Monday, June 14, 2010

साकार की पूजा करें कि निराकार की?

विनय बिहारी सिंह

गीता के १२वें अध्याय में अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि कौन सा भक्त श्रेष्ठ है- साकार भगवान की पूजा करने वाला या निराकार भगवान की। इसके पहले अर्जुन भगवान का प्रत्यक्ष दर्शन कर चुका है। लेकिन फिर भी उसके मन में उत्सुकता है कि साकार श्रेष्ठ है या निराकार। भगवान कृष्ण ने कहा है- दोनों ही श्रेष्ठ हैं। साकार की भक्ति करने वाला उतना ही श्रेष्ठ है जितना निराकार भगवान की। लेकिन निराकार की पूजा करने में देहधारी मनुष्य को कठिनाई आती है। वह किसी रूप, किसी आकार में भगवान की कल्पना करता है। इस तरह उस रूप और आकार की भक्ति आसान होती है। लेकिन भगवान का कहना है कि चाहे किसी भी तरह भक्ति की जाए, अगर अनन्य भक्ति है तो वह भक्त भगवान को अत्यंत प्रिय है। परमहंस योगानंद ने कहा है कि भगवान चाहते हैं कि भक्त उनके साथ व्यक्तिगत संबंध बनाए। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है- भक्त यह माने कि ईश्वर ही उसके माता, पिता, मित्र और प्रेमी सबकुछ हैं। वह उन्हीं पर निर्भर रहे। एक एकनिष्ठता जैसे जैसे मजबूत होती जाएगी, भक्त ईश्वर के करीब होता जाएगा। एक समय ऐसा आएगा कि उसके आनंद की सीमा नहीं रहेगी। भक्त और भगवान एक हो जाएं तो यह सर्वोच्च स्थिति है। भक्त को अपना भान न रहे कि उसका कोई अस्तित्व है। वह सिर्फ और सिर्फ भगवान को ही महसूस करे। तब जो आनंद की स्थिति होगी, वह अकथनीय है। भगवान का आनंद कौन नहीं चाहेगा?

2 comments:

माधव( Madhav) said...

Bouncer

vandana gupta said...

सही कहा………………यही तो इस मानव जीवन का परम उद्देश्य है और यदि एक बार इसे प्राप्त कर लिया तो फिर अपना अस्तित्व बचता ही नही।
उपासना कोई भी की जाये चाहे साकार या निराकार मगर आखिरी उद्देश्य तो उस परम आनन्द को प्राप्त करना ही होता है।