Wednesday, June 30, 2010

एक रोचक घटना

विनय बिहारी सिंह

कल शाम को अपने दफ्तर से घर जाने के लिए ज्योंही निकला, पांच मिनट बाद खूब जोर की हवा चली और घनघोर बारिश हुई। मुझे एक फुटपाथ की दुकान के पास रुकना पड़ा जिसकी छत पालीथीन से बनी थी। पालीथीन की छत पुरानी थी, इसलिए मैं बीच बीच में थोड़ा भींग भी जाता था। मेरे साथ एक और आदमी खड़ा था। वह थोड़ी देर तक तक मेरे साथ खड़ा रहा, लेकिन जब बारिश और हवा ज्यादा तेज हो गई तो उसने मुझसे पूछा- यहां तो कई पेड़ हैं। कहीं कोई डाल टूट कर गिरेगी तो नहीं? मैंने हंसते हुए कहा- क्या पता, इस तूफानी बारिश में कुछ भी कहना मुश्किल है। वह भाग कर सड़क पार स्थित बहुमंजिली इमारत के छज्जे के नीचे छुप गया। एक बार मेरी भी इच्छा हुई कि वहीं चला जाऊं। थोड़ा सा ही तो भींगना पड़ेगा। लेकिन फिर मन ने कहा- यहीं ठीक है। मैं खड़ा रहा। दुकानदार ने देखा कि मेरे पैंट का निचला हिस्सा भींग रहा है तो उसने मुझे दीवार से लगे ऊंचे स्थान पर खड़ा रहने का सुझाव दिया। यह स्थान उसकी दुकान से सटा हुआ था, इसलिए मैं वहां नहीं खड़ा हो रहा था। लेकिन जब उसने खुद कहा तो मैं वहां खड़ा हो गया। वहां की पालीथीन वाली छत ठीक थी। मैं अब आराम से खड़ा हो गया। तभी दुकानदार ने कहा- आग लगी है, वह देखिए। मैंने देखा मेरे साथ खड़ा आदमी जहां खड़ा था, वहां से दो कदम पर ऊपर लगे बोर्ड में भयानक आग लगी है। मैंने कहा- इतनी तेज बारिश में आग कैसे लगी? उसने कहा- शार्ट सर्किट है। यह आग बारिश से नहीं बुझेगी। वहां खड़े सारे लोग जहां- तहां भागे। मैं जहां सुरक्षित खड़ा था, खड़ा रहा। मन में सोचा- अभी मेरे मन में आया था कि मैं भी आग लगने वाली जगह ही क्यों न छुप जाऊं। लेकिन मेरे भीतर से ही कहीं से आवाज आई- वहां मत जाओ, यहीं ठीक है। आग से कोई हताहत नहीं हुआ। जब फायर ब्रिगेड की गाड़ी आई, आग बुझ चुकी थी। यह अद्भुत घटना थी मेरे लिए। मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया। वे तो मेरे भीतर थे और बाहर भी। मेरे चारो ओर भी। सर्वं खल्विदं ब्रह्म

Tuesday, June 29, 2010

देहात्मिका बुद्धि ठीक नहीं

विनय बिहारी सिंह


रविवार को योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के संन्यासी स्वामी शुद्धानंद जी ने सत्संग के दौरान कहा कि जो मनुष्य देहात्मिका बुद्धि वाला है, उसे शंका होती है कि ईश्वर है या नहीं। देहात्मिका बुद्धि यानी मैं शरीर हूं। बस वह अपने शरीर और इंद्रियों में ही रमा रहता है। अच्छा भोजन, अच्छा वस्त्र यानी इंद्रियों की मांग पूरी करता रहता है और इसी में परेशान रहता है। उसे लगता है यह देह या यह शरीर ही सब कुछ है। ऐसा व्यक्ति सूक्ष्म स्तर पर कुछ भी महसूस नहीं कर सकता। वह हर सूक्ष्म और सर्वव्यापी वस्तु को नकार देगा। शंका की दृष्टि से देखेगा। लेकिन जो समझता है कि हम शरीर नहीं हैं, मन नहीं हैं, बुद्धि नहीं है। हम हैं- सिर्फ शुद्ध आत्मा। यह जीव ईश्वर का अंश है। (तुलसीदास ने भी लिखा है- ईश्वर अंश जीव अविनासी) आत्मा देह तक ही सीमित नहीं है। जब जीव इंद्रियों से शरीर से ऊपर उठ कर देखता है तो पाता है कि यह देह तो तुच्छ है। इसके लिए क्या परेशान होना है। हमें तो अपनी आध्यात्मिक खुराक चाहिए। वही हमें सुख देगा। वही हमारे साथ शास्वत रूप से रहेगा, स्थायी रूप से रहेगा। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- आप ईश्वर के साथ एकाउंट (खाता) खोल लीजिए, सुखी रहेंगे। जो व्यक्ति सूक्ष्म स्तर पर महसूस करेगा, वह समझेगा ही नहीं, महसूस भी करेगा कि ईश्वर है। इस सृष्टि के कण- कण में ईश्वर है। ईश्वर सर्वव्यापी हैं। उन्हें हर क्षण हम महसूस कर सकते हैं। लेकिन वे तभी महसूस होंगे जब हमारा दिमाग शांत होगा। वे शांति में निवास करते हैं। कैसी शांति? सकारात्मक शांति। शुद्ध शांति। एक शांति नकारात्मक भी होती है। कोई शांत है और दिमाग में तमाम नकारात्मक सोच चल रहे हैं। वह शांति व्यर्थ है। ईश्वर तो ऐसी शांति में निवास करते हैं जहां श्रद्धा हो, भक्ति हो और जीव उनके लिए तड़प रहा हो। बस ऐसी शांति में ईश्वर आपके साथ आनंद मनाएंगे। आप स्वयं आनंद बन जाएंगे।

Monday, June 28, 2010

जीन थिरैपी का कमाल

विनय बिहारी सिंह


अमेरिकी वैग्यानिकों ने रोगी के फैट सेल्स और मांसपेशियों के सेल से हड्डी बनाने में सफलता पा ली। ऐसा जीन थिरैपी के कारण हुआ। उन्होंने यह प्रयोग पहले चूहों पर किया। चूहों के फैट सेल की जीन थिरैपी की। नतीजा यह हुआ कि पहले कार्टिलेज बना। फिर वही कार्टिलेज हड्डी में तब्दील हुआ। इस प्रयोग की सफलता के बाद वैग्यानिकों ने कहा है कि जिन मरीजों की हड्डी टूट जाती है, उनकी टूटी हड्डी निकाल कर स्टील इत्यादि फिट कर दिया जाता था। इससे मरीज चलने- फिरने लायक हो जाता है। लेकिन मरीज को पूरी तरह स्वस्थ होने में तीन चार महीने लग जाते हैं। कृत्रिम हड्डी लगाने के १५ दिन बाद ही मरीज चलने फिरने लगता है। इसकी वजह यह है कि वह हड्डी उसी के सेल से बनी होती है। शरीर ऐसी हड्डी तुरंत स्वीकार कर लेता है। डाक्टरों का कहना है कि अगर यह प्रयोग आगे बढ़ा तो चिकित्सा के क्षेत्र में कई क्रांतिकारी परिवर्तन होंगे। लोगों का जीवन औऱ राहत भरा होगा। भारत में भी ऐसे प्रयोगों की आवश्यकता है।

Saturday, June 26, 2010

(courtesy- BBC Hindi service)

चाय और कॉफी

दिल के लिए फायदेमंद

कॉफी, चाय

छह कप से अधिक चाय पीने से दिल की बीमारी होने का खतरा एक तिहाई कम

नीदरलैंड्स के शोधकर्ताओं ने पाया है कि दिन में कई कप कॉफी या चाय पीने से दिल की सेहत अच्छी बनी रहती है.

शोधकर्ताओं ने 13 साल तक चले अध्ययन के बाद इस नतीजे को प्रकाशित किया है. अध्ययन का प्रकाशन अमरीकन हार्ट एसोसिएशन के जर्नल में किया गया है.

अध्ययन में 40,000 लोगों को शामिल किया गया. शोध के मुताबिक जो लोग एक दिन में छह कप से अधिक चाय पीते हैं, उनके लिए दिल की बीमारी होने का खतरा एक तिहाई कम हो जाता है.

शोध में यह बात भी सामने आई कि दिन में दो से चार कप काफी पीने से भी दिल की बीमारी होने के खतरे कम हो जाते हैं.

हालांकि इस बात पर अलग-अलग रिपोर्ट मिली कि चाय में दूध मिला देने से पॉलिफिनॉल के प्रभाव कम हो जाते हैं. पॉलिफिनॉल चाय में पाया जाने वाला पदार्थ है जो काफी फायदेमंद होता है.

कॉफी का सीमित सेवन फायदेमंद

कॉफी में ऐसे गुण होते हैं जो एक साथ जोखिम बढ़ाते भी हैं और घटाते भी. इसके सेवन से जहां एक तरफ कोलेस्ट्राल बढ़ता है, वहीं दूसरी तरफ यह दिल की बीमारियों से लड़ता है.

लेकिन अध्ययन में यह भी कहा गया है कि अगर आप दिन में दो से चार कप कॉफी पीते हैं तो इससे बीमारी होने का खतरा 20 फ़ीसदी कम हो जाता है.

इस अध्ययन से उन प्रमाणों को बल मिलता है कि हल्की मात्रा में चाय या काफी का सेवन अधिकतर लोगों के लिए नुकसानदेह नहीं है. हालांकि अगर आप कॉफी के साथ सिगरेट पीते हैं तो ये सभी फायदे समाप्त हो जाते हैं- -एलेन मैसन, ब्रिटिश हर्ट फाउंडेशन

अध्ययन की अगुवाई करने वाले प्रोफेसर वोनी वांडर शा ने कहा, "चाय या कॉफी पसंद करने वाले लोगों के लिए यह एक अच्छी खबर है. इनके सेवन से मौत का जोखिम पैदा किए बिना ही दिल की सेहत अच्छी बनी रहती है."

ब्रिटिश हर्ट फाउंडेशन की एलेन मैसन ने कहा, "इस अध्ययन से उन प्रमाणों को बल मिलता है कि हल्की मात्रा में चाय या काफी का सेवन अधिकतर लोगों के लिए नुकसानदेह नहीं है. हालांकि अगर आप कॉफी के साथ सिगरेट पीते हैं तो ये सभी फायदे समाप्त हो जाते हैं."

उन्होंने यह भी कहा कि हमें यह बात याद रखनी चाहिए कि अगर आप अपने हृदय को सेहतमंद रखना चाहते हैं तो कुल मिलाकर एक सेहतमंद जीवन शैली अपनानी होगी.

Friday, June 25, 2010

छोटे बच्चे सी व्याकुलता और प्रेम

विनय बिहारी सिंह


स्वामी वल्लभाचार्य कहते थे कि भक्त को छोटे बच्चे से सीख लेनी चाहिए। जैसे छोटा बच्चा क्षण भर के लिए भी मां को नहीं छोड़ता, ठीक उसी तरह भक्त को भगवान से एक क्षण भी अलग नहीं रहना चाहिए। मां कहीं चली जाती है तो वह जोर- जोर से रोने लगता है और तब तक चुप नहीं होता, जब तक उसकी मां उसे गोद में नहीं ले लेती। मां की गोद में जाते ही बच्चे को मानो स्वर्ग मिल जाता है। ठीक उसी तरह भक्त को भगवान में इतना सुख मिलता है कि स्वर्ग भी तुच्छ लगता है। रमण महर्षि ने कहा कहा है कि सच्चे भक्त का दिमाग फोटो खींचने वाली फिल्म की तरह होता है। जैसे फिल्म एक बार प्रकाश में एक्सपोज होती है तो उससे फोटो खींचना असंभव हो जाता है, ठीक उसी तरह एक बार भक्त का दिमाग भगवान में एक्सपोज हो जाता है तो उस पर कोई दूसरी छवि उभर ही नहीं पाती। सांसारिक प्रपंच उसके मन में नहीं आता। बस सिर्फ भगवान और भगवान। सोते- जागते, उठते- बैठते, खाते- पीते, घूमते- फिरते और सोचते या काम करते हुए मन ही मन दुहराते रहना चाहिए- हे भगवान, आप ही मेरे सहारा हैं। मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलिए। मुझे अग्यान से ग्यान की ओर ले चलिए, मुझे चंचलता से स्थिरता की ओर ले चलिए। मुझ पर कृपा कीजिए

Thursday, June 24, 2010

हम तो हैं समुद्र की एक बूंद

विनय बिहारी सिंह

एक भक्त हैं जो- श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेव, गाते हुए रोने लगते हैं। आंसू लगातार गिर रहे हैं और वे गाए जा रहे हैं। एक दिन मैंने उनसे कहा- आप अगर नहीं रोते तो आपका भजन और सुंदर होता। रोते वक्त आपका गला भर जाता है, लय में बाधा पड़ती है। वे बोले- जब मैं यह गीत गाता हूं तो मेरी आंखों से अपने आप आंसू गिरने लगते हैं। इसमें मेरा कोई वश नहीं है। मैं क्या करूं? मैंने कहा- कोई दूसरा भजन गाया कीजिए। आपका स्वर मधुर है। आपके भजन सुनना सबको अच्छा लगता है। कोई दूसरा भजन क्यों नहीं गाते? वे बोले- आप खुद गाकर देखिए- श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे..... आप ईश्वर रस में डूब जाएंगे। इसे छोड़ कर कोई औऱ भजन गाने की इच्छा ही नहीं होती। इस भजन के एक एक शब्द में ईश्वर का वास है। लगता है जैसे भगवान सामने खड़े हों और हम उन्हें पुकार रहे हों। रो रहे हों और कह रहे हों- अब कब तक इंतजार कराओगे प्रभु..... तुम्ही तो मेरे प्राण हो। यह कहते हुए उनका गला भर आया और वे फिर रोने लगे। मैं हालांकि पहले से जानता था कि वे भगवान कृष्ण के अनन्य भक्त हैं और उनकी एक एक सांस भगवान के प्रति समर्पित है। लेकिन उन्हीं के मुंह से सुनने के लिए कोई अन्य भजन गाने का प्रस्ताव रखा। आखिर में उन्होंने कहा- भगवान दिन रात हमारे साथ रहते हैं लेकिन हम उनके होने का अनुभव न करें तो इसमें भगवान का क्या दोष? दोष तो हमारा है। वही हमारे रक्षक हैं, पोषक हैं और हमारे उद्धारक हैं। उनके सिवा और कौन हमारा है। फिर भी लीला देखिए कि अपना कोई क्रेडिट नहीं लेते हैं भगवान। चुपचाप अदृश्य रह कर पूरे ब्रह्मांड को चलाते हैं। जो लोग उनको भला- बुरा कहते हैं, उस पर भी ध्यान नहीं देते। एक हम हैं कि छोटा मोटा काम करके भी अपना क्रेडिट लेना चाहते हैं। कोई हमारी प्रशंसा करे, कोई हमारा क्रेडिट स्वीकार करे.... यही तो चाहते हैं हम। हम अपनी तारीफ, अपना गुणगान सुनना चाहते हैं। जबकि करने वाला भगवान है। हम तो समुद्र की एक बूंद भर हैं।

Wednesday, June 23, 2010

संगीत में डूबा एक इंजीनियर

विनय बिहारी सिंह


हमारे संस्थान में एक आईटी इंजीनियर हैं प्रियव्रत मजूमदार। वे रवींद्र संगीत के गहरे प्रेमी हैं। वाद्य यंत्रों में सिंथेसाइजर और हारमोनियम पर खुद को साध चुके हैं। हर रोज दो घंटे शास्त्रीय संगीत का रियाज करते हैं। एक दिन उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर के लिखे भक्ति गीत की दो पंक्तिंयां सुनाईं तो मुझे सुख मिला।
ये पंक्तियां हैं- चिर सखा हे, छेड़ो ना मोरे। संसार गहने, निर्भय, निर्भर निर्जन स्वजने.....
यह ईश्वर से प्रार्थना है कि वे अकेले न छोड़ें। यह संसार भरोसे लायक नहीं है। प्रियव्रत के स्वर में जो दर्द था, जो आकुलता थी, वह दिल को छूने वाली थी। वे ईश्वर के गहरे भक्त नहीं हैं। लेकिन रवींद्रनाथ टैगोर के ब्रह्म संगीत के भक्त जरूर हैं। मैंने पूछा- आपके गुरु कौन हैं? उन्होंने कहा- श्रीमती स्वागतलक्ष्मी दासगुप्ता।
मैंने पूछा- कंप्यूटर के हार्डवेयर और साफ्टवेयर में रमें रहने वाला आदमी संगीत को इतना समय कैसे दे पाता है? वे हंसे और कहा- मुझे बचपन से इसका शौक है। आठ साल का था तो मेरे शौक को देखते हुए घर वालों ने मुझे संगीत के स्कूल में दाखिल करा दिया। इस शौक के लिए समय कैसे निकालते हैं? प्रियव्रत ने कहा- समय? जो चीज आपके दिल में बसी हो उसके लिए समय निकालना नहीं है, वह हर समय आपके ऊपर हावी रहती है। संगीत और मैं एक हैं। कंप्यूटर भी मैं संगीत की लय में ही देखता हूं। साफ्टवेयर भी। संगीत मेरे जीवन का केंद्र है। मुझे इस इंजीनियर से बातें कर अच्छा लगा। मैंने कहा- ईश्वर भक्तों के लिए भी तो यही बात लागू होती है। वे बोले- बिल्कुल। अगर आप ईश्वर भक्ति में रमे हैं तो उसके अलावा आपको कुछ दिखाई नहीं देना चाहिए। आप तो उसी में मस्त रहेंगे। और कुछ दिखाई ही नहीं देगा। देखिए दो चीज होती ही नहीं। एक ही चीज है। वह एक चीज पकड़िए, काम बन जाएगा।
ईश्वर से प्रेम है तो फिर अन्य कोई चीज कैसे दिखाई देगी? प्रियव्रत संगीत में ही जीते हैं, संगीत में ही सांस लेते हैं। वे अपना काम करते हुए अत्यंत धीरे- धीरे गुनगुनाते रहते हैं। एक लय उनके भीतर चलती रहती है। कुछ लोग कहते हैं कि कंप्यूटर के कुछ काम अत्यंत उबाऊ हैं, लेकिन प्रियव्रत को इससे फर्क नहीं पड़ता। भीतर तो संगीत की अजस्र धारा बह रही है, क्या बोर होना है। भीतर मीठा स्रोत बह रहा है। बाहर कोई भी काम हो आसान हो जाता है। ठीक उसी तरह जैसे भीतर ईश्वर की धारा बह रही हो और आप संसार का काम उसी चेतना में किए जा रहे हैं। आपके ऊपर क्या फर्क पड़ेगा?
बस अपनी चेतना ईश्वर से जोड़ दीजिए। कनेक्ट कर दीजिए। ईश्वर ही तो सारी शक्तियों के स्रोत हैं। एको ब्रह्म दीतीयो नास्ति।

Tuesday, June 22, 2010

हमारे भीतर की ताकत

विनय बिहारी सिंह


एक रोचक कथा है। एक आदमी घर पहुंचने की जल्दी में शार्ट कट रास्ते से चला। इस शार्ट कट में एक कब्रगाह पड़ती थी। अंधेरा हो चुका था। सामने एक कब्र खोद कर छोड़ दी गई थी। जल्दी- जल्दी चल रहे व्यक्ति को गड्ढा दिखाई नहीं पड़ा और वह उसी में गिर पड़ा। गड्ढा गहरा था। उसने बहुत कोशिश की लेकिन वह बाहर नहीं निकल पाया। उसने सोचा- ठीक ही कहा जाता है कि जल्दी का काम शैतान का। अगर मैंने जल्दी नहीं की होती तो देर से ही सही अभी घर में बैठा गर्मागर्म चाय पी रहा होता। अब तो रात भर इस गड्ढे में बिताना ही पड़ेगा। तभी उसी तरह का एक और आदमी शार्ट कट के चक्कर में कब्रगाह से हो कर गुजरा और उसी गड्ढे में गिर पड़ा। उसने बहुत कोशिश की। पहले से गिरा हुआ आदमी चुपचाप बैठा था। बाद में गिरने वाला आदमी समझ रहा था कि वह इस गड्ढे में अकेले है। तभी पहले वाले ने कहा- कोई फायदा नहीं है कोशिश का। तुम इस गड्ढे से नहीं निकल पाओगे।
तभी बाद में गिरने वाला आदमी घबराया और क्षण भर में छलांग लगा कर बाहर आ गया। उसे लगा कि इस कब्र में भूत है, वही बोल रहा है। डर ने उसके भीतर इतनी ताकत भर दी कि वह एक ही छलांग में बाहर आ गया।
ऋषियों ने कहा है कि हमारे भीतर अजस्र शक्ति है। जरूरत है उसे जगाने की। लेकिन हम लोग खुद को इतना कमजोर मान कर चलते हैं और इतना सीमित मान कर चलते हैं कि पीछे रह जाते हैं। हमारे भीतर ईश्वर से जुड़ने की क्षमता है। लेकिन हम सोचते हैं- हमारे भीतर कहां ताकत है? यह काम तो बड़े साधु कर सकते हैं। आप भी कोशिश करें तो ईश्वर आपके साथ बात कर सकते हैं। आपके दोस्त बन सकते हैं। ऋषियों ने कहा है- अपनी शक्ति पहचानिए। खुद को ईश्वर से जोड़िए।

Monday, June 21, 2010

खत्म हो जाएगा सौ साल
में मनुष्य का अस्तित्व ?


विनय बिहारी सिंह


आस्ट्रेलिया के वैग्यानिक फ्रैंक फेनर ने कहा है कि वह समय आ रहा है जब मनुष्य का अस्तित्व रहेगा ही नहीं। इसमें सौ साल लगेंगे। उन्होंने कहा है कि सिर्फ मनुष्य ही नहीं, कई जीव- जंतु भी लुप्त हो जाएंगे। कारण? ग्लोबल वार्मिंग के अलावा वायुमंडल में जो परिवर्तन आ रहे हैं, वे मनुष्य के रहने के अनुकूल नहीं हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे वायुमंडल में जो गैसे हैं, जो रासायनिक और आणविक परिवर्तन होते जा रहे हैं, उनके कारण मनुष्य का जीवन घटता जा रहा है। फ्रैंक फेनर कोई साधारण वैग्यानिक नहीं हैं। उन्होंने ने ही स्माल पाक्स रोग के लिए कारगर टीके का अविष्कार किया था। अब चेचक से किसी का चेहरा बदरूप नहीं होता। वरना एक जमाने में चेचक से बदरूप हुए चेहरे खूब दिखाई देते थे। पूरे चेहरे पर चेचक के गड्ढे हो जाते थे। फ्रैंक फेनर के अविष्कार के कारण मनुष्य आज ऐसे खतरनाक रोग से मुक्त हो गया है। एक तो ज्यादातर लोग यूं ही लापरवाही से जीवनयापन कर रहे हैं। किसी ने सिगरेट आफर की तो पी लिया। किसी ने शराब आफर की तो वह भी पी लिया। खराब तेल या घी में तले समोसे दिए तो खा लिया। सतर्कता नहीं है। यह समोसा पेट के भीतर जा कर कितना गड़बड़ करेगा, इसकी चिंता नहीं है। ऐसे खाद्य पदार्थ पेट में जा कर एसिड की तरह जलन तो पैदा नहीं करते। ये धीमा जहर होते हैं। खूब तली- भुनी चीजें पाचन शक्ति को नष्ट करती हैं। आपके पाचन तंत्र को डिस्टर्ब करके छोड़ देती हैं। अगर यह डिस्टर्बेंस बार- बार होता रहेगा तो हो सकता है आपका पाचन तंत्र एकदम से चौपट हो जाए। तब जो पूड़ी (इसे बंगाल में लूची कहते हैं) या कचौड़ी या समोसे या ब्रेड पकौड़ा
या मालपूआ आप कभी- कभार खाते थे, वह भी खाना बंद हो जाएगा। एक डायटीशियन का कहना था कि आप महीने में एक दिन पूड़ी, हलवा या कचौड़ी या समोसा या पराठा खाएं तो चलेगा। लेकिन आए दिन ये चीजें खाएंगे तो कोलेस्टेराल और फैट की मात्रा घातक ढंग से बढ़ सकती है। अब आप कहेंगे कि जब सौ साल में मनुष्य ही नहीं रहेगा तो इस तरह के परहेज का फायदा क्या? तो इसका जवाब है- फायदा है। जब तक आप जीवित हैं, आप स्वस्थ तो रहेंगे। ईश्वर भक्ति के लिए स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन होना जरूरी है। लेकिन अगर आप शारिक रूप से स्वस्थ नहीं है तो भी ईश्वर से प्रेम करना आप क्यों छोड़ेंगे? भगवान के प्रेम के बिना जीवन अधूरा और अशांत है।

Saturday, June 19, 2010

हमारा अपना प्रियतम


विनय बिहारी सिं


जो लोग यह कहते हैं कि इस दुनिया में उनका कोई नहीं है, वे ईश्वर से अनजान हैं। इस दुनिया में हर मनुष्य और जीव जंतु का भरण- पोषण, देखभाल ईश्वर कर रहे हैं। जब आपके साथ कोई नहीं होता तो भी ईश्वर होते हैं। वे हमारे अपने प्रियतम हैं। लेकिन कोई कैसे कह देता है कि दुनिया में उसका कोई नहीं है? ईश्वर हमारे जीवन में ही नहीं मृत्यु के बाद भी हमारे साथ रहते हैं। आज आपका एक नाम है, पता- ठिकाना है, आपका एक चेहरा है जिसे आप रोज आइने में देखते हैं। लेकिन जैसे ही मृत्यु होगी, ये सारी पहचानें नष्ट हो जाएंगी। फिर आप किसी और जगह जन्म लेंगे, किसी और नाम औऱ चेहरे के साथ, किसी और पता- ठिकाने के साथ। फिर इस जन्म की सारी चीजें आप भूल जाएंगे। हमारा शास्वत घर ईश्वर के प्रेम में है। ईश्वर से प्रेम ही एक मात्र ऐसा उपाय है कि हम हमेशा आनंद में रह सकते हैं। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- सोते, जागते, उठते, बैठते, चलते- फिरते और यहां तक सोचते हुए भी ईश्वर के संपर्क में रहिए। उन्हीं की शक्ति से हम अपना कोई काम कर पाते हैं। हम अकेले या बेसहारा नहीं हैं। ईश्वर हैं, यह सच्चाई है। लेकिन हम अपने प्रपंचों में इतने मशगूल हैं कि ईश्वर को दूर बैठा हुआ समझते हैं। जबकि वे तो हमारे हृदय में हैं। उन्हें महसूस करने की जरूरत है।

Thursday, June 17, 2010

क्षेत्र और क्षेत्रग्य

विनय बिहारी सिंह

गीता के १३वें अध्याय में अर्जुन ने भगवान कृष्ण से प्रश्न किया है कि क्षेत्र कौन है? औऱ क्षेत्रग्य कौन है? भगवान ने उत्तर दिया है- यह शरीर और मन, बुद्धि आदि क्षेत्र हैं। इंद्रिय, मन और बुद्धि से मनुष्य जो कुछ करता है, वह संचित होता जाता है औऱ उसका फल आने वाले समय में मिलता है। भगवान कृष्ण यह संकेत देते हैं कि जैसा करोगे, वैसा भरोगे। इसलिए हमेशा अच्छा सोचना और करना चाहिए औऱ फल की चिंता छोड़ देनी चाहिए। ईश्वर सब देख रहे हैं। तुलसीदास ने भगवान के बारे में कहा है-


पग बिनु चलै, सुनै बिनु काना।
कर बिनु करै कर्म बिधि नाना।।


ईश्वर के पैर नहीं हैं लेकिन वे चलते हैं। कान नहीं हैं लेकिन सुनते हैं। आपके मन में क्या चल रहा है, यह और कोई भले न जाने ईश्वर को मालूम है। भगवान कहते हैं- जो मेरे ऊपर पूर्ण निर्भर हो गया है, उसे मैं नहीं तो कौन देखेगा। यह भगवान का वचन है। संकट में आपको सारे लोग छोड़ देंगे, लेकिन ईश्वर आपका हाथ पकड़े रहेंगे। एक वही हैं जो अपने हैं। लेकिन क्षेत्र में यानी खेत में अगर आप बबूल बोते हैं तो फिर मधुर फल कहां से पाएंगे। किसी कवि ने कहा है-
बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाय।।


इसीलिए संतों ने कहा है- कुछ भी करने और बोलने से पहले सोचिए। सावधानी से बोलने और व्यवहार करने से हम सुखी रहेंगे।

Wednesday, June 16, 2010

जो राम हैं, वही कृष्ण और वही शिव

विनय बिहारी सिंह


कल शिव पुराण पढ़ रहा था। उसमें भगवान शिव ने कहा है - जो व्यक्ति मेरी पूजा करता है और विष्णु से वैर करता है, वह मेरा भक्त नहीं है। मुझे तत्काल रामचरित मानस में भगवान राम का कथन याद आया। रामेश्वरम में शिवलिंग स्थापित करने के बाद उन्होंने कहा-

शिव द्रोही मम दास कहावा।
सोई नर सपनेहुं मोंहि न पावा।।

यानी शिव जी से घृणा और मुझसे (भगवान राम से) प्रेम करने वाला व्यक्ति मुझे सपने में भी नहीं पा सकता। इसका अर्थ यह है कि जो राम हैं, वही कृष्ण हैं और वही भगवान शिव। शिव पुराण में शिव जी भगवान विष्णु से प्रेम करने को कहते हैं। सभी जानते हैं कि भगवान राम और कृष्ण भगवान विष्णु के ही अवतार हैं। इस तरह स्वयं शिव जी और राम जी कहते हैं कि दोनों एक ही हैं। एक दिन एक शिव भक्त ने मां आनंदमयी से पूछा- मैं शिव भक्त हूं। आज कृष्ण जन्माष्टमी है। मैं कैसे कृष्ण की पूजा करूं। मेरे मन में तो शिव जी बैठे हुए हैं। मां आनंदमयी हंसीं। बोलीं- तुम किसी के पुत्र हो, किसी के पिता तो किसी के पति। अलग- अलग परिचय होने पर भी तुम एक हो। उसी तरह राम, कृष्ण और शिव, दुर्गा या काली सब एक ही हैं। तुम्हें जो नाम पसंद आए वही ले लो। उसी में डूब जाओ, भगवान ही मिलेंगे। एको ब्रह्म, द्वितीयो नास्ति। भगवान तो एक ही हैं। हां, उनके रूप अलग- अलग हैं। क्यों रूप अलग- अलग हैं? रामचरित मानस में तुलसीदास ने लिखा है- जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।।
इसलिए कि किसी चरम भक्त ने भगवान को मां के रूप में देखा। किसी ने मनोहारी कृष्ण के रूप में देखा तो किसी ने मां काली के रूप में देखा जो कुप्रवृत्तियों का संहार करती हैं और सदगुणों की रक्षा करती हैं। किसी को भगवान में वात्सल्य रस चाहिए। वह बाल गोपाल को पुत्र के रूप में देखता और उसी रूप को प्यार करता है। यशोदा भाव है यह। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आपको तो चुनने की आजादी है। बस मन में अनन्य प्रेम चाहिए। गहरा प्रेम।

Tuesday, June 15, 2010

मन को भगवान में स्थिर कैसे करें

विनय बिहारी सिंह


यह प्रश्न जितनी बार मेरे पास आता है, उतनी बार ऋषियों की बातें याद आती हैं। ऋषि पातंजलि ने कहा है- योगश्चित्तवृत्ति निरोधः। चित्त की वृत्तियों को रोकने का नाम ही योग है। चित्त की वृत्तियां क्या हैं? जैसे आप शांत तालाब में कोई पत्थऱ का टुकड़ा फेंक दें। पानी अस्थिर हो जाएगा और जहां पत्थर फेंका गया है, वहां गोल- गोल वृत्ताकार तरंगें बनने लगेंगी। हमारा दिमाग भी वैसे ही है। हमारा मन भी वैसा ही है। कुछ न कुछ वह सोचता रहता है। कल्पनाएं करता रहता है। यानी वृत्तियां चलती रहती हैं। तरंगें उठती रहती हैं। उन्हें कैसे रोकें? भगवान कृष्ण ने कहा है- अभ्यास औऱ वैराग्य से। इस दुनिया से आप चले जाएंगे तो भले ही आपके स्वजन रोएंगे, दुख मनाएंगे, लेकिन कुछ दिनों बाद फिर वे अपनी दुनिया में रम जाएंगे। आप अतीत बन जाएंगे। आप भुला दिए जाएंगे। उसके बाद एक पीढ़ी ऐसी आएगी कि जो आपसे कोई मतलब ही नहीं रखेगी। यही सच्चाई है। किसी कवि ने कहा है- पानी केरा बुदबुदा अस मानुष की जात।। यानी पानी के बुलबुले जैसा है मनुष्य का जीवन। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- अगर हम देहात्मिका बुद्धि से चलेंगे तो इस दुनिया में वैसे ही रहेंगे जैसे परदेस में कोई अजनबी। हम देह नहीं हैं। हम आत्मा हैं। मरने के बाद यह देह यहीं रह जाती है और हमारी आत्मा अनंत में चली जाती है। लोग कहते हैं- अमुक इस दुनिया से चले गए। मृत देह यहीं पड़ी रहती है औऱ कहा जाता है कि अमुक इस दुनिया से चले गए। तो यही है जीवन। तो क्यों न इन बातो को याद कर भगवान में मन को स्थिर रखें। जब यह बात याद रहेगी कि हमारा जीवन पानी का बुलबुला है तो भगवान में अपने आप मन चला जाएगा। बल्कि मन भगवान में ही रमा रहेगा। क्योंकि और कहीं तो सुख है नहीं। सूरदास ने कहा है- मेरो मन अनत कहां सुख पावै। यानी मेरे मन अन्यत्र कहीं सुख नहीं पाता। सुख तो सिर्फ ईश्वर में ही है।

Monday, June 14, 2010

साकार की पूजा करें कि निराकार की?

विनय बिहारी सिंह

गीता के १२वें अध्याय में अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि कौन सा भक्त श्रेष्ठ है- साकार भगवान की पूजा करने वाला या निराकार भगवान की। इसके पहले अर्जुन भगवान का प्रत्यक्ष दर्शन कर चुका है। लेकिन फिर भी उसके मन में उत्सुकता है कि साकार श्रेष्ठ है या निराकार। भगवान कृष्ण ने कहा है- दोनों ही श्रेष्ठ हैं। साकार की भक्ति करने वाला उतना ही श्रेष्ठ है जितना निराकार भगवान की। लेकिन निराकार की पूजा करने में देहधारी मनुष्य को कठिनाई आती है। वह किसी रूप, किसी आकार में भगवान की कल्पना करता है। इस तरह उस रूप और आकार की भक्ति आसान होती है। लेकिन भगवान का कहना है कि चाहे किसी भी तरह भक्ति की जाए, अगर अनन्य भक्ति है तो वह भक्त भगवान को अत्यंत प्रिय है। परमहंस योगानंद ने कहा है कि भगवान चाहते हैं कि भक्त उनके साथ व्यक्तिगत संबंध बनाए। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है- भक्त यह माने कि ईश्वर ही उसके माता, पिता, मित्र और प्रेमी सबकुछ हैं। वह उन्हीं पर निर्भर रहे। एक एकनिष्ठता जैसे जैसे मजबूत होती जाएगी, भक्त ईश्वर के करीब होता जाएगा। एक समय ऐसा आएगा कि उसके आनंद की सीमा नहीं रहेगी। भक्त और भगवान एक हो जाएं तो यह सर्वोच्च स्थिति है। भक्त को अपना भान न रहे कि उसका कोई अस्तित्व है। वह सिर्फ और सिर्फ भगवान को ही महसूस करे। तब जो आनंद की स्थिति होगी, वह अकथनीय है। भगवान का आनंद कौन नहीं चाहेगा?

Saturday, June 12, 2010

(courtesy- BBC Hindi service)

सूर्य के लिए

नासा की दूरबी

सूर्य

सूर्य के बारे में इससे पहले इतना विस्तृत अध्ययन नहीं किया गया था

अमरीकी अंतरिक्ष केंद्र नासा सूर्य के अध्ययन के लिए अंतरिक्ष में एक दूरबीन स्थापित करने जा रहा है.

यह दूरबीन वैज्ञानिकों को हाई रिज़ोल्यूशन तस्वीरें भेजेगा जिसके सहारे वे यह अध्ययन कर सकेंगे कि सूर्य की गतिविधियाँ किस तरह की हैं.

इसमें उन चुंबकीय शक्तियों का अध्ययन किया जाएगा जिससे सूर्य में धब्बे दिखाई देते हैं और सूर्य धधकता है, जिसकी वजह से संचार व्यवस्था, सैटेलाइट और विद्युत उपकरण काम करना बंद कर सकते हैं.

'सोलर डायनामिक ऑब्ज़र्वेटरी' का मिशन पाँच साल का होगा और यह हर 24 घंटे में पृथ्वी की परिक्रमा करेगा.

बदलता सितारा

सूर्य

सूर्य की शक्तिशाली चुंबकीय शक्ति की वजह से बहुत से परिवर्तन होते हैं

सूर्य एक ऐसा सितारा है जो हमेशा बदलता रहता है.

कभी वह शांत रहता है तो कभी एकाएक धधकने लगता है और ऐसे लाखों निवेशित कण विसर्जित करता है जिससे कि पृथ्वी कर विद्युत और संचार तंत्र काम करना बंद कर सकते हैं.

सूर्य की इन गतिविधियों के पीछ उसका शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र है जिसमें बहुत अधिक ऊर्जा समाई होती है और जब वे इसे छोड़ते हैं तो तेज़ किरणें पैदा होती हैं.

यह दूरबीन सेकेंड के हर तीसरे हिस्से में पूरे सूर्य की हाई डेफ़िनिशन तस्वीरें खींचेगा.

इस दूरबीन की तस्वीरें किसी हाई डैफ़िनिशन टीवी कैमरे की तस्वीर की तुलना में दस गुना बेहतर होंगीं.

इससे वैज्ञानिक सूर्य के बारे में वो जानकारी हासिल कर सकेंगे, जो अब तक उपलब्ध नहीं है.

Friday, June 11, 2010

स्वास्थ्य पर नजर रखने वाला अंडरवियर

विनय बिहारी सिंह


खिर वैग्यानिकों ने स्वास्थ्य के बारे में जानने का आसान तरीका ढूंढ़ ही लिया। उन्होंने एक ऐसा अंडरवियर बनाया है जिसमें हाई सुपर सेंसर लगे होते हैं। ये सेंसर आपका रक्तचाप, ब्लड सुगर, कोलेस्टेराल और अन्य शारिरिक स्थितियों का हाल बताते रहेंगे। यानी आपको किसी पैथालाजिकल लैबोरेटरी के चक्कर नहीं लगाने पड़ेंगे। ये सेंसर अंडरवियर के कमर वाले हिस्से में फिट किए गए हैं। इसे पहनने के बाद आप सीधे डाक्टर के पास जा सकते हैं। डाक्टर आपको एक कंप्यूटर के सामने बैठाएंगे और स्क्रीन पर आपके शरीर का पूरा हालचाल आ जाएगा। बैड कोलेस्टेराल- इतना, ब्लड सुगर- इतना, फैट- इतना, ब्लड प्रेशर- इतना, यूरिया- इतना..... वगैरह, वगैरह। अब डाक्टर आपकी तकलीफ से इस पूरी रिपोर्ट को कोआर्डिनेट करेंगे। मिनटों में आपका रोग पकड़ लिया जाएगा और कौन सी दवा आपको दी जाए या किस परहेज से आप ठीक हो सकते हैं, इसकी राय दी जाएगी। चूंकि आपका सेंसर कंप्यूटर से कनेक्ट हो गया, इसलिए डायटीशियन के लिए भी यह सुविधाजनक हो जाएगा। डायटीशियन आपको बता सकेंगे कि कौन सा भोजन आपके लिए ज्यादा बेहतर है और कौन सी चीज खाने से आपको एलर्जी हो सकती है।
शेल से हड्डियां बनाने का प्रयोगः वैग्यानिकों ने समुद्र में पाए जाने वाले शेल वाले जंतुओं से हड्डियां बनाने में सफलता पा ली है। आने वाले दिनों में इन कृत्रिम हड्डियों को डाक्टर रोगी में ट्रांसप्लांट कर सकेंगे। ये हड्डियां बिल्कुल प्राकृतिक हड्डियों के मानिंद काम करेंगी। रोगी को काफी राहत मिल सकेगी।

Thursday, June 10, 2010

कहानी जो साधना में भी लागू होती है

विनय बिहारी सिंह

हम सभी लोगों ने कछुआ और खरगोश की कहानी पढ़ी है। यह कथा साधना में भी लागू होती है। लेकिन कई साधक कुछ दिन साधना और भजन के बाद उम्मीद करने लगते हैं कि उन्हें भगवान के दर्शन होंगे। अब तो भगवान प्रकट होंगे ही। यानी एक तरह का उतावलापन। अधैर्य। भगवान किसी को कब अपने होने का अहसास कराएंगे, यह हम कैसे तय कर सकते हैं? यह तो उनका अधिकार है। जो भक्त यह बात भगवान पर छोड़ देते हैं, वही सुखी हैं। जो लोग खरगोश की तरह शुरू में बड़े जोश में साधना या जप या हनुमान चालीसा का पाठ शुरू करते हैं, उनमें से कई बाद में सुस्त हो कर बैठ जाते हैं। वे कहते पाए जाते हैं- साल भर तो जप किया। क्या फायदा हुआ? अब नहीं करूंगा जप। बस हो गया उनकी साधना का अंत। लेकिन जो कछुआ प्रवृत्ति के साधक हैं उनमें धैर्य रहता है। वे शुरू में जिस उत्साह में रहते हैं, अंत तक उसी उत्साह से जप करते हैं। कोई एक नाम ले लिया- राम, राम, राम या नमः शिवाय, नमः शिवाय, नमः शिवाय या कृष्ण या दुर्गा या काली। बस उसी का जाप कर रहे हैं। हर रोज उन्हें इंतजार रहता है कि कब एकांत मिले और कब वे जाप करें। जो अभ्यस्त हो गए हैं वे तो एकांत नहीं मिलने पर भी मौन जाप करते रहते हैं। वे चाहे भीड़ में ही क्यों न हों- मन ही मन- राम, राम, राम कहते जा रहे हैं। और तोते की तरह नहीं। जब राम कहते हैं तो वे राम में समाए हुए होते हैं। उनका प्राण राम में ही होता है। यह नहीं कि माला जप रहे हैं और मन बेमतलब हजार जगहों का चक्कर लगा रहा है। वे पूरी एकाग्रता, पूरी तन्मयता और अत्यंत गहरी आस्था के साथ जप करते हैं। इसी तरह ध्यान करने वाले या किसी पवित्र ग्रंथ का पाठ करने वाले होते हैं। पूरी तरह ईश्वर में डूबे हुए। उनमें यह उदासी नहीं होती कि इतने दिन से तो पूजा- पाठ कर रहे हैं, कोई चमत्कार नहीं हुआ। चमत्कारों की आशा मत कीजिए। ईश्वर प्रेम की आशा कीजिए। आनंदमयी मां कहती थीं- पहले ईश्वर को प्रेम देना पड़ता है। फिर वही प्रेम कई गुना हो कर हमारे पास आने लगता है।

Wednesday, June 9, 2010

एक और रोचक कथा


विनय बिहारी सिंह


क गांव में कुछ मजदूर पत्थर के खंभे बना रहे थे। उधर से एक साधु गुजरे। उन्होंने एक मजदूर से पूछा- यहां क्या बन रहा है? उसने कहा- देखते नहीं पत्थर काट रहा हूं? साधु ने कहा- हां, देख तो रहा हूं। लेकिन यहां बनेगा क्या? मजदूर झुंझला कर बोला- मालूम नहीं। यहां पत्थर तोड़ते- तोड़ते जान निकल रही है और इनको यह चिंता है कि यहां क्या बनेगा। साधु आगे बढ़े। एक दूसरा मजदूर मिला। साधु ने पूछा- यहां क्या बनेगा? मजदूर बोला- देखिए साधु बाबा, यहां कुछ भी बने। चाहे मंदिर बने या जेल, मुझे क्या। मुझे तो दिन भर की मजदूरी के रूप में १०० रुपए मिलते हैं। बस शाम को रुपए मिलें और मेरा काम बने। मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि यहां क्या बन रहा है। साधु आगे बढ़े तो तीसरा मजदूर मिला। साधु ने उससे पूछा- यहां क्या बनेगा? मजदूर ने कहा- मंदिर। इस गांव में कोई बड़ा मंदिर नहीं था। इस गांव के लोगों को दूसरे गांव में उत्सव मनाने जाना पड़ता था। मैं भी इसी गांव का हूं। ये सारे मजदूर इसी गांव के हैं। मैं एक- एक छेनी चला कर जब पत्थरों को गढ़ता हूं तो छेनी की आवाज में मुझे मधुर संगीत सुनाई पड़ता है। मैं आनंद में हूं। कुछ दिनों बाद यह मंदिर बन कर तैयार हो जाएगा और यहां धूमधाम से पूजा होगी। मेला लगेगा। कीर्तन होगा। मैं यही सोच कर मस्त रहता हूं। मेरे लिए यह काम, काम नहीं है। मैं हमेशा एक मस्ती में रहता हूं। मंदिर बनाने की मस्ती में। मैं रात को सोता हूं तो मंदिर की कल्पना के साथ और सुबह जगता हूं तो मंदिर के खंभों को तराशने के लिए चल पड़ता हूं। बीच- बीच में जब ज्यादा मस्ती आती है तो भजन गाने लगता हूं। जीवन में इससे ज्यादा काम करने का आनंद कभी नहीं आया। साधु ने कहा- यही जीवन का रहस्य है मेरे भाई। बस नजरिया का फर्क है। कोई काम को बोझ समझ रहा है और पूरा जीवन झुंझलाते और हाय- हाय करते बीत जाता है। लेकिन कोई काम को आनंद समझ कर जीवन का लुत्फ ले रहा है। जैसे तुम।

Tuesday, June 8, 2010

दुख को लेकर परेशान न हों

विनय बिहारी सिंह

हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामया।। यानी सभी सुखी हों, सबको शांति मिले। ऋषियों ने यह नहीं कहा है कि मुझे सुख मिले, मुझे शांति मिले। उन्होंने सबके लिए यह कामना की है। लेकिन अनेक लोग संकुचित हृदय वाले भी होते हैं। उनकी इच्छा रहती है कि मैं सुखी रहूं, बाकी दुनिया चाहे जैसे रहे। यह हमारे चिंतन को सीमित कर देता है। इस दुनिया में आज भी ऐसे लोग हैं जो चुपचाप दूसरों के लिए कुछ न कुछ कर रहे हैं। परोपकार कर रहे हैं। उन्हें कोई नहीं जानता। वे बस गुमनाम रह कर ही समाज सेवा का आनंद ले रहे हैं। अगर आप उनका नाम छापना चाहें तो वे मना कर देते हैं। वे कहते हैं- नाम छपवाने के लिए तो हमने सेवा कार्य किया नहीं। नाम छप जाने से हमारा सेवा का आनंद खत्म हो जाएगा। लेकिन हममें से कई लोग तो सिर्फ और सिर्फ अपने बारे में ही सोचते और परेशान रहते हैं। उन्हें अपना ही दुख, अपनी ही तकलीफ सबसे बड़ी नजर आती है। ऐसा इसलिए कि वे अपने अलावा किसी की तरफ देखते ही नहीं। अगर देखें तो पता चले कि उनसे भी ज्यादा दुखी लोग इस संसार में हैं। यह ग्यान न होने के कारण ही अपना दुख बहुत बड़ा दिखता है। एक बार अगर दृष्टि व्यापक हो तो अपना दुख छोटा हो जाएगा। फिर आप कहेंगे कि हम अपने सुख की बात न सोचें तो किसकी बात सोचें? सारी दुनिया तो अपने बारे में, अपने परिवार के बारे में ही सोचती है। ऋषियों के कहने का अर्थ यह नहीं है कि आप धन उपार्जित करना छोड़ दें या अपनी समृद्धि के बारे में प्रयास करना छोड़ दें। नहीं। आप अपना व्यवसाय या नौकरी खूब जम कर कीजिए। खूब पैसा कमाइए। लेकिन आपके मन में दया, करुणा और प्रेम भी रहे। किसी की मदद कर सकते हों तो कर दीजिए। चाहे पांच रुपए से ही सही। बस। आजकल के लिए यही है- सर्वे भवंतु सुखिनः। हमारे एक परिचित हैं। वे हर दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में एक नया कंबल लेकर निकलते हैं और अपनी कार से तमाम फुटपाथों का चक्कर लगाते रहते हैं। जो गरीब जाड़े से ठिठुरता कांपता दिखता है, बस उसे चुपचाप ओढ़ा देते हैं और बिना एक मिनट रुके वे गाड़ी में बैठते हैं और घर चल पड़ते हैं। वे कहते हैं- मुझे इसमें बड़ा आनंद मिलता है। उनके लिए यह सबसे बड़ा सुख है । इससे भी मनुष्य का दुख कम होता है। आप दूसरे के दुख को कम कीजिए, भगवान आपके दुख को कम करते हैं। ।

Monday, June 7, 2010

ताहि बोओ तुम फूल


विनय बिहारी सिंह


बचपन में मैंने छठी कक्षा में एक दोहा पढ़ा था- जा तोके कांटा बोए, ताहि बोओ तुम फूल।।
यानी जो तुम्हारे रास्ते में कांटा बिछाए उसके लिए तुम फूल बिछाओ। जो तुम्हारे लिए बुरा करे, उसके लिए तुम अच्छा करो। सामान्य तौर पर अगर हमारे लिए कोई कुछ बुरा करता है तो उसके प्रति मन में कड़वाहट रहती है। उसे देखने से ही मन खराब हो जाता है। आप कहेंगे कि जिसने यह दोहा लिखा है, उसी के लिए ऐसा करना संभव है, आम आदमी के लिए तो यह संभव नहीं है। लेकिन ठहरिए। मान लीजिए किसी ने आपके साथ दुर्व्यवहार किया। आपको उस समय बुरा लगा। लेकिन ऋषि- मुनियों ने कहा है कि क्षमा करने वाला महान व्यक्ति होता है। ईश्वर प्रेमियों को पहला पाठ पढ़ाया जाता है कि वे क्षमा करना सीखें। हां, यह कठिन काम है। लेकिन अगर आप अभ्यास करेंगे तो आपके आनंद की सीमा नहीं रहेगी। कोई घटना गांठ बांध कर नहीं रखनी चाहिए। गांठों को खोल दीजिए। फिर देखिए आप कितनी राहत महसूस करते हैं। क्षमा एक ऐसा शस्त्र है जिससे आपके चारो ओर रक्षा कवच बन जाता है। हमारे सारे शास्त्र यही शिक्षा देते हैं। अब आप कहेंगे कि जैसे को तैसा क्यों नहीं करें? लेकिन एक बार क्षमा करके देखिए। प्रयोग के तौर पर ही। किसी छोटे से अपराध को क्षमा करके देखिए। तब पता लगेगा कि सुख क्या है। हमारे दिमाग में कई तरह की गांठे हैं। उन्हें हम्हीं खोल सकते हैं। दूसरा वहां पहुंच नहीं सकता। हमें अपना उद्धार स्वयं करना है तब भगवान हमारी मदद करेंगे। पहले हमें ही अपने दिमाग का कमरा साफ कर चमकाना होगा। तब भगवान उसमें स्थायी रूप से रहने लगेंगे। ।

Saturday, June 5, 2010

कछुआ और मधुमक्खी

विनय बिहारी सिंह

रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि भक्त को मधुमक्खी से सीख लेनी चाहिए। जैसे मधुमक्खी सिर्फ मधु की ही खोज में रहती है और मीठे रस वाले फूलों, फलों पर ही बैठती है, ठीक वैसे ही भक्त को भगवान के अलावा कुछ दिखना ही नहीं चाहिए। जहां मधु की गंध लगे, बस वहीं भक्त पहुंच जाए। शरीर से नहीं, मन से। साधक बैठे बैठे ही ईश्वर की गोद में चला जाता है। यानी भगवान का स्मरण हर वक्त रहे। परमहंस योगानंद जी मधुमक्खी का यह उदाहरण तो देते ही थे। कहते थे- भक्त को कछुआ से भी सीख लेनी चाहिए। जैसे कछुआ को कोई जरा सा छू दे तो वह अपने सारे अंगों को अपनी खोल के भीतर छुपा लेता है, ठीक उसी तरह भक्त को ध्यान के समय अपनी सारी इंद्रियों को समेट कर भगवान को अर्पण कर देना चाहिए। बस इंद्रियां रहेंगी और न कामना। रहेंगे तो सिर्फ भगवान। आप औऱ भगवान। बीच में कोई नहीं। यह जो दिमाग हर वक्त चंचल रहता है, बिल्कुल शांत और आनंद में रहने का अभ्यस्त हो जाएगा।
इन दोनों उच्च कोटि के संतों ने हमें जो बताया है, अगर वही कर दें तो जीवन धन्य हो जाए। बस एक बार दृढ़ निश्चय की जरूरत है। मन का लय होना ही ध्यान है। जब अपना होश न रहे और लगे कि सिर्फ एक ही सत्ता है- भगवान। तो ध्यान सफल है। अन्यथा मैं यानी अपने होने का ख्याल जब तक है, ध्यान संपूर्ण नहीं हुआ। हमारी लाख कोशिशों से कई बार परिस्थितियां नहीं बदलतीं। लेकिन भगवान की कृपा होते ही वही परिस्थितियां क्षण भर में बदल जाती हैं। आप राहत महसूस करने लगते हैं। यह भगवान का संसार है। वही इसे चला रहे हैं। उन पर भरोसा न करके, मन कहीं और जाए तो इससे बड़ा दोष और क्या होगा?

Thursday, June 3, 2010

(courtesy BBC Hindi service)

ग्रह को खाने वाला नक्षत्र

ग्रह को ग्रसता नक्षत्र

हबल के ब्यौरे के आधार पर वैज्ञानिकों ने ग्रसे जा रहे ग्रह की तस्वीर बनाई है.

अंतरिक्ष टेलिस्कोप हबल ने ये सबूत हासिल किया है कि सूर्य जैसा नक्षत्र एक ग्रह को निगल रहा है.

खगोलशास्त्री ये तो पहले से ही जानते हैं कि नक्षत्र अपने आस पास घूमने वाले ग्रहों को ग्रस लेते हैं, लेकिन पहली बार इस नज़ारे को इतना साफ़ देखा गया है.

वास्प-12 बी नाम के ग्रह को ग्रस रहे नक्षत्र से हबल इतनी दूर है कि ठीक से तस्वीर नहीं ली जा सकती.

ये शोध 'एस्ट्रोफ़िज़िकल जर्नल लैट्रस' में छपा हैं.

शोधकर्ताओं का कहना है कि वास्प-12बी की उम्र शायद एक करोड़ साल और हो, क्यों कि उसके बाद उसके पूरी तरह विलुप्त हो जाने के आसार हैं.

वास्प 2 बी अपने को निगलते जा रहे इस नक्षत्र के इतने नज़दीक है कि 1500सी से ज़्यादा तपिश में जलता जा रहा है.

इतना कम अंतर होने के कारण वास्प 12 बी का वातावरण बृहस्पति ग्रह के अर्द्ध व्यास से तीन गुना ज़्यादा फैल गया है.

इसी कारण वास्प-12बी का पदार्थ नक्षत्र पर बिखरता जा रहा है.

ब्रिटेन की ओपन यूनिवर्सिटी के शोध दल की प्रमुख कैरोल हैसवेल का कहना है, “ग्रसे जा रहे ग्रह के चारों तरफ़ पदार्थ का एक विशाल बादल सा देख रहे हैं, जिसके कारण नक्षत्र इस पर क़ाबू पा लेगा.”

हबल से पदार्थ के इस बादल की जानकारी मिलने के बाद ही वैज्ञानिक इसकी व्युत्पत्ति का पता लगा सके हैं.

डॉ हैसवेल ने कहा है, “पदार्थ के इस बादल में हमने जिन रासायनिक तत्वों का पता लगाया है वे हमारे सौर मंडल के अलावा और कहीं नहीं दिखते.”

वास्प-12 बी एक बौना ग्रह है जो कि तारामंडल से लगभग 6 सौ प्रकाशवर्ष की दूरी पर है.

एक रोचक कथा

विनय बिहारी सिंह

एक हंस और कौए में जान- पहचान हुई। कौए ने हंस से कहा- चलिए, मैं आपको अपने घर ले चलता हूं। हंस निर्मल मन से कौए के घर चला गया। कौआ एक बबूल के पेड़ पर रहता था। वहां चारो तरफ गंदगी थी। जूठन वगैरह गिरा हुआ था जो कौआ खा कर छोड़ जाता था। हंस ने कहा- भाई, इतनी गंदगी में तो मैं रह नहीं सकता। चलो कहीं और चलते हैं। कौआ उसे एक राजा के बगीचे में सुंदर से वृक्ष पर ले गया। शीतल, मंद और सुगंधित हवा चल रही थी। इन दोनों पक्षियों ने देखा कि उसी पेड़ के नीचे राजा बैठा है। राजा के सिर पर थोड़ी सी धूप आ रही थी। हंस ने राजा के सिर पर अपने पंख फैला दिए। तभी कौए को शरारत सूझी। उसने राजा के सिर पर शौच कर दिया। राजा के सुरक्षा गार्डों ने तुरंत तीर छोड़ा जो हंस को लगा और वह जमीन पर गिर पड़ा। कौआ भाग निकला। मरते हुए हंस ने राजा से कहा- महाराज, आपके ऊपर कौए ने शौच किया। मैंने तो आपको धूप से बचाने के लिए अपना पंख फैला रखा था। लेकिन मैं मारा इसलिए गया क्योंकि एक दुष्ट की बातों में आपके बगीचे में आ गया और उसी पेड़ पर बैठा जिसके नीचे आप बैठे थे। बहरहाल, मैं आपको और कौए को भी क्षमा करता हूं।
  • संतों की शिक्षा- दुष्ट प्रकृति के लोगों की बातों में नहीं आना चाहिए। भले ही वे कितने ही मधुर और विनम्र भाव से कुछ कहें, बात की तह में जा कर सच्चाई परख लेनी चाहिए। वैसे भी दुष्टों का संग नाश करने वाला ही होता है। हमेशा ईश्वर को अपना मित्र, हितैषी और प्रेमी समझें। वही हमारा सहारा है। वही हमसे सच्चा प्रेम करता है। उसी के लिए जीना है। हमेशा सत्संग करें। इस दुनिया में साधु पुरुष भी हैं। भले ही संख्या में कम हों।

Wednesday, June 2, 2010

ईश्वरीय नियम शास्वत हैं

विनय बिहारी सिंह

ठीक समय पर दिन और ठीक समय पर रात। ठीक समय पर फूलों का खिलना, ठीक समय पर चिड़ियों का चहचहाना और ठीक समय पर सर्दी या गर्मी या बरसात। अगर आपने खान- पान में या जीवन चर्या में गलती की और नियमों का उल्लंघन किया तो निश्चय ही आपको कई तरह के कष्ट होंगे। ईश्वर के नियम शास्वत हैं। इनमें कहीं कोई हेर फेर नहीं है। लेकिन फिर भी हम अपने में इतने गाफिल होते हैं कि इस पर गौर नहीं करते। समय बीत रहा है। उम्र एक- एक दिन कर बीत रही है। परमहंस योगानंद जी ने कहा है कि हमें हर रोज रात को बैठ कर थोड़ी देर के लिए ही सही, विश्लेषण करना चाहिए कि हमारा दिन कैसा गया। हमने पूरे दिन में क्या सकारात्मक काम किया। कहीं हमने किसी का दिल तो नहीं दुखाया, कहीं किसी के साथ गलत व्यवहार तो नहीं किया। ईश्वर को खुश करने वाला कौन सा काम किया। अगर हमें मनुष्य जीवन मिला है तो निश्चय ही रचनात्मक काम करने के लिए और ईश्वर को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। देहातों में आज भी कहा जाता है- बड़े भाग मानुष तन पावा। तो हम भाग्यशाली हैं कि हमें मनुष्य का शरीर मिला है। इस शरीर में हमें सात चक्र मिले हैं जिन्हें अगर ध्यान के द्वारा विकसित किया जाए तो ईश्वर की कृपा बरसेगी। बस सुबह और शाम या रात को थोड़ा समय ध्यान के लिए निकालना है। ईश्वर में डूब जाने के लिए, ईश्वर में लय होने के लिए। आप पाएंगे कि नींद से जितना आराम आपको नहीं मिलता, ध्यान से उसका कई गुना आनंद मिलता है। आजकल मल्टी नेशनल कंपनियों में कर्मचारियों को कहा जा रहा है कि वे तनाव कम करने के लिए ध्यान किया करें। चाहे दस मिनट के लिए ही सही। इससे मनुष्य अपने स्रोत से जुड़ जाता है। पता चलता है कि हम कहां से आए हैं और हमें अंत में कहां जाना है। बस, जीवन का केंद्र बिंदु ईश्वर ही हों। उन्हीं की शरण में शांति, आनंद और प्रेम का समुद्र मिलेगा।

Tuesday, June 1, 2010

थर्ड स्मोक के खतरे

विनय बिहारी सिंह

थर्ड स्मोक भी आपके लिए खतरा है। यह थर्ड स्मोक क्या है? मान लीजिए किसी ने कमरे में सिगरेट पी। उसके सिगरेट का धुआं वहां रखे अखबार और अन्य कागजों में सोख लिया जाता है। यहां तक कि मेज कुर्सियों में भी सोख लिया जाता है। इसका असर अगले दिन तक या उसके भी अगले दिन तक रहता है। अब मान लीजिए उस कमरे में घर का कोई बच्चा खेलने गया तो उस धुएं के बचे हुए अवशेष का उस पर बुरा असर पड़ेगा। धुएं के इस अवशेष को ही थर्ड स्मोक कहते हैं। वैग्यानिकों ने पाया है कि जिन घरों में सिगरेट या बीड़ी पी जाती है, उस घर के बच्चे अपने जीवन काल में या तो हृदय रोग या कैंसर से पीड़ित हो सकते हैं।
कोई व्यक्ति आपके कमरे में सिगरेट पीकर चला गया और आपने सोचा कि चलो धुआं तो अब है नहीं, यहीं बच्चे को लिटा देते हैं, तो यहीं से खतरा शुरू हो जाएगा। अब आते हैं जर्दा वाले पान और गुटका (पान मसाला) आदि पर। ये चीजें भी आपके लिए खतरा हैं। अगर किसी ने आपके घर की नाली में ही सही, पान की पीक थूक दी तो वैग्यानिकों का कहना है कि इसका आपके घर के पर्यावरण पर बुरा असर पड़ता है। जिन घरों में पान मसाला खाने वाले लोग हैं
उनके घर के लोगों पर भी इसका बुरा असर पड़ सकता है। इसीलिए तंबाकू निषेध दिवस पर सारे विशेषग्यों ने कहा- जो तंबाकू खाने या पीने के आदी हैं, उन्हें यह आदत छोड़ देनी चाहिए। एक सर्वे आया है कि युवा पीढ़ी के लोगों में सिगरेट पीने का चलन बढ़ रहा है। खासतौर से उन युवकों में जो काल सेंटरों में काम करते हैं। अभी तो पता नहीं चल रहा है, लेकिन जैसे ही उनकी उम्र चालीस पार करेगी, सिगरेट के दुष्प्रभाव का कहर उन पर टूट पड़ेगा। तंबाकू जहर है।