Thursday, June 10, 2010

कहानी जो साधना में भी लागू होती है

विनय बिहारी सिंह

हम सभी लोगों ने कछुआ और खरगोश की कहानी पढ़ी है। यह कथा साधना में भी लागू होती है। लेकिन कई साधक कुछ दिन साधना और भजन के बाद उम्मीद करने लगते हैं कि उन्हें भगवान के दर्शन होंगे। अब तो भगवान प्रकट होंगे ही। यानी एक तरह का उतावलापन। अधैर्य। भगवान किसी को कब अपने होने का अहसास कराएंगे, यह हम कैसे तय कर सकते हैं? यह तो उनका अधिकार है। जो भक्त यह बात भगवान पर छोड़ देते हैं, वही सुखी हैं। जो लोग खरगोश की तरह शुरू में बड़े जोश में साधना या जप या हनुमान चालीसा का पाठ शुरू करते हैं, उनमें से कई बाद में सुस्त हो कर बैठ जाते हैं। वे कहते पाए जाते हैं- साल भर तो जप किया। क्या फायदा हुआ? अब नहीं करूंगा जप। बस हो गया उनकी साधना का अंत। लेकिन जो कछुआ प्रवृत्ति के साधक हैं उनमें धैर्य रहता है। वे शुरू में जिस उत्साह में रहते हैं, अंत तक उसी उत्साह से जप करते हैं। कोई एक नाम ले लिया- राम, राम, राम या नमः शिवाय, नमः शिवाय, नमः शिवाय या कृष्ण या दुर्गा या काली। बस उसी का जाप कर रहे हैं। हर रोज उन्हें इंतजार रहता है कि कब एकांत मिले और कब वे जाप करें। जो अभ्यस्त हो गए हैं वे तो एकांत नहीं मिलने पर भी मौन जाप करते रहते हैं। वे चाहे भीड़ में ही क्यों न हों- मन ही मन- राम, राम, राम कहते जा रहे हैं। और तोते की तरह नहीं। जब राम कहते हैं तो वे राम में समाए हुए होते हैं। उनका प्राण राम में ही होता है। यह नहीं कि माला जप रहे हैं और मन बेमतलब हजार जगहों का चक्कर लगा रहा है। वे पूरी एकाग्रता, पूरी तन्मयता और अत्यंत गहरी आस्था के साथ जप करते हैं। इसी तरह ध्यान करने वाले या किसी पवित्र ग्रंथ का पाठ करने वाले होते हैं। पूरी तरह ईश्वर में डूबे हुए। उनमें यह उदासी नहीं होती कि इतने दिन से तो पूजा- पाठ कर रहे हैं, कोई चमत्कार नहीं हुआ। चमत्कारों की आशा मत कीजिए। ईश्वर प्रेम की आशा कीजिए। आनंदमयी मां कहती थीं- पहले ईश्वर को प्रेम देना पड़ता है। फिर वही प्रेम कई गुना हो कर हमारे पास आने लगता है।

2 comments:

आचार्य उदय said...

आईये सुनें ... अमृत वाणी ।

आचार्य जी

Udan Tashtari said...

बहुत आभार!