कि डिजायर, एंगर एंड ग्रीड आर वर्स्ट एनिमीज आफ अ डिवोटी। परमहंस जी ने गीता की अद्भुत व्याख्या की है। दो खंडों में उनकी पुस्तक है- गॉड टाक्स विद अर्जुन। उसे जितनी बार पढ़िए उतनी बार आप एक नए आध्यात्मिक अर्थ को जानेंगे। कामनाएं ही तो मनुष्य को नचाती हैं। यह चाहिए, वह चाहिए, या यह मिल जाता, यह मिल जाता तो जीवन सुखी हो जाता। लेकिन भगवान ने कहा है कि भौतिक वस्तुओं से सुख नहीं मिलेगा। मनुष्य इच्छाओं की सैकड़ों फांसियों में जकड़ा हुआ है। वह उससे मुक्त नहीं होना चाहता। स्त्री, पति, पुत्र, परिवार, मित्र नाते- रिश्ते और यह मोहिनी माया। वह भले ही छटपटा रहा हो, लेकिन उससे दूर नहीं जाना चाहता। भगवान ने कहा है- अर्जुन, इस दुखों के समुद्र रूपी संसार से बाहर निकलो। कैसे? वैराग्य और ईश्वर की अनन्य भक्ति से। साधना से। समूची भगवद् गीता में भगवान ने अर्जुन से कहा है सात्विक भोजन, सात्विक कर्म और सात्विक साधना की सहायता से तुम्हें मुक्ति का मार्ग मिल जाएगा अर्जुन। भगवान ने अर्जुन से ही नहीं परोक्ष रूप से यह बात हम सबसे भी कही है। इस पर जितना मनन किया जाए उतना ही अच्छा।

Wednesday, June 22, 2011

संत रैदास के पद

मित्रों, आइए आज संत रैदास की एक बहुत ही प्रसिद्ध रचना से अपनी प्यास बुझाई जाए।
संत रैदास १४वीं शताब्दी के प्रमुख संत थे। वे मीराबाई के गुरु और संत कबीर के गुरुभाई थे। रैदास और कबीरदास के एक ही गुरु थे- रामानंद। रामानंद जी चोटी के संत थे। उनके सान्निध्य में जो भी आता था, ईश्वर भक्त हो जाता था। संत रैदास उन्हीं के शिष्य थे। इस तरह कबीरदास और संत रैदास समकालीन हुए।


प्रभु जी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग-अंग बास समानी॥
प्रभु जी तुम घन बन हम मोरा। जैसे चितवत चंद चकोरा॥
प्रभु जी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिन राती॥
प्रभु जी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहिं मिलत सोहागा।
प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै 'रैदासा॥

Tuesday, June 21, 2011

मन को कैसे समझाएं?


विनय बिहारी सिंह




हमारे कई अदृश्य शत्रु हैं। बैक्टीरिया, वाइरस, अत्यधिक कार्बन डाई आक्साइड, अत्यधिक आइरन और अन्य धातुएं, आंतरिक दुख, क्रोध, पश्चाताप, ईर्ष्या, अत्यधिक लोभ, अत्यधिक मोह और अत्यधिक कामनाएं। इनमें बैक्टीरिया और वाइरस, कार्बन डाई आक्साइड और शरीर के भीतर की अन्य धातुएं और रसायन तो अपने आधिक्य या अपनी कमी के कारण शारीरिक यातनाएं देते हैं। लेकिन दुख, क्रोध और अन्य भावनाएं हमें मानसिक यातनाएं देती हैं। बार- बार। आप चाहे इससे सजग हों या नहीं। तो क्या इनसे छुटकारे का कोई उपाय नहीं है? अवश्य है। हमें फिर ऋषियों की कही बातों को याद करना होगा और दवाएं खानी होंगी। यानी शारीरिक बीमारी का दवा से और मानसिक बीमारी का मजबूत मन से। आप कहेंगे यह क्या बात हुई? जब मन बीमार है तो मजबूत मन कहां से आ गया? मन तो एक ही है। चाहे वह मजबूत होता है या बीमार। और आप कह रहे हैं कि मजबूत मन से बीमार मन का इलाज करना चाहिए। आप पूछ सकते हैं कि यह विरोधाभास क्यों? तो इसका उत्तर है- हां, यह संभव है। मान लीजिए कि आपका मन बीमार है। उदाहरण के लिए आप किसी चीज से लगातार दुखी हैं और वह दुख आपके ऊपर इतना हावी है कि आपका जीवन दुखमय लगता है। तब आप क्या करेंगे? ऋषियों ने कहा है- आप एकाग्र हो कर ईश्वर से प्रार्थना कीजिए। आखिर भगवान के सामने आंसू बहाने में क्या संकोच? वे हमारे परम पिता हैं, माता हैं। लेकिन क्षण भर के लिए नहीं। लंबे समय तक। फिर वे आपका मन धीरे- धीरे मजबूत कर देंगे और उसी मन से आप समस्या का शांतिपूर्ण हल खोज निकालेंगे। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- गहरे हृदय से भगवान से की गई प्रार्थना का उत्तर अवश्य मिलता है। हर उपाय के लिए भगवान के पास जाना चाहिए। तब क्या सिर्फ प्रार्थना से ही काम हो जाएगा? कामधाम छोड़ दें? इसका उत्तर है- आप प्रार्थना भी करते रहिए और अपनी कोशिशें भी जारी रखिए। प्रार्थना आपके लिए मजबूत नींव का काम करेगी।

Monday, June 20, 2011

मां काली का रंग

विनय बिहारी सिंह


रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- श्यामा (मां काली) का रंग दूर से काला दिखता है। लेकिन नजदीक से (यानी भक्ति से ओतप्रोत होकर) देखने से पता चलता है कि उनका कोई रग नहीं है। जैसे समुद्र का रंग दूर से या फोटो में नीला दिखता है लेकिन नजदीक जा कर देखने पर पता चलता है कि समुद्र के पानी का कोई रंग नहीं है। कहीं- कहीं हल्का सा मटमैला है लेकिन दूर से वह भी नीला दिखाई देता है। वे कहते थे- भुक्खड़ों को विश्वास नहीं होता कि ईश्वर हैं क्योंकि संशय और संदेह में उनका सारा जीवन कटता है। वे यह नहीं सोचते कि ऋषि मुनियों ने दुर्लभ धार्मिक ग्रंथों में जो कुछ लिखा है वह उनका अनुभव सिद्ध लेखन है। एक बार ईश्वर पर पूर्ण विश्वास, निष्ठा और गहनतम प्रेम हो जाए तो ईश्वर अपने होने की बात पुष्ट कर देते हैं। अपना अनुभव करा देते हैं। लेकिन जो ऊपर ऊपर ही कहीं कुछ पढ़ लिया, कहीं कुछ सुन लिया और गहराई में नहीं गए, वे हर बात में तर्क और शंका करते हैं। उनका सारा जीवन इसी में बीत जाता है और शरीर छूट जाता है। उनकी मृत्यु हो जाती है। लेकिन उनकी शंका नहीं जाती। ऋषियों ने कहा है कि शंका और संशय छोड़ो। भगवत गीता में भगवान ने कहा है- संश्यात्मा विनश्यति। संशय करने वाला नष्ट हो जाता है और श्रद्धावान लभते ग्यानम। श्रद्धावान ही ग्यान प्राप्त करता है। गहरी अनुभूति के लिए गहरे ध्यान में उतरना होता है। तर्क से तो कुछ होगा नहीं। पानी अर्थात हाईड्रोजन के दो और आक्सीजन का एक मालीक्यूल। बस हो गया पानी। अब इसमें तर्क का तो कहीं स्थान है नहीं। पानी का केमिकल फार्मूला ही है एचटूओ। आप इस पर तर्क क्या करेंगे? जो सच है वह सच है। इसी तरह ईश्वर पर क्या तर्क करना। वे हैं और उन्हीं का यह संसार है। हमारा शरीर तो मरता है और जन्मता है। ईश्वर तो शाश्वत हैं। ऋषियों ने कह ही दिया है- सर्वं खल्विदं ब्रह्म। इस सृष्टि के कण- कण में भगवान हैं। लेकिन संशयवादी मान ही नहीं सकते। वे हर बात में लेकिन जरूर लगा देते हैं। लेकिन का तो कोई अंत नहीं। लेकिन शब्द भगवान के पास नहीं ले जाता। भक्ति और साधना भगवान के पास ले जाती है।

Saturday, June 18, 2011

पुनर्जन्म होता है या नहीं?

विनय बिहारी सिंह




कोलकाता में पिछले दो दिनों से बारिश हो रही है। आज मौसम कैसा रहेगा, इसकी जानकारी के लिए घर से निकलने के पहले टीवी से हाल जानना चाहा। एक समाचार चैनल पर राजस्थान के आठ साल के बच्चे अवतार के पुनर्जन्म को लेकर एक स्टोरी चल रही थी। अवतार के घर के लोगों ने बताया कि दो- ढाई साल पहले उसने कहना शुरू किया कि उसकी हत्या हुई है। वह पंजाब के अमुक गांव का रहने वाला है। (मैं गांव का नाम भूल गया)। एक दिन वह बीमार पड़ा। घर के लोग डाक्टर के पास ले गए। वहां डाक्टर ने पूरी कहानी सुनी तो कहा कि इस बच्चे को वहां ले जाइए जहां वह पिछले जन्म में होने की बात कह रहा है। डाक्टर की सलाह पर अवतार के घर वाले उसे पंजाब ले गए। बस अड्डे से वह बिना किसी से पूछे, सीधे अपने पूर्व जन्म के घर की ओर चल पड़ा। उसने पूर्व जन्म के घर वालों को पहचान लिया। फिर उसे एल्बम दिखाया गया। उसने अपने पूर्व जन्म के सारे रिश्तेदारों को पहचान लिया। अपनी बहनों को पहचान लिया। उसने कहा कि उसने किसी को रुपए दिलाए थे। उसी ने रुपए लूटने के लिए उसकी हत्या कर दी। हत्या के ठीक नौ महीने बाद वह राजस्थान के इस गांव में पैदा हुआ। अवतार ने पंजाब के एक थाने में अपनी हत्या की रिपोर्ट लिखा आया है। टीवी की एंकर कह रही थी कि पुलिस इस असमंजस में है कि वह इस मामले का क्या करे। अदालत भी पता नहीं पूर्व जन्म के इस मामले को किसी दृष्टि से देखे। अंत में टीवी एंकर ने कहा- पता नहीं पूर्व जन्म होता भी है या नहीं?
इससे स्पष्ट हो गया कि टीवी एंकर ने मान्य धार्मिक ग्रंथों को नहीं पढ़ा है। पवित्र ग्रंथ- भगवत गीता (जिसे यूरोप में हिंदुओं की बाइबिल कहा जाता है,) में साफ- साफ कहा गया है कि पूर्व जन्म होता है। स्वयं भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा है-‍ ‍‍हे अर्जुन, मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं। लेकिन तू उनको नहीं जानता। मैं जानता हूं।
इसके अलावा ईसाइयों के पवित्र ग्रंथ बाइबिल में भी पूर्व जन्म की बात स्पष्ट रूप से कही गई है। स्वयं जीसस क्राइस्ट और उनके गुरु के पूर्व जन्म का उल्लेख है। संभव है इस टीवी एंकर ने भगवत गीता या बाइबिल न पढ़ी हो।

Thursday, June 16, 2011

मनुष्य का जन्म और ईश्वर प्राप्ति की इच्छा

विनय बिहारी सिंह




आदि शंकराचार्य ने कहा है कि सबसे बड़ा आशीर्वाद है- मनुष्य के रूप में जन्म लेना। उससे भी बड़ा आशीर्वाद ईश्वर को प्राप्त करने की इच्छा है। उससे भी बड़ा आशीर्वाद है सद् गुरु का मिलना। अगर मनुष्य में ईश्वर को प्राप्त कर लेने की कभी न खत्म होने वाली लगन है, गहरी भक्ति है, ईश्वर से अनन्य प्रेम है तो उसका जीवन धन्य है। क्योंकि मनुष्य का जन्म ही इसलिए हुआ है कि वह ईश्वर से मिले। लेकिन यदि वह अपना समय व्यर्थ में गंवाता है और ईश्वर को दूर की चीज मानता है, तो वह इस दुर्लभ जन्म का मोल नहीं समझता। उसे बार- बार जन्म लेना पड़ेगा और तमाम तरह के रोग- शोक का सामना करना पड़ेगा। माया जाल को शैतान भी कहते हैं। एक साधु से उसके नए- नए शिष्य ने कहा- मैं गंगा नहाने जा रहा हूं। साधु ने कहा- यह तो अच्छी बात है। लेकिन देखना जब तक गंगा नहाओगे, तुम्हारी कामनाएं किसी पेड़ पर बैठ कर तुम्हारे बाहर निकलने का इंतजार करेंगी। ज्योंही तुम बाहर निकलोगे, वे तुम्हारे भीतर घुस जाएंगी। कहने का अर्थ है- हम अपनी हजार- हजार कामनाओं के बदले चुनी हुई कामनाएं लेकर चलें और उन्हें पूरा करने के लिए मेहनत करने के साथ- साथ ईश्वर से प्रार्थना भी करें कि हे प्रभु, मेरे ऊपर कृपा कीजिए और आशीर्वाद दीजिए कि मैं आपको कभी न भूलूं। ये कामनाएं चाहे पूरी हों या नहीं, लेकिन आपको पाने की कामना जरूर पूरी है। मैं इस पृथ्वी पर सिर्फ आपको पाने के लिए आया हूं। इस नजरिए से हमारा जीवन पूरी तरह सकारात्मक हो जाएगा। हम चाहे महल में रहें, आलीशान कार में घूमें, हमारे पास अनंत अरब रुपए हों तो भी एक दिन सब कुछ छोड़- छाड़ कर मरना ही है। अगर हम धन और भोग विलास में ही मस्त रहे और भगवान को भूल गए तो देह छोड़ने के बाद हमारी क्या गति होगी? कौन सहारा देगा। निश्चय ही भगवान सहारा देंगे लेकिन वे फिर वापस पृथ्वी पर भेज देंगे। फिर वही प्रपंच, वही झमेले। तो क्यों न अभी से ईश्वर की शरण में रहें और उन्हीं की भक्ति में रहते हुए प्राण जाएं। फिर तो वे वापस पृथ्वी पर नहीं भेजेंगे। अपने पास ही रख लेंगे। अच्छी आत्माओं को वे अपने पास ही रखना चाहते हैं। पृथ्वी पर तो उन्हीं को भेजते हैं जो इंद्रिय सुख के लिए छटपटाते रहते हैं।

Wednesday, June 15, 2011

आज कबीर जयंती

विनय बिहारी सिंह



आज कबीर जयंती है। कुछ दिन पहले ही आप सभी ने इस ब्लाग पर संत कबीर के दोहे पढ़े। आज एक बार फिर उन पर चर्चा की जाए तो अच्छा ही लगेगा। संत कबीर सबके थे। उन्होंने लिखा है-

कर का मनका छाड़ि के, मन का मनका फेर।।

यानी हाथ में माला फेरने से तब तक कोई लाभ नहीं है जब तक कि मन भगवान पर स्थिर न हो। मन की माला यदि भगवान का स्मरण करती है तो वह महत्वपूर्ण है। उन्होंने कुरीतियों और धार्मिक पाखंडों पर लगातार प्रहार किया। उन्होंने लिखा-

पार ब्रह्म के तेज का कैसा है उनमान।
कहिबे को सोभा नहीं, देखिबे को परमान।।

ब्रह्म या ईश्वर कैसे हैं, इसका अनुमान लगाना बहुत कठिन है। इसकी व्याख्या उचित नहीं जान पड़ती। प्रत्यक्ष अनुभव जरूरी है। जिसने प्रत्यक्ष अनुभव किया वही बता सकता है कि ईश्वर कैसे हैं। इस पर व्यर्थ की बहस शोभनीय नहीं है।

उनकी एक और रचना देखें-

काहे रे नलिनी तू कुम्हलानी।
जल में जनम, जल में वास।
जल में नलिनी तोर निवास।
काहे रे नलिनी तू कुम्हलानी।।

वे मनुष्य को कहते हैं- तू क्यों दुखी रहता है। तुम हमेशा ईश्वर में ही हो। ईश्वर में तुम्हारा जन्म हुआ है। उसी रहते हो। वही तुम्हारा स्थायी निवास है। लेकिन फिर भी माया के प्रपंच के कारण तुम्हें लगता है कि तुम ईश्वर से दूर हो और कुम्हलाए रहते हो।

कबीर दास पृथ्वी पर विलक्षण संत के रूप में आए। उनका एक मात्र जोर इसी पर था कि ईश्वर ही एक मात्र सच्चाई है। बाकी सब भ्रम है। लेकिन मनुष्य ईश्वर के अलावा सब कुछ चाहता और खोजता है। बस ईश्वर को नहीं चाहता। उनका कहना था- पहले ईश्वर को खोजो। वे तुम्हारे भीतर ही हैं। उन्हें पा कर तुम सब कुछ पा लोगे।

Tuesday, June 14, 2011

पांच साल की बच्ची की पवित्र गतिविधियां


विनय बिहारी सिंह




आज एक बुजुर्ग आदमी एक बच्ची को लेकर मेट्रो ट्रेन में चढ़ा। वह मेरे सामने ही बैठ गया क्योंकि एक आदमी ने उसके लिए अपनी सीट छोड़ दी। आमतौर पर कोलकाता में लोग छोटे बच्चों को लिए हुए स्त्री या पुरुषों के लिए सीट छोड़ देते हैं। लेकिन कुछ लोग नहीं भी छोड़ते। वह आदमी बच्ची को लेकर खूब मस्त था। उससे बांग्ला में पूछ रहा था- कहां जा रही हो? हवा नहीं लग रही है क्या? लेकिन वह बच्ची उसकी बातें न सुन कर शून्य में कहीं देख रही थी और सहज ढंग से आंखें इधर- उधर घुमा लेती थी। छोटे बच्चे प्यारे लगते ही हैं। मैं उसकी ओर लगातार देख रहा था तो आकर्षण के नियम के मुताबिक बच्ची ने भी मेरी ओर देखा। जब आप किसी की ओर लगातार देखेंगे तो चाहे वह बच्चा हो बड़ा, बरबस आपकी तरफ उसकी निगाह चली जाएगी। यह आकर्षण का नियम है। उस बच्ची की निरपेक्ष आंखों को देख कर अच्छा लगा। मैंने बच्ची के अभिभावक से पूछा- बच्ची की उम्र कितनी है? वे अपनी पांचों उंगलियां दिखा कर बोले- पांच महीने। वे बच्ची को बार- बार चूम रहे थे। लेकिन बच्ची पर इसका कोई असर नहीं था। कौन उसे चूम रहा है या कौन उसके साथ खेलना चाहता है, इससे लगता था वह पूरी तरह अनजान है। उसकी निस्पृह निगाहें मानों शून्य में देख रही थीं। मैंने सोचा कि पांच महीने पहले यह बच्ची मां के गर्भ में थी और १४ महीने पहले कहां थी? शून्य लोक में या सूक्ष्म लोक में। इस बच्ची को शायद अब भी मां के गर्भ की या उस सूक्ष्म लोक की यादें आ रही हैं। वह अपने को चूमे जाने से अनजान है। शरीर में आई है, फिर भी शरीर से थोड़ी अनजान। पेशाब आने पर अपने आप हो जाएगा। वह बिस्तर पर बैठी है या ट्रेन में किसी सीट पर इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। पाखाना महसूस होने पर वह भी हो जाएगा। चाहे बिस्तर पर या कहीं और। सब कुछ सहज ढंग से। अब यह अभिभावक जाने कि शौच कैसे साफ किया जाएगा। बच्ची हंसती रहेगी, आ... बा.... बोलती रहेगी। बिल्कुल पवित्रता के साथ। आप उसे डांट नहीं सकते कि क्यों तुमने बिस्तर पर शौच किया। बल्कि आप सावधानी के लिए रबर आदि की चादर बिछा देते हैं ताकि बिस्तर गंदा न हो। यही मनुष्य का जीवन है। यही ईश्वरीय लीला है।

Monday, June 13, 2011

एक संत के अनुभव

विनय बिहारी सिंह




घटना उस समय की है जब मैं कक्षा ९ की परीक्षा दे कर छुट्टियां मना रहा था। मैं अपने पिता जी के कमरे में रहता था। उस कमरे में एक बिना दरवाजे की आलमारी थी। उस आलमारी के ऊपरी तख्ते पर अनेक धार्मिक पुस्तकें हुआ करती थीं। छुट्टियों में कुछ पढ़ने को था नहीं और उस समय रेडियो के अलावा मनोरंजन का कोई साधन नहीं था। रेडियो भी आप हरदम नहीं सुन सकते। इसलिए मेरी उत्सुकता उन धार्मिक किताबों में बढ़ने लगी। उस किताब का नाम मैं भूल चुका हूं। लेकिन इतना याद है कि उसमें कुछ महत्वपूर्ण संतों के विशेष अनुभव दिए गए थे। इस पुस्तक का उद्दे्श्य था कि लोग ध्यान, जप आदि करने में हतोत्साहित न हों। अनेक लोग कुछ दिन ईश्वर की भक्ति करते हैं और जब कोई चमत्कार नहीं होता तो सारी भक्ति खत्म हो जाती है। उस पुस्तक में बताया गया था कि चमत्कारों की उम्मीद न करें। चुपचाप धैर्य के साथ ईश्वर के प्रति भक्ति और प्रेम को बढ़ाते रहें। उसमें एक संत का अनुभव दिया गया था। वे रात को सोते नहीं थे। पूरी रात ध्यान और जप किया करते थे। जब लोग सुबह जागते थे तो वे नित्य क्रिया से निवृत्त हो कर, स्नान, पूजा आदि करते थे। फिर हल्का सा नाश्ता कर सो जाते थे सो जाते थे। शाम को वे उठते थे और फिर सूर्यास्त के पहले- पहले दो या तीन रोटी खा लेते थे। बस। फिर पूरी रात ध्यान, जप। यही उनका क्रम था। एक दिन उनके पास उनका कोई प्रशंसक आया। रात को वहीं ठहरा। साधु रात को तो सोते नहीं थे। उन्होंने रात दस बजे से अपनी साधना शुरू की। रात के एक बजे होंगे कि उस कमरे में अचानक आंखों को चौंधियाने वाला प्रकाश उत्पन्न हुआ। साधु उस प्रकाश का आनंद उठा रहे थे। अचानक उनका प्रशंसक उठा और बोल पड़ा- बाबा, यह प्रकाश क्या है? उसका यह कहना था कि प्रकाश गायब हो गया। साधु को बड़ा दुख हुआ। उस समय उन्होंने अपने प्रशंसक को बस इतना ही कहा- कुछ नहीं , कुछ नहीं, तुम सो जाओ। वह सो गया। सुबह उसके उठने पर साधु ने कहा- भाई। मेरी साधना के दौरान तुम अगर कुछ असाधारण चीजें देखो तो बोलो मत। चुपचाप पड़े रहो। ये दर्शन दुर्लभ होते हैं। तुम्हारे बोल पड़ने से आनंद भंग हो जाएगा।
यह प्रसंग मेरे मानस पटल पर इस तरह अंकित हो गया है कि कभी भूलता ही नहीं। बार- बार चाहता हूं कि वह पुस्तक मिले। लेकिन न वह कमरा है और न वे किताबें। बस स्मृति का ही सहारा है। ऐसी पुस्तक मिलना, ईश्वर की कृपा ही है। लेकिन ऐसा अनुभव जिसे मिलता है वह परम भाग्यशाली है।

Saturday, June 11, 2011

जब एक साहसी महिला खो गई

विनय बिहारी सिंह




जापान की एक महिला मकीको इवाफूची (४९ साल) नेपाल के पर्वतीय इलाके में गईं और अपने साथियों से बिछड़ गईं। वे इतनी दूर निकल गईं कि पहाड़ में ही खो गईं। उनके साथियों ने उन्हें ढूंढा। लेकिन उनकी कोई खोज खबर नहीं मिली। इवाफूची भी अपने साथियों को उसी बेचैनी से खोज रही थीं। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। दो दिन बीत गए। इवाफूची अकेले- अकेले चिल्लाती रहीं- हेल्प मी, हेल्प मी। कोई मेरी मदद करो, मदद करो। लेकिन उस एकांत पहाड़ में पत्थरों से टकरा कर उनकी आवाज लौट आती। दो दिन तक वे घास और बांस के पत्ते खा कर जीवित रहीं। प्यास लगती थी तो तलहटी में बह रही नदी का पानी पीती थीं। जब उन्हें खोज लिया गया तो उन्होंने कहा- मैं सोचती थी कि अगर मैं बच जाऊंगी तो मेरा मन पूरी तरह बदल जाएगा। मैं लोगों से अधिक दयालुता और उदारता से पेश आऊंगी। लेकिन कभी- कभी डर भी लगता था कि मैं बच भी पाऊंगी या नहीं। लेकिन मैं लगातार प्रार्थना कर रही थी- हे प्रभु, मेरे जीवन की रक्षा कीजिए। मेरे ऊपर दया कीजिए....। और आखिरकार मैं बच गई। सचमुच गहरी, दिल से निकली प्रार्थना में बहुत ताकत है।
प्रार्थना के बारे में इस महिला का विश्वास और पक्का हो गया है। वे सर्वशक्तिमान को और गहराई से मानने लगी हैं।

Friday, June 10, 2011

कबीरदास के दोहे


मित्रों आइए आज कबीरदास के दोहे पढ़ें।



माया मरी ना मन मरा, मर मर गये शरीर,
आशा तृष्णा ना मरी, कह गये दास कबीर.

दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे ना कोये,
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे होये.

ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोये,
अपना तन शीतल करे, औरन को सुख होये.

धीरे धीरे रे मना धीरे सब कुछ होये,
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आये फ़ल होये.

जाति ना पूछो साधु की, पूछ लीजिये ग्यान,
मोल करो तलवार की पड़ी रेहेन जो मयान.

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय,
राजा परजा जेहि रुचै, सीस देइ ले जाय.

जिन ढूंढा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ.

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।

Thursday, June 9, 2011

हमारे दिमाग की क्षमता

विनय बिहारी सिंह




हाल ही में एक अध्ययन से पता चला है कि हमारे दिमाग की क्षमता ज्यादा से ज्यादा १५० मित्रों तक ही संवाद करने की है। अब आप कहेंगे कि ऋषियों ने तो कहा है कि हमारे दिमाग की क्षमता अनंत है। यह अध्ययन तो हमारे दिमाग की क्षमता को कम बता रहा है। तो इसके बारे में विशेषग्यों का कहना है कि दिमाग की क्षमता को जिन लोगों ने बढाया है, उनकी बात अलग है। यह क्षमता ध्यान, दिमागी कसरत (पहेलियां सुलझाना, गणित के प्रश्नों का हल आदि) से बढ़ती है। लेकिन सामान्य आदमी का दिमाग कम इस्तेमाल के कारण सीमित ही रह जाता है। वह सिर्फ १५० मित्रों को ही याद रख पाता है। कोई आदमी फेस बुक पर १५० से ज्यादा मित्रों के साथ संवाद नहीं कर सकता।
इस अध्ययन के बाद एक बात और समझ में आती है। हमारा दिमाग कई बार भ्रम में आ जाता है। जैसे सिनेमा हाल में एक फिल्म की रील प्रोजेक्टर पर तेजी से चलती है तो पर्दे पर कलाकार नाचते- कूदते और तरह- तरह के भाव प्रदर्शित करते नजर आते हैं। दरअसल सिनेमा की रील इतनी तेजी से चलती है कि इसके बीच का गैप हमारा दिमाग पकड़ नहीं पाता। नतीजा यह है कि परदे पर चलने वाले सिनेमा से हम पूरी तरह जुड़ जाते हैं। (हालांकि मुझे सिनेमा देखे कई वर्ष बीत गए हैं।) इस तरह सिनेमा प्रकाश और सिनेमा के रील का खेल है। एक कलाकार फिल्म के जितने शो होते हैं, उतनी बार मरता या प्रकट होता है।
ऋषियों ने कहा है- जब दिमाग ईश्वर से जुड़ता है तो अनंत हो जाता है। ध्यान ही एकमात्र साधन है जिसके जरिए, मनुष्य ईश्वर से जुड़ सकता है। ध्यान, प्रार्थना या ईश्वर में गहरी आसक्ति।

Wednesday, June 8, 2011

क्या शिवजी वैसे ही हैं जैसे कैलेंडर में दिखते हैं?

विनय बिहारी सिंह




एक भक्त ने पूछा- क्या शिवजी ठीक वैसे ही हैं जैसा फोटो में दिखते हैं? इस पर एक साधु ने उत्तर दिया- शायद। भक्त ने पूछा- क्यों। आप तो ध्यान लगाते हैं। क्या आपको शिवजी ने दर्शन नहीं दिए? साधु ने कहा- जैसा कैलेंडर में दिखते हैं, वैसे तो नहीं दिखे। मुझे तो प्रकाश का अनुभव होता है। भक्त ने पूछा- तब कैलेंडर में जैसा शिवजी का चित्र है, वह कैसे प्रचलित हुआ? साधु ने कहा- किसी उच्च कोटि के संत ने शिवजी के साक्षात दर्शन किए। उसे लगा कि शिव भक्तों को एक आभास देना चाहिए कि शिवजी कैसे हैं। उसने एक कलाकार को पकड़ा। उसे शिवजी का रूप समझाया। इस उच्च कोटि के संत ने उसमें करेक्शन किया। फिर सामने आया शिवजी का चित्र। भक्त ने पूछा- क्या शिवजी के गले में सचमुच सांप है? साधु ने कहा- शिवजी के गले में सांप, कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक है। हमारे सभी देवताओं के चित्रों में प्रतीक के इस्तेमाल किए गए हैं। जैसे भगवान विष्णु- शेषनाग को शैय्या बना कर आराम कर रहे हैं। यानी भगवान सर्वोपरि हैं। भक्त ने कहा- आज पता चला कि कैलेंडरों में देवताओं के चित्रों का क्या अर्थ है।

Tuesday, June 7, 2011

मेरा मेरुदंड

(कृपया नीचे दिया गया अंग्रेजी अनुवाद भी पढ़ें)

विनय बिहारी सिंह



हे मेरे कृष्ण
मेरे प्राण


मेरा मेरुदंड है
तुम्हारी बांसुरी


तुम्हारे होठ जब
छूते हैं इस बांसुरी को


तो बहती है धारा
आनंद, परमानंद की


हे मेरे कृष्ण
बजाते रहो
यह बांसुरी


भले ही छूट जाए
मेरी नश्वर देह।।


the English translation by me


My spine


Vinay Bihari Singh


O my Krishna
my life force


my spine
is your flute


when your sweet lips
touches this Flute


I feel always
joy, ever new joy


O my Krishna
play this flute for ever


keep it on and on
Though I die
after all, this body is perishable.

Monday, June 6, 2011

भगवान कृष्ण जब गोप और उनकी गाएं बन गए

विनय बिहारी सिंह




भगवान कृष्ण की कथा इतनी बहुआयामी है कि उसे जितनी बार सुनें, नए- नए अर्थ समझ में आते हैं। उनमें प्रतीक बहुत हैं। उपमाएं बहुत हैं। यह इसलिए ताकि पढ़े लिखे लोग तो समझें ही, अनपढ़ भी कथा सुन कर उसका गूढ़ार्थ समझ ले। श्रीमदभागवत में एक कथा है कि एक बार ब्रह्मा जी को शक हो गया कि वृंदावन के कृष्ण भगवान के अवतार हैं। देखिए, भ्रम हो ही गया ब्रह्मा जी को। क्यों? क्योंकि ब्रह्मा जी का उत्पत्ति स्थान तो विष्णु भगवान की नाभि है। यानी ब्रह्मा जी विष्णु भगवान की नाभि से पैदा हुए हैं। और कृष्ण भगवान, विष्णु के ही अवतार हैं। जिसने उन्हें पैदा किया है, उस सर्वशक्तिमान भगवान को कोई कैसे समझ सकता है? वे तो बस अनन्य और गहरी भक्ति से ही एक हद तक समझे जा सकते हैं। पूरा तो उन्हें कोई नहीं समझ सकता। हां, उनके भक्त उनके एक अंश को समझ पाते हैं। तो ब्रह्मा जी को शक हो गया। उन्होंने अपनी माया से सारे गोपों और उनकी गायों और बछड़ों को अपहृत कर लिया और उन्हें अपने ब्रह्म लोक लेकर चले गए। वहां उन्हें योग निद्रा में सुला दिया। इधर भगवान को पता चल गया कि ब्रह्मा जी ने उनके साथ क्या किया है। भगवान तो अंतर्यामी हैं। शाम हुई तो भगवान ने सोचा कि इन गोपों की माताएं तो उन्हीं से पूछेंगी कि कहां गए उनके बेटे और गाय बछड़े इत्यादि। तब भगवान कृष्ण ने स्वयं ही गोपों, गायों और बछड़ों का रूप धर लिया। कैसे? यहीं पर रहस्य छुपा है। भगवान ही तो सब हुए हैं। स्वयं भगवान, गोप और गोपिकाएं। गाय औऱ बछड़े। सारे सजीव और निर्जीव तत्व। पेड़, पौधे, आसमान, जमीन, पहाड़, समुद्र.......... सब कुछ तो भगवान ने ही बनाया है। वही तो सारी सृष्टि में हैं। यह रहस्य साधुओं के मुंह से सुन कर बड़ा अच्छा लगता है। सर्वं खल्विदं ब्रह्म। सब ब्रह्म ही है। कुछ दिनों बाद ब्रह्मा जी जब वृंदावन में कृष्ण का हाल चाल लेने आए तो उन्होंने पाया कि जिन गोपों और गायों आदि का उन्होंने अपहरण किया है, वे तो यहां दिखाई दे रहे हैं। उन्होंने एक क्षण में अपने लोक में उन्हें देखा। वे वहां सो रहे थे। यहां पृथ्वी पर देखा तो खेल रहे हैं। गाएं चर रही हैं। बछड़े उछल कूद कर रहे हैं। तब ब्रह्मा जी की आंखें खुलीं। तब उन्हें लगा कि वृंदावन के कृष्ण सचमुच भगवान के अवतार ही हैं।

Saturday, June 4, 2011

भगवान शिव के बारे में एक प्रश्न का उत्तर


विनय बिहारी सिंह




भाई अनुकेष पांडे जी,

आपने लिखा है- आपका लेख पढ़ा तो कुछ प्रश्न मन में उभरे | शिव का श्मशान वह नहीं जिसे हम आम तौर पर समझते हैं, यानी की वह श्मशान जहाँ शवो का दाह संस्कार होता हैं | लेकिन ग्रंथो में तो शिव को औघड़ बताया गया जो कपाल (नर-मुंड का भाग) धारण किये रहते हैं | उसी तरह तंत्र शास्त्र में भी उन्हें महाकाल, भैरव की संज्ञा दी गयी हैं और श्मशान को शिव का क्रीड़ा-स्थल बताया हैं | श्मशान वह जगह हैं जहाँ आत्मा का उसके निर्जीव शरीर (माया) से बंधन टूट जाता हैं | एक तरह से श्रृष्टि के छोटे से भाग का संहार हो जाता हैं | शिव की विनाश-लीला, जो की एक सकारात्मक प्राकृतिक नियम हैं, नवीन सृजन का मार्ग प्रशस्त करता हैं, यह सब उन लोगों को स्मरण दिलाने के लिए हैं जो शव के साथ श्मशान आते हैं | इसीलिए अघोरी भी श्मशान में रह कर अपनी साधना करते हैं | उसी प्रकार , मणिकर्णिका घाट, जिसे महाश्मशान माना जाता हैं, वह भी विश्वनाथ की नगरी काशी (वाराणसी) में स्थित हैं | अगर शिव का शमशान स्थूल शमशान नहीं हैं, तो काशी एवं अन्य श्मशानो को शिव का निवास स्थान क्यों माना जाता हैं | भूत पिशाच, चुड़ैल, राक्षस इत्यादि उनके गण माने जाते हैं | उपरोक्त का यह मतलब कतई नहीं हैं हैं की आपकी शिव के श्मशान की व्याख्या अनुचित हैं | तात्पर्य केवल यह हैं की जिस तरह की व्याख्या आपने की हैं उस तरह शिव का श्मशान से सम्बन्ध की व्याख्या ग्रंथो में कहाँ हैं?


इस प्रश्न के लिए मैं आपका बहुत आभारी हूं। अच्छा प्रश्न किया है आपने। आपका प्रश्न है- श्मशान संबंधी मेरी व्याख्या ग्रंथों में कहां है? भगवद गीता को आप सीधे- सीधे पढ़ेंगे तो लगेगा यह किसी युद्ध भूमि में खड़े अर्जुन और भगवान कृष्ण का संवाद है। लेकिन जब आप गीता का यह श्लोक पढ़ेंगे-

स्थितप्रग्यस्य का भाषा, समाधिस्थ केशव।
स्थितधिः किम प्रभाषेत, किम आसीत ब्रजेत किम।।

( अर्जुन भगवान से पूछते हैं- स्थितप्रग्य की भाषा कैसी होती है, और समाधि प्राप्त व्यक्ति की भाषा कैसी होती है? स्थिर मन बुद्धि वाला व्यक्ति कैसे बोलता है? कैसे बैठता है और कैसे चलता है?)

अब आप देखिए कि युद्ध भूमि में दोनों सेनाओं के बीच खड़े होकर अर्जुन पूछते हैं कि समाधि प्राप्त मनुष्य की कैसी स्थिति होती है? कैसे बोलता- चलता है? इसकी व्याख्या महान संन्यासियों ने की है। उन्होंने कहा है कि यह मन को जीतने और जीवन को ईश्वरोन्मुखी बनाने की शिक्षा है। जिन कौरवों और पांडवों की बात की गई है वे हमारे शरीर के भीतर ही हैं। हमारा इंद्रियमुखी मन कौरव है और ईश्वरोन्मुखी मन पांडव। ठीक इसी तरह श्मशान की जो व्याख्या मैंने लिखी है वह एक संन्यासी के मुंह से ही सुन कर लिखी है। उन्होंने कहा कि भगवान शंकर हमारे भीतर तभी आसन जमाएंगे जब हम अपने अंतःकरण को श्मशाननुमा बनाएंगे। ऋषि पातंजलि ने कहा है- योग्श्चित्तवृत्ति निरोधः।। चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। जब हम चित्त की वृत्तियों को समाप्त कर देंगे तो वह श्मशाननुमा हो जाएगा।
अब आइए एक और पक्ष पर बात करें। लोगों के जीवन पर जब खतरा मंडराने लगता है तो वे महामृत्युंजय का जाप करते या करवाते हैं। यह महामृत्युंजय का जाप क्या है? यह भगवान शिव की ही स्तुति है। यानी भगवान शिव जिन्हें आमतौर पर संहार का देवता माना जाता है, उन्हें प्रसन्न किया जाता है ताकि व्यक्ति की मृत्यु न हो। हालांकि भगवान शिव को मैं व्यक्तिगत रूप से संहार का देवता नहीं मानता। मैं मानता हूं कि भगवान शिव हमारे भीतर की कुवृत्तियों का संहार करते हैं और वे अत्यंत शुभ देवता हैं। स्वयं उनके पुत्र गजानन यानी गणेश जी की किसी भी शुभ कार्य में सबसे पहले पूजा होती है। भगवान शिव की पत्नी मां पार्वती (या काली या दुर्गा) विघ्न विनाशिनी मानी जाती हैं।
आपने प्रश्न किया है कि भूत, पिशाच आदि को शंकर जी का गण बताया गया है। मैं एक बार फिर संतों से सुनी हुई ही बात आपके सामने रखना चाहता हूं। हमारे धर्म ग्रंथों में प्रतीकों का बहुत इस्तेमाल हुआ है। भूत, पिशाच भगवान शिव के गण हैं, यानी भगवान शिव के भक्तों को भूत- पिशाचों से डरने की जरूरत नहीं है। वे भक्तों का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। उनके भक्त निर्भय रहें। अभी इसी ब्लाग पर कुछ दिन पहले मैंने संत वामाखेपा के बारे में लिखा है। वे श्मशान में ही रहते थे। वे भगवान शिव और मां काली के अनन्य भक्त थे। लेकिन वे जिसको आशीर्वाद देते थे, वह निहाल हो जाता था। उन्होंने न जाने कितने लोगों के रोग ठीक किए, न जाने कितनों को चिंतामुक्त किया। उनके संपर्क में जो आता था, वह आध्यात्मिक रूप से अत्यधिक संपन्न हो जाता था। प्रतीक के रूप में हमारे भीतर अगर श्मशान रूपी शांति आ जाए तो बस ईश्वरोप्लब्धि जैसे अनुभव हो सकते हैं। संतों ने ऐसा ही कहा है।

Friday, June 3, 2011

इस्कान के युवा सन्यासी से मुलाकात


विनय बिहारी सिंह




आज मेट्रो ट्रेन (भूगर्भ रेल) में इस्कान के एक युवा सन्यासी से मुलाकात हुई। मैं सीट पर बैठा था। इस युवा सन्यासी को देखा तो उन्हें अपनी सीट देनी चाही। लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। मैं अपनी सीट से खड़ा हो गया और उनसे बैठने का आग्रह किया। उन्होंने फिर शालीनता के साथ इंकार कर दिया और खड़े ही रहे। आमतौर पर ऐसा होता नहीं है। वे विदेशी थे। एकदम से गौरांग।अभी युवा अवस्था में उन्होंने प्रवेश ही किया था। अपने स्टेशन पर उतरने के पहले मैंने उनसे अंग्रेजी में पूछा- क्या इस्कान के सन्यासी हैं? वे बोले- हां। मायापुर में रहता हूं। मायापुर पश्चिम बंगाल के नदिया जिले में है। वहां इस्कान का बहुत ही भव्य मंदिर है। मंदिर की भव्यता के कारण ही वह पर्यटन स्थलों में से एक है। मैंने पूछा- आपका नाम क्या है? वे बोले- केशव। मेरे दिमाग में तुरंत आया- भगवान कृष्ण का नाम। मैंने पूछा- आप पूरे दिन भगवान कृष्ण का नाम जप और कीर्तन और सेवा करते हैं? वे बोले- कोशिश करता हूं। मैंने पूछा- आप कितनी देर ध्यान करते हैं? उनका जवाब था- कोशिश तो करता हूं कि पूरे दिन ध्यान हो। कोशिश करता हूं कि ध्यान करते वक्त तो ईश्वर में लय हो ही, काम करते हुए भी ईश्वर की उपस्थिति का अहसास हो। वे यह नहीं कहते थे कि करता हूं। वे कहते थे- कोशिश करता हूं। उन्होंने सफेद धोती पहन रखी थी। कंधे पर एक छोटा सा बैग था। शरीर का ऊपरी भाग लगभग नंगा था। एक गमछानुमा सफेद वस्त्र भर था कंधे पर। पैर में खड़ाऊं था। खड़ाऊं पहन कर चलना आसान नहीं है। इसके लिए अभ्यास जरूरी है। उन्हें अभ्यास हो गया था। क्योंकि वे खड़ाऊं पहन कर तेजी से चल रहे थे। पैर की उंगलियां खड़ाऊं पर पकड़ बनाने के लिए सिकुड़ी हुई थीं। उनसे जितनी भी बातचीत हुई उससे जाहिर था कि वे अत्यंत शालीन व्यक्ति हैं और मुझसे बातचीत कर उन्हें अच्छा लग रहा है। मैंने उन्हें बताया- हम सब साधु- संतों का आदर करते हैं। इसलिए मैं आपको अपनी सीट दे रहा था। साधु इसलिए आदरणीय हैं कि वे लोकहित में अपना सारा जीवन ईश्वर को समर्पित कर देते हैं। वे मुस्कराए और सहमति में सिर हिलाया। फिर संकेत दिया कि वे सुविधाओं के उपभोग के लिए साधु नहीं बने हैं। बीस मिनट में वे अपने स्टेशन पहुंच जाएंगे। इतनी देर के लिए सीट का लोभ क्यों? मुझे लगा- मेट्रो ट्रेन में दस मिनट की यात्रा के लिए भी सीट को लेकर झगड़े होते हैं। और यह साधु शांत होकर खड़े हैं। सीट की उपेक्षा करते हुए। साधु अपने व्यवहार से ही सबको सिखाते हैं।

Thursday, June 2, 2011

क्या है ई-कोलाई संक्रमण?

जर्मनी में खीरे और कुछ अन्य सब्ज़ियों के ज़रिए ई-कोलाई बैक्टीरिया का संक्रमण लोगों तक पहुँच रहा है, अब तक इस संक्रमण की वजह से 14 लोगों की मौत हो गई है और सैकड़ों लोग बीमार हो गए हैं.

इस संक्रमण के बारे में कुछ ज़रूरी जानकारियाँ.

ई-कोलाई क्या है?

ई-कोलाई इशचेरिचिया कोलाई का संक्षिप्त रूप है. यह एक तरह का बैक्टीरिया है जो मनुष्यों और पशुओं के पेट में हमेशा रहता है, इस बैक्टीरिया के ज्यादातर रूप हानिरहित हैं, लेकिन कुछ ऐसे हैं जो पेट में मरोड़ और दस्त जैसे लक्षण पैदा करते हैं, कई बार इनकी वजह से लोगों का गुर्दा काम करना बंद कर देता है और संक्रमित व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है.

मौजूदा संक्रमण के बारे में क्या जानकारी है?

इस बार जर्मनी से शुरू हुए संक्रमण में लोगों के गुर्दे और स्नायुतंत्र बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं. इस अवस्था को हिमोलिटिक यूरेमिक सिंड्रोम कहते हैं.

इस बार के संक्रमण में खूनी दस्त, गुर्दे की नाकामी और मिर्गी के दौरे जैसे लक्षण दिखाई दे रहे हैं.

ज्यादातर लोगों में ई-कोलाई बैक्टीरिया का जो रूप पाया गया है उसका नाम ई-कोलाई 0104 है, जो आम नहीं है.

अब तक ई-कोलाई के ज्यादातर मामलों की असली वजह 0157 रहा था, बैक्टीरिया के उस रूप से संक्रमित लोगों के लक्षण भी इसी तरह के होते हैं.

संक्रमण लोगों तक पहुँचा कैसे?

यह संक्रमण आम तौर पर माँस के ज़रिए लोगों तक पहुँचता है लेकिन इस बार इसका माध्यम सब्ज़ियाँ हैं. जर्मन अधिकारियों का कहना है कि स्पेन से आयात किए गए खीरे में ई-कोलाई बैक्टीरिया पाया गया है.

अच्छी तरह पकाए गए खाने में ई-कोलाई बैक्टीरिया के बचने की संभावना समाप्त हो जाती है, फल और कई सब्जियाँ अक्सर कच्ची खाई जाती हैं इसलिए संक्रमण फैल रहा है.

ई-कोलाई बैक्टीरिया पशुओं के मल के ज़रिए खीरे में किसी तरह पहुँचा जहाँ से वह लोगों के पेट में जा रहा है, अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि ऐसा गायों के गोबर के खाद के तौर पर इस्तेमाल किए जाने की वजह से हुआ होगा.

संक्रमण से बचने के लिए क्या करना चाहिए?

जर्मन अधिकारियों ने लोगों को हिदायत दी है कि वे खीरा, टमाटर और गाजर जैसी चीज़ें कच्चा न खाएँ.

इस संक्रमण के जर्मनी से बाहर फैलने की ख़बर अब तक नहीं आई है.

जानकारों का कहना है कि अगर फलों और सब्ज़ियों को अच्छी तरह धोकर या छीलकर खाया जाए तो ख़तरा नहीं है, डॉक्टरों का कहना है कि ई-कोलाई बैक्टीरिया फल-सब्ज़ियों के ऊपर है, न कि उनके भीतर.(Courtesy- BBC Hindi)

Wednesday, June 1, 2011

अच्छा कोलेस्टेरॉल बढ़ाने वाली दवा फिसड्डी


विनय बिहारी सिंह



नेशनल इंस्टीट्यूट्स आफ हेल्थ (एनआईएच) ने घोषणा की है कि अच्छा कोलेस्टेराल बढ़ाने की दवा नियास्पैन हृदय रोग को रोकने में कारगर नहीं है। अच्छा कोलेस्टेराल यानी एचडीएल। आप जानते ही हैं कि हमारे शरीर में दो तरह के कोलेस्टेराल होते हैं। अच्छे वाले कोलेस्टेराल को एचडीएल और बुरे वाले कोलेस्टेराल को एलडीएल कहते हैं। एलडीएल यानी बुरा कोलेस्टेराल अगर ज्यादा हो जाता है तो हमारी रक्त धमनियों में कचरे की परतें जम जाती हैं और हमारे हृदय पर भारी दबाव पड़ने लगता है। नतीजा यह होता है कि हमारा हृदय बीमार हो जाता है। या हर्ट अटैक होता है। दिमाग की नसों में यही कोलेस्टेराल हो जाने पर ब्रेन हेमरेज आदि होता है। लेकिन यह सब तब होता है जब बुरे कोलेस्टेराल की मात्रा हद से ज्यादा होती है। दवा नियासिन कई नाम है। इसके अन्य नाम हैं- निकोटिनिक एसिड, विटामिन बी-३ और निकोटिनामाइड। ये बाजार में नियालिप, निसिनाल और नियासिन नाम से बिकती है। हालांकि नियास्पैन मुश्किल से ५ से १० प्रतिशत मरीजों को ही दिया जाता है। लेकिन अब यह सिद्ध हो गया है कि हृदय रोग को रोकने में यह दवा नाकाम है। माना जाता है कि शरीर में अच्छा कोलेस्टेराल या एचडीएल पर्याप्त मात्रा में रहने पर आयु अपेक्षाकृत लंबी होती है। इस दवा के साइड एफेक्ट्स के बारे में रिपोर्ट आई है कि इसके लगातार सेवन से सिरदर्द हो सकता है या दृष्टि में धुंधलापन हो सकता है। हम भारतीय लोगों में गुड कोलेस्टेराल की मात्रा औसतन कम पाई जाती है। खासतौर से महिलाओं में।
कार्बन डाई आक्साइड का उत्सर्जन बढ़ाः फ्रांस के वैग्यानिकों ने शोध कर पता लगाया है कि पूरी दुनिया में कार्बन डाई आक्साइड या सीओ२ का उत्सर्जन दो प्रतिशत बढ़ गया है। यह खतरे की घंटी है। इससे तापमान दो डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। वैग्यानिकों ने कहा है कि विश्व की आर्थिक मंदी २०१० में खत्म हो गई। लेकिन कार्बन उत्सर्जन की मात्रा १.६ जिगा टन बढ़ गई है। यह इसलिए भी खतरनाक है कि इससे पर्यावरण में परिवर्तन होगा। अनेक जंतु लुप्त होने लगेंगे। अनेक वनस्पतियां लुप्त होने लगेंगी। इसका नुकसान मनुष्य को ही उठाना पड़ेगा। पिछले साल कार्बन उत्सर्जन की मात्रा ३०.६ जिगा टन थी। इस साल यह उत्सर्जन १.६ जिगा टन और ज्यादा बढ़ गया है। वैग्यानिकों ने कहा है कि नाइटिंगल या बुलबुल नाम की पक्षी लुप्त होने के कगार पर है। अगले ३० सालों में इसका नामों निशान मिट जाएगा। क्योंकि एक भी बुलबुल जीवित नहीं रहेगा। आने वाली पीढ़ी को अगर बताया जाएगा कि बुलबुल नाम की एक पक्षी था और अगर उसका फोटो दिखाया जाएगा तो वह अचरज में पड़ जाएगी। क्या ऐसा भी पक्षी था? उसके मुंह से निकलेगा।