कछुआ और मधुमक्खी
विनय बिहारी सिंह
रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि भक्त को मधुमक्खी से सीख लेनी चाहिए। जैसे मधुमक्खी सिर्फ मधु की ही खोज में रहती है और मीठे रस वाले फूलों, फलों पर ही बैठती है, ठीक वैसे ही भक्त को भगवान के अलावा कुछ दिखना ही नहीं चाहिए। जहां मधु की गंध लगे, बस वहीं भक्त पहुंच जाए। शरीर से नहीं, मन से। साधक बैठे बैठे ही ईश्वर की गोद में चला जाता है। यानी भगवान का स्मरण हर वक्त रहे। परमहंस योगानंद जी मधुमक्खी का यह उदाहरण तो देते ही थे। कहते थे- भक्त को कछुआ से भी सीख लेनी चाहिए। जैसे कछुआ को कोई जरा सा छू दे तो वह अपने सारे अंगों को अपनी खोल के भीतर छुपा लेता है, ठीक उसी तरह भक्त को ध्यान के समय अपनी सारी इंद्रियों को समेट कर भगवान को अर्पण कर देना चाहिए। बस इंद्रियां रहेंगी और न कामना। रहेंगे तो सिर्फ भगवान। आप औऱ भगवान। बीच में कोई नहीं। यह जो दिमाग हर वक्त चंचल रहता है, बिल्कुल शांत और आनंद में रहने का अभ्यस्त हो जाएगा।
इन दोनों उच्च कोटि के संतों ने हमें जो बताया है, अगर वही कर दें तो जीवन धन्य हो जाए। बस एक बार दृढ़ निश्चय की जरूरत है। मन का लय होना ही ध्यान है। जब अपना होश न रहे और लगे कि सिर्फ एक ही सत्ता है- भगवान। तो ध्यान सफल है। अन्यथा मैं यानी अपने होने का ख्याल जब तक है, ध्यान संपूर्ण नहीं हुआ। हमारी लाख कोशिशों से कई बार परिस्थितियां नहीं बदलतीं। लेकिन भगवान की कृपा होते ही वही परिस्थितियां क्षण भर में बदल जाती हैं। आप राहत महसूस करने लगते हैं। यह भगवान का संसार है। वही इसे चला रहे हैं। उन पर भरोसा न करके, मन कहीं और जाए तो इससे बड़ा दोष और क्या होगा?
2 comments:
sahi kaha aapne...........bahut hi sundar udaharan diya hai madhumakkhi aur kachuye ka..........agar insaan itna kar le to bhav se paar na ho jaye.
sahee kaha
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