Wednesday, September 9, 2009

शरीर के पांच कोष



विनय बिहारी सिंह


संतों ने कहा है कि हमारे शरीर में पांच कोष होते हैं- अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विग्यानमय कोष और आनंदमय कोष। अन्नमय कोष से आगे बढ़ते हुए आनंदमय कोष तक सूक्ष्म से सूक्ष्मतम की यात्रा है। अन्नमय कोष यानी हमारा स्थूल शरीर। अन्न से पोषित शरीर। जो लोग शरीर को ही सब कुछ मानते हैं, वे अन्नमय कोष तक ही सीमित रहते हैं। यानी वे खाना, पहनना, घूमना और शरीर को ही सबकुछ समझना अंतिम कर्तव्य मानते हैं। इससे आगे है प्राणमय कोष। हमारा श्वांस- प्रश्वांस। यानी मनुष्य समझने लगता है कि अन्न और शरीर ही सब कुछ नहीं है। हमारा शरीर अन्न से ही नहीं जीवित है। श्वांस और इसके साथ महाप्राण भी बहुत जरूरी है। यानी कास्मिक इनर्जी भी बहुत जरूरी है। यहीं से चिंतन शुरू होता है- मनुष्य क्या है। जन्म से पहले कहां था? मरने के बाद कहां जाएगा? फिर है- मनोमय कोष। यानी माइंड। संकल्प- विकल्प इत्यादि। चिंतन भी आगे बढ़ता है। इस सृष्टि को इतने व्यवस्थित ढंग से कौन चला रहा है? ये चांद, सितारे आपस में क्यों नहीं टकराते। दिन और रात क्रम से आते जाते हैं। यह सब कैसे होता है? इसके बाद आता है विग्यानमय कोष। मनुष्य का चिंतन और गहराता है। साधकों को ईश्वर की अनुभूति होती है। ईश्वरीय धारणाएं पुष्ट होती हैं। अंतिम है आनंदमय कोष। ईश्वर की प्राप्ति के बाद आनंद ही आनंद। सर्वं खल्विदं ब्रह्म। सबकुछ ईश्वर का अंश है- यह भाव। लेकिन हर आदमी के भीतर यह विकास क्रम नहीं घटित होता। कई लोग शरीर से ऊपर नहीं उठ पाते। वे ऐसा मानते हैं कि शरीर की तृप्ति ही सब कुछ है। ऐसे में उनका चिंतन शरीर के इर्द- गिर्द ही घूमता है और शरीर पर ही खत्म होता है। लेकिन जो सूक्ष्म तत्व का अनुभव करता है वह समझता है कि नहीं मैं शरीर (या इंद्रियां) नहीं, मन नहीं , बुद्धि नहीं। मैं हूं शुद्ध सच्चिदानंद। ईश्वर का अंश। तुलसीदास ने लिखा ही है- ईश्वर अंस जीव अविनासी।

2 comments:

BHAWNA said...

AAPKA LEKH BAHUT GYAN VARDHAK LAGA , AAJ KAL MUJHE BHI YE PRASHN PARESHAAN KARTE HAI KI INSAAN PAIDA HONE SE PAHLE KAHAN THA AUR MARNE KE BAAD KAHAN JAAYEGA !

Udan Tashtari said...

आभार इस आलेख का.